श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मरकट मुसटी अनाज की मन बउरा रे लीनी हाथु पसारि ॥ छूटन को सहसा परिआ मन बउरा रे नाचिओ घर घर बारि ॥२॥

पद्अर्थ: मरकट = बंदर। मुसटी = मुट्ठी। पसारि = खिलार के। सहसा = सहम। घर घर बारि = हरेक घर के दरवाजे पर। बारि = दरवाजे पर।2।

(नोट: लोग बंदरों को पकड़ने के लिए संकरे मुंह वाला बरतन ले के जमीन में दबा देते हैं, उसमें भुने हुए चने डाल के मुंह नंगा रखते हैं। बंदर अपना हाथ बरतन में डाल कर दानों की मुट्ठी भर लेता है। पर, भरी हुई मुट्ठी सँकरे मुंह मेंसे निकल नहीं सकती, और लोभ में फंसा हुआ बंदर दाने भी नहीं छोड़ता। इस तरह वहीं पकड़ा जाता है। ठीक यही हाल मनुष्य का होता है, धीरे-धीरे माया में मन फंसा के आखिर और-और माया की खतिर हरेक की खुशामद करता है)।

नलनी तोतों को पकड़ने वाले लोग लकड़ी का एक छोटा सा ढोल बना के दोनों तरफ से डण्डों के आसरे खड़ा कर देते हैं। बीच में तोते के लिए चोगा डाल देते हैं, और इस ढोल जैसे के नीचे पानी का भरा हुआ बरतन रखते हैं। तोता चोगे की खातिर उस चक्कर पर आ बैठता है। पर तोते के भार से चक्कर उलट जाता है, तोता नीचे की तरफ लटक पड़ता है। नीचे पानी देख के तोता सहम जाता है कि कहीं पानी में गिर के डूब ना जाऊँ। इस डर के कारण लकड़ी के यंत्र को कस के पकड़े रखता है और फस जाता है। यही हाल मनुष्य का है। पहले ये रोजी सिर्फ निर्वाह की खातिर कमाता है। धीरे-धीरे ये सहम बनता है कि अगर ये कमाई बह गयी तो क्या होगा, वृद्धावस्था के लिए अगर बचा के ना रखा तो कैसे गुजारा होगा। इस सहम में पड़ के मनुष्य माया के मोह के पिंजरे में फंस जाता है।

अर्थ: हे कमले मन! बंदर ने हाथ पसार के दानों की मुट्ठी भर ली और उसे डर पड़ गया कि कैद में से कैसे निकले। (उस लालच के कारण अब) हरेक घर के दरवाजे पर नाचता फिरता है।2।

जिउ नलनी सूअटा गहिओ मन बउरा रे माया इहु बिउहारु ॥ जैसा रंगु कसु्मभ का मन बउरा रे तिउ पसरिओ पासारु ॥३॥

पद्अर्थ: सूअटा = अंजान तोता (संस्कृत: शूक = तोता। शूकटा = छोटा सा तोता, अंजान तोता। संस्कृत के ‘शूकट’ से ‘सूअटा’ प्राकृत रूप है)। गहिओ = पकड़ा जाता है। बिउहारु = सलूक, वरतारा। कुसंभ = एक किस्म का फूल है, इससे लोग कपड़े रंगा करते थे, रंग खासा भड़कीला होता है, पर एक-दो दिनों में ही फीका पड़ जाता है।3।

अर्थ: हे झल्ले मना! जगत की माया का ऐसा ही वरतारा है (भाव, माया जीव को ऐसे ही मोह में फंसाती है) जैसे तोता नलिनी (पर बैठ के) फंस जाता है। हे कमले मन! जैसे कुसंभ कारंग (थोड़े ही दिन रहता) है, इसी तरह जगत का पसारा (चार दिन के लिए ही) खिलरा हुआ है।3।

नावन कउ तीरथ घने मन बउरा रे पूजन कउ बहु देव ॥ कहु कबीर छूटनु नही मन बउरा रे छूटनु हरि की सेव ॥४॥१॥६॥५७॥

पद्अर्थ: नावन कउ = स्नान करने के लिए। घने = बहुत सारे। पूजन कउ = पूजा करने के लिए। छूटनु = खलासी, माया के मोह और सहम से निजात। सेव = सेवा, बंदगी।4।

अर्थ: हे कबीर! कह: हे झल्ले मन! (हलांकि) स्नान करने के लिए बहुत सारे तीर्थ हैं, और पूजने के लिए बहुत सारे देवते हैं (भाव, चाहे लोग कई तीर्थों पर जा के स्नान करते हैं और कई देवताओं की पूजा करते हैं) पर (पर इस सहम से और माया के मोह से) खलासी नहीं हो सकती। निजात सिर्फ प्रभु का स्मरण करने से ही मिलनी है।4।1।6।57।

शब्द का भाव: जीव माया के मोह में फंस के अकाल-पुरख को विसार देता है, और कई किस्म के दुख सहता है। फिर इन दुखों से बचने के लिए कहीं तीर्थों के स्नान करता फिरता है, कहीं देवी-देवताओं की पूजा करता है, पर दुखों से बचाव नहीं होता। इनका इलाज एक प्रभु की याद ही है क्योंकि ये सहम होते ही तब हैं जब जीव प्रभु को भुला देता है।57।

गउड़ी ॥ अगनि न दहै पवनु नही मगनै तसकरु नेरि न आवै ॥ राम नाम धनु करि संचउनी सो धनु कत ही न जावै ॥१॥

पद्अर्थ: दहै = जलाती है। मगनै = गुंम करती, लोप करती, उड़ा ले जाती। तसकरु = चोर। नेरि = नजदीक। संचउनी करि = इकट्ठा कर, जोड़। कतही = कहीं भी।1।

अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम रूपी धन एकत्र कर, यह कहीं नाश नहीं होता। इस धन को ना आग जला सकती है, ना हवा उड़ा के ले जा सकती है, और ना ही कोई चोर इसके नजदीक फटक सकता है।1।

हमरा धनु माधउ गोबिंदु धरणीधरु इहै सार धनु कहीऐ ॥ जो सुखु प्रभ गोबिंद की सेवा सो सुखु राजि न लहीऐ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: धरणी धरु = धरती का आसरा। सार = श्रेष्ठ, सबसे बढ़िया। राजि = राज में।1। रहाउ।

अर्थ: हमारा धन तो माधव गोबिंद ही है जो सारी धरती का आसरा है। (हमारे मति में तो) इसी धन को सब धनों से श्रेष्ठ, अच्छा और बढ़िया कहा जाता है। जो सुख परमात्मा गोबिंद के भजन में मिलता है, वह सुख राज में (भी) नहीं मिलता।1। रहाउ।

इसु धन कारणि सिव सनकादिक खोजत भए उदासी ॥ मनि मुकंदु जिहबा नाराइनु परै न जम की फासी ॥२॥

पद्अर्थ: स्नकादिक = सनक आदि ब्रहमा के चारों पुत्र। उदासी = विरक्त। मनि = (जिस मनुष्य के) मन में। मुकंद = मुक्ति देने वाला प्रभु। फासी = फांसी।2।

अर्थ: इस (नाम) धन की खातिर शिव और सनक आदि (ब्रहमा के चारों पुत्र) तलाश करते-करते जगत से विरक्त हुए। जिस मनुष्य के मन में मुक्तिदाता प्रभु बसता है, जिसकी जीभ पे अकाल-पुरख टिका है, उसे जम की (मोह रूपी) फांसी पड़ नहीं सकती।2।

निज धनु गिआनु भगति गुरि दीनी तासु सुमति मनु लागा ॥ जलत अ्मभ थ्मभि मनु धावत भरम बंधन भउ भागा ॥३॥

पद्अर्थ: निज धनु = केवल अपना धन। गुरि = गुरु ने। तासु = उस (भक्ति) में। सुमति मनु = श्रेष्ठ मति वाले मानव का मन। जलत = जलते को। अंभ = पानी। थंभि = थंमी।3।

अर्थ: प्रभु की भक्ति, प्रभु का ज्ञान ही, (जीव का) केवल अपना धन (हो सकता) है। जिस चतुर मति वाले को गुरु ने (ये दात) दी है, उसका मन उस प्रभु में टिकता है। (माया की तृष्णा की आग में) जलते हुए के लिए (ये नाम-धन) पानी है, और भटकते मन के लिए स्तम्भ (थंमी, सहारा) है, (नाम की इनायत से) भरमों के बंधनों का डर दूर हो जाता है।3।

कहै कबीरु मदन के माते हिरदै देखु बीचारी ॥ तुम घरि लाख कोटि अस्व हसती हम घरि एकु मुरारी ॥४॥१॥७॥५८॥

पद्अर्थ: मदन = काम-वासना। माते = मस्ते हुए। बीचारी = विचार के, सोच के। तुम घरि = तुम्हारे घर में। कोटि = करोड़ों। अस्व = अश्व, घोड़े। हसती = हाथी। मुरारी = (मुर+अरि; मुर दैत्य का वैरी) परमात्मा।4।

अर्थ: कबीर कहता है: हे काम-वासना में मस्त हुए (राजन!) मन में सोच के देख, अगर तेरे घर में लाखों करोड़ों घोड़े और हाथी हैं तो हमारे (हृदय) घर में (ये सारे पदार्थ देने वाला) एक परमात्मा (बसता) है।4।1।7।58।

शब्द का भाव: परमात्मा का नाम ही असल धन है जो सदा साथ निभाता है, और जो सुख नाम धन में है, वह सुख राज-भाग की मौज में भी नहीं है।58।

गउड़ी ॥ जिउ कपि के कर मुसटि चनन की लुबधि न तिआगु दइओ ॥ जो जो करम कीए लालच सिउ ते फिरि गरहि परिओ ॥१॥

पद्अर्थ: कपि = बंदर (इस तुक में दिए ख्याल को समझने के लिए पढो शब्द नं: 57)। कर = हाथ। मुसटि = मुट्ठी। चनन = चने की। लुबधि = लोभी ने। गरहि = गले में।1।

अर्थ: जैसे (किसी) बंदर के हाथ (भुने हुए) चनों की मुट्ठी आ गई, पर लोभी बंदर ने (कुज्जे में हाथ फसा हुआ पा के भी चनों की मुट्ठी) नहीं छोड़ी (और काबू आ गया, इसी तरह) लोभ वश हो के जो जो काम जीव करता है, वह सारे दुबारा (मोह के बंधन रूप जंजीर बन के इस के) गले में पड़ते हैं।1।

भगति बिनु बिरथे जनमु गइओ ॥ साधसंगति भगवान भजन बिनु कही न सचु रहिओ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: कही = कहीं भी, किसी और जगह। सचु = सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा। बिरथे = खाली, व्यर्थ, सूना।1। रहाउ।

अर्थ: परमात्मा की भक्ति के बिना मानव जनम व्यर्थ ही जाता है (क्योंकि हृदय में प्रभु आ के नहीं बसता)। और, साधु-संगत में (आ के) भगवान का स्मरण करे बिना वह सदा स्थिर रहने वाला प्रभु किसी के दिल में टिक नहीं सकता।1। रहाउ।

जिउ उदिआन कुसम परफुलित किनहि न घ्राउ लइओ ॥ तैसे भ्रमत अनेक जोनि महि फिरि फिरि काल हइओ ॥२॥

पद्अर्थ: उदिआन = जंगल। कुसम = फूल। परफुलित = खिले हुए। किनहि = (किसी बंदे) ने ही। घ्राउ = सुगंधि। भ्रमत = भटकते हुए। हइओ = हनियो, नाश करता है।2।

अर्थ: जैसे जंगल में खिले हुए फूलों की सुगंधि कोई भी नहीं ले सकता (वह फूल उजाड़ में किसी प्राणी को सुगंधि ना देने के कारण अपना खिलना व्यर्थ में ही खेल जाते हैं), वैसे ही, (प्रभु की बंदगी के बगैर) जीव अनेक जूनियों में भटकते रहते हैं, और बार-बार काल-वश पड़ते रहते हैं।2।

इआ धन जोबन अरु सुत दारा पेखन कउ जु दइओ ॥ तिन ही माहि अटकि जो उरझे इंद्री प्रेरि लइओ ॥३॥

पद्अर्थ: इआ = ये सारे। जोबन = जवानी। अरु = और। सुत = पुत्र। दारा = स्त्री, पत्नी। पेखन कउ = देखने के लिए।

नोट: शब्द ‘अरु’ और ‘अरि’ में मेल और अर्थ में फर्क याद रखने योग्य है; अरि = वैरी; अरु = और।

नोट: कोई खेल तमाशा देखने जाएं, उसमें चाहे कितने ही मन भरमाने वाले या दर्द भरी घटनाएं आएं, हम सिर्फ तमाशबीन ही रहते हैं। ना तो तमाशे के दुख भरे दृश्य से कोई गहरी चोट हमें बजती है, जिस तरह किसी अपने निजी दुख की बज सकती है और ना ही कोई मन को भरमाने वाली चीज हमें ठग सकती है। हम जानते हैं कि ये असल नहीं है, किसी हो चुके असल की नकल है। सो, उस तमाशों के दुखों-सुखों के दृश्यों में हम निर्लिप से रहते हैं। यह धन, जवानी, परिवार भी एक खेल प्रभु ने बनाया है, इन में रह के भी इन्हें देखना ही है, भाव, इन्हें तमाशे ही समझना है, इनमें निर्लिप ही रहना है।

अटकि = उलझ गए, जकड़े गए। प्रेरि लइओ = अपनी ओर खींच लिया।3।

अर्थ: धन-जवानी-पुत्र और स्त्री यह सारे प्रभु ने (जीव को किसी तमाशे में निर्लिप सा रहने की तरह) देखने के लिए दिए हैं (कि इस जगत तमाशे में ये निर्लिप ही रहे), पर जीव इनमें ही रुक के फंस जाते हैं; इंद्रियां जीव को खींच लेती है।3।

अउध अनल तनु तिन को मंदरु चहु दिस ठाटु ठइओ ॥ कहि कबीर भै सागर तरन कउ मै सतिगुर ओट लइओ ॥४॥१॥८॥५९॥

पद्अर्थ: अउध = उम्र, जिंदगी के समय का बीतते जाना। अनल = आग। तनु = शरीर। तिन को मंदरु = तृण का मंदिर, तीलों का घर। चहु दिस = चारों दिशाओं में, हर तरफ। ठाटु = बनतर। ठइओ = बनी हुई है। कहि = कहता है। भै सागर = डरावना संसार समंद्र। तरन कउ = तैरने के लिए, पार लांघने के लिए। ओट = आसरा।4

अर्थ: कबीर कहता है: यह शरीर (मानों) तीलों का बना हुआ कोठा है, उम्र (के दिन बीतते जाने हैं इस कोठे को) आग लगी हुई है, हर तरफ यही बनतर बनी हुई है, (पर कोई भी इस तरफ ध्यान नहीं देता; क्या आश्चर्यजनक भयानक दृश्य है!)। इस भयानक संसार-समुंदर से पार लांघने के लिए मैंने तो सतिगुरु का आसरा लिया है।4।1।59।

शब्द का भाव: बंदगी के बिना जीवन व्यर्थ है। नाम की सुगंधि के बिना जगत फूलवाड़ी का जीव-फूल किस अर्थ का? दुनियां के रसों में फंस के ख्वार होता है।59।

गउड़ी ॥ पानी मैला माटी गोरी ॥ इस माटी की पुतरी जोरी ॥१॥

पद्अर्थ: पानी = पिता का वीर्य। मैला = गंदा। माटी गोरी = लाल मिट्टी, मां की रक्त रूप धरती जिस में पिता की बूँद रूप बीज उगता है। पुतरी = पुतली। जोरी = जोड़ दी, बना दी।1।

अर्थ: (हे अहंकारी जीव! तू किस बात का गुमान करता है?) पिता की गंदी बूँद और माँ के रक्त- (इन दोनों से तो परमात्मा ने) जीव का यह मिट्टी का बुत बनाया है।1।

मै नाही कछु आहि न मोरा ॥ तनु धनु सभु रसु गोबिंद तोरा ॥१॥ रहाउ॥

अर्थ: हे मेरे गोबिंद! (तुझसे अलग) मेरी कोई हस्ती नहीं है और कोई मेरी मल्कियत नहीं है। ये शरीर, धन और ये जिंद सब तेरे ही दिए हुए हैं।1। रहाउ।

इस माटी महि पवनु समाइआ ॥ झूठा परपंचु जोरि चलाइआ ॥२॥

पद्अर्थ: पवनु = प्राण। परपंचु = पसारा। जोरि = जोड़ के।2।

अर्थ: इस मिट्टी (के पुतले) में (इसे खड़ा करने के लिए) प्राण टिके हुए हैं, (पर इस कमजोर से थंमी के सहारे को ना समझते हुए) जीव झूठा खिलारा खिलार बैठता है।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh