श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सुनि मन मगन भए है पूरे माइआ डोल न लागी ॥ कहु कबीर ता कउ पुनरपि जनमु नही खेलि गइओ बैरागी ॥४॥२॥५३॥

पद्अर्थ: सुनि = सुन के। पूरे = अच्छी तरह। डोल = लहर, हुलारे। न लागी = नहीं लगती। पुनरपि = (पुनह+अपि) फिर भी, फिर कभी। खेलि गइओ = एसी खेल खेल जाता है।4।

अर्थ: (इस अंदरूनी किंगुरी के राग को) सुन के मेरा मन इस प्रकार पूर्ण तौर पर मस्त हो गया है कि इसे माया का धक्का नहीं लग सकता। हे कबीर! कह: जो लगन वाला जोगी ऐसी खेल खेल के जाता है उसे फिर कभी जनम (मरण) नहीं होता।4।2।53।

शब्द का भाव: असली जोगी वह है जो गृहस्थ में रहता हुआ भी प्रभु की याद में तवज्जो जोड़ता है, अपने मन में विकारों के फुरने और कल्पनाएं नहीं उठने देता, जगत को नाशवान जान के इसके मोह में नहीं फंसता, दुनिया के काम काज करता हुआ भी श्वास-श्वास स्मरण करता है और याद की इस तार को कभी टूटने नहीं देता। ऐसे जोगी को माया कभी भरमा नहीं सकती।53।

गउड़ी ॥ गज नव गज दस गज इकीस पुरीआ एक तनाई ॥ साठ सूत नव खंड बहतरि पाटु लगो अधिकाई ॥१॥

पद्अर्थ: गज नव = नौ गज, नौ गोलकें। गज दस = दस इंद्रियां। गज इकीस = इक्कीस गज (पाँच सूक्ष्म तत्व, पाँच स्थूल तत्व, दस प्राण और एक मन = 21)। पुरीआ तनाई = पूरी (40 गज की) ताणी, ताना। साठ सूत = साठ नाड़ियां लंबी तरफ का ताना। नवखंड = नौ टुकड़े, नौ जोड़ ताने के (4 जोड़ बाहों के, 4 जोड़ लातों के और एक धड़ = 9)। बहतरि = बहत्तर छोटी नाड़ियां। पाटु = पेटा। लगो अधिकाई = ज्यादा लगा है।1।

अर्थ: (जब जीव जनम लेता है तो, मानो) पूरी एक ताणी (40 गजों की तैयार हो जाती है) जिसमें नौ गोलकें, दस इंद्रे ओर इक्कीस गज और होते हैं (भाव, पाँच सूक्षम तत्व, पाँच स्थूल तत्व, दस प्राण और एक मन- ये 21 गज ताणी के और हैं)। साठ नाड़ियां (ये उस ताणी की लम्बी तरफ का) सूत्र होता है, (शरीर के नौ जोड़ उस ताणी के) नौ टोटे हैं और बहत्तर छोटी नाड़ियां (ये उस ताणी को) ज्यादा पेटा लगा हुआ समझो।1।

गई बुनावन माहो ॥ घर छोडिऐ जाइ जुलाहो ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: बुनावट = (ताना) बुनवाने के लिए। माहो = वासना। घरि छोडिऐ = घर छोड़ने के कारण, स्वै स्वरूप छोड़ने के कारण, प्रभु के चरण बिसारने के कारण। जाइ = चल पड़ता है, जनम में आता है। जुलाहो = जीव रूपी जुलाहा।1। रहाउ।

अर्थ: जब जीव-जुलाहा प्रभु के चरण बिसारता है, तो वासना (इस शरीर की ताणी) बुनवाने चल पड़ती है (भाव, प्रभु को बिसारने के कारण जीव वासना में बंध जाता है और ये वासना इसे शरीर में लाने का कारण बनती है)।1। रहाउ।

गजी न मिनीऐ तोलि न तुलीऐ पाचनु सेर अढाई ॥ जौ करि पाचनु बेगि न पावै झगरु करै घरहाई ॥२॥

पद्अर्थ: गजी न मिनीए = गज़ों से न मिनीऐ (नहीं नापते)। तोलि = तोल से। पाचनु = पाण (जो कपड़ा बुनने से पहले ताणी को लगाया जाता है ता कि धागे पक्के रहें और बुनने के समय ना टूटें), खुराक। जौ करि = अगर। बेगि = जल्दी, समय पर। घर हाई = घर में ही। हाई = ही।2।

अर्थ: (शरीर रूपी ये ताणी) गजों से नहीं नापी जाती, और बाँट से तोली भी नहीं जाती (वैसे इस ताणी को भी हर रोज) ढाई सेर (खुराक रूपी) पाण चाहिए। अगर इसको ये पाण समय सिर ना मिले तो घर में ही शोर डाल देती है (भाव, अगर खुराक ना मिले तो शरीर में छटपछाहट मच जाती है)।2।

दिन की बैठ खसम की बरकस इह बेला कत आई ॥ छूटे कूंडे भीगै पुरीआ चलिओ जुलाहो रीसाई ॥३॥

पद्अर्थ: दिन की बैठ = थोड़े दिनों की बैठक के लिए, कुछ समय के जीने के लिए। बरकसि = बर+अकस, अलट, आकी। खसम की बरकसि = मालिक प्रभु से आकी। इह बेला = (मानव जनम का) ये समय। कत आई = कहां से आ सकता है? दुबारा नहीं मिलता। छूटे = छूट जाते हैं, छिन जाते हैं। कूंडे = (भाव, जगत के पदार्थ) मिट्टी के बर्तन, जिनमें पानी डाल के सूत्र की नलियां कपड़ा उनने के समय भिगो के रखी जाती हैं। पुरीआ = नलियां, वासना। रीसाई = रिस के, खिझ के।3।

अर्थ: (वासना-बंधा जीव) थोड़े दिनों के जीने की खातिर पति-प्रभु से आकी हो जाता है (प्रभु की याद का समय गवा लेता है और फिर) ये समय हाथ नहीं आता। (आख़िर) ये पदार्थ छिन जाते हैं, मन की वासनाएं इन पदार्थों में फंसी ही रह जाती हैं, (इस विछोड़े के कारण) जीव-जुलाहा खिझ के यहाँ से चल पड़ता है।3।

छोछी नली तंतु नही निकसै नतर रही उरझाई ॥ छोडि पसारु ईहा रहु बपुरी कहु कबीर समझाई ॥४॥३॥५४॥

पद्अर्थ: छोछी = खाली। नली = नलकी। तंतु = तंद (भाव, श्वास)। छोछी नली = नली खाली हो जाती है (भाव, जीवात्मा शरीर को छोड़ जाती है)। तर = तुर, जिस पे उना हुआ कपड़ा लपेटा जाता है। उरझाई = उलझी हुई। न तर रही उरझाई = नाभि भी उलझी नहीं रहती, नाभि का जो श्वासों से संबंध था वह भी नहीं रहता। पसारु = पसारा, खिलारा। ईहा = यहीं। बपुरी = हे बुरी (वासना)! ईहा रहु = यहीं टिकी रह, जीव का साथ छोड़ दे, खलासी कर।4।

अर्थ: (आख़िर) नली खाली हो जाती है, तंद नहीं निकलती, तुर उलझी नहीं रहती (भाव, जीवात्मा शरीर को छोड़ देती है, श्वास चलने बंद हो जाते हैं, श्वासों का नाभि से संबंध टूट जाता है)। हे कबीर! अब तो इस वासना को समझा के कह: हे चंदरी वासना! ये जंजाल छोड़ दे, और अब तो इस जीव की खलासी कर।4।3।54।

शब्द का भाव: जब जीव प्रभु की याद बिसार देता है तो वासना में बंध जाता है। वासना का बंधा हुआ जीव जगत में आता है। यहां चाहे थोड़े ही दिनों के लिए रहना होता है, पर दुनिया के पदार्थों में फंस जाता है, और प्रभु से आक़ी ही रहता है। आखिर मौत आ जाती है, पर फिर भी वासना इसकी खलासी नहीं करती।54।

गउड़ी ॥ एक जोति एका मिली कि्मबा होइ महोइ ॥ जितु घटि नामु न ऊपजै फूटि मरै जनु सोइ ॥१॥

पद्अर्थ: किंबा होइ = क्या दुबारा वह (अलग हस्ती वाली) होती है? क्या फिर भी उसका अलग अस्तित्व रहता है? क्या उसमें स्वैभाव टिका रहता है? महोइ = नहीं होता, नहीं रहता। जितु घटि = जिस शरीर में। फूटि मरै = फूट मरता है, अहंकार के कारण दुखी होता है। जनु सोइ = वही मनुष्य।1।

अर्थ: (सतिगुरु के शब्द की इनायत से जिस मनुष्य की तवज्जो परमात्मा की) ज्योति से मिल के एक-रूप हो जाती है, उसके अंदर अहंकार बिल्कुल नहीं रहता। केवल वही मनुष्य अहंकार से दुखी होता है, जिसके अंदर परमात्मा का नाम पैदा नहीं होता।1।

सावल सुंदर रामईआ ॥ मेरा मनु लागा तोहि ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: रामईआ = हे सुंदर राम! तोहि = तेरे में, तेरे चरणों में।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे साँवले सुंदर राम! (गुरु की कृपा से) मेरा मन तो तेरे चरणों में जुड़ा हुआ है (मुझे अहंकार क्यूँ दुखी करे?)।1। रहाउ।

साधु मिलै सिधि पाईऐ कि एहु जोगु कि भोगु ॥ दुहु मिलि कारजु ऊपजै राम नाम संजोगु ॥२॥

पद्अर्थ: साधु = गुरु। सिधि = सफलता, सिद्धि। कि = क्या है? (भाव, तुच्छ है)। भोगु = (दुनिया के पदार्थों को) भोगना। दुहु मिलि = सतिगुरु का शब्द और सिख की तवज्जो, इन दोनों के मिलने से। कारजु ऊपजै = काम सफल होता है। संजोग = मिलाप।2।

अर्थ: (अहंकार के अभाव और अंदरूनी शांति-ठंड की) ये सिद्धि, सतिगुरु को मिलने से ही मिलती है। जब सतिगुरु का शब्द और सिख की तवज्जो मिलते हैं, तो परमात्मा के नाम का मिलाप-रूपी नतीजा निकलता है। (फिर इस सिद्धी के सामने जोगियों का) जोग तुच्छ है, (दुनिया के पदार्थों का) भोगना भी कोई चीज नहीं है।2।

लोगु जानै इहु गीतु है इहु तउ ब्रहम बीचार ॥ जिउ कासी उपदेसु होइ मानस मरती बार ॥३॥

पद्अर्थ: इहु = ये गुरु शब्द, सतिगुरु की वाणी। तउ = तो, बार-बारी, वक्त।3।

अर्थ: जगत समझता है कि सतिगुरु का शब्द (कोई साधारण सा) गीत ही है, पर ये तो परमात्मा के गुणों की विचार है (जो अहंकार से जीते-जी मुक्ति दिलाता है), जैसे काशी में मनुष्य को मरने के समय (शिव जी का मुक्तिदाता) उपदेश मिलता ख्याल किया जाता है (भाव, काशी वाला उपदेश तो मरने केबाद काम करता होगा, पर सतिगुरु का शब्द तो यहीं पर जीवन-मुक्त कर देता है)।3।

कोई गावै को सुणै हरि नामा चितु लाइ ॥ कहु कबीर संसा नही अंति परम गति पाइ ॥४॥१॥४॥५५॥

पद्अर्थ: चितु लाइ = मन लगा के, प्रेम से। संसा = शक। अंति = आखिर को, नतीजा ये निकलता है कि। परम = ऊँची से ऊँची। गति = आत्मिक अवस्था।4।

अर्थ: जो भी मनुष्य प्रेम से प्रभु का नाम गाता है अथवा सुनता है, हे कबीर! कह: इसमें कोई शक नहीं कि वह जरूर सबसे उच्च आत्मिक अवस्था हासिल कर लेता है।4।1।4।55।

शब्द का भाव: जो मनुष्य सतिगुरु के शब्द में मन जोड़ के प्रभु का नाम स्मरण करता है, उसके अंदर अहंकार का रोग काटा जाता है, वह जीते-जी ही मुक्त है। ये पक्की बात है कि उसकी आत्मिक अवस्था बहुत ही ऊँची हो जाती है।55।

गउड़ी ॥ जेते जतन करत ते डूबे भव सागरु नही तारिओ रे ॥ करम धरम करते बहु संजम अह्मबुधि मनु जारिओ रे ॥१॥

पद्अर्थ: जेते = जितने भी लोग। ते = वह सारे। भव सागरु = संसार समुंदर। रे = हे भाई! करम = धार्मिक रसमें। धरम = वर्ण आश्रम की अपनी अपनी रस्में करने फर्ज। संजम = धार्मिक प्रण। अहंबुधि = (अहं = मैं। बुधि = अक्ल) ‘मैं मैं’ करने वाली अक्ल, अहंकार। जारिओ = जला लिया।1।

अर्थ: हे भाई! धार्मिक रस्में, वर्ण आश्रम की अपनी-अपनी रस्म करने के फर्ज और अन्य कई किस्म के धार्मिक प्रण करने से अहंकार (मनुष्य के) मन को जला देता है। जो जो भी मनुष्य ऐसे प्रयत्न करते हैं, वह सारे (संसार समुंदर में) डूब जाते हैं। ये रस्में संसार समुंदर से पार नहीं लंघातीं (संसार के विकारों से बचा नहीं सकतीं)।1।

सास ग्रास को दातो ठाकुरु सो किउ मनहु बिसारिओ रे ॥ हीरा लालु अमोलु जनमु है कउडी बदलै हारिओ रे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सास = श्वास, जिंद। ग्रास = ग्रास, रोजी। कउडी बदले = कौड़ियों की खातिर। हारिओ = गवा दिया।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! जिंद और रोजी देने वाला एक परमात्मा ही है। तूने उसको अपने मन से क्यूँ भुला दिया? ये (मानव) जनम (मानो) हीरा है, अमोलक लाल है, पर तूने इस कौड़ियों की खातिर गवा दिया है।1। रहाउ।

त्रिसना त्रिखा भूख भ्रमि लागी हिरदै नाहि बीचारिओ रे ॥ उनमत मान हिरिओ मन माही गुर का सबदु न धारिओ रे ॥२॥

पद्अर्थ: त्रिसना = तृष्णा, प्यास, लालसा। भ्रमि = भ्रम में, भटकना के कारण। उनमत = मस्त हुआ। हिरिओ = ठगा हुआ। मान हिरिओ = अहंकार का ठगा हुआ।2।

अर्थ: हे भाई! तूने कभी अपने दिल में विचार नहीं की कि भटकन के कारण तुझे तो माया की भूख-प्यास लगी हुई है। (कर्मों धर्मों में ही) तू मस्ता और अहंकारा रहता है। गुरु का शब्द तूने कभी अपने मन में नहीं बसाया।2।

सुआद लुभत इंद्री रस प्रेरिओ मद रस लैत बिकारिओ रे ॥ करम भाग संतन संगाने कासट लोह उधारिओ रे ॥३॥

पद्अर्थ: लुभत = लोभी। रस = चस्के। मद = नशा। करम = अच्छे कर्म। करम भाग = जिनके भाग्यों में पिछले किए कर्म हैं। कासट = लकड़ी।3।

अर्थ: (प्रभु को बिसारने के कारण) तू (दुनियां के) स्वादों का लोभी बन रहा है। इन्द्रियों के चस्कों से प्रेरित हुआ तू विकारों के नशे के स्वाद लेता रहता है। जिनके माथे पर अच्छे भाग्य जागते हैं, उन्हें साधु-संगत में (ला के प्रभु विकारों से ऐसे) बचाता है जैसे लकड़ी लोहे को (समंद्र से) पार लंघाती है।3।

धावत जोनि जनम भ्रमि थाके अब दुख करि हम हारिओ रे ॥ कहि कबीर गुर मिलत महा रसु प्रेम भगति निसतारिओ रे ॥४॥१॥५॥५६॥

पद्अर्थ: धावत = दौड़ते दौड़ते। भ्रमि = भटकना में। दुख करि = दुख पा पा के। हारिओ = हार गया हूँ, थक गया हूँ। कहि = कहे, कहता है। गुर मिलत = गुरु को मिलते ही।4।

अर्थ: कबीर कहता है: जूनियों में, जन्मों में दौड़-दौड़ के, भटक-भटक मैं थक गया हूँ। दुख सह-सह के और आसरे छोड़ बैठा हूँ (और गुरु की शरण ली है) सतिगुरु को मिलते ही (प्रभु का नाम रूप) सबसे श्रेष्ठ रस पैदा होता है, और प्यार से की हुई प्रभु की भक्ति (संसार-समुंदर के विकारों की लहरों से) बचा लेती है।4।1।5।56।

शब्द का भाव: निरी धार्मिक रस्में और वर्ण आश्रम की रस्में तो बल्किअहंकार पैदा करती हैं, माया में ही फंसाती हैं। प्रभु की मेहर से जो मनुष्य सत्संग में आ के नाम स्मरण करता है, वही विकारों से बचता है।56।

गउड़ी ॥ कालबूत की हसतनी मन बउरा रे चलतु रचिओ जगदीस ॥ काम सुआइ गज बसि परे मन बउरा रे अंकसु सहिओ सीस ॥१॥

पद्अर्थ: कालबूत = ढांचा, बुत। हसतनी = हथिनी (हाथी जंगल में से पकड़ने के लिए लोग लकड़ी का हथिनी का ढांचा बना के उस पर कागज लगा के हथिनी सी बना के कहीं गढे पर खड़ी कर देते हैं। काम में मस्त हुआ हाथी आ के उस बुत को हथिनी समझ के उसकी ओर बढ़ता है, पर गढे में गिर जाता है और पकड़ा जाता है)। बउरा = कमला। चलतु = खेल तमाशा। जगदीस = जगत का मालिक प्रभु। सुआइ = स्वाद के कारण, चस्के में, वासना के कारण। बसि परे = काबू आ जाता है। अंकसु = लोहे की शलाका जो हाथी को चलाने के लिए महावत उसकी गर्दन पर मारता है। सीसि = सिर पर।1।

अर्थ: हे पागल मन! (ये जगत) परमात्मा ने (जीवों को व्यस्त रखने के लिए) एक खेल बनाई है जैसे (लोग हाथी को पकड़ने के लिए) कलबूत (बुत) की हथनी (बनाते हैं); (उस हथनी को देख के) काम-वासना के कारण हाथी पकड़ा जाता है और अपने सिर पर (सदा महावत का) अंकुश बर्दाश्त करता है, (वैसे ही) हे पागल मन! (तू भी मन-मोहनी माया में फंस के दुख सहता है)।1।

बिखै बाचु हरि राचु समझु मन बउरा रे ॥ निरभै होइ न हरि भजे मन बउरा रे गहिओ न राम जहाजु ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: बिखै = विष, विकार। बाचु = बच के रह। राचु = लीन हो। निरभै = निडर (आम तौर पर मनुष्य को रोजी का सहम लगा रहता है, लालच में फंसता है; जो रोजी पहले निरवाह के लिए कमाता है उसी को धीरे-धीरे जिंदगी का आसरा समझ बैठता है और इस तरह ये सहम बन जाता है कि कहीं ये धन-दौलत खो ना जाए, नुकसान ना हो जाए। बस! सारी उम्र इस सहम में ही गुजरती है)। गहिओ न = पकड़ा नहीं, आसरा नहीं लिया।1। रहाउ।

अर्थ: हे मूर्ख मन! समझदार बन, विषियों से बचा रह और प्रभु में जुड़ा कर। तू सहम छोड़ के क्यूँ परमात्मा को नहीं स्मरण करता और क्यूँ प्रभु का आसरा नहीं लेता?।1। रहाउ।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh