श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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कहु कबीर खोजउ असमान ॥ राम समान न देखउ आन ॥२॥३४॥

नोट: शब्द ‘दोपदे’ के नीचे लिख अंक‘2’ का भाव ये है कि दो पदों वाले ‘दो’ (2) शब्द आगे दर्ज हैं नं: 34 और 35।

पद्अर्थ: खोजउ = मैं खोजता हूँ, मैं तलाश चुका हूँ। असमान = आकाश तक। आन = कोई और, प्रभु के बिना कोई दूसरा। न देखउ = मैं नहीं देखता, मुझे कोई नहीं मिला।2।

अर्थ: हे कबीर! कह: मैं आकाश तक (भाव, सारी दुनिया) तलाश कर चुका हूँ (पर प्रभु के बिना) मुझे कोई और नहीं मिला (जो माया के मोह से बचा के असल जीवन दे सके)।2।34।

शब्द का भाव: प्रभु का एक नाम ही ऐसा है जो माया के मोह से बचा के सही जीवन-राह सकता है। ना कोई और व्यक्ति और ना ही (जोग आदि) कोई और साधन इस बात के समर्थ हैं।34।

गउड़ी कबीर जी ॥ जिह सिरि रचि रचि बाधत पाग ॥ सो सिरु चुंच सवारहि काग ॥१॥

पद्अर्थ: जिह सिरि = जिस सिर पर। रचि रचि = संवार संवार के। बाधत = बाँधता है। सो सिरु = उस सिर को। चुंच = चोंच।1।

अर्थ: जिस सिर पर (मनुष्य) संवार-संवार के पगड़ी बाँधता है, (मौत आने पे) उस सिर को कौए अपनी चोंच से संवारते हैं।1।

इसु तन धन को किआ गरबईआ ॥ राम नामु काहे न द्रिड़्हीआ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: को = का। किआ = क्या? गरबईआ = गरब, माण, अहंकार। काहे = क्यूँ? द्रिड़ीआ = दृढ़ करता है, जपता।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई!) इस शरीर का और इस धन का क्या मान करता है? प्रभु का नाम क्यूँ नहीं स्मरण करता?।1। रहाउ।

कहत कबीर सुनहु मन मेरे ॥ इही हवाल होहिगे तेरे ॥२॥३५॥ गउड़ी गुआरेरी के पदे पैतीस ॥

अर्थ: कबीर कहता है: हे मेरे मन! सुन, (मौत आने पे) तेरे साथ भी ऐसा ही होगा।2।35।

शब्द का भाव: इस धन का ओर इस शरीर का गुमान करना बेसमझी है, कोई भी इस जीव के साथ नहीं निभता। प्रभु का नाम ही सच्चा साथी है।35।

नोट: इस सारे संग्रह में मुख़्तलिफ़ बंदों वाले 35 शब्द है; जिनका वेरवा इस प्रकार है;

चार बंदों वाले शब्द 14-------------------1 से 14 तक
पाँच बंदों वाले शब्द 2 -------------------15 से 16 तक,
तीन बंदों वाले चार-तुकिए शब्द 2 -----17 से 18,
तीन बंदों वाले शब्द 15 -----------------19 से 33,
दो बंदों वाले शब्द 2 ---------------------34 से 35।
कुल जोड़-----------------------------------35


रागु गउड़ी गुआरेरी असटपदी कबीर जी की
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

सुखु मांगत दुखु आगै आवै ॥ सो सुखु हमहु न मांगिआ भावै ॥१॥

पद्अर्थ: असटपदी = (असट = आठ, पद = बंद, stanza) आठ बंदों वाले शब्द। हमहु = हमें। न भावै = अच्छा नहीं लगता। मांगिआ न भावै = मांगना अच्छा नहीं लगता, मांगने की जरूरत नहीं।1।

अर्थ: मुझे उस सुख को मांगने की जरूरत नहीं, जिस सुख के मांगने से दुख मिलता है।1।

बिखिआ अजहु सुरति सुख आसा ॥ कैसे होई है राजा राम निवासा ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: बिखिआ = माया। सुरति = धिआन। होई है = होएगा, हो सकता है। राजा = ज्योति स्वरूप।1। रहाउ।

अर्थ: अभी भी हमारी तवज्जो माया में लगी हुई है और (इस माया से ही) सुखों की आस लगाए बैठा हूं; तो फिर ज्योति रूप निरंकार का निवास (इस तवज्जो में) कैसे हो?।1। रहाउ।

इसु सुख ते सिव ब्रहम डराना ॥ सो सुखु हमहु साचु करि जाना ॥२॥

पद्अर्थ: डरना = डर गए, कानों को हाथ लगाए। हमहु = हम (संसारी जीवों) ने।2।

अर्थ: इस (माया-) सुख से तो शिव जी और ब्रहमा (जैसे देवताओं) ने भी कानों को हाथ लगाए; (पर संसारी जीवों ने) इस सुख को सच्चा समझा है।2।

सनकादिक नारद मुनि सेखा ॥ तिन भी तन महि मनु नही पेखा ॥३॥

पद्अर्थ: स्नकादिक = सनक आदि, सनक और अन्य, ब्रहमा के चारों पुत्र (सनक, सनंदन, सनातन, सनतकुमार)। सेखा = शेषनाग। तिन भी = इन्होंने भी। पेखा = देखा।3।

अर्थ: ब्रहमा के चारों पुत्र सनक आदि, नारद मुनि और शेषनाग -इन्होंने भी (इस माया-सुख की ओर तवज्जो लगी रहने के कारण) अपने मन को अपने शरीर में नहीं देखा (भाव, इनका मन भी अंतरात्मे टिका ना रह सका)।3।

इसु मन कउ कोई खोजहु भाई ॥ तन छूटे मनु कहा समाई ॥४॥

पद्अर्थ: तन छूटे = शरीर से विछोड़ा होने पर।4।

अर्थ: हे भाई! कोई पक्ष इस मन की भी खोज करो कि शरीर से विछोड़ा होने से ये मन कहाँ जा टिकता है।4।

गुर परसादी जैदेउ नामां ॥ भगति कै प्रेमि इन ही है जानां ॥५॥

पद्अर्थ: गुर परसादी = गुरु की कृपा से। नामां = नामदेव जी। प्रेमि = प्रेम से, प्यार से। इनही = इन (जयदेव और नामदेव जी) ने। जानां है = समझा है।5।

अर्थ: सतिगुरु की कृपा से, इन जयदेव और नामदेव जी (जैसे भक्तों) ने ही भक्ति के चाव से ये बात समझी है (कि “तन छूटे मनु कहा समाई”)।5।

इसु मन कउ नही आवन जाना ॥ जिस का भरमु गइआ तिनि साचु पछाना ॥६॥

पद्अर्थ: तिनि = उस मनुष्य ने। साचु = सदा स्थिर रहने वाला प्रभु।6।

अर्थ: जिस मनुष्य की (सुखों के वास्ते) भटकना दूर हो गई है, उसने प्रभु को पहिचान लिया है (प्रभु के साथ सांझ पा ली है); उस मनुष्य की इस आत्मा को जनम-मरण के चक्कर में नहीं पड़ना पड़ता।6।

इसु मन कउ रूपु न रेखिआ काई ॥ हुकमे होइआ हुकमु बूझि समाई ॥७॥

पद्अर्थ: रूप = शकल। रेखिआ = निशान, लकीर। न काई = कोई नहीं।7।

अर्थ: (असल में) इस जीव का (प्रभु से अलग) कोई रूप अथवा चिन्ह नहीं है। प्रभु के हुक्म में ही यह (अलग स्वरूप वाला) बना है और प्रभु की रजा को समझ के उस में लीन हो जाता है।7।

इस मन का कोई जानै भेउ ॥ इह मनि लीण भए सुखदेउ ॥८॥

पद्अर्थ: कोई = अगर कोई, जो मनुष्य। भेउ = भेद। इह मनि = इस मन में। लीण = समाइआ हुआ। सुखदेउ = सुख स्वरूप प्रभु।8।

अर्थ: जो मनुष्य इस मन का भेद जान लेता है, वह इस मन के द्वारा ही (अंतरात्मे) लीन हो के सुखदेव प्रभु का रूप हो जाता है।8।

जीउ एकु अरु सगल सरीरा ॥ इसु मन कउ रवि रहे कबीरा ॥९॥१॥३६॥

पद्अर्थ: जीउ एकु = एक आत्मा, एक ईश्वरीय ज्योति। सगल = सारे। रवि रहे = रमे रहे, स्मरण कर रहा है।9।

अर्थ: कबीर उस (सर्व-व्यापक) मन (भाव, परमात्मा) का स्मरण कर रहा है जो खुद एक है और सारे शरीरों में मौजूद है।9।1।36।

शब्द का भाव: जब तक मायावी सुखों की लालसा मन में टिकी रहती है, तब तक परमात्मा के साथ मिलाप नहीं होता।

गउड़ी गुआरेरी ॥ अहिनिसि एक नाम जो जागे ॥ केतक सिध भए लिव लागे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: अहि = दिन। निसि = रात। जो जागे = जो मनुष्य जाग पड़ते हैं (भाव, माया की नींद में से उठ खड़े होते हैं)। केतक = कई मनुष्य। सिध = पहुँचे हुए, जिनकी मेहनत सफल हो गई है। लिव लागे = ध्यान लगा के, तवज्जो/ध्यान जोड़ के।1। रहाउ।

अर्थ: बहुत सारे वह मनुष्य (जीवन सफर की दौड़ में) जीते हुए हैं जो दिन रात केवल प्रभु के नाम में सुचेत रहे हैं, जिन्होंने (नाम में ही) तवज्जो जोड़ के रखी है।1। रहाउ।

साधक सिध सगल मुनि हारे ॥ एक नाम कलिप तर तारे ॥१॥

पद्अर्थ: साधक = साधन करने वाले। सगल = सारे। हारे = थक गए हैं। कलिप तर = कल्प वृक्ष, (पुरातन हिंदू पुस्तकों में ये माना गया है कि स्वर्ग में पाँच वृक्ष हैं, जिनमें से एक कल्प-वृक्ष है, इसके नीचे जा के जो कामना करें पूरी करवा देता है)। तारे = तैरा लेता है, बेड़ा पार कर देता है।1।

अर्थ: (योग-) साधना करने वाले, (योग साधनों में) सिद्ध हुए जोगी और सारे मुनि लोक (संसार समुंदर से तैरने के और ही तरीके ढूँढ-ढूँढ के) थक गए हैं; केवल प्रभु का नाम ही कल्प-वृक्ष है जो (जीवों का) बेड़ा पार करता है।1।

जो हरि हरे सु होहि न आना ॥ कहि कबीर राम नाम पछाना ॥२॥३७॥

पद्अर्थ: हरि हरे = हरि हरि ही, प्रभु प्रभु ही (जपते हैं)। होहि न = नहीं होते। आना = (प्रभु से) अलग। पहचाना = पहचान लिया है।2।

अर्थ: कबीर कहता है: जो मनुष्य प्रभु का स्मरण करते हैं, वह प्रभु से अलग नहीं रह जाते, उन्होंने प्रभु के नाम को पहचान लिया है (नाम से गहरी सांझ डाल ली है)।2।37।

शब्द का भाव: परमात्मा का नाम जपने वाले बंदे परमात्मा के साथ एक-रूप हो जाते हैं। प्रभु का नाम ही मनुष्य को वासना से बचाता है, और कोई साधन नहीं है।37।

गउड़ी भी सोरठि भी ॥ रे जीअ निलज लाज तुोहि नाही ॥ हरि तजि कत काहू के जांही ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: निलज = बेशर्म। तुोहि = तुझे। तजि = छोड़ के। कत = कहाँ? काहू को = किस के पास?।1। रहाउ।

अर्थ: हे बेशर्म मन! तुझे शर्म नहीं आती? प्रभु को छोड़ के कहाँ और किसके पास तू जाता है? (भाव, क्यूँ और आसरे तू देखता है?)।1। रहाउ।

जा को ठाकुरु ऊचा होई ॥ सो जनु पर घर जात न सोही ॥१॥

पद्अर्थ: जा को = जिस का। पर घर = पराए घरों में। जात = जाता। न सोही = नहीं शोभता।1।

अर्थ: जिस मनुष्य का मालिक बड़ा हो, वह पराए घर जाता अच्छा नहीं लगता।1।

सो साहिबु रहिआ भरपूरि ॥ सदा संगि नाही हरि दूरि ॥२॥

पद्अर्थ: भरपूरि = सब जगह मौजूद, व्यापक।2।

अर्थ: (हे मन!) वह मालिक प्रभु सब जगह मौजूद है, सदा (तेरे) साथ है, (तुझसे) दूर नहीं है।2।

कवला चरन सरन है जा के ॥ कहु जन का नाही घर ता के ॥३॥

पद्अर्थ: कवला = लक्ष्मी, माया। जा के = जिस (प्रभु) के। कहु = बताओ, कह। जन = हे मनुष्य! का नाही = कौन सी चीज नहीं? ता के = उस (प्रभु) के।3।

अर्थ: लक्ष्मी (भी) जिसके चरणों का आसरा लिए बैठी है, हे भाई! बताओ, उस प्रभु के घर किस चीज की कमी है?।3।

सभु कोऊ कहै जासु की बाता ॥ सो सम्रथु निज पति है दाता ॥४॥

पद्अर्थ: सभु कोऊ = हरेक जीव। जासु की = जिस (प्रभु) की। संम्रथु = सामर्थ्य वाला, सत्ता वाला। निज पति = हमारा पति। दाता = देने वाला।4।

अर्थ: जिस प्रभु की (महानता की) बातें हरेक जीव कर रहा है, वह प्रभु सब ताकतों का मालिक है, वह हमारा (सबका) पति है और सब पदार्थ देने वाला है।4।

कहै कबीरु पूरन जग सोई ॥ जा के हिरदै अवरु न होई ॥५॥३८॥

नोट: ये शब्द गउड़ी रागिनी में भी गाना है और सोरठि रागिनी में भी।

पद्अर्थ: पूरन = भरा हुआ, सब गुणों वाला, जिसमें कोई कमी ना हो। सोई = वही मनुष्य। जा कै हिरदै = जिस मनुष्य के हृदय में। अवरु = (प्रभु के बिना) कोई और।5।

नोट: पहली ही तुक में शब्द ‘तुोहि’ में अक्षर ‘त’ के साथ दो मात्राएं लगी हैं: ‘ु’ और ‘ो’। शब्द की असल मात्रा है ‘ो’ है, पर यहाँ ‘ु’ को पढ़ना है, भाव शब्द ‘तोहि’ को ‘तुहि’ पढ़ना है।

अर्थ: कबीर कहता है: संसार में केवल वही मनुष्य गुणवान है जिसके हृदय में (प्रभु के बिना) कोई और (दाता जचता) नहीं।5।38।

शब्द का भाव: प्रभु सब जीवों को पालने वाला है, हरेक के अंग-संग है, उसके घर में कोई कमी नहीं। उसे बिसार के कोई और आसरा देखना बड़ी हीनता वाली बात है।38।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh