श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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करम धरम सचु साचा नाउ ॥ ता कै सद बलिहारै जाउ ॥ जो हरि राते से जन परवाणु ॥ तिन की संगति परम निधानु ॥२॥

पद्अर्थ: करम = यज्ञ आदि कर्म। धरम = वर्णाश्रम के निर्धारित कर्तव्य। सचु = सदा स्थिर प्रभु (का स्मरण)। परम = सब से ऊँचा। निधान = खजाना।2।

अर्थ: मैं उस मनुष्य से सदके जाता हूँ जो प्रभु के सदा स्थिर नाम को ही सब से श्रेष्ठ कर्म व धार्मिक फर्ज समझता है। प्रभु की हजूरी में वही मनुष्य स्वीकार हैं जो प्रभु के प्यार में रंगे रहते हैं, उनकी संगति करने से सबसे कीमती (नाम) खजाना मिलता है।2।

हरि वरु जिनि पाइआ धन नारी ॥ हरि सिउ राती सबदु वीचारी ॥ आपि तरै संगति कुल तारै ॥ सतिगुरु सेवि ततु वीचारै ॥३॥

पद्अर्थ: वरु = पति। जिनि = जिस ने। धन = धन्य, भाग्यशाली। राती = रती हुई। ततु = सार वस्तु (मानव जनम का असल लाभ)।3।

अर्थ: वह जीव-स्त्री भाग्यशाली है जिसने प्रभु-पति (को अपने दिल में) पा लिया है, जो प्रभु के प्यार में रंगी रहती है, जो प्रभु की महिमा की वाणी को (अपने मन में) विचारती है। वह जीव-स्त्री स्वयं (संसार-समुंदर से) पार लांघ जाती है, और अपनी संगत में अपने कुल को पार लंघा लेती है। सतिगुरु के बताए हुए राह पर चल कर मानव जन्म का असल लाभ वह अपनी आँखों के सामने रखती है।3।

हमरी जाति पति सचु नाउ ॥ करम धरम संजमु सत भाउ ॥ नानक बखसे पूछ न होइ ॥ दूजा मेटे एको सोइ ॥४॥१४॥

पद्अर्थ: सत भाउ = सच्चा प्यार। दूजा = परमात्मा के बिना किसी और का प्यार।4।

अर्थ: (दुनियां में किसी को उच्च जाति का गुमान है, किसी का ऊँचे कुल का धरवास है। हे प्रभु! मेहर कर) तेरा सदा स्थिर रहने वाला नाम ही मेरे वास्ते ऊँची जाति और कुल हो, तेरा सच्चा प्यार ही मेरे लिए धार्मिक कर्म, धर्म और जीवन-जुगति हो।

हे नानक! जिस मनुष्य पर प्रभु अपने नाम की बख्शिश करता है (उसका जन्म-जन्मांतरों के कर्मों का लेखा निपट जाता है) उससे (फिर) किए कर्मों का हिसाब नहीं लिया जाता, उसको (हर तरफ़) एक प्रभु ही दिखाई देता है, प्रभु के बिना किसी और के अस्तित्व का विचार ही उसके अंदर से मिट जाता है।4।14।

आसा महला १ ॥ इकि आवहि इकि जावहि आई ॥ इकि हरि राते रहहि समाई ॥ इकि धरनि गगन महि ठउर न पावहि ॥ से करमहीण हरि नामु न धिआवहि ॥१॥

पद्अर्थ: इकि = कई, अनेक जीव। आवहि = जनम लेते हैं। आई = आ के, जनम ले के। जावहि = (खाली ही) चले जाते हैं। रहहि समाई = (प्रभु चरणों में) लीन रहते हैं। धरनि = धरती। गगन = आकाश। महि = में। ठउर = जगह, मन के टिकने के लिए जगह। करमहीण = कर्महीन, अभागे।1।

नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।

अर्थ: अनेक जीव जगत में जन्म लेते हैं और (ऊँची आत्मिक अवस्था की प्राप्ति के बिना) सिर्फ पैदा ही होते हैं और (फिर यहां से) चले जाते हैं। पर, एक (सौभाग्यशाली ऐसे) हैं जो प्रभु के प्यार में रंगे रहते हैं और प्रभु की याद में रहते हैं। जो लोग प्रभु का नाम नहीं स्मरण करते, वे अभागे हैं (उनके मन सदा भटकते रहते हैं) सारी सृष्टि में उन्हें कहीं भी शांति नहीं मिलती।1।

गुर पूरे ते गति मिति पाई ॥ इहु संसारु बिखु वत अति भउजलु गुर सबदी हरि पारि लंघाई ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: गति = उच्च आत्मिक अवस्था। मिति = मर्यादा। बिखु = विष, ज़हर। बिखु वत = विहुला, विषौला। अति = बहुत। भउजलु = घुम्मणघेरी।1। रहाउ।

अर्थ: ऊँचे आत्मिक जीवन की मर्यादा पूरे गुरु से ही मिलती है। ये संसार एक बहुत ही विषौला चक्रवात है। परमात्मा, गुरु के शब्द में जोड़ के और (उच्च आत्मिक जीवन बख्श के) इसमें से पार लंघाता है।1। रहाउ।

जिन्ह कउ आपि लए प्रभु मेलि ॥ तिन कउ कालु न साकै पेलि ॥ गुरमुखि निरमल रहहि पिआरे ॥ जिउ जल अ्मभ ऊपरि कमल निरारे ॥२॥

पद्अर्थ: पेलि न साकै = (पेलना = सरसों अलसी आदि को मशीन में पीढ़ के तेल निकालने की क्रिया) पीढ़ नहीं सकता, गिरा नहीं सकता। कालु = मौत (का डर)। निरमल = पवित्र आत्मा। अंभ = पानी। निरारे = निरलेप।2।

अर्थ: जिस लोगों को प्रभु स्वयं अपनी याद में जोड़ता है, उन्हें मौत का डर डरा नहीं सकता। गुरु के सन्मुख रहके (माया में रहते हुए भी) वह प्यारे ऐसे पवित्र-आत्मा बने रहते हैं जैसे पानी में कमल-फूल निर्लिप रहते हैं।2।

बुरा भला कहु किस नो कहीऐ ॥ दीसै ब्रहमु गुरमुखि सचु लहीऐ ॥ अकथु कथउ गुरमति वीचारु ॥ मिलि गुर संगति पावउ पारु ॥३॥

पद्अर्थ: कहु = कहो। सचु = सदा स्थिर रहने वाला हरि। कथउ = मैं कहता हूँ। पावउ = मैं ढूँढता हूँ। पारु = परला छोर (शब्द ‘पारि’ और ‘पारु’ में अंदर है। “हरि पारि लंघाई” में शब्द ‘पारि’ क्रिया विशेषण है, इसका अर्थ है ‘परली ओर’ परली तरफ। “पावउ पारु” में ‘पारु’ संज्ञा है, अर्थ है ‘परला बन्ना’ परला किनारा)।3।

अर्थ: पर, ना किसी को बुरा ना किसी को अच्छा कहा जा सकता है क्योंकि हरेक में परमात्मा ही बसता दिखाई देता है। हाँ, वह सदा स्थिर प्रभु मिलता है गुरु के सन्मुख होने पर ही। परमात्मा का स्वरूप बयान से परे है। गुरु की मति ले के ही मैं उस के (कुछ) गुण कह सकता हूँ और विचार सकता हूँ। गुरु की संगति में रहके ही मैं (इस विषौले चक्रवात का) परला सिरा पा सकता हूँ।3।

सासत बेद सिम्रिति बहु भेद ॥ अठसठि मजनु हरि रसु रेद ॥ गुरमुखि निरमलु मैलु न लागै ॥ नानक हिरदै नामु वडे धुरि भागै ॥४॥१५॥

पद्अर्थ: सासत = छह शस्त्र (वेदांत, न्याय, योग, सांख, मीमांसा, वैशैषिक)। भेद = अलग अलग विचार। अठसठि = अढ़सठ। मजनु = डुबकी, स्नान। रेद = रिदै में, हृदय में। धुरि = धुर से, प्रभु की मेहर से।4।

अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के नाम का आनंद हृदय में महसूस करो- यही है वेद-शास्त्रों स्मृतियों के विभिन्न पहलुओं का विचार, यही है अढ़सठ तीर्थों का स्नान। गुरु के सन्मुख रहके (नाम का आनंद लेने से) जीवन पवित्र रहता है और विकारों की मैल नहीं लगती। हे नानक! धुर से परमात्मा की द्वारा ही मेहर हो, तो नाम हृदय में बसता है।4।15।

आसा महला १ ॥ निवि निवि पाइ लगउ गुर अपुने आतम रामु निहारिआ ॥ करत बीचारु हिरदै हरि रविआ हिरदै देखि बीचारिआ ॥१॥

पद्अर्थ: निवि = झुक के। पाइ = पैरों पर। लागउ = मैं लगूँ। आतम रामु = अपने अंदर बसता राम। निहारिआ = मैं देखता हूँ। रविआ = स्मरण किया है। देखि = देख के।1।

अर्थ: मैं बार-बार अपने गुरु के चरणों में नत्-मस्तक होता हूँ (गुरु की किरपा से) मैंने अपने अंदर बसता राम देख लिया है। (गुरु की सहायता से) परमात्मा के गुणों का विचार करके मैं उसे अपने हृदय में उसका दीदार कर रहा हूँ, उसकी सिफतों को विचार रहा हूँ।1।

बोलहु रामु करे निसतारा ॥ गुर परसादि रतनु हरि लाभै मिटै अगिआनु होइ उजीआरा ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: लाभै = मिलता है।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम स्मरण करो। स्मरण (संसार-समुंदर से) पार लंघा लेता है। जब गुरु की किरपा से कीमती हरि-नाम मिल जाता है अंदर से अज्ञानता का अंधकार मिट जाता है, और ज्ञान का प्रकाश हो जाता है।1। रहाउ।

रवनी रवै बंधन नही तूटहि विचि हउमै भरमु न जाई ॥ सतिगुरु मिलै त हउमै तूटै ता को लेखै पाई ॥२॥

पद्अर्थ: रवनी = रवाणी, ज़बानी ज़बानी। रवै = जो बोलता है। भरमु = भटकना। ता = तब। को = कोई मनुष्य। लेखै पाई = स्वीकार होता है।2।

अर्थ: (जो मनुष्य स्मरण तो नहीं करता, पर) सिर्फ ज़बानी-ज़बानी से (ब्रहमज्ञान की) बातें करता है, उसके (माया के) बंधन नहीं टूटते, वह अहंकार में ही फंसा रहता है (भाव, मैं बड़ा बन जाऊँ, मैं बड़ा बन जाऊँ- इसी चक्रवात में फंसा रहता है), उसके मन की भटकना दूर नहीं होती। जब पूरा गुरु मिले तभी हउमें टूटती है, और तभी मनुष्य (प्रभु की हजूरी में) स्वीकार होता है।2।

हरि हरि नामु भगति प्रिअ प्रीतमु सुख सागरु उर धारे ॥ भगति वछलु जगजीवनु दाता मति गुरमति हरि निसतारे ॥३॥

पद्अर्थ: भगति प्रिअ = प्यारे की भक्ति। सुख सागरु = सुखों का समुंदर (प्रभु)। उर धारे = दिल में टिकाता है। वछलु = वत्सल, प्यार करने वाला। जग जीवनु = जगत का जीवन (प्रभु)।3।

अर्थ: जो मनुष्य हरि नाम स्मरण करता है, प्यारे की भक्ति करता है, सुखों के समुंदर प्रभु प्रीतम को अपने हृदय में बसाता है, उस मनुष्य को भक्ति को प्यार करने वाला प्रभु, जगत की जिंदगी का आसरा प्रभु, श्रेष्ठ मति देने वाला प्रभु, गुरु के उपदेश की इनायत से (संसार-समुंदर से) पार लंघा लेता है।3।

मन सिउ जूझि मरै प्रभु पाए मनसा मनहि समाए ॥ नानक क्रिपा करे जगजीवनु सहज भाइ लिव लाए ॥४॥१६॥

पद्अर्थ: जूझि = जूझ के, लड़ के, तगड़ा मुकाबला करके। मनसा = मन का फुरना। मनहि = मन में ही। समाए = लीन कर दे। सहज भाइ = आसानी से ही।4।

अर्थ: जो जीव अपने मन से करारा मुकाबला करके अहंकार को मार लेता है, मन के फुरनों को मन के अंदर ही (प्रभु की याद में) लीन कर लेता है। हे नानक! जगत का जीवन, प्रभु, जिस मनुष्य पर मेहर करता है, वह अडोल चिक्त रहके (प्रभु चरणों में) जुड़ा रहता है।4।16।

आसा महला १ ॥ किस कउ कहहि सुणावहि किस कउ किसु समझावहि समझि रहे ॥ किसै पड़ावहि पड़ि गुणि बूझे सतिगुर सबदि संतोखि रहे ॥१॥

पद्अर्थ: समझि रहे = जो ज्ञानवान हो गए। किसे पढ़ावहि = अपनी विद्या का दिखावा किसी के आगे नहीं करते। गुणि = विचार के। संतोखि = संतोष में। रहे = रहते हैं, जीवन व्यतीत करते हैं।1।

अर्थ: (‘गहिर-गंभीर’ प्रभु को स्मरण करने से, स्मरण करने वाला भी गंभीर स्वभाव वाला हो जाता है, उसके अंदर दिखावा और होछापन नहीं रहता), जो मनुष्य (‘गहर गंभीर’ को स्मरण करके) ज्ञानवान हो जाते हैं, वे अपना आप ना किसी को बताते हैं ना सुनाते हैं ना समझाते हैं। जो मनुष्य (‘गहर गंभीर’ की तारीफ) पढ़ के विचार के (जीवन भेद को) समझ लेते हैं, वे अपनी विद्या का दिखावा नहीं करते, गुरु के शब्द में जुड़ के (होछापन त्याग के) वह संतोख का जीवन व्यतीत करते हैं।1।

ऐसा गुरमति रमतु सरीरा ॥ हरि भजु मेरे मन गहिर ग्मभीरा ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: ऐसा हरि = ऐसा परमात्मा। रमतु सरीरा = जो सब शरीरों में व्यापक है। रमतु = व्यापक। मन = हे मन! 1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे मन! गुरु की मति पर चल के उस अथाह और बड़े जिगरे वाले हरि का भजन कर जो सारे शरीरों में व्यापक है।1। रहाउ।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh