श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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दसमी दह दिस होइ अनंद ॥ छूटै भरमु मिलै गोबिंद ॥ जोति सरूपी तत अनूप ॥ अमल न मल न छाह नही धूप ॥११॥

पद्अर्थ: दह दिसि = दसों दिशाओं में, हर तरफ, सारे संसार में। जोति सरूपी = वह प्रभु जो ज्योति स्वरूप है, वह प्रभु जो निरा नूर ही नूर है। तत = असल, सबका आदि। अनूप = जिस जैसा और कोई नहीं। अमल = अ+मल, मैल रहित, वकिार रहित। छाह = अंधेरा, अज्ञानता का अंधकार। धूप = धूप, विकारों की गरमी।11।

नोट: बंद 10, 11, 12, 13 और 14 का सांझा भाव है: जो 10 से आरम्भ हो के 14 पर समाप्त होता है।

अर्थ: (इस उद्यम से) मन की भटकना दूर हो जाती है; वह परमात्मा मिल जाता है, जो निरा नूर ही नूर है, जो सारे जगत का असल है। जिस जैसा और कोई नहीं है, जिसमें विकारों की कोई भी मैल नहीं है, ना उसमें अज्ञानता का अंधकार है और ना ही तृष्णा आदि विकारों की आग है। (ऐसे परमात्मा के साथ मेल होने से) सारे संसार में ही मनुष्य के लिए आनंद ही आनंद होता है।11।

एकादसी एक दिस धावै ॥ तउ जोनी संकट बहुरि न आवै ॥ सीतल निरमल भइआ सरीरा ॥ दूरि बतावत पाइआ नीरा ॥१२॥

पद्अर्थ: एक दिस = एक तरफ, एक परमात्मा की ओर। धावै = दौड़ता है, जाता है। तउ = तब। संकट = कष्ट, दुख-कष्ट। बहुरि = दुबारा। सीतल = ठण्डा। सरीरा = (भाव) ज्ञानेंद्रियां। नीरा = नजदीक, अपने अंदर ही।12।

अर्थ: (जब मनुष्य का मन विकारों की ओर से हट के) एक परमात्मा (की याद) की तरफ जाता है, तब वह दुबारा जनम-मरन के कष्टों में नहीं आता। जो परमात्मा कही दुर बताया जाता था वह उसके नजदीक (अपने अंदर ही) मिल जाता है, इसलिए उसके अंदर ठंड पड़ जाती है और उसका स्वै पवित्र हो जाता है।12।

बारसि बारह उगवै सूर ॥ अहिनिसि बाजे अनहद तूर ॥ देखिआ तिहूं लोक का पीउ ॥ अचरजु भइआ जीव ते सीउ ॥१३॥

पद्अर्थ: बारसि = दुआदसि थिति। बारह सूर = बारह सूरज। उगवै = उगते हैं। अहि = दिन। निसि = रात। बाजे = बजते हैं। अनहद = बिना बजाए, एक रस, सदा। तूर = बाजे। तिहूं लोक का = तीनों ही भवनो का। पीउ = मालिक। ते = से। सीउ = शिव, कल्याण स्वरूप परमात्मा।13।

अर्थ: (जिस मनुष्य का मन सिर्फ ‘ऐक दिस धावै’, जो मनुष्य सिर्फ एक प्रभु की याद में जुड़ता है, उसके अंदर, जैसे) बारह सूरज उग पड़ते हैं (भाव, उसके अंदर पूर्ण ज्ञान का प्रकाश हो जाता है), उसके अंदर (मानो) दिन-रात एक-रस बाजे बजते हैं, उसे तीनों भवनों के मालिक प्रभु का दीदार हो जाता है; एक आश्चर्यजनक खेल बन जाती है कि वह मनुष्य एक साधारण मनुष्य से कल्याण-स्वरूप परमात्मा का रूप हो जाता है।13।

तेरसि तेरह अगम बखाणि ॥ अरध उरध बिचि सम पहिचाणि ॥ नीच ऊच नही मान अमान ॥ बिआपिक राम सगल सामान ॥१४॥

पद्अर्थ: तेरसि = त्रयोदशी। तेरह = त्रयोदशी थिति, अमावस के आगे तेरहवां दिन। अगम = (अ+गम = अगम्य) जिस परमात्मा तक पहुँच नहीं। बखाणि = बखाने, उचारता है, गुण गाता है, महिमा करता है। अरध = अधह, नीचे, पाताल। उरध = ऊपर, आकाश। अरध उरध बिचि = पाताल से आकाश तक, सारे संसार में। सम = बराबर, एक जैसा। मान = आदर। अमान = (अ+मान) निरादरी। सगल = सभी में।14।

अर्थ: (जिस मनुष्य का मन केवल ‘ऐक दिस धावै’) वह अगम परमात्मा की महिमा करता है, (इस महिमा की इनायत से) वह सारे संसार में उस प्रभु को एक-समान पहचानता है (देखता है)। ना उसे कोई नीच दिखाई देता है ना ऊँचा। किसी से आदर हो या निरादरी, उसके लिए एक से हैं, क्योंकि उसे सारे जीवों में परमात्मा ही व्यापक दिखता है।14।

चउदसि चउदह लोक मझारि ॥ रोम रोम महि बसहि मुरारि ॥ सत संतोख का धरहु धिआन ॥ कथनी कथीऐ ब्रहम गिआन ॥१५॥

पद्अर्थ: चउदसि = चौदवीं थिति, अमावस के बाद की चौदवीं रात। चौदह लोक = सात आकाश सात पताल (भाव,) सारी सृष्टि। मझारि = में। रोम रोम महि = चौदह लोकों के रोम रोम में, सारी सृष्टि के ज़रे-ज़रे में। बसहि = बसते हैं (प्रभु जी)। मुरारि = (मुर+आरि) मुर दैत्य का वैरी अर्थात प्रभु। कथनी कथीऐ = (वह) बातें करें, (वह) बोल बोलें। ब्रहम गिआन = (जिनके द्वारा) परमात्मा के साथ जान-पहिचान हो जाए, परमात्मा की (सर्व-व्यापकता की) सूझ पैदा हो। सत = दान, दूसरों की सेवा। संतोख = सब्र, उसकी बख्शी हुई दात में राजी रहना। सत...गिआन = सरू और संतोष को अपने भीतर टिकाओ, ये देख के कि परमात्मा हरेक घट में बसता है। जो कृपा तुम्हारे पर हुई है उसमें राजी रहो और इस दाति में से परमात्मा के पैदा किए हुए और जीवों की भी सेवा करो, क्योंकि सब में वही बस रहा है, जो तुम्हें रोजी दे रहा है।15।

अर्थ: (हे भाई!) प्रभु जी सारी कायनात में सृष्टि के कण-कण में बस रहे हैं। उसकी महिमा की बातें करो, ता कि उसके इस सही स्वरूप की सूझ बनी रहे। (ये यकीन ला के कि वह प्रभु तुम्हारे अंदर बस रहा है और सब जीवों में भी बस रहा है) दूसरों की सेवा की और जो कुछ प्रभु ने तुम्हें दिया है उसमें राजी रहने की तवज्जो पक्की करो।15।

पूनिउ पूरा चंद अकास ॥ पसरहि कला सहज परगास ॥ आदि अंति मधि होइ रहिआ थीर ॥ सुख सागर महि रमहि कबीर ॥१६॥

पद्अर्थ: पुनउ = पुनिंया, पूरनमासी, वह तिथि जब चाँद पूरा मुकम्मल होता है। अकास = आकाश, गगन, दसवाँ द्वार, चिदाकाश, चिक्त रूप आकाश। पसरहि = बिखरती हैं। कला = चाँद की सारी कलाएं।

(नोट: अमावस के बाद चाँद जब पहली बार आकाश में चढ़ता है, तो यह चाँद की एक कला कही जाती है। हरेक रात को एक-एक कला बढ़ती जाती है, और पूरनमाशी को चाँद की सारी ही कलाओं का प्रकाश हो जाता है)।

आदि अंत मधि = शुरू से, आखिर तक, बीच के समय में भी (भाव, सदा ही)। थीर = स्थिर, कायम। सुख सागर = सुखों का समुंदर प्रभु। रमहि = (अगर) तू स्मरण करे। कबीर = हे कबीर!।16।

अर्थ: जो परमात्मा सृष्टि के आरम्भ से आखिर तक और बीच के समय (इस अंतराल में) (भाव, सदा ही) मौजूद है, उस सुखों के समुंदर प्रभु में, हे कबीर! अगर तू डुबकी लगा के उसका स्मरण करे, तो जैसे पूरनमाशी को आकाश में पूरा चाँद चढ़ता है और चंद्रमा की सारी ही कलाएं प्रगट होती हैं वैसे ही तेरे अंदर भी सहज अवस्था का प्रकाश होगा।16।

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु गउड़ी वार कबीर जीउ के ७ ॥

पद्अर्थ: वार = दिन।

अर्थ: यह वाणी दिनों के नामों पर है, जैसे पिछली वाणी थितियों के नाम बरत के रची गई है।

बार बार हरि के गुन गावउ ॥ गुर गमि भेदु सु हरि का पावउ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: बार बार = बारंबार, हर समय, सदा। गावउ = गाओ, मैं गाता हूँ। गमि = गम के, जा के, पहुँच के। गम गमि = गुरु के पास जा के, गुरु के चरणों में पहुँच के। हरि का भेद = परमात्मा का भेद, परमात्मा को मिलने का भेद। वह गहरा राज़ जिससे परमात्मा मिल सकता है। पावउ = पाऊँ, मैं ढूंढ रहा हूँ, मैंने पा लिया है। सु = वह। सु भेदु = वह भेद।1। रहाउ।

अर्थ: गुरु के चरणों में पहुँच के मैंने वह भेद पा लिया है जिससे परमात्मा को मिल सकते हैं (और, वह ये है कि) मैं हर समय परमात्मा के गुण गाता हूँ (भाव, प्रभु की महिमा ही प्रभु को मिलने का सही तरीका है)।1। रहाउ।

नोट: ‘रहाउ’ में दिए गए इस ख्याल की व्याख्या बाकी की वाणी में की गई है।

आदित करै भगति आर्मभ ॥ काइआ मंदर मनसा थ्मभ ॥ अहिनिसि अखंड सुरही जाइ ॥ तउ अनहद बेणु सहज महि बाइ ॥१॥

पद्अर्थ: आदित = (संस्कृत: आदित्य), सूरज। आदित = आइत, ऐत। आदित वार = ऐतवार।

नोट: (आदित वार = ऐतवार) ये दिन सूरज के नाम से संबंधित है, ये दिन सूरज का मिथा गया है।

पद्अर्थ: काया = शरीर। मंदर = घर। मनसा = फुरने। थंभ = स्तम्भ, खम्भा, सहारा, आसरा। अहि = दिन। निसि = रात। अखंड = अटूट, लगातार। सुरही = सुरभि, सुगंधि, भक्ति से सुगंधित हुई तवज्जो, ध्यान। जाइ = चली जाती है, जारी रहती है। तउ = तब। अनहद = एक रस। बैणु = वीणा, बाँसुरी। सहज महि = सहज अवस्था में। बाइ = बजती है।1।

अर्थ: (‘बार बार हरि के गुण’ गा के, जो मनुष्य) परमात्मा की भक्ति शुरू करता है, ये भक्ति उसके शरीर-घर के स्तम्भ का काम करती है, उसके मन के विचारों को सहारा देती है (भाव, उसकी ज्ञानेंद्रियां और उसके मन के फुरने भटकने से हट जाते हैं)। भक्ति से सुगंधित हुई उसकी तवज्जो दिन-रात लगातार (प्रभु चरणों में) जुड़ी रहती है, तब अडोलता में टिकने के कारण मन के अंदर (मानो) एक-रस बाँसुरी सी बजती है।1।

सोमवारि ससि अम्रितु झरै ॥ चाखत बेगि सगल बिख हरै ॥ बाणी रोकिआ रहै दुआर ॥ तउ मनु मतवारो पीवनहार ॥२॥

पद्अर्थ: सोम = चंद्रमा। सोमवार = चंद्रमा से संबंध रखने वाला दिन। सोमवारि = सोम के दिन। ससि = चंद्रमा, चाँद की ठंड। ससि अंम्रितु = शांति का अमृत। झरै = झड़ता है, बरसता है। चाखत = चखते हुए। बेगि = तुरंत, जल्दी। सगल = सारे। बिखु = जहर, विकार। हरै = दूर कर लेता है। हरै दुआरि = प्रभु के दर पर टिका रहता है। मतवारे = मतवाला, मस्त।2।

अर्थ: (‘बार बार हरि के गुण’ गाने से मनुष्य के मन में) शांति ठंड का अमृत बरसता है, (ये अमृत) चखने से मन तुरंत सारे विकार दूर कर देता है, सतिगुरु की वाणी की इनायत से (मनुष्य का विकारों से) रोका हुआ मन प्रभु के दर पर टिका रहता है और मस्त हुआ मन उस अमुत को पीता रहता है।2।

मंगलवारे ले माहीति ॥ पंच चोर की जाणै रीति ॥ घर छोडें बाहरि जिनि जाइ ॥ नातरु खरा रिसै है राइ ॥३॥

पद्अर्थ: मंगल = (मंगल ग्रह the planate Mars) मंगल तारा। मंगल वार = मंगल तारे के संबंध रखने वाला दिन। लै = ले लेता है। माहीति = मुहीत, घेरा, किला। जाणै = जान लेता है। रीति = तरीका, ढंग। जिनि छोडें = ना छोड़ना, कहीं छोड़ ना देना। जिनि जाए = ना जाना, कहीं चले ना जाना। घर = हृदय घर जिसके चारों तरफ किला बन चुका है। नातरु = नहीं तो, अगर तू बाहर चला गया। रिसै है = खिझ जाएगा। रिस = (संस्कृत: रिष्, to be injured, to meet with a misfortune) बिपता में पड़ जाना, दुखी होना। राइ = राजा, मन राजा।3।

अर्थ: (‘बार बार हरि के गुण’ गा के) मनुष्य अपने मन के चारों तरफ, जैसे, किला बना लेता है, कामादिक पाँच चोरों के (हमला करने का) ढंग-तरीका समझ लेता है (इस प्रकार उनके वार होने नहीं देता)। (हे भाई!) तू भी (ऐसे) किले को छोड़ के बाहर ना जाना (भाव, अपने मन को बाहर भटकने बिलकुल ना देना), नहीं तो ये मन (विकारों में पड़ कर) बड़ा दुखी होगा।3।

बुधवारि बुधि करै प्रगास ॥ हिरदै कमल महि हरि का बास ॥ गुर मिलि दोऊ एक सम धरै ॥ उरध पंक लै सूधा करै ॥४॥

पद्अर्थ: बुधि = अक्ल। प्रगासु = प्रकाश। बासु = निवास। गुर मिलि = गुरु को मिल के। दोऊ = दोनों, हृदय और परमात्मा। एक सम = इकट्ठे। उरध = (माया की तरफ) उलटा हुआ, पलटा हुआ। पंक = पंकज, हृदय कमल। सूधा = सीधा, परमात्मा के सन्मुख। लै = वश में करके।4।

अर्थ: (‘बार बार हरि के गुन’ गा के, मनुष्य अपनी) सूझ में प्रभु के नाम का प्रकाश पैदा कर लेता है, हृदय-कमल में परमात्मा का निवास बना लेता है; सतिगुरु को मिल के आत्मा और परमात्मा की सांझ बना लेता है, (पहले माया की ओर) चल रहे मन को वश में करके (पलट के) प्रभु के सन्मुख कर देता है।4।

ब्रिहसपति बिखिआ देइ बहाइ ॥ तीनि देव एक संगि लाइ ॥ तीनि नदी तह त्रिकुटी माहि ॥ अहिनिसि कसमल धोवहि नाहि ॥५॥

पद्अर्थ: ब्रिहसपति = (The planet jupiter) एक तारे का नाम है। ब्रिहसपति वार = बृहस्पति वार, वीरवार। बिखिआ = माया। देइ बहाइ = बहा देता है। तीनि देव = बिखिआ के तीनों देवते, माया के तीन गुण। एक संगि = एक संगत में। लाइ = जोड़ लेता है, लीन कर देता है।

तीनि नदी = माया के तीन गुणों की नदियां। त्रिकुटी = (त्रि+कुटी; त्रि = तीन, कुटी = टेढ़ी लकीर) तिउड़ी, तीन टेढ़ी लकीरें, माथे की तिउड़ी जो हृदय में खिझ पैदा होने से माथे पर पड़ जाती हैं, खिझ, भ्रिकुटी। अहिनिसि = दिन रात। कसमल = पाप। धोवहि नाहि = नहीं धोते।5।

नोट: कई टीकाकार सज्जन शब्द ‘नाहि’ का अर्थ करते हैं: ‘नहा के’, ‘स्नान करके’। पर ये बिल्कुल गलत है। शब्द ‘नाहि’ का अर्थ सदा ‘नही’ ही होता है।

अर्थ: (‘बार बार हरि के गुन’ गा के, मनुष्य) माया के (प्रभाव) को (महिमा के प्रवाह में) बहा देता है, माया के तीनों ही (बली) गुणों को एक प्रभु (की याद में) लीन कर देता है।

(जो लोग महिमा छोड़ के माया की) खिझ में रहते हैं, वे माया की त्रिगुणी नदियों में ही (गोते खाते) हैं, दिन रात बुरे कर्म (करते हैं, महिमा से वंचित रहने के कारण उन्हें) धोते नहीं हैं।5।

नोट: ‘रहाउ’ की तुकों में कबीर जी ने लिखा है कि प्रभु को मिलने के वास्ते भेद की बात सिर्फ एक ही है: बारंबार प्रभु के गुण गाने। सारी वाणी में इसी ही ख्याल की व्याख्या है। शब्द ‘त्रिकुटी’ देख के तुरंत ये कह देना कि कबीर जी यहां ईड़ा-पिंगुला-सुखमना के अभ्यास की सिफारिश कर रहे हैं, भारी भूल है। कबीर जी कभी भी योगाभ्यासी अथवा प्राणायामी नहीं रहे, ना ही वे इस रास्ते को सही मानते हैं। हमने कबीर जी को उनकी वाणी में से देखना है, लोंगों की घड़ी हुई कहानियों में से नहीं। (पढ़ो मेरा लेख ‘क्या कबीर जी कभी प्राणयामी या योगाभ्यासी भी रहे हैं? ’)

सुक्रितु सहारै सु इह ब्रति चड़ै ॥ अनदिन आपि आप सिउ लड़ै ॥ सुरखी पांचउ राखै सबै ॥ तउ दूजी द्रिसटि न पैसै कबै ॥६॥

पद्अर्थ: अनदिनु = हर रोज, हर समय। सिउ = साथ। सुरखी = (संस्कृत: हृषीक) इंद्रियां। राखै = बस में रखता है। दूजी द्रिसटि = मेर तेर वाली निगाह, भेदभाव वाली नजर। कबै = कभी भी।6।

अर्थ: (‘बार बार हरि के गुन’ गा के, मनुष्य इस महिमा की) नेक कमाई को (अपने जीवन का) सहारा बना लेता है, और इस मुश्किल घाटी पर चढ़ता है कि हर समय अपने साथ लड़ाई करता है (भाव, अपने मन को बारंबार विकारों से रोकता है), पाँचों ही ज्ञानेंद्रियों को बस में रखता है, तब (किसी पर भी) कभी उसकी मेर-तेर की निगाह नहीं पड़ती।6।

नोट: अब तक हम देखते आए हैं कि हरेक ‘वार’ के नाम का पहला अक्षर बरत के हरेक पौड़ी लिखी गई है; जैसे:

आदित-------------से आरंभ
सोम----------------से ससि
मंगल---------------से माहीति
बुध-----------------से बुधि
ब्रिहसपति---------से बिखिआ
थावर--------------से थिरु

पर इस पौड़ी नं: 6 में शब्द ‘शुक्रवार’ नहीं इस्तेमाल किया गया, इसके पहले अक्षर के साथ मेल खाने वाला शब्द ‘सुक्रित’ बरत दिया है।

सुक्रित = भला काम, (‘बार बार हरि के गुण’ गाने का) शुभ काम। सहारै = सहारा बना लेता है, अपने जीवन का आसरा बनाता है। ब्रत = (संस्कृत: व्रत, a vow, mode of life) मुश्किल जीवन जुगति का प्रण, जीवन जुगति रूपी मुश्किल घाटी। ब्रति = मुश्किल जीवन जुगति के प्रण पर, जीवन जुगति रूपी मुश्किल घाटी पर। नोट: मन को विकारों की ओर से रोक के प्रभु का स्मरण करना एक बड़ा मुश्किल रास्ता है, पहाड़ी रास्ता है, घाटी पे चढ़ने के समान है;

“कबीर जिह मारगि पंडित गए, पाछै परी बहीर॥
इक अवघट घाटी राम की, तिह चढ़ि रहिओ कबीर॥ ” 165।

थावर थिरु करि राखै सोइ ॥ जोति दी वटी घट महि जोइ ॥ बाहरि भीतरि भइआ प्रगासु ॥ तब हूआ सगल करम का नासु ॥७॥

पद्अर्थ: थावर = शनिवार। थिरु = स्थिर, टिकवां। सोइ = सो (दीपक की ज्योति), उस ‘जोति दीवटी’ को। जोति दीवटी जोइ = जो ज्योति दीवटी। दीवटी = छोटा सा सुंदर सा दीपक। जाति = परमात्मा का नूर। घट महि = हृदय में, शरीर में। भीतरि = अंदर। प्रगासु = प्रकाश। करम = किए कर्मों के संस्कार। तब = तब, इस अवस्था में पहुँच के।7।

अर्थ: ईश्वरीय नूर की जो सुंदर सी छोटी सी ज्योति जो हरेक हृदय में होती है (‘बार बार हरि के गुण’ गा के, मनुष्य) उस ज्योति को अपने अंदर संभाल के रखता है (उसकी इनायत से उसके) अंदर-बाहर ज्योति का ही प्रकाश हो जाता है (भाव, उसको अपने अंदर और सारी सृष्टि में भी एक ही परमात्मा की ज्योति दिखाई देती है)। इस अवस्था में पहँच के उसके पिछले किए सारे कर्मों (के संस्कारों) का नाश हो जाता है।7।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh