श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 352 मन चूरे खटु दरसन जाणु ॥ सरब जोति पूरन भगवानु ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: चूरे = चूरा चूरा करके, बुरे संस्कारों का नाश करे। खटु = छह। खटु दरसन = छह शास्त्र (सांख, न्याय, योग, वेदांत, मीमांसा, वैशेषिक)। जाणु = ज्ञाता। सरब जोति = सब जीवों में व्यापक ज्योति।1। रहाउ। अर्थ: जो मनुष्य अपने मन को वश में कर लेता है, वह, मानो, छह शास्त्रों का ज्ञाता हो गया है उसको अकाल-पुरख की ज्योति सब जीवों में व्यापक दिखती है।1। रहाउ। अधिक तिआस भेख बहु करै ॥ दुखु बिखिआ सुखु तनि परहरै ॥ कामु क्रोधु अंतरि धनु हिरै ॥ दुबिधा छोडि नामि निसतरै ॥२॥ पद्अर्थ: अधिक = बहुत। तिआस = तृष्णा। दुखु बिखिआ = माया की तृष्णा से पैदा हुआ दुख। तनि = शरीर। विच परहरै = दूर कर देता है। धनु = नाम धन। हिरै = चुरा लेता है। छोडि = छोड़ के। नामि = नाम में (जुड़ के)। निसतरै = पार गुजर जाता है।2। अर्थ: पर, अगर मनुष्य के अंदर माया की तृष्णा हो, तो (बाहर जगत दिखावे के लिए चाहे) बहुत धार्मिक लिबास पहने, पर माया के मोह से उपजे कष्ट उसके अंदर के आत्मिक सुख को दूर कर देते हैं, और काम-क्रोध उसके अंदर के नाम-धन को चुरा ले जाते हैं। (तृष्णा की बाढ़ में से वही मनुष्य) पार होता है जो प्रभु के नाम में जुड़ा रहता है और जो दुचिक्तापन छोड़ता है।2। सिफति सलाहणु सहज अनंद ॥ सखा सैनु प्रेमु गोबिंद ॥ आपे करे आपे बखसिंदु ॥ तनु मनु हरि पहि आगै जिंदु ॥३॥ पद्अर्थ: सहज अनंद = अडोलता का आनंद। सैनु = मित्र। आगै = (हरि के) आगे।3। अर्थ: (जिसने मन को मार लिया) वह परमात्मा की महिमा करता है आत्मिक अडोलता का आनंद पाता है, गोबिंद के प्रेम को अपना साथी-मित्र बनाता है, वह मनुष्य अपना तन, अपना मन अपनी जिंद प्रभु के हवाले किए रहता है। उसे यकीन रहता है कि प्रभु खुद ही (जीवों को) पैदा करता है और खुद ही दातें बख्शने वाला है।3। झूठ विकार महा दुखु देह ॥ भेख वरन दीसहि सभि खेह ॥ जो उपजै सो आवै जाइ ॥ नानक असथिरु नामु रजाइ ॥४॥११॥ पद्अर्थ: देह = शरीर। दीसहि = दिखते हैं। सभि = सारे। उपजै = पैदा होता है। जाइ = चला जाता है। असथिरु = सदा स्थिर रहने वाला।4। अर्थ: (मन मार के आत्मिक आनंद लेने वाले को) झूठ आदि विकार शरीर के लिए भारी कष्ट (का मूल) प्रतीत होते हैं, (जगत दिखावे वाले) सारे धार्मिक वेष और वर्ण (-आश्रमों का गुमान) मिट्टी के समान दिखाई देते हैं। हे नानक! उसे यकीन रहता है कि जगत तो पैदा होता है और नाश हो जाता है। परमात्मा का एक नाम ही सदा स्थिर रहने वाला है (इस वास्ते वह नाम जपता है)।4।11। आसा महला १ ॥ एको सरवरु कमल अनूप ॥ सदा बिगासै परमल रूप ॥ ऊजल मोती चूगहि हंस ॥ सरब कला जगदीसै अंस ॥१॥ पद्अर्थ: सरवरु = सोहाना तालाब, सरोवर। अनूप = सुंदर। बिगासे = खिलता है। परमल = सुगंधि। रूप = सुंदरता। हंस = सत्संगी, गुरमुख। सरब कला = सारी ताकतों वाला। जगदीसै = जगदीश का। अंस = हिस्सा।1। अर्थ: (सत्संग) एक सरोवर है (जिस में) संत-जन सुंदर कमल-पुष्प हैं। (सत्संग उनको नाम-जल दे के) सदा खिलाए रखता है (उन्हें आत्मिक जीवन की) सुगंधि और सुंदरता देता है। संत-हंस (उस सत्संग-सरोवर में रहके प्रभु की महिमा के) सुंदर मोती चुग के खाते हैं (और इस तरह) सारी ताकतों के मालिक जगदीश का हिस्सा (बने रहते हैं; जगदीश से एक-रूप हुए रहते हैं)।1। जो दीसै सो उपजै बिनसै ॥ बिनु जल सरवरि कमलु न दीसै ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सरवरि = सरोवर में।1। रहाउ। अर्थ: जो कुछ दिखाई दे रहा है (भाव, ये दिखाई देता जगत) पैदा होता है और नाश होता है। पर सरोवर में (उगा हुआ) कमल फूल पानी के बिना नहीं है (इस वास्ते वह नाश होता) नहीं दिखता (भाव, जैसे सरोवर में उगा हुआ कमल फूल पानी के कारण हरा-भरा रहता है, वैसे ही सत्संग में टिके रहने वाले गुरमुख का दिल रूपी कमल सदा आत्मिक जीवन वाला है)।1। रहाउ। बिरला बूझै पावै भेदु ॥ साखा तीनि कहै नित बेदु ॥ नाद बिंद की सुरति समाइ ॥ सतिगुरु सेवि परम पदु पाइ ॥२॥ पद्अर्थ: भेदु = (सत्संग सरोवर की) गुप्त कद्र। साखा तीनि = तीन अवस्थाएं (माया की)। नाद = शब्द, महिमा की वाणी। बिंद = जानना। नाद बिंद की सुरति = शब्द को जानने वाली बुद्धि में। समाइ = लीन होता है। परम = बहुत ऊँचा। पदु = आत्मिक दर्जा।2। अर्थ: (सत्संग-सरोवर की इस) के इस गुप्त लाभ (के भेद) को कोई दुर्लभ व्यक्ति ही समझता है (जगत आम तौर पर त्रिगुणी संसार की बातें ही करता है) वेद (भी) त्रिगुणी संसार का ही वर्णन करते हैं। (सत्संग में रहके) जिस मनुष्य की तवज्जो परमात्मा की महिमा की वाणी की सूझ में लीन रहती है, वह अपने गुरु के बताए हुए राह पर चल के ऊँची से ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल कर लेता है।2। मुकतो रातउ रंगि रवांतउ ॥ राजन राजि सदा बिगसांतउ ॥ जिसु तूं राखहि किरपा धारि ॥ बूडत पाहन तारहि तारि ॥३॥ पद्अर्थ: मुकतो = मुक्त, विकारों से आजाद। रातउ = रमा हुआ। रवांतउ = स्मरण करता है। राजन राजि = राजाओं के राजे (हरि) में। बिगसांतउ = बिगसता है, खिला रहता है। पाहन = पत्थर। तारि = बेड़ी।3। अर्थ: (सत्संग-सरोवर में डुबकी लगाने वाला मनुष्य) माया के प्रभाव से स्वतंत्र है, प्रभु की याद में मस्त रहता है, प्रेम में टिक के स्मरण करता है; राजाओं के राजे प्रभु में (जुड़ा रह के) सदैव प्रसन्न-चित्त रहता है। (पर, हे प्रभु! ये तेरी ही मेहर है) तू मेहर करके जिसको (माया के असर से) बचा लेता है (वह बच जाता है), तू अपने नाम की बेड़ी में (बड़े-बड़े) पत्थर (-दिलों) को तैरा लेता है।3। त्रिभवण महि जोति त्रिभवण महि जाणिआ ॥ उलट भई घरु घर महि आणिआ ॥ अहिनिसि भगति करे लिव लाइ ॥ नानकु तिन कै लागै पाइ ॥४॥१२॥ पद्अर्थ: उलट भई = तवज्जो माया के प्रभाव से पलट गई। घरु = परमात्मा का निवास स्थान। घर महि = (अपने) दिल में। आणिआ = ले आए। अहि = दिन। निसि = रात। पाइ = पैरों पर।4। अर्थ: (जो मनुष्य सत्संग में टिका उसने) तीन भवनों में प्रभु की ज्योति देख ली, उसने सारे जगत में बसते को पहिचान लिया, उसकी तवज्जो माया के मोह से उलट गई, उसने परमात्मा का निवास-स्थान अपने दिल में बना लिया, वह तवज्जो जोड़ के दिन-रात भक्ति करता है। नानक ऐसे (भाग्यशाली संत) जनों की चरनीं लगता है।4।12। आसा महला १ ॥ गुरमति साची हुजति दूरि ॥ बहुतु सिआणप लागै धूरि ॥ लागी मैलु मिटै सच नाइ ॥ गुर परसादि रहै लिव लाइ ॥१॥ पद्अर्थ: हुजति = दलीलबाजी, अश्रद्धा। धूरि = मैल। नाइ = नाम के द्वारा। गुर परसादि = गुरु की कृपा से।1। अर्थ: जो मनुष्य गुरु की (इस) मति को दृढ़ करके धारण करता है, (परमात्मा की अंग-संगता के बारे में) उस मनुष्य की अश्रद्धा दूर हो जाती है। (गुरु की मति पर श्रद्धा की जगह) मनुष्य की अपनी बहुत चतुराईयों से मन में (विकारों की) मैल इकट्ठी होती है। ये एकत्र हुई मैल सदा-स्थिर-प्रभु के नाम द्वारा ही मिट सकती है, और, गुरु की किरपा से ही मनुष्य (परमात्मा के चरणों में) तवज्जो टिका के रख सकता है।1। है हजूरि हाजरु अरदासि ॥ दुखु सुखु साचु करते प्रभ पासि ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: हजूरि = अंग संग। हाजरु = हाजिर हो के, एक मन हो के। साचु = यह यकीन जानो। प्रभ पासि = प्रभु के पास, प्रभु जानता है।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा हर समय हमारे अंग-संग है, एक-मन हो के उसके आगे अरदास करो। ये यकीन जानो कि हरेक जीव का दुख-सुख वह कर्तार प्रभु जानता है।1। रहाउ। कूड़ु कमावै आवै जावै ॥ कहणि कथनि वारा नही आवै ॥ किआ देखा सूझ बूझ न पावै ॥ बिनु नावै मनि त्रिपति न आवै ॥२॥ पद्अर्थ: कूड़ु = बहिसबाजी आदि जैसे व्यर्थ काम। वारा = अंत। कहणि कथनि = कहने में कथन में, व्यर्थ बातों में। किआ देखा = उसने देखा कुछ नहीं। मनि = मन में। त्रिपति = शांति।2। अर्थ: जो मनुष्य (अश्रद्धा भरी चतुराईयों की) व्यर्थ कमाई करता है वह जनम-मरण के चक्कर में पड़ा रहता है, उसकी ये बेकार की बातें कभी खत्म नहीं होती। (अज्ञानी-अंधे ने तुच्छ बातों में ही रहके) अस्लियत नहीं देखी, इस वास्ते उसे कोई समझ नहीं आती, और, परमात्मा के नाम के बिना उसके मन में शांति नहीं आती।2। जो जनमे से रोगि विआपे ॥ हउमै माइआ दूखि संतापे ॥ से जन बाचे जो प्रभि राखे ॥ सतिगुरु सेवि अम्रित रसु चाखे ॥३॥ पद्अर्थ: रोगि = रोग में। विआपे = ग्रसे हुए। हउमै = मैं मैं, अहंकार, बड़ेपन की लालसा। बाचे = बचे। प्रभि = प्रभु ने।3। अर्थ: जो भी जीव जगत में जनम लेते हैं (परमात्मा की हस्ती द्वारा अश्रद्धा के कारण) आत्मिक रोगो से दबे रहते हैं, और अहंकार के दुख में, माया के मोह और दुख में वे कष्ट पाते रहते हैं। इस रोग से, इस दुख से वही लोग बचते हैं, जिनकी प्रभु ने खुद रक्षा की; जिन्होंने गुरु के बताए रास्ते पर चल के प्रभु के अमृत-नाम चखा।3। चलतउ मनु राखै अम्रितु चाखै ॥ सतिगुर सेवि अम्रित सबदु भाखै ॥ साचै सबदि मुकति गति पाए ॥ नानक विचहु आपु गवाए ॥४॥१३॥ पद्अर्थ: चलतउ = चंचल। सेवि = सेव के, हुक्म में चल के। भाखै = उचारता है। सबदि = शब्द द्वारा। विचहु = अपने अंदर से। आपु = स्वैभाव, स्वार्थ।4। अर्थ: जो मनुष्य परमात्मा का सदा स्थिर रहने वाला नाम-रस चखता है, और चंचल मन को काबू में रखता है, जो मनुष्य गुरु की शिक्षा पे चल के अटल आत्मिक जीवन देने वाली महिमा की वाणी उचारता है, वह मनुष्य इस सच्ची वाणी के द्वारा विकारों से खलासी हासिल कर लेता है, उच्च आत्मिक अवस्था प्राप्त कर लेता है, और, हे नानक! वह अपने अंदर से (अपनी बुद्धि का) अहंकार खत्म कर लेता है।4।13। आसा महला १ ॥ जो तिनि कीआ सो सचु थीआ ॥ अम्रित नामु सतिगुरि दीआ ॥ हिरदै नामु नाही मनि भंगु ॥ अनदिनु नालि पिआरे संगु ॥१॥ पद्अर्थ: जो = जिस जीव को। तिनि = उस (परमात्मा) ने। कीआ = अपना बना लिया। सचु = सदा स्थिर प्रभु (का रूप)। सतिगुरि = सतिगुरु ने। अंम्रित = अटल आत्मिक जीवन देने वाला। मनि = मन में। भंगु = कमी, परमात्मा के नाम से विछोड़ा। अनदिनु = हर रोज।1। अर्थ: जिस जीव को उस परमात्मा ने अपना बना लिया, वह उस सदा स्थिर प्रभु का ही रूप बन गया। उसे सतिगुरु ने अटल आत्मिक जीवन देने वाला नाम हरि-नाम दे दिया। उस जीव के हृदय में (सदा प्रभु का) नाम बसता है, उसका मन हमेशा प्रभु चरणों से जुड़ा रहता है, हर रोज (हर समय) प्यारे प्रभु से उसका साथ बना रहता है।1। हरि जीउ राखहु अपनी सरणाई ॥ गुर परसादी हरि रसु पाइआ नामु पदारथु नउ निधि पाई ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: राखहु = रखते हो। नउ निधि = नौ खजाने।1। रहाउ। अर्थ: हे प्रभु जी! जिस मनुष्य को तू अपनी शरण में रखता है, गुरु की किरपा से वह तेरे नाम का स्वाद चख लेता है; उसे तेरा उत्तम नाम प्राप्त हो जाता है (जो उसके लिए, जैसे) नौ-खजाने हैं (भाव, धरती का सारा ही धन-पदार्थ नाम के मुकाबले में उसे तुच्छ प्रतीत होता है)।1। रहाउ। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |