श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 346 उरवार पार के दानीआ लिखि लेहु आल पतालु ॥ मोहि जम डंडु न लागई तजीले सरब जंजाल ॥३॥ पद्अर्थ: दानीआ = जानने वालो! उरवार पार के दानिया = उस पार और उस पार के जानने वाले! जीवों के लोक = परलोक में किए कामों को जानने वाला! आल पतालु = ऊल जलूल, मन मर्जी की बातें। मोहि = मुझे। डंडु = दण्ड। तजीले = छोड़ दिए हैं।3। अर्थ: जीवों के लोक-परलोक की सब करतूतें जानने वाले हे चित्रगुप्तो! (मेरे बारे) जो तुम्हारा जीअ करे लिख लेना (भाव, यमराज के पास पेश करने के लिए मेरे कामों में कोई बात तुम्हें मिलनी ही नहीं, क्योंकि प्रभु की कृपा से) मैंने सारे जंजाल छोड़ दिए हैं, तभी तो मुझे जम का दण्ड लगना ही नहीं।3। जैसा रंगु कसु्मभ का तैसा इहु संसारु ॥ मेरे रमईए रंगु मजीठ का कहु रविदास चमार ॥४॥१॥ पद्अर्थ: रमईए रंगु = सोहाने राम (के नाम) का रंग। मजीठ रंगु = मजीठ का रंग, पक्का रंग जैसे मजीठ का रंग होता है, कभी ना उतरने वाला रंग।4। अर्थ: हे चमार रविदास! कह: (ज्यों ज्यों मैं राम-नाम का वणज कर रहा हूं, मुझे यकीन आ रहा है कि) ये जगत ऐसे है जैसे कुसंभे का (कच्चा) रंग। और मेरे प्यारे राम के नाम का रंग ऐसा है जैसे मजीठ का (पक्का) रंग।4। नोट: इस शब्द के पहले बंद में भक्त रविदास जी ‘रमईऐ’ के आगे विनती करते वक्त उसे ‘मुरारि’ शब्द से संबोधित करते हैं। अगर आप किसी खास एक अवतार के पुजारी होते तो श्री रामचंद्र के वास्ते ‘मुरारि’ शब्द का इस्तेमाल ना करते, क्योंकि ‘मुरारि’ तो कृष्ण जी का नाम है। भाव: सत्संगियों में मिल के नाम-धन कमाने से विकारों का भार उतर जाता है। गउड़ी पूरबी रविदास जीउ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ कूपु भरिओ जैसे दादिरा कछु देसु बिदेसु न बूझ ॥ ऐसे मेरा मनु बिखिआ बिमोहिआ कछु आरा पारु न सूझ ॥१॥ पद्अर्थ: कूप = कूआँ। दादिरा = मेंढक। बिदेसु = परदेस। बूझ = समझ, वाकफियत। ऐसे = इस तरह। बिखिआ = माया। बिमोहिआ = अच्छी तरह मोहा हुआ। आरा पारु = इस पार उस पार। न सूझ = नहीं सूझता।1। अर्थ: जैसे (कोई) कूँआ मेंढकों से भरा हो, (उन मेंढकों को) कोई इलम नहीं होता (कि इस कूँएं से बाहर भी कोई और) देस परदेस भी है; वैसे ही मेरा मन माया (के कूँएं) में इतनी गहरी तरह फसा हुआ है कि इसे (माया के कूएं में से निकलने के लिए) कोई इस पार का उस पार का छोर नहीं सूझता।1। सगल भवन के नाइका इकु छिनु दरसु दिखाइ जी ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: नाइका = हे मालिक! दरसु = दीदार।1। रहाउ। अर्थ: हे सारे भवनों के सरदार! मुझे एक पल भर के लिए (ही) दीदार दे।1। रहाउ। मलिन भई मति माधवा तेरी गति लखी न जाइ ॥ करहु क्रिपा भ्रमु चूकई मै सुमति देहु समझाइ ॥२॥ पद्अर्थ: मलिन = मलीन, मैली। मति = अक्ल। माधवा = हे प्रभु! गति = हालत। लखी न जाइ = पहचानी नहीं जा सकती। भ्रमु = भटकना। चूकई = खत्म हो जाए। मै = मुझे।2। अर्थ: हे प्रभु! मेरी मति (विकारों से) मैली हुई पड़ी है, (इस वास्ते) मुझे तेरी गती की पहचान नहीं आती (अर्थात, मुझे समझ नहीं आती कि तू कैसा है)। हे प्रभु! मेहर कर, मुझे चतुर मति समझा, (ताकि) मेरा भटकना समाप्त हो जाए।2। जोगीसर पावहि नही तुअ गुण कथनु अपार ॥ प्रेम भगति कै कारणै कहु रविदास चमार ॥३॥१॥ पद्अर्थ: जोगीसर = जोगी+ईसर, बड़े बड़े जोगी। कथनु नही पावहि = अंत नहीं पा सकते। कै कारणै = की खातिर। प्रेम कै कारणै = प्रेम (की दाति) हासिल करने के लिए। कहु = कह। गुण कहु = गुण बयान कर, महिमा कर। तुअ = तेरे।3। अर्थ: (हे प्रभु!) बड़े-बड़े जोगी (भी) तेरे बेअंत गुणों का अंत नहीं पा सकते, (पर) हे रविदास चमार! तू प्रभु की महिमा कर, ताकि तुझे प्रेम और भक्ति की दाति मिल सके।3।1। भाव: प्रभु दर पर अरदास- हे प्रभु! मेरे माया-मोहे-मन को अपना दीदार बख्श के अच्छी तरह सुकर्म में लगाओ। गउड़ी बैरागणि ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सतजुगि सतु तेता जगी दुआपरि पूजाचार ॥ तीनौ जुग तीनौ दिड़े कलि केवल नाम अधार ॥१॥ पद्अर्थ: सतजुगि = सतयुग में। सतु = दान, शास्त्रों की विधि के अनुसार किए हुए दान आदि कर्म। तेता जगी = त्रेता युग यज्ञों में (प्रवृत्त है)। दुआपरि = द्वापर में। पूजाचार = पूजा आचार, देवताओं की पूजा आदि कर्म। द्रिढ़ै = दृढ़ कर रहे हैं, जोर दे रहे हैं। नाम अधार = (श्री राम व श्री कृष्ण अवतार के) नाम का आसरा, श्री राम चंद्र और कृष्ण जी की मूर्ति में तवज्जो/ध्यान जोड़ के उनके नाम का जाप।1। अर्थ: (हे पंडित जी! तुम कहते हो कि हरेक युग में अपना-अपना कर्म ही प्रधान है, इस अनुसार) सतिजुग में दान आदि प्रधान था, त्रेता युग यज्ञों में प्रवृत्त रहा, द्वापर में देवताओं की पूजा प्रधान कर्म था; (इसी तरह तुम कहते हो कि) तीनों युग इन तीनों कर्मों धर्मों पर जोर देते हैं; और अब कलियुग में सिर्फ (राम) नाम का आसरा है।1। पारु कैसे पाइबो रे ॥ मो सउ कोऊ न कहै समझाइ ॥ जा ते आवा गवनु बिलाइ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: पारु = संसार समुंदर का परला छोर। पाइबो = पाओगे। रे = हे भाई! हे पंडित! मो कउ = मुझे। कोऊ = इन कर्म काण्डी पंडितों में से कोई भी। आवागवनु = पैदा होना मरना, जनम मरन का चक्कर। बिलाइ = दूर हो जाए।1। रहाउ। अर्थ: पर हे पण्डित! (इन युगों के बँटे हुए कर्मों धर्मों से, संसार समुंदर का) परला छोर कैसे ढूँढोगे? (तुममें से) कोई भी मुझे ऐसा काम समझा के नहीं बता सका, जिसकी सहायता से (मनुष्य के) जन्म-मरण का चक्कर खत्म हो सकें।1। रहाउ। बहु बिधि धरम निरूपीऐ करता दीसै सभ लोइ ॥ कवन करम ते छूटीऐ जिह साधे सभ सिधि होइ ॥२॥ पद्अर्थ: बहु बिधि = कई तरीकों से। बिधि = विधि, तरीका। धरम = शास्त्रों के अनुसार बताए गए हरेक वर्ण-आश्रम के अलग-अलग कर्तव्य। निरूपीऐ = निरूपित, निर्धारित किए गए हैं, हद बंदी की गई है। सभ लोइ = सारा जगत। करता दीसै = उन धार्मिक रस्मों को करता दिखाई दे रहा है। जिह साधे = जिसके साधन से, जिस धार्मिक कर्म के करने से। सिधि = कामयाबी, मानव जनम के उद्देश्य की सफलता।2। अर्थ: (शास्त्रों अनुसार) कई तरीकों से वर्ण आश्रमों के कर्तव्यों की हद-बंदी की गई है; (इन शास्त्रों को मानने वाला) सारा जगत यही निर्धारित कर्म-धर्म कर रहा है। पर किस कर्म-धर्म के करने से (आवागमन से) निजात मिल सकती है? वह कौन सा कर्म है जिसके साधने से जनम-उद्देश्य सफल होता है? - (ये बात तुम नहीं बता सके)।2। करम अकरम बीचारीऐ संका सुनि बेद पुरान ॥ संसा सद हिरदै बसै कउनु हिरै अभिमानु ॥३॥ पद्अर्थ: करम = वह धार्मिक रस्में जो शास्त्रों ने निर्धारित किए हैं। अकरम = अ+कर्म, वह काम जो शास्त्रों ने मना किए हैं। सुनि = सुन के। संसा = सहसा, सहम, फिक्र। हिरै = दूर करे।3। अर्थ: वेदों और पुराणों को सुन के (बल्कि और ही) शंका बढ़ती है। यही विचार करते रह जाते हैं कि भला कौन सा कर्म शास्त्रोंके अनुसार है, और कौन सा कर्म शास्त्रों में वर्जित किया है। (वर्ण-आश्रमों के कर्म-धर्म करते हुए ही, मनुष्य के) दिल में सहम तो टिका रहता है, (फिर) वह कौन सा कर्म-धर्म (तुम बताते हो) जो मन का अहंकार दूर करे?।3। बाहरु उदकि पखारीऐ घट भीतरि बिबिधि बिकार ॥ सुध कवन पर होइबो सुच कुंचर बिधि बिउहार ॥४॥ पद्अर्थ: बाहरु = (शरीर का) बाहरी क्षेत्र।उदकि = उदक के साथ, पानी के साथ। पखारीऐ = धो दें। घट = हृदय। बिबिधि = वि+विधि, कई विधियों से, कई किस्म के। होइबो = होवोगे। कुंचर = हाथी। बिउहार = व्यवहार, काम।4। (नोट: शब्द ‘बाहरु’ और ‘बाहरि’ में फर्क है। ‘बाहरु’ है संज्ञा और ‘बाहरि’ क्रिया विशेषण)। अर्थ: (हे पण्डित! तूम तीर्थ-सनान पर जोर देते हो, पर तीर्थों पर जा के शरीर का) बाहरी क्षेत्र ही पानी में धोते हैं, दिल में कई किस्म के विकार टिके ही रहते हैं, (इस तीर्थ-स्नान से) कौन पवित्र हो सकता है? ये सुच तो ऐसी ही होती है जैसे हाथी का स्नान-कर्म है।4। रवि प्रगास रजनी जथा गति जानत सभ संसार ॥ पारस मानो ताबो छुए कनक होत नही बार ॥५॥ पद्अर्थ: रवि = सूरज। रजनी = रैन, रात। जथा गति = जैसे दूर हो जाती है। मानो = जानो। कनक = सोना। होत नही बार = चिन्ता नहीं लगती।5। अर्थ: (पर, हे पण्डित!) सारा संसार ये बात जानता है कि सूरज के चढ़ने से कैसे रात (का अंधेरा) दूर हो जाता है। ये बात भी याद रखने वाली है कि तांबे के पारस के साथ छूने से उसके सोना बनने में देर नहीं लगती।5। परम परस गुरु भेटीऐ पूरब लिखत लिलाट ॥ उनमन मन मन ही मिले छुटकत बजर कपाट ॥६॥ पद्अर्थ: परम परस = सब पारसों में बढ़िया पारस। भेटीऐ = मिल जाए। लिलाट = माथे पर। उनमन = (संस्कृत: उन्मनस् = Adj.- anxious, eager, impatient) तमन्ना भरा। उनमन मन = वह हृदय जिसमें प्रभु प्रीतम को मिलने की चाहत पैदा हो गई है। मन ही = मनि ही, मन में ही, अंदर ही, अंतरात्मे ही। बजर = वज्र, करड़े, सख्त, पक्के। कपाट = किवाड़, दरवाजे की भित्त।6। अर्थ: (इसी तरह) यदि पूर्बले भाग्य जागें तो सतिगुरु मिल जाता है जो सब पारसों से बढ़िया पारस है। (गुरु की कृपा से) मन में परमात्मा के मिलने की चाहत पैदा हो जाती है, वह अंतरात्मे ही प्रभु से मिल लेता है, मन के कठोर किवाड़ खुल जाते हैं।6। भगति जुगति मति सति करी भ्रम बंधन काटि बिकार ॥ सोई बसि रसि मन मिले गुन निरगुन एक बिचार ॥७॥ पद्अर्थ: जुगति = तरीका साधन। भगति जुगति = बंदगी-रूप साधन (प्रयोग करके)। मति = बुद्धि। सति करी = पक्की कर ली, दृढ़ कर ली, माया में डोलने से रोक ली। काटि = काट के। सोई = वही मनुष्य। बसि = बस के, टिक के, प्रभु की याद में टिक के। रसि = आनंद से। मन मिले = मन ही मिले, अंतरात्मे ही प्रभु को मिल जाते हैं। निरगुन = माया के तीनों गुणों से रहित प्रभु। गुन बिचार = गुणों की विचार, गुणों की याद।7। अर्थ: जिस मनुष्य ने प्रभु की भक्ति में जुड़ के (इस भक्ति की इनायत से) भटकनों, विकारों और माया के बंधनों को काट के अपनी बुद्धि को माया में डोलने से रोक लिया है, वही मनुष्य (प्रभु की याद में) टिक के आनंद से (प्रभु को) अंतर-आत्मा में ही मिल लेता है, और उस एक परमात्मा के गुणों की याद में जुड़ा रहता है, जो माया के तीन गुणों से परे है।7। अनिक जतन निग्रह कीए टारी न टरै भ्रम फास ॥ प्रेम भगति नही ऊपजै ता ते रविदास उदास ॥८॥१॥ पद्अर्थ: निग्रह = रोकना, मन को रोकना, मन को विकारों की ओर से रोकना। टारी न टरै = टाले नहीं टलती। भ्रम फास = भ्रम की फाही। प्रेम भगति = प्रेमा भक्ति, प्यार भरी याद, प्रभु की प्यार भरी याद। उदास = इन प्रयत्नों से निराश, इन कर्मों धर्मों से उपराम।8। अर्थ: (प्रभु की याद के बिना) मन को विकारों से रोकने के अगर अन्य अनेक प्रयत्न भी किए जाएं, (तो भी विकारों में) भटकनों की फाँसी टाले नहीं टलती। (कर्मकांड के) इन यत्नों से प्रभु की प्यार भरी याद (दिल में) पैदा नहीं हो सकती। इसलिए मैं रविदास इन कर्मों-धर्मों से निराश हूँ।8।1। शब्द का भाव: ये बात गलत है कि दिल में परमात्मा की प्रेमा-भक्ति पैदा करने के लिए हरेक युग में मनुष्य के वास्ते अलग-अलग कर्म-धर्म प्रधान रहे हैं। कोई दान, यज्ञ, देव पूजा, अवतार भक्ति, तीर्थ स्नान मनुष्य को माया की फाही से नहीं बचा सकता, और, ना ही प्रभु के चरणों में जोड़ सकता है। नोट: गुरबाणी का यही आशय है कि चाहे कोई मिथा हुआ सतियुग है, चाहे त्रेता या द्वापर, और चाहे कलियुग है; दुनिया के विकारों से बच के जीवन का सही रास्ता तलाशने के लिए परमात्मा की भक्ति ही एक मात्र कठिन प्रयत्न है। (इस शब्द का अर्थ 2 और 3 जून 1957 को लिखा गया) नोट: ‘रहाउ’ की तुकों में रविदास जी कहते हैं कि कोई मनुष्य मुझे ये बात नहीं समझाता कि जनम-मरण का चक्कर कैसे खत्म होगा, और जगत के संसों में से कैसे खलासी होगी। जब हम शब्द के बाकी बंद पढ़ते हैं, तो इनमें भक्त जी कहते हैं कि (पंडित) लोग कई तरह के कर्मकांड की आज्ञा कर रहे हें। पर रविदास जी के ख्याल अनुसार ये सारे कर्म-धर्म विकारो-संसों से पार नहीं लंघा सकते। बंद नंबर 4 तक आप यही बात कहते जा रहे हैं। बंद नं: 5 से भक्त जी ने अपना ज्ञान देना आरम्भ किया कि गुरु पारस को मिल के विकारों में मैला हुआ मन सोना बन जाता है। अखिरी बंद में फिर कहते हैं कि कर्मकांड आदि के और सारे यत्न व्यर्थ हैं, इनसे प्रभु की प्रेमा-भक्ति पैदा नहीं होती, इस वास्ते मैं ये कर्मकांड नहीं करता। शब्द के बंदों की इस तरतीब से बात साफ दिखाई दे रही है कि पहले बंद में भी रविदास जी पंडित लोगों का ही ज्ञान बयान कर रहे हैं, उनके अपने ज्ञान का इसमें कोई वर्णन नहीं है। हिन्दुओं की पुरानी धर्म-पुस्तकें ही जुगों का बटवारा करती आई हैं, और, हरेक युग का अलग-अलग धर्म बताते आए हैं। मिसाल के तौर पर, पुस्तक ‘महाभारत’ में युगों के बटवारे के बारे में यूँ जिकर आता है: द्वापरे मन्त्रशक्तिस्तु, ज्ञानशक्ति: कृते युगे॥ पर, रविदास जी हिन्दू-शास्त्रों के किसी किस्म के युगों के बँटवारे की बात से सहमत नहीं हैं। अगर थोड़ा विचार के भी देखें तो ये कैसे हो सकता है कि कभी तो घोड़े आदि मार के यज्ञ करना जीवन का सही रास्ता हो, कभी तीर्थों का स्नान मानव जनम का मनोरथ हो, कभी देवताओं की पूजा कभी अवतारों की पूजा इन्सानी फर्ज हों। कुदरति के नियम सदा अटल हैं, जब से सृष्टि बनी है, और जब तक बनी रहेगी, इन नियमों कोई फर्क नहीं पड़ना। जगत के वही पाँच तत्व अब हैं जो सृष्टि के आरम्भ में थे। मनुष्य खुद भटकनों-भुलेखों में पड़ कर भले ही कई कुरीतियां पकड़ ले, पर परमात्मा और उसके पैदा हुए जीवों का परस्पर संबंध सदा एकसमान चला आ रहा है। इस शब्द में जो खास ध्यान देने योग्य बात है वह ये है कि पहले बंद में रविदास जी हिन्दू-शास्त्रों का ही पक्ष बता रहे हैं, उनकी अपनी सम्मति इसके साथ नहीं है। इसमें कोई शक् नहीं कि इस बंद के आखिर में आधी तुक इस तरह है, ‘कलि केवल नाम अधार’। ऊपरी नजर से हम इस भुलेखे में पड़ जाते हैं कि ये भक्त जी का अपन सिद्धांत है, पर ये बात नहीं। रविदास जी इसकी बाबत भी यही कहते हैं कि; “प्रेम भगति नही ऊपजे, ता ते रविदास उदास।” आसा की वार की पउड़ी नंबर 6 के साथ पहला श्लोक भी इसी किस्म का है। इस श्लोक में गुरु नानक देव जी मुसलमान, हिन्दू, जोगी, दानी और विकारी; इनका जीवन-कर्तव्यबता के आखिर में और अपना ख्याल यूँ बताते हैं कि: नानक भगता भुख सालाहणु, सचु नाम आधारु॥ सदा अनंदि रहहि दिनु राती, गुणवंतिआ पा छारु॥१॥६॥ पर टीकाकार सज्जन इस शलोक की पहली दो तुकों के अर्थ करने में गलती करते आ रहे हैं, ये तुके हैं; “मुसलमाना सिफ़ति–सरीअति, पढ़ि पढ़ि करहि बीचारु॥ बंदे से जि पवहि विचि बंदी, वेखण कउ दीदारु”॥ यहां आम तौर पे लोग दूसरी तुक में दिए गए विचार को गुरु नानक देव जी का अपना सिद्धांत समझते हैं, पर ख्याल बिल्कुल ही ग़लत है; यहां मुसलमानी शरह का ही वर्णन है (पढ़ो मेरी ‘आसा दी वार सटीक’)। इसी तरह रविदास जी “कलि केवल नाम अधार” में अपना ज्ञान नहीं बता रहे, वे तो ये बात कह के आगे साथ ये भी कहते हैं कि; “पारु कैसे पाइबो रे॥ मो कउ कोऊ न कहै समझाइ॥ जा ते आवागवनु बिलाइ”॥१॥ रहाउ॥ तो फिर, जिस लोगों ने युगों का बटवारा करके ‘कलि केवल नाम अधार” कहा, उन्होंने यहाँ नाम को क्या समझा था, और रविदास जी क्यूँ इसका विरोध करते हैं? इस प्रश्न का सही उत्तर ढूँढने के लिए भैरव राम में कबीर जी के एक शब्द से सहायता मिलती है। शब्द नंबर: 11 में कबीर जी मुल्ला, काजी, सुल्तान, जोगी और हिन्दू का वर्णन करते हुए आखिरी बंद में लिखते हैं; “जोगी गोरखु गोरखु करै॥ हिंदू राम नाम उचरै॥ मुसलमान का एकु खुदाइ॥ कबीर का सुआमी रहिआ समाइ”॥४॥३॥११॥ यहां कबीर जी जोगी, हिंदू और मुसलमान के बनाए हुए ईष्ट-परमात्मा को नकारते हैं, और अपने स्वामी के बारे में कहते हैं कि वह ‘रहिआ समाइ’। ‘रहाउ’ में भी अपने ‘स्वामी’ के प्रथाए लिखते हैं; “है हजूरि कति दूरि बतावहु॥ दुंदर बाधहु सुंदर पावहु”॥ (नोट: इस शब्द के मरम को विस्तार से समझने के लिए भैरव राग में इस शब्द के साथ मेरा लिखा नोट पढ़ें)। कबीर जी हिन्दू के जिस “राम नाम” को नकार रहे हैं, उसी “नाम आधार” की बाबत रविदास जी कहते हैं कि “पारु कैसे पाइबो रे”। सो, ये ‘राम नाम’ कौन सा है? ये है “अवतारी राम का नाम”, ये है अवतार-भक्ति। शास्त्रों के बटवारे के अनुसार; दान आदि सतियुग का धर्म, देवताओं की पूजा द्वापर का धर्म और अवतार-भक्ति (मूर्ति पूजा) कलियुग का धर्म है। पर, रविदास जी लिखते हैं इन चारों ही धर्मों को कमाने से; “प्रेम भगति नही ऊपजै, ता ते रविदास उदास॥ ” |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |