श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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किनहू लाख पांच की जोरी ॥ अंत की बार गगरीआ फोरी ॥३॥

पद्अर्थ: किनहू = कई जीवों ने, जिस जीवों ने। जोरी = इकट्ठी कर ली। फोरी = टूट गई।3।

अर्थ: जिस जीवों ने पाँच-पाँच लाख की जयदाद जोड़ ली है, मौत आने पर उनकी भी शरीर रूपी बरतन टूट जाता है।3।

कहि कबीर इक नीव उसारी ॥ खिन महि बिनसि जाइ अहंकारी ॥४॥१॥९॥६०॥

पद्अर्थ: कहि = कहता है, कहे। नीव = नींव। उसारी = खड़ी की है। अहंकारी = हे अहंकारी!।4।

अर्थ: कबीर कहता है: हे अहंकारी जीव! तेरी तो जो नींव ही खड़ी की गई है वह एक पलक में नाश हो जाने वाली है।4।1।9।60।

शब्द का भाव: मनुष्य अपनी औकात को ना समझ के धन-पदार्थ का अहंकार करता है। पर लाखों जोड़े हुए रुपए भी यहीं रह जाते हैं, और इस शरीर के नाश होने में एक पल भी नहीं लगता।60।

गउड़ी ॥ राम जपउ जीअ ऐसे ऐसे ॥ ध्रू प्रहिलाद जपिओ हरि जैसे ॥१॥

पद्अर्थ: जपउ = जपूँ, मैं जपूँ। जीअ = हे जिंद! जैसे = जिस प्रेम और श्रद्धा से।1।

अर्थ: हे जिंदे! (ऐसे अरदास कर कि) हे प्रभु! मैं तुझे उस प्रेम और श्रद्धा से स्मरण कर; जिस प्रेम और श्रद्धा से ध्रूव और प्रहलाद भक्त ने, हे हरि! तुझे स्मरण किया था।1।

दीन दइआल भरोसे तेरे ॥ सभु परवारु चड़ाइआ बेड़े ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: दीन दइआल = हे दीनों पर दया करने वाले! सभु परवारु = सारा परिवार, जिंद का सारा परिवार, सारी इंद्रियां, तन और मन सब कुछ। बेड़े = जहाज पर, नाम रूपी जहाज पर।1। रहाउ।

अर्थ: हे दीनों पर दया करने वाले प्रभु! तेरी मेहर की उमीद पर मैंने अपना सारा परिवार तेरे (नाम के) जहाज पर चढ़ा दिया है (मैंने जीभ, आँख, कान आदि सब ज्ञानेंद्रियों को तेरी महिमा में जोड़ दिया है)।1। रहाउ।

जा तिसु भावै ता हुकमु मनावै ॥ इस बेड़े कउ पारि लघावै ॥२॥

पद्अर्थ: जा = जब। तिस भावै = उस प्रभु को ठीक लगता है, जब उसकी मरजी होती है।2।

अर्थ: जब प्रभु को भाता है तो वह (वह सारे परिवार को अपना) हुक्म मनवाता है (भाव, इन इंद्रियों से वही काम करवाता है जिस काम के लिए उसने ये इंद्रियां बनाई हैं), और इस तरह इस सारे पूर को (इन सब इंद्रियों को) विकारों की लहरों से बचा लेता है।2।

गुर परसादि ऐसी बुधि समानी ॥ चूकि गई फिरि आवन जानी ॥३॥

पद्अर्थ: गुर परसादि = गुरु की कृपा से। समानी = समा जाती है, हृदय में प्रकट होती है। चूकि गई = खत्म हो जाती है।3।

अर्थ: सतिगुरु की कृपा से (जिस मनुष्य के अंदर) ऐसी बुद्धि प्रकट हो जाती है (भाव, जो मनुष्य सारी इंद्रियों को प्रभु के रंग में रंगता है), उसका बार-बार पैदा होना-मरना समाप्त हो जाता है।3।

कहु कबीर भजु सारिगपानी ॥ उरवारि पारि सभ एको दानी ॥४॥२॥१०॥६१॥

पद्अर्थ: भजु = स्मरण कर। सारिगपानी = धनुष जिसके हाथ में है (सारगि = विष्णु के धनुष का नाम। पानी = पाणि, हाथ)। उरवारि = इस पार, इस संसार में। पारि = उस पार, परलोक में। दानी = जान, समझ।4।

अर्थ: हे कबीर! कह (अपने आप को समझा) - सारंगपानी प्रभु को स्मरण कर, और लोक-परलोक में हर जगह उस एक प्रभु को ही जान।4।2।10।61।

शब्द का भाव: जो मनुष्य गुरु के बताए हुए मार्ग पर चल के अपने मन को और ज्ञानेंद्रियों को प्रभु की याद में जोड़ता है, वह संसार-समुंदर की विकारों की लहरों से बच जाता है, और इस तरह भटकना समाप्त हो जाती है।61।

गउड़ी ९ ॥ जोनि छाडि जउ जग महि आइओ ॥ लागत पवन खसमु बिसराइओ ॥१॥

पद्अर्थ: ९ = घर नौवां। जोनि = गर्भ, माँ का पेट। जउ = जब। जग महि आइओ = जगत में आया, जीव पैदा हुआ। पवन = हवा, माया की हवा, माया का प्रभाव।1।

अर्थ: जब जीव माँ का पेट छोड़ के जनम लेता है, तो (माया की) हवा लगते ही पति प्रभु को भुला देता है।1।

जीअरा हरि के गुना गाउ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: जीअरा = हे जिंदे!।1। रहाउ।

अर्थ: हे जिंदे! प्रभु की महिमा कर।1। रहाउ।

गरभ जोनि महि उरध तपु करता ॥ तउ जठर अगनि महि रहता ॥२॥

पद्अर्थ: उरध = उलटा, उल्टा लटका हुआ। जठर अगनि = पेट की आग। रहता = बचा रहता है।2।

अर्थ: (जब जीव) माँ के पेट में सिर के भार टिका हुआ प्रभु की बंदगी करता है, तब पेट की आग में भी बचा रहता है।2।

लख चउरासीह जोनि भ्रमि आइओ ॥ अब के छुटके ठउर न ठाइओ ॥३॥

पद्अर्थ: भ्रमि = भटक के, भ्रमित हो के। आइओ = आया है, मानव जनम में आया है। अब के = इस बार भी। छुटके = रह जाने पर। ठउर ठाइओ = जगह स्थान। ठउर = (संस्कृत: स्थावर, स्थान, ठावर, ठौर) पक्का, टिकवाँ। ठाइओ = (संस्कृत: स्थान)।3।

अर्थ: (जीव) चौरासी लाख जूनियों में भटक-भटक के (भाग्यशाली मानव जनम में) आता है, पर यहाँ से भी समय गवा के (असफल हो के) रह जाता है फिर कोई जगह-ठिकाना (इसे) नहीं मिलता।3।

कहु कबीर भजु सारिगपानी ॥ आवत दीसै जात न जानी ॥४॥१॥११॥६२॥

पद्अर्थ: कहु = कह, जिंद को समझा। न आवत दीसै = जो ना आता दिखता है, जो ना ही पैदा होता है। न जात जानी = जो ना मरता जाना जाता है, जो ना मरता सुना जाता है।4।

अर्थ: हे कबीर! जिंद को समझा कि उस सारंगपानी प्रभु को स्मरण करे, जो पैदा हुआ दिखता है और ना ही मरा सुना जाता है।4।1।11।62।

शब्द का भाव: जो प्रभु माँ के पेट में बचाए रखता है, वही जगत की माया की आग से बचाने के समर्थ है। इस वास्ते प्रभु का नाम जपना ही यहाँ आने का मनुष्य का उद्देश्य है, पर अगर जीव उसे इस मानव जनम में स्मरण करने से रह जाए तो फिर मौका नहीं बनता।62।

नोट: कई जोगी लोग उल्टा लटक के (सिर के भार हो के) तप करते हैं। इससे ये ख्याल आम प्रचलित है कि जीव माँ के पेट में उल्टा लटका हुआ जप करता है।

गउड़ी पूरबी ॥ सुरग बासु न बाछीऐ डरीऐ न नरकि निवासु ॥ होना है सो होई है मनहि न कीजै आस ॥१॥

पद्अर्थ: सुरग बासु = स्वर्ग का वासा। बाछीऐ = इच्छा करें, चाहें। नरकि = नर्क में। सो होई है = वही होगा। मनहि = मन में। न कीजै = ना करें।1।

अर्थ: ना ये चाहत रखनी चाहिए कि (मरने के बाद) स्वर्ग का बसेरा मिल जाए और ना इस बात से डरें कि कहीं नर्क में निवास ना मिल जाए। जो कुछ (प्रभु की रजा में) होना है वही होगा। सो, मन में आशाएं नहीं बनानी चाहिए।1।

रमईआ गुन गाईऐ ॥ जा ते पाईऐ परम निधानु ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: रमईआ = सोहाना राम। जा ते = जिससे। परम = सब से ऊँचा। निधानु = खजाना।1। रहाउ।

अर्थ: अकाल पुरख की महिमा करनी चाहिए और इसी उद्यम से वह (नाम रूपी) खजाना मिल जाता है, जो सब (सुखों) से ऊँचा है।1। रहाउ।

किआ जपु किआ तपु संजमो किआ बरतु किआ इसनानु ॥ जब लगु जुगति न जानीऐ भाउ भगति भगवान ॥२॥

पद्अर्थ: किआ = किस अर्थ? क्या लाभ? संजमो = मन और इंद्रियों को रोकने का यत्न। बरतु = व्रत, प्रण, इकरार (आम तौर पर खाना ना खाने के लिए बरतते हैं, ये प्रण कि आज कुछ नहीं खाना)। जुगति = विधि, तरीका। भाउ = प्रेम।2।

अर्थ: जब तक अकाल पुरख से प्यार और उसकी भक्ति की जुगति नहीं समझी (भाव, जब तक यह समझ नहीं पड़ी कि भगवान से प्यार करना ही जीवन की असल जुगति है), जप, तप, संजम, व्रत, स्नान- ये सब किसी काम के नहीं।2।

स्मपै देखि न हरखीऐ बिपति देखि न रोइ ॥ जिउ स्मपै तिउ बिपति है बिध ने रचिआ सो होइ ॥३॥

पद्अर्थ: संपै = संपक्ति, ऐश्वर्य, राज भाग। देखि = देख के। न हरखीऐ = खुश ना होईए, फूले ना फिरें। बिपति = विपदा, मुसीबत। बिधि ने = परमात्मा ने।3।

अर्थ: राज-भाग देख के फूले नहीं फिरना चाहिए, मुसीबत देख के दुखी नहीं होना चाहिए। जो कुछ परमात्मा करता है वही होता है, जैसे राज-भाग (प्रभु का दिया ही मिलता) है वैसे ही बिपता (भी उसी की डाली हुई पड़ती) है।3।

कहि कबीर अब जानिआ संतन रिदै मझारि ॥ सेवक सो सेवा भले जिह घट बसै मुरारि ॥४॥१॥१२॥६३॥

पद्अर्थ: मझारि = में। भले = ठीक। जिह घट = जिस हृदयों में।4।

अर्थ: कबीर कहता है: अब ये समझ आई है (कि परमात्मा किसी बैकुंठ स्वर्ग में नहीं, परमात्मा) संतों के हृदय में बसता है, वही सेवक सेवा करते अच्छे लगते हैं जिनके मन में प्रभु बसता है (भाव, जो प्रभु की महिमा करते हैं)।4।1।12।63।

शब्द का भाव: जप, तप, व्रत, तीरथ-स्नान आदि आसरे छोड़ के जो मनुष्य भगवान का भजन करता है, उसकी ऐसी उच्च आत्मिक अवस्था बनती है कि जगत के दुख-सुख उसे प्रभु की रजा में आते दिखते हैं, इस वास्ते वह मनुष्य ना किसी स्वर्ग की चाहत करता है ना ही नर्क से डरता है।63।

गउड़ी ॥ रे मन तेरो कोइ नही खिंचि लेइ जिनि भारु ॥ बिरख बसेरो पंखि को तैसो इहु संसारु ॥१॥

पद्अर्थ: जिनि = कि शायद। खिंचि = खींच के। पंखि = पंछी।1।

अर्थ: हे मेरे मन! (अंत को) तेरा कोई (साथी) नहीं बनेगा, कि शायद (और संबंधियों का) भार खींच के (तू अपने सिर पर) ले ले (भाव, संबंधियों की खातिर परपंच करके पराया धन लाना शुरू कर दे)। जैसे पंछियों का वृक्षों पर बसेरा होता है इसी तरह इस जगत (का वास) है।1।

राम रसु पीआ रे ॥ जिह रस बिसरि गए रस अउर ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: रे = हे भाई! पीआ = पीया है। जिह रस = जिस (राम-) रस की इनायत से। अउर रस = अन्य रस, और ही रस।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! (गुरमुख) परमात्मा के नाम का रस पीते हैं और उस रस की इनायत से और सारे रस (चस्के) (उनको) बिसर जाते हैं।1। रहाउ।

अउर मुए किआ रोईऐ जउ आपा थिरु न रहाइ ॥ जो उपजै सो बिनसि है दुखु करि रोवै बलाइ ॥२॥

पद्अर्थ: किआ रोईऐ = रोने का क्या लाभ? जउ = जब। थिरु = सदा टिके रहने वाला। न रहाइ = नहीं रहता। बिनसि है = नाश हो जाएगा। दुख करि = दुखी हो के। रोवै बलाइ = मेरी बला रोए, मैं क्यूँ रोऊँ?।2।

अर्थ: किसी और के मरने पर रोने का क्या अर्थ, जब हमारा अपना आप ही सदा नहीं टिका रहेगा? (ये अटल नियम है कि) जो जो जीव पैदा होता है वह नाश हो जाता है, फिर (किसी के मरने पर) दुखी हो के रोना व्यर्थ है।2।

जह की उपजी तह रची पीवत मरदन लाग ॥ कहि कबीर चिति चेतिआ राम सिमरि बैराग ॥३॥२॥१३॥६४॥

पद्अर्थ: जह की उपजी = जिस प्रभु से ये जिंद पैदा हुई। तह रची = उसी में लीन हो गई। पीवत = (नाम रस) पीते हुए। मरदन लाग = मर्दों की लाग से, गुरमुखों की संगति से। चिति = चिक्त में। सिमरि = स्मरण करके। बैराग = निर्मोहता।3।

अर्थ: कबीर कहता है: जिन्होंने अपने मन में प्रभु को याद किया है, प्रभु को स्मरण किया है, उनके अंदर जगत से निर्मोह पैदा हो जाता है, गुरमुखों की संगति में (नाम-रस) पीते-पीते उनकी आत्मा जिस प्रभु से पैदा हुई है उसी में जुड़ी रहती है।3।2।13।64।

शब्द का भाव: सत्संग में रह के नाम-रस की इनायत से मनुष्य का मन जगत के मोह में नहीं फंसता, क्योंकि ये समझ आ जाती है कि यहाँ पक्षियों जैसा रैन-बसेरा ही है, जो आया है उसने जरूर चले जाना है।64।

रागु गउड़ी ॥ पंथु निहारै कामनी लोचन भरी ले उसासा ॥ उर न भीजै पगु ना खिसै हरि दरसन की आसा ॥१॥

पद्अर्थ: पंथु = रास्ता। निहारै = देखती है। कामनी = स्त्री। लोचन = आँखें। भरीले = (आँसूओं से) भरे हुए। उसासा = हौके, सिसकियां। उर = दिल, हृदय। न भीजै = नहीं भीगता, नहीं तृप्त होता। पगु = पैर। खिसै = खिसकता है।1।

अर्थ: (जैसे परदेस गए पति के इंतजार में) स्त्री (उसका) राह निहारती है, (उसकी) आँखें आँसूओं से भरी हैं और वह सिसक रही है। (राह देखते उसका) दिल भरता नहीं, पैर खिसकते नहीं (भाव, खड़ी खड़ी थकती नहीं), (इसी तरह की हालत होती है) उस विरह भरे जीअड़े की, (जिसे) प्रभु के दीदार का इन्तजार होता है।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh