श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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किरत की बांधी सभ फिरै देखहु बीचारी ॥ एस नो किआ आखीऐ किआ करे विचारी ॥४॥

पद्अर्थ: किरत = किए हुए (काम)। किरत की बाँधी = पिछले किए हुए कर्मों के संस्कारों की बंधी हुई। सभ = सारी सृष्टि। बीचारी = विचार के। एस नो = इस जीव को। विचारी = बेचारी जीव-स्त्री।4।

अर्थ: (पर, हे भाई!) अगर विचार के देखो, तो इस जीव-स्त्री का क्या दोश? ये बिचारी क्या कर सकती है? (यहां तो) सारी दुनिया पिछले किए कर्मों के संस्कारों में बंधी हुई भटक रही है।4।

भई निरासी उठि चली चित बंधि न धीरा ॥ हरि की चरणी लागि रहु भजु सरणि कबीरा ॥५॥६॥५०॥

पद्अर्थ: निरासी = आशाएं पूरी होने के बिना ही। न बंधि = ना बंधे, नहीं बंधती। धीरा = धैर्य, टिकाव। भजु = पड़।5।

अर्थ: आशाएं सिरे नहीं चढ़ रहीं (नहीं पूरी हो रहीं), मन धीरज नहीं धरता और (जीव-स्त्री यहाँ से) उठ चलती है। हे कबीर! (इस निराशता से बचने के लिए) तू प्रभु के चरणों में लगा रह, प्रभु का आसरा लिए रख।5।6।50।

शब्द का भाव: आश्चर्यजनक खेल बनी हुई है। जो भी जीव यहाँ आता है, मालिक प्रभु से गाफिल हो के (टूट के) दुनियां के भोगों में उलझ जाता है। पर फिर भी मौजों की मिथी हुई उम्मीदें पूरी नहीं होती। उम्र खत्म हो जाती है और निराशता में ही चलना पड़ता है। जिस जीव पर प्रभु मेहर करता है वह गुरु के बताए हुए राह पर चल के प्रभु की याद में जुड़ता है।50।

गउड़ी ॥ जोगी कहहि जोगु भल मीठा अवरु न दूजा भाई ॥ रुंडित मुंडित एकै सबदी एइ कहहि सिधि पाई ॥१॥

पद्अर्थ: कहहि = कहते हैं। भल = अच्छा। अवरु = कोई और साधन। भाई = हे भाई! रुंड = सिर से बिना निरा धड़। रुंडित सुंडित = रोड़ मोड किए हुए सिरों वाले, सरेवड़े और सन्यासी। एक सबदी = अलख अलख कहने वाले अवधूत, गुसांई दत्त मत के लोग, जो कमर से ऊन के गोले बाँध के रखते हैं और हाथों में चिप्पियां रखते हैं। एइ = ये सारे। सिधि = सफलता।1।

अर्थ: जोगी कहते हैं: हे भाई! जोग (का मार्ग ही) बढ़िया और मीठा है, (इस जैसा) और कोई (साधन) नहीं है। सरेवड़े सन्यासी अवधूत, ये सारे कहते हें- हमने ही सिद्धि पाई है।1।

हरि बिनु भरमि भुलाने अंधा ॥ जा पहि जाउ आपु छुटकावनि ते बाधे बहु फंधा ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: भरमि = भर्म में, भुलेखे में। जा पहि = जिस के पास। जाउ = मैं जाता हूँ। आपु = स्वै भाव, अहंकार। छुटकावनि = दूर कराने के लिए। ते = वह सारे। फंधा = फंदों में।1। रहाउ।

अर्थ: अंधे लोग परमातमा को बिसार के (प्रभु का स्मरण छोड़ के) भुलेखे में पड़े हुए हैं; (यही कारण है कि) मैं जिस-जिस के पास अहंकार से छुटकारा कराने जाता हूँ, वह सारे खुद ही अहंकार कई रस्सियों में बंधे पड़े हैं।1। रहाउ।

जह ते उपजी तही समानी इह बिधि बिसरी तब ही ॥ पंडित गुणी सूर हम दाते एहि कहहि बड हम ही ॥२॥

पद्अर्थ: जह ते = जिस जगह से, जिस कारण से। उपजी = पैदा हुई है, ये अहंकार वाली हालत पैदा हुई है। तही = उसी में, उसी कारण में (जिसने अहं पैदा की)।

(नोट: इस ‘उपजे’ अहंकार का कारण ‘रहाउ’ की पंक्ति में दिया गया है, वह है ‘हरि बिनु’ भाव, प्रभु से विछोड़ा)।

समानी = समाई हुई है, सारी लुकाई टिकी हुई है। इह बिधि = इस कारण। तब ही = तभी। बिसरी = भूली हुई है, दुनिया भुलेखे में पड़ी हुई है। सूर = सूरमे। दाते = दान करने वाले। एहि = यह सारे।2।

अर्थ: जिस (प्रभु-वियोग) से ये अहंकार उपजता है उस (प्रभु-वियोग) में ही (सारी लुकाई) टिकी हुई है (भाव, प्रभु की याद भुलाने से मनुष्य के अंदर अहंकार पैदा होता है और सारी दुनिया प्रभु को ही भुलाए बैठी है), इसी कारण, तभी तो दुनिया भुलेखे में है (भाव, हरेक वेष वाला अपने ही बाहरी चिन्ह आदि को जीवन का सही रास्ता कह रहा है)। पंडित, गुणी, सूरमे, दाते; ये सारे (नाम से विछुड़ के) यही कहते हैं कि हम सबसे बड़े हैं।2।

जिसहि बुझाए सोई बूझै बिनु बूझे किउ रहीऐ ॥ सतिगुरु मिलै अंधेरा चूकै इन बिधि माणकु लहीऐ ॥३॥

पद्अर्थ: जिसहि = जिसे। सोई = वही मनुष्य। किउ रहीऐ = रहा नहीं जा सकता, जीना व्यर्थ है। चूकै = समाप्त हो जाता है। माणकु = नाम-रूपी लाल। लहीऐ = मिलता है।3।

अर्थ: जिस मनुष्य को प्रभु स्वयं मति देता है वही (असली बात) समझता है और (उस असली बात को) समझे बिना जीवन ही व्यर्थ है। (वह अस्लियत ये है कि जब मनुष्य को) सतिगुरु मिलता है (तो इसके मन में से अहंकार का) अंधेरा दूर हो जाता है और इस तरह (इसे अंदर से ही नाम-रूपी) लाल मिल जाता है।3।

तजि बावे दाहने बिकारा हरि पदु द्रिड़ु करि रहीऐ ॥ कहु कबीर गूंगै गुड़ु खाइआ पूछे ते किआ कहीऐ ॥४॥७॥५१॥

पद्अर्थ: तजि = त्याग के, छोड़ के। बावे दाहने बिकारा = बाँए-दाएं के विकार। हरि पदु = प्रभु (के चरणों में जुड़े रहने) का दर्जा। द्रिढ़ु = दृढ़, पक्का। कहु = कहो। किआ कहीऐ = कहा नहीं जा सकता, क्या कहें, बयान नहीं हो सकता।4।

अर्थ: सो, हे कबीर! कह: दाएं-बाएं के (इधर-उधर के) विकारों के विचार छोड़ के प्रभु की याद का (सामने वाला) निशाना पक्का करके रखना चाहिए। (और जैसे) गूँगे मनुष्य ने गुड़ खाया हो (तो) पूछने पर (उसका स्वाद) नहीं बता सकता (वैसे ही प्रभु के चरणों में जुड़ने का आनंद बयान नहीं किया जा सकता)।4।7।51।

शब्द का भाव: कोई जोगी हो, सरेवड़ा हो, सन्यासी हो, पंडित हो, सूरमा हो, दानी हो- कोई भी हो, जो मनुष्य प्रभु की बंदगी नहीं करता उसका अहंकार दूर नहीं होता, और अहम् दूर हुए बिना वह अभी बीच में ही भटक रहा है। सही जीवन के लिए रौशनी करने वाला प्रभु का नाम ही है और ये नाम सतिगुरु से मिलता है।51।


रागु गउड़ी पूरबी कबीर जी ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

जह कछु अहा तहा किछु नाही पंच ततु तह नाही ॥ इड़ा पिंगुला सुखमन बंदे ए अवगन कत जाही ॥१॥

पद्अर्थ: जह = जहाँ, जिस मन में। कछु = कुछ। अहा = थी। पंच ततु = पाँचों तत्वों से बने हुए शरीर (का मोह), देह अध्यास। इड़ा = दाहिनी नासिका, दाई सुर। पिंगला = बांई सुर। सुखमन = ईड़ा और पिंगुला के बीच (भौहों के बीच) नाड़ी की जगह जहाँ जोगी प्राणयाम के समय प्राण टिकाते हैं। बंदे = हे बंदे! हे भाई!

नोट: कई सज्जन इसका अर्थ करते हैं: “बंद करता था”। ये ठीक नहीं है; इस हालत में शब्द होना चाहिए था ‘बंधे’।

अवगन = अवगुण। कत जाही = कहाँ चले जाते हैं? (भाव, दूर हो जाते हैं)।1।

अर्थ: (हे कबीर! मेरी लगन प्रभु-चरणों में लग रही है) जिस (मेरे) मन में (पहले) ममता थी, अब (लगन की इनायत से) उस में से ममता समाप्त हो गई है, अपने शरीर का मोह भी नहीं रह गया। हे भाई! ईड़ा-पिंगला-सुखमना वाले (प्राण चढ़ाने और रोकने आदि के) तुच्छ कर्म तो पता ही नहीं कहां चले जाते हैं (भाव, जिस मनुष्य की तवज्जो प्रभु-चरणों में जुड़ गई है, उसे प्राणयाम आदि साधन तो लगते ही बेमतलब के तुच्छ कार्य हैं)।1।

तागा तूटा गगनु बिनसि गइआ तेरा बोलतु कहा समाई ॥ एह संसा मो कउ अनदिनु बिआपै मो कउ को न कहै समझाई ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: तागा = धागा, मोह की तार। गगनु = आकाश, पसारा, मोह का पसारा। तेरा बोलतु = ‘तेरा’ बोलने वाला (भाव, ‘मेर-तेर’ कहने वाला मन, भेदभाव करने का स्वभाव)। कहा समाई = कहाँ जा के लीन होता है? (भाव, पता नहीं कहाँ जाता है, नाश ही हो जाता है, उसका पता ठिकाना नहीं रहता कि कहां चला गया, नामो-निशान मिट जाता है)। संसा = शक, हैरानी। अनदिनु = हर रोज।1। रहाउ।

अर्थ: (प्रभु-चरणों में लगन से मेरा मोह का) धागा टूट गया है, मेरे अंदर से मोह का पसारा समाप्त हो गया है, भेदभाव करने वाले स्वभाव का नामो-निशान ही मिट गया है। (इस तबदीली की) हैरानी मुझे हर रोज होती है (कि ये कैसे हो गया, पर) कोई मनुष्य ये समझा नहीं सकता (क्योंकि, ये अवस्था समझाई नहीं जा सकती, अनुभव ही की जा सकती है)।1। रहाउ।

जह बरभंडु पिंडु तह नाही रचनहारु तह नाही ॥ जोड़नहारो सदा अतीता इह कहीऐ किसु माही ॥२॥

पद्अर्थ: जह = जहां, जिस मन में। बरवंडु = सारा जगत, दुनिया का मोह। पिंडु = (अपना) शरीर, अपने शरीर का मोह, देह अध्यास। तह = उस मन में। रचनहारु = बनाने वाला, मोह का ताना-बाना बुनने वाला, मोह का जाल बनाने नाला मन। अतीता = माया के मोह से निर्लिप। किसु माही = किसे?।2।

अर्थ: जिस मन में (पहले) सारी दुनिया (के धन का मोह) था, (लगन की इनायत से) उस में अब अपने शरीर का भी मोह ना रहा, मोह के ताने बुनने वाला वह मन ही नही रहा। अब तो माया के मोह से निर्लिप जोड़ने वाला प्रभु खुद ही (मन में) बस रहा है। पर, यह अवस्था किसी के पास बयान नहीं की जा सकती।2।

जोड़ी जुड़ै न तोड़ी तूटै जब लगु होइ बिनासी ॥ का को ठाकुरु का को सेवकु को काहू कै जासी ॥३॥

पद्अर्थ: जब लगु = जब तक। बिनासी = नाशवान शरीर के साथ एक रूप, शरीर के साथ प्यार करने वाला, देह अध्यासी। काहू कै = किस के पास? किसके घर? कौ = कौन?।3।

अर्थ: जब तक (मनुष्य का मन) नाशवान (शरीर के साथ एक-रूप) रहता है, तब तक इसकी प्रीति ना (प्रभु से) जोड़े जुड़ सकती है, ना ही (माया से) तोड़े टूट सकती है। (इस अवस्था में ग्रसे हुए) मन का ना ही प्रभु (सही मायने में) पति है (मालिक है), ना ये मन प्रभु का सेवक बन सकता है। फिर किस ने किस के पास जाना है? (भाव, यह देह अध्यासी मन शरीर के मोह में से ऊूंचा उठ के प्रभु के चरणों में जाता ही नहीं)।3।

कहु कबीर लिव लागि रही है जहा बसे दिन राती ॥ उआ का मरमु ओही परु जानै ओहु तउ सदा अबिनासी ॥४॥१॥५२॥

पद्अर्थ: जहा = और वहां, उस प्रभु में। उआ का = उस (प्रभु) का। मरमु = भेद, अंत। ओही = वह (प्रभु) स्वयं ही।4।

नोट: इस शब्द को ठीक तरह समझने की कूँजी शब्द के चौथे बंद की पहली पंक्ति में है “कहु कबीर, लिव लागि रही है”।

अर्थ: हे कबीर! कह: मेरी तवज्जो (प्रभु के चरणों में) लगी रहती है और दिन रात वहीं ही टिकी रहती है (पर इस तरह मैं उसका भेद नहीं पा सकता)। उसका भेद वह खुद ही जानता है, और वह है सदा कायम रहने वाला।4।1।52।

नोट: इस शब्द में कहीं भी कोई ऐसा इशारा नहीं मिलता, जिससे ये अंदाजा लगाने की आवश्यक्ता पड़े कि किसी योगाभ्यासी जोगी के मरने पर ये शब्द उचारा गया है। भला, जोगी के मरने पे कबीर जी को हर रोज क्यूँ ये ‘संशय’ व्यापनी थी कि जोगी की ‘बोलती’ आत्मा कहां चली गई? ना ही इसमें प्राणयाम और योगाभ्यास के बारे में कोई प्रश्नोत्तर दिखते हैं। कबीर जी सिर्फ भक्त ही नहीं थे, वे एक महान ऊूंची उड़ान वाले कवि भी थे। उनकी वाणी की गहराई को समझने की कोशिश करें। कहानियां जोड़ जोड़ के आसान रास्ते तलाशने के यत्न ना करते रहें।

शब्द का भाव: जिस मनुष्य की लिव प्रभु-चरणों में लगती है, उसके अंदर से जगत का और अपने शरीर का मोह मिट जाता है। एक ऐसी आश्चर्यजनक खेल बनती है कि उसके मन में भेदभाव का नामो-निशान नहीं रह जाता। इस आनंद के सामने उसे प्राणयाम आदि साधन होछे से दिखाई देते हैं।52।

गउड़ी ॥ सुरति सिम्रिति दुइ कंनी मुंदा परमिति बाहरि खिंथा ॥ सुंन गुफा महि आसणु बैसणु कलप बिबरजित पंथा ॥१॥

पद्अर्थ: सुरति = सुनना, (प्रभु में) ध्यान जोड़ना। सिम्रिति = स्मृति, याद करना, स्मरणा। परमिति = (संस्कृत: प्रमिति = accurate notion or conception) सही जानकारी, यर्थाथ ज्ञान। खिंथा = गोदड़ी। सुंन = शून्य, वह हालत जहां माया का कोई फुरना ना उठे। कलप = कल्पना। बिबरजित = विवर्जित, मना किया हुआ, रहित। पंथ = धार्मिक रास्ता।1।

अर्थ: प्रभु के चरणों में तवज्जो जोड़नी और प्रभु का नाम स्मरणा- ये मानो, मैंने दोनों कानों में मुंद्रें (कुण्डल) पहनी हुई हैं। प्रभु का सच्चा ज्ञान- ये मैंने अपने पर गोदड़ी ली हुई है। शून्य अवस्था रूपी गुफ़ा में मैं आसन लगाए बैठा हूँ (भाव, मेरा मन ही मेरी गुफा है; जहाँ मैं दुनियावी धंधों वाले कोई फुरने नहीं उठने देता और इस तरह अपने अंदर, जैसे, एक एकांत में ही बैठा हूँ)। दुनिया की कल्पनाएं त्याग देनी- यही है मेरा (जोग-) पंथ।1।

मेरे राजन मै बैरागी जोगी ॥ मरत न सोग बिओगी ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: बैरागी = वैरागवान, लगन वाला। मरत = मौत। सोग = शोक। बिओगी = वियोग, विछोड़ा।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे पातशाह (प्रभु!) मैं (तेरी याद की) लगन वाला जोगी हूँ, (इस वास्ते) मौत (का डर) चिन्ता और बिछोड़ा मुझे नहीं सताते।1। रहाउ।

खंड ब्रहमंड महि सिंङी मेरा बटूआ सभु जगु भसमाधारी ॥ ताड़ी लागी त्रिपलु पलटीऐ छूटै होइ पसारी ॥२॥

पद्अर्थ: ब्रहमंड = सारा जगत। सिंङी = (उच्चारण: सिंगीं) (संस्कृत: श्रृंग = a horn used for blowing) श्रृंग जो जोगी बजाते हैं। बटूआ = भस्म रखने वाला जोगी का थैला। भसम = राख। भसमाधारी = भस्म आधारी, राख डालने वाला। पसारी = गृहस्थी। छूटै = मुक्त हूँ।2।

अर्थ: सारे खण्डों-ब्रहमण्डों में (प्रभु की व्यापक्ता का सब को संदेशा देना) - मानो, ये मैं श्रृंगी बजा रहा हूँ। सारे जगत को नाशवान समझना- ये है मेरा भस्म वाला थैला। त्रिगुणी माया के प्रभाव के प्रभाव को मैंने पलटा दिया है; यह मानो, मैंने ताड़ी लगाई हुई है। इस तरह मैं गृहस्थी होता हुआ भी मुक्त हूँ।2।

मनु पवनु दुइ तू्मबा करी है जुग जुग सारद साजी ॥ थिरु भई तंती तूटसि नाही अनहद किंगुरी बाजी ॥३॥

पद्अर्थ: पवनु = हवा, श्वास। तूंबा = एक किस्म का सूखा हुआ कद्दू, जो सितार, वीणा आदि तंती साजों में इस्तेमाल किया जाता है। वीणा की डंडी के दोनों तरफ दो तूंबे बंधे होते हैं, जिसके कारण तंती की सुर सुरीली बन जाती है। सारद = वीणा की डण्डी। साजी = बनाई। जुग जुग = जुगों-जुगों में स्थिर रही। अनहद = एक रस। थिरु = स्थिर।3।

अर्थ: (मेरे अंदर) एक-रस किंगुरी (वीणा) बज रही है। मेरा मन और साँसें (उस किंगुरी के) दोनों तूंबे हैं। सदा स्थिर रहने वाला प्रभु (मन और श्वास, दोनों तूंबों को जोड़ने वाली) मैंने डण्डी बनाई है। तवज्जो की तार (उस किंगुरी की बजने वाली तंती) मजबूत हो गई है, कभी टूटती नहीं।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh