श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 345 जब लगु घट महि दूजी आन ॥ तउ लउ महलि न लाभै जान ॥ रमत राम सिउ लागो रंगु ॥ कहि कबीर तब निरमल अंग ॥८॥१॥ पद्अर्थ: जब लगु = जब तक। आन = आण, परवाह। दूजी आन = जगत की अधीनता, लोक-लज्जा का ख्याल। महलि = महल में, प्रभु चरणों में। जान न लाभै = जाना नहीं मिलता, जुड़ नहीं सकता, पहुँच नहीं सकता। रमत = स्मरण कर-कर के। राम सिउ = परमात्मा से। रंगु = प्यार। कहि = कहे, कहता है। निरमल = पवित्र। अंग = शरीर, ज्ञानेंद्रियां आदि।8। अर्थ: (पर) जब तक मनुष्य के मन में दुनियावी इज्जत आदि की वासना है, तब तक वह प्रभु के चरणों में नहीं जुड़ सकता। कबीर कहता है: परमात्मा का स्मरण करते-करते परमात्मा के साथ प्यार हो जाता है और तब शरीर पवित्र हो जाता है।8।1। रागु गउड़ी चेती बाणी नामदेउ जीउ की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ देवा पाहन तारीअले ॥ राम कहत जन कस न तरे ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: देवा = हे देव! हे प्रभु! पाहन = पत्थर, पाषाण। तारीअले = तारे गए, तार दिए, तैरा दिए। (नोट: इस शब्द में नामदेव जी ने उन उत्शाह भरी और प्रेम भरी साखियों का जिक्र करके मन को बंदगी की ओर उत्साहित किया है जो रामायण, महाभारत और पुराण आदि में आती हैं और जो आम लोगों में प्रचलित थीं। रामायण की ये कथा आम प्रसिद्ध है कि श्री राम जी ने लंका में पहुँचने के लिए समुंदर पर पुल बनाने के वास्ते पत्थरों पे ‘राम’ का नाम लिखवाया और पत्थर तैरने लगे।) कस न = क्यूँ ना?।1। रहाउ। अर्थ: हे प्रभु! (वह) पत्थर (भी समुंदर पर) तूने तैरा दिए (जिनपे तेरा ‘राम’ नाम लिखा गया था, भला) वह मनुष्य (संसार समुंदर से) क्यों नहीं तैरेंगे, जो तेरा नाम स्मरण करते हैं? रहाउ। तारीले गनिका बिनु रूप कुबिजा बिआधि अजामलु तारीअले ॥ चरन बधिक जन तेऊ मुकति भए ॥ हउ बलि बलि जिन राम कहे ॥१॥ पद्अर्थ: तारीले = तैरा दी। गनिका = वेश्वा (जिसे एक महापुरुष एक तोता दे गए और कह गए इसको राम नाम पढ़ाना)। बिनु रूप = रूप हीन। कुबिजा = कुब्जा, ये एक जवान लड़की कंस की दासी थी, पर थी कुब्बी। जब कृष्ण जी और बलराम मथुरा जा रहे थे, ये कुबिजा कंस के लिए सुगंधि का सामान ले के जाती इनको रास्ते पर मिली। कृष्ण जी के मांगने पर इसने कुछ इत्र आदि इनको दे भी दिया। इस पे कृष्ण जी ने प्रसन्न होकर इसका कुब दूर कर दिया, जिससे ये बड़ी सुंदर कुमारी दिखने लगी। बिआधी = रोग (ग्रस्त), विकारों में प्रवृक्त। बधिक = निशाना मारने वाला (शिकारी)। चरन बधिक = वह शिकारी (जिसने हिरन के भुलेखे में कृष्ण जी के) पैरों में निशाना मारा। बलि बलि = सदके।1। अर्थ: हे प्रभु! तूने (बुरे कर्मों वाली) वेश्वा को (विकारों से) बचा लिया, तूने कुरूप कुबिजा का कुब्ब दूर कर दिया, तूने विकारों में गले हुए अजामल को तार दिया। (कृष्ण जी के) पैरों में निशाना मारने वाला शिकारी (और) ऐसे कई (विकारी) लोग (तेरी मेहर से) मुक्त हो गए। मैं सदके हूँ उनसे जिन्होंने प्रभु का नाम स्मरण किया।1। दासी सुत जनु बिदरु सुदामा उग्रसैन कउ राज दीए ॥ जप हीन तप हीन कुल हीन क्रम हीन नामे के सुआमी तेऊ तरे ॥२॥१॥ पद्अर्थ: दासी सुत = दासी का पुत्र। जनु = (तेरा) भक्त। बिदरु = बिदुर, व्यास के आर्शीवाद से दासी के कोख से जन्मा पुत्र पाण्डवों का छोटा भाई, ये कृष्ण जी का भक्त था। सुदामा = (सुदामन्) एक बहुत ही गरीब ब्राहमण कृष्ण जी का हम जमाती और मित्र था। अपनी पत्नी की प्रेरणा पर एक मुठी चावल ले कर ये कृष्ण जी के पास द्वारका हाजिर हुआ और उन्होंने उसे मेहर की नजर से अथाह धन और शोभा बख्शी। उग्रसैन = कंस का पिता, कंस पिता को सिंहासन से उतार के खुद राज करने लगा था; कृष्ण जी ने कंस को मार के इसे पुनः राज बख्शा। क्रम हीन = कर्म हीन। तेऊ = वह सारे।2। अर्थ: हे प्रभु! दासी का पुत्र बिदर तेरा भक्त (प्रसिद्ध हुआ), सुदामा (इसकी तूने दरिद्रता खत्म कर दी), उग्रसैन को तूने राज दिया। हे नामदेव के स्वामी! तेरी कृपा से वे सभी तैर गए जिन्होंने कोई जप नहीं किए, कोई तप नहीं साधे, जिनकी कोई ऊंची कुल नहीं थी, कोई अच्छे अमल नहीं थे।2।1। नोट: इस शब्द में जिस साखियों की तरफ इशारा है वह श्री राम चंद्र और कृष्ण जी दोनों के साथ संबंध रखती हैं; इससे स्पष्ट होता है कि नामदेव जी इनमें से किसी खास एक के अवतार रूप में पुजारी नहीं थे। इनके द्वारा उद्धार हुए भगतों को परमात्मा की मेहर का पात्र समझते थे; तभी कहते हैं: ‘हउ बलि बलि जिन राम कहे’। भाव: नाम जपने की महिमा- बड़े-बड़े कुकर्मी और नीच कुल लोग भी तैर जाते हैं। रागु गउड़ी रविदास जी के पदे गउड़ी गुआरेरी मेरी संगति पोच सोच दिनु राती ॥ मेरा करमु कुटिलता जनमु कुभांती ॥१॥ पद्अर्थ: संगति = उठना बैठना। पोच = नीच, बिचारा। सोच = चिन्ता, फिक्र। कुटि = टेढ़ी लकीर। कुटिल = टेढ़ी चालें चलने वाला, खोटा। कुटिलता = टेढ़ी चालें चलने वाला स्वभाव, खोट। कुभांती = (कु+भांति) बुरी भांति का, नीच किस्म का, नीच जाति का।1। अर्थ: (हे प्रभु!) दिन रात मुझे ये सोच रहती है (मेरा क्या बनेगा?) बुरे लोगों के साथ मेरा उठना-बैठना है, खोट मेरा (नित्य कर्म) है; मेरा जनम (भी) नीच जाति में से है।1। राम गुसईआ जीअ के जीवना ॥ मोहि न बिसारहु मै जनु तेरा ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: गुसईआ = हे गुसाई! हे धरती के साई! जीअ के = जिंद के। मोहि = मुझे।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे राम! हे मेरे राम! हे धरती के साई! हे मेरी जिंद के आसरे! मुझे ना बिसारना, मैं तेरा दास हूँ।1। रहाउ। मेरी हरहु बिपति जन करहु सुभाई ॥ चरण न छाडउ सरीर कल जाई ॥२॥ पद्अर्थ: हरहु = दूर करो। बिपति = मुसीबत, बुरी संगति-रूपी बिपता। जन = मुझ दास को। करहु = बना लो। सुभाई = (सु+भाई) अच्छे भाव वाला, अच्छी भावना वाला। न छाडउ = मैं नहीं छोड़ूंगा। कल = क्षमता। जाई = चली जाए, नाश हो जाए।2। अर्थ: (हे प्रभु!) मेरी ये बिपता काट; मुझ सेवक को अच्छी भावना वाला बना ले; चाहे मेरे शरीर की क्षमता भी चली जाए, (हे राम!) मैं तेरे चरण नहीं छोड़ूँगा।2। कहु रविदास परउ तेरी साभा ॥ बेगि मिलहु जन करि न बिलांबा ॥३॥१॥ पद्अर्थ: कहु = कह। रविदास = हे रविदास! परउ = मैं पड़ता हूँ, मैं पड़ा हूँ। साभा = संभाल, शरण। बेगि = जल्दी। बिलांबा = विलंब, देरी, ढील।3।1। नोट: रविदास जी के पदे; रविदास जी के पाँच शब्द हैं; तीन शब्द ऐसे हैं जिनके तीन-तीन पद (बंद = stanzas) हैं; 1 शब्द चार बंदों वाला है और एक शब्द 8 बंदों वाला है। सो, सबके लिए सांझा शब्द ‘पदे’ इस्तेमाल किया गया है; तिपदे, चउपदा, अष्टपदी लिखने की जगह। अर्थ: हे रविदास! (प्रभु दर पर) कह: (हे प्रभु!) मैं तेरी शरण पड़ा हूँ, मुझ सेवक को जल्दी मिलो, ढील ना कर।3।1। भाव: प्रभु दर पर अरदास- हे प्रभु! मैं बुरे कर्मों वाला हूँ, पर तेरी शरण आया हूँ। बुरी संगति से बचाए रख। बेगम पुरा सहर को नाउ ॥ दूखु अंदोहु नही तिहि ठाउ ॥ नां तसवीस खिराजु न मालु ॥ खउफु न खता न तरसु जवालु ॥१॥ पद्अर्थ: बेगम = (बे+गम) जहां कोई ग़म नहीं। को = का। अंदोह = चिन्ता। तिहि ठाउ = उस जगह पे, उस आत्मिक ठिकाने पे, उस अवस्था में। तसवीस = तशवश, सोच, घबराहट। खिराज = कर, मसूल, टैक्स। खता = दोष, पाप। तरसु = डर। जवाल = घाटा।1। अर्थ: (जिस आत्मिक-अवस्था रूपी शहर में मैं बसता हूँ) उस शहर का नाम है बे-ग़मपुरा (भाव, उस अवस्था में कोई ग़म नहीं छू सकता); उस जगह पर ना कोई दुख है, ना चिन्ता और ना कोई घबराहट, वहां दुनिया वाली घबराहट नहीं और ना ही उस जायदाद को मसुल है; उस अवस्था में किसी पाप कर्म करने का खतरा नहीं; कोई डर नहीं; कोई गिरावट नहीं।1। अब मोहि खूब वतन गह पाई ॥ ऊहां खैरि सदा मेरे भाई ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मोहि = मैं। वतन गह = वतन की जगह, रहने की जगह। खैरि = ख़ौरियत, सुख।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे वीर! अब मैंने बसने के लिए सुंदर जगह ढूँढ ली है, वहां सदा सुख ही सुख है।1। रहाउ। काइमु दाइमु सदा पातिसाही ॥ दोम न सेम एक सो आही ॥ आबादानु सदा मसहूर ॥ ऊहां गनी बसहि मामूर ॥२॥ पद्अर्थ: काइमु = स्थिर रहने वाली। दाइमु = सदा। दोम सेम = दूसरा तीसरा (दर्जा)। एक सो = एक जैसे। आही = है। आबादानु = आबाद, बसता। गनी = धनी, धनाढ। मामूर = तृप्त।2। अर्थ: वह (आत्मिक अवस्था एक ऐसी) बादशाहत (है जो) सदा ही टिकी रहने वाली है, वहाँ किसी का दूसरा-तीसरा दर्जा नहीं, सब एक जैसे ही हैं। वह शहर सदा सघन है और आबाद है, वहाँ धनी और तृप्त लोग ही बसते हैं (भाव, उस आत्मिक दर्जे पे जो जो पहुँचते हैं उनके अंदर कोई भेदभाव नहीं रहता ओर उन्हें दुनिया की भूख नहीं रहती)।2। तिउ तिउ सैल करहि जिउ भावै ॥ महरम महल न को अटकावै ॥ कहि रविदास खलास चमारा ॥ जो हम सहरी सु मीतु हमारा ॥३॥२॥ पद्अर्थ: सैल करहि = मन मरजी से चलते फिरते हैं। महरम = वाकिफ। महरम महल = महल के वाकिफ। को = कोई। न अटकावै = रोकता नहीं। कहि = कहै, कहता है। खालस = जिसने दुख अंदोह तशवीश आदि मुक्ति पा ली है। हम सहरी = एक ही शहर का बसने वाला, हम वतन, सत्संगी।3। नोट: इस शब्द में दुनिया के लोगों के कल्पित स्वर्ग-भिष्त के मुकाबले पर सचमुच की आत्मिक अवस्था का वर्णन है। स्वर्ग-भिष्त के तो सिर्फ एकरार ही हैं, मनुष्य सिर्फ आशाएं ही कर सकता हैकि मरने के बाद मिलेगा; पर जिस आत्मिक अवस्था का यहां जिक्र है, उसे मनुष्य यहाँ इस जिंदगी में ही अनुभव कर सकता है, अगर वह जीवन के सही रास्ते पर चलता है। अर्थ: (उस आत्मिक शहर में पहुँचे हुए बंदे उस अवस्था में) आनंद से विचरते हैं; वह उस (ईश्वरीय) महल का भेद जानने वाले होते हैं; (इस वास्ते) कोई (उनके राह में) रोक नहीं डाल सकता। चमार रविदास जिसने (दुख-अंदोह-तशवीश आदि से) छुटकारा पा लिया है कहता है: हमारा मित्र वह है जो हमारा सत्संगी है।3।2। भाव: प्रभु से मिलाप वाली आत्मि्क अवस्था में सदा आनंद ही आनंद बना रहता है। ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ गउड़ी बैरागणि रविदास जीउ ॥ घट अवघट डूगर घणा इकु निरगुणु बैलु हमार ॥ रमईए सिउ इक बेनती मेरी पूंजी राखु मुरारि ॥१॥ पद्अर्थ: घट = रास्ते। अवघट = मुश्किल। डूगर = पहाड़ी, पहाड़ का। घणा = बहुत। निरगुन = गुण हीन। हमार = हमारा, मेरा। रमईआ = सुंदर राम। मुरारी = हे मुरारी! हे प्रभु!।1। अर्थ: (जिस राहों से प्रभु के नाम का सौदा लाद के ले जाने वाला मेरा टांडा गुजरना है, वे) रास्ते बहुत मुश्किल पहाड़ी रास्ते हैं, और मेरा (मन-) बैल कमजोर सा है; प्यारे प्रभु के आगे ही मेरी आरजू है: हे प्रभु! मेरी राशि पूंजी की तूने स्वयं रक्षा करनीं1। (नोट: आँख, कान, नाक, जीभ आदि ज्ञानेंद्रियों का समूह मनुष्य-बन्जारे का टांडा है, इन्होंने नाम-व्यापार लादना है, पर इनके राह में रूप रस आदि अनेक मुश्किल घाटियां हैं।) को बनजारो राम को मेरा टांडा लादिआ जाइ रे ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: को = कोई। बनजारो = व्यापारी, बणज करने वाला। टांडा = बैलों व बैलगाड़ियों, रेड़ों का कारवाँ समूह जिनपे व्यापार-सौदागरी का माल लादा हुआ हो, काफ़ला। रे = हे भाई! लादिआ जाइ = लादा जा सके।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! (अगर सोहाने प्रभु की कृपा से) प्रभु के नाम का वणज करने वाला कोई बंदा मुझे मिल जाए तो मेरा माल भी लादा जा सके (भाव, तो उस गुरमुखि की सहायता से मैं भी हरि-नाम रूपी वणज कर सकूँ)।1। रहाउ। हउ बनजारो राम को सहज करउ ब्यापारु ॥ मै राम नाम धनु लादिआ बिखु लादी संसारि ॥२॥ पद्अर्थ: सहज बापारु = सहज का व्यापार, अडोलता का वणज, वह वणज जिसमें से शांति रूपी कमाई हासिल हो। करउ = करूँ, मैं करता हूँ। हउ = मैं। बिखु = जहर, आत्मिक जीवन को मार देने वाली वस्तु। संसारि = संसार ने, दुनिया दारों ने।2। अर्थ: मैं प्रभु के नाम का व्यापारी हूँ; मैं ये ऐसा व्यापार कर रहा हूँ जिसमें से मुझे सहज अवस्था की कमाई मिले। (प्रभु की मेहर से) मैंने प्रभु के नाम का सौदा लादा है, पर संसार ने (आत्मिक मौत लाने वाली माया रूप) जहर का व्यापार किया है।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |