श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 354 अनत तरंग भगति हरि रंगा ॥ अनदिनु सूचे हरि गुण संगा ॥ मिथिआ जनमु साकत संसारा ॥ राम भगति जनु रहै निरारा ॥२॥ पद्अर्थ: अनत = अनंत, बेअंत। तरंग = लहरें। रंगु = प्यार। अनदिनु = हर रोज। मिथिआ = व्यर्थ। साकत = परमात्मा से टूटे हुए, माया में उलझे हुए। जनु = दास, सेवक।2। अर्थ: जो मनुष्य हर रोज (हर समय) परमात्मा की महिमा से साथ बनाते हैं उनका जीवन पवित्र होता है, उनके अंदर प्रभु के प्यार की प्रभु की भक्ति की अनेक लहरें उठती रहती हैं। माया में फंसे जीव का जीवन व्यर्थ चला जाता है। जो मनुष्य परमात्मा की भक्ति करता है वह (माया के मोह से) निर्लिप रहता है।2। सूची काइआ हरि गुण गाइआ ॥ आतमु चीनि रहै लिव लाइआ ॥ आदि अपारु अपर्मपरु हीरा ॥ लालि रता मेरा मनु धीरा ॥३॥ पद्अर्थ: सूची = पवित्र। काइआ = शरीर। आतमु = अपने आप को। चीनि = पहचान के। मेरा मनु = वह मन जो हर समय ‘मेरा मेरा’ करता रहता है।3। अर्थ: जो मनुष्य हरि के गुण गाता है उसका शरीर (विकारों से बचा रह के) पवित्र रहता है। अपने आप को (अपने असल को) पहचान के वह सदा प्रभु चरणों में तवज्जो जोड़े रखता है। वह मनुष्य उस प्रभु का रूप हो जाता है जो सब का आदि है, जो बेअंत है, जो परे से परे है जो हीरे समान अमोलक है। उसका वह मन, जो पहले ममता का शिकार था, लाल रत्न के समान अमूल्य प्रभु के प्यार में रंगा जाता है और ठहराव वाले स्वभाव का हो जाता है।3। कथनी कहहि कहहि से मूए ॥ सो प्रभु दूरि नाही प्रभु तूं है ॥ सभु जगु देखिआ माइआ छाइआ ॥ नानक गुरमति नामु धिआइआ ॥४॥१७॥ पद्अर्थ: कहहि कहहि = हर वक्त कहते रहते हैं। छाइआ = छाया, परछांई।4। अर्थ: जो मनुष्य (स्मरण से वंचित हैं और) निरी ज़बानी-ज़बानी ही ज्ञान की बाते करते हैं वे आत्मिक मौत मरे हुए हैं (उनके अंदर आत्मिक जीवन नहीं है)। (पर) हे नानक! जिस मनुष्यों ने गुरु की मति का आसरा ले के प्रभु का नाम स्मरण किया है, उन्हें परमात्मा अपने बहुत नजदीक दिखाई देता है (वे मनुष्य जगत के पदार्थों से मोह नहीं बनाते, क्योंकि) उन्हें सारा जगत माया का पसारा दिखाई देता है।4।17। आसा महला १ तितुका ॥ कोई भीखकु भीखिआ खाइ ॥ कोई राजा रहिआ समाइ ॥ किस ही मानु किसै अपमानु ॥ ढाहि उसारे धरे धिआनु ॥ तुझ ते वडा नाही कोइ ॥ किसु वेखाली चंगा होइ ॥१॥ पद्अर्थ: भीखकु = भिक्षु, भिखारी। रहिआ समाइ = मस्त हो रहा है। मानु = इज्जत। अपमानु = निरादरी। ढाहि उसारे = गिरा के बनाता है, ख्यालों के लड्डू तोड़ता है बनाता है। ते = से। किसु वेखाली = मैं कोई ऐसा आदमी नहीं दिखा सकता।1। अर्थ: (तेरा आसरा भुला के ही) कोई भिखारी भिक्षा (मांग-मांग के) खाता है (और गरीबी में निढाल हो रहा है, (तुझे भुला के ही) कोई मनुष्य राजा बन के (राज में) मस्त हो रहा है। किसी को आदर मिल रहा है (वह इस आदर में अहंकारी है), किसी की निरादरी हो रही है (जिस कारण वह अपने मानव जन्म का कौडी मूल्य नहीं समझता) (कोई मनुष्य मन के लड्डू तोड़ रहा है, अपने मन में ही) कई सलाहें बनाता है और गिराता है, बस! यही सोचें सोचता रहता है। पर, हे प्रभु! तूझसे बड़ा कोई नहीं (जिसे भी आदर मिलता है, तुझसे ही मिलता है)। मैं कोई भी ऐसा आदमी नहीं दिखा सकता जो (अपने आप ही) अच्छा बन गया हो।1। मै तां नामु तेरा आधारु ॥ तूं दाता करणहारु करतारु ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: आधारु = आसरा। दाता = देने वाला। करणहारु = करने के समर्थ।1। रहाउ। अर्थ: मेरे लिए सिर्फ तेरा नाम ही आसरा है (क्योंकि) तू ही (सब दातें) देने वाला है, तू सब कुछ करने के समर्थ है, तू सारी सृष्टि को पैदा करने वाला है।1। रहाउ। वाट न पावउ वीगा जाउ ॥ दरगह बैसण नाही थाउ ॥ मन का अंधुला माइआ का बंधु ॥ खीन खराबु होवै नित कंधु ॥ खाण जीवण की बहुती आस ॥ लेखै तेरै सास गिरास ॥२॥ पद्अर्थ: न पावउ = मुझे नहीं मिलता। वाट = रास्ता। वीगा = टेढ़ा, कुराह। बैसण = बैठने के लिए। बंधु = बंधा हुआ। खीन = कमजोर। कंधु = शरीर। गिरास = ग्रास।2। अर्थ: (हे प्रभु! तेरी ओट के बिना) मैं जीवन का सही रास्ता नहीं तलाश सकता, गलत रास्ते पर ही जाता हूँ, तेरी हजूरी में भी मुझे जगह नहीं मिल सकती। (जब तक मुझे तेरे से ज्ञान का प्रकाश ना मिले) मैं माया के मोह में बंधा रहता हूँ, मन का अंधा ही रहता हूँ, मेरा शरीर (विकारों में) सदा खचित और ख्वार होता है। मैं सदा और-और खाने व जीवन की आशाएं बनाता रहता हूँ (मुझे ये याद ही नहीं रहता कि) मेरी एक-एक सांस और एक-एक ग्रास तेरे हिसाब में है (तेरी मेहर से ही मिल रहे हैं)।2। अहिनिसि अंधुले दीपकु देइ ॥ भउजल डूबत चिंत करेइ ॥ कहहि सुणहि जो मानहि नाउ ॥ हउ बलिहारै ता कै जाउ ॥ नानकु एक कहै अरदासि ॥ जीउ पिंडु सभु तेरै पासि ॥३॥ पद्अर्थ: अहि = दिन। निसि = रात। दीपकु = दीया। देइ = देता है। चिंत = फिक्र, ध्यान। करेइ = करता है। कहहि = जो कहते हैं। ता कै बलिहारै = उनसे कुर्बान। जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। तेरै पासि = तेरे हवाले, तेरे आसरे।3। अर्थ: प्रभु (इतना दयालु है कि मेरे जैसे) अंधे को दिन-रात (ज्ञान का) दीपक बख्शता है, संसार समुंदर में डूबते का फिक्र रखता है। मैं उन लोगों से सदके जाता हूँ जो प्रभु का नाम जपते हैं, सुनते हैं, उस में श्रद्धा रखते हैं। हे प्रभु! नानक तेरे दर पे यही अरदास करता है कि हमारी जिंद और हमारा शरीर सब कुछ तेरे ही आसरे है।3। जां तूं देहि जपी तेरा नाउ ॥ दरगह बैसण होवै थाउ ॥ जां तुधु भावै ता दुरमति जाइ ॥ गिआन रतनु मनि वसै आइ ॥ नदरि करे ता सतिगुरु मिलै ॥ प्रणवति नानकु भवजलु तरै ॥४॥१८॥ नोट: इस शब्द का शीर्षक देखें। शब्द ‘तितुका’ बताता है कि शब्द के हरेक बंद की तीन-तीन तुकें हैं। सारी तुकें छोटी हैं, चौपाई के मेल की। दो-दो को मिला के एक तुक गिननी है। पद्अर्थ: देहि = देता है। मनि = मन में। प्रणवति = विनती करता है।4। नोट: शब्द ‘देइ’ और ‘देह’ में फर्क स्मरणीय है। अर्थ: हे प्रभु! जब तू (अपने नाम की दाति मुझे) देता है, तभी मैं तेरा नाम जप सकता हूँ और तेरी हजूरी में मुझे बैठने के लिए जगह मिल सकती है। जब तेरी रजा हो तब ही मेरी बुरी मति दूर हो सकती है, और तेरा बख्शा हुआ श्रेष्ठ ज्ञान मेरे मन में आ के बस सकता है। नानक विनती करता है कि जिस मनुष्य पर प्रभु मेहर की नजर करता है उसे गुरु मिलता है, और वह संसार-समुंदर से पार लांघ जाता है।4।18। आसा महला १ पंचपदे६ ॥ दुध बिनु धेनु पंख बिनु पंखी जल बिनु उतभुज कामि नाही ॥ किआ सुलतानु सलाम विहूणा अंधी कोठी तेरा नामु नाही ॥१॥ पद्अर्थ: धेनु = गाय। पंख = पंख। उतभुज = बनस्पति। कामि = काम में। कामि नाही = किसी काम की नहीं, किसी काम नहीं आती, व्यर्थ है। किआ सुलतानु = वह बादशाह कैसा? अंधी = अंधकार भरी। कोठी = हृदय रूपी कोठी।1। अर्थ: जो गाय दूध ना दे वह गाय किस काम की? जिस पक्षी के पंख ही ना हो उसे और कोई सहारा नहीं, वनस्पति पानी के बिना हरि नहीं रह सकती। वह बादशाह ही कैसा, जिसे कोई सलाम ना करे? इसी तरह हे प्रभु! जिस हृदय में तेरा नाम ना हो वह एक अंधेरी कोठी ही है।1। की विसरहि दुखु बहुता लागै ॥ दुखु लागै तूं विसरु नाही ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: की विसरहि = क्यूँ बिसरता है?।1। रहाउ। अर्थ: हे प्रभु! तू मुझे क्यों विसारता है? तेरे बिसरने से मुझे बड़ा आत्मिक दुख होता है। हे प्रभु! (मेहर कर, मेरे मन से) ना विसर।1। रहाउ। अखी अंधु जीभ रसु नाही कंनी पवणु न वाजै ॥ चरणी चलै पजूता आगै विणु सेवा फल लागे ॥२॥ पद्अर्थ: अंधु = अंधापन। रसु = स्वाद। पवणु न वाजै = आवाज बजती नहीं, आवाज सुनी नहीं जाती। पजूता = पकड़ा हुआ। आगै = आगे से। विणु सेवा = (प्रभु की) सेवा के बिना, प्रभु के स्मरण के बिना। फल = और-और फल।2। अर्थ: आँखों के आगे अंधकार छाने लग पड़ता है, जीभ में खाने-पीने के स्वाद के आनंद लेने की ताकत नहीं रहती, कानों में (राग आदि) की आवाज सुनाई नहीं देती, पैरों से भी मनुष्य तभी चलता है जब कोई और आगे से उसकी डंगोरी पकड़े- (बुढ़ापे के कारण मनुष्य के शरीर की ये हालत बन जाती है, फिर भी) मनुष्य स्मरण से सूना ही रहता है, इसके जीवन-वृक्ष को और ही बेकार के फल लगते रहते हैं।2। अखर बिरख बाग भुइ चोखी सिंचित भाउ करेही ॥ सभना फलु लागै नामु एको बिनु करमा कैसे लेही ॥३॥ पद्अर्थ: अखर = गुरबाणी, गुरु के शब्द, गुरु का उपदेश। भुइ = धरती, हृदय रूपी धरती। चोखी = स्वच्छ, पवित्र। भाउ = प्रेम। करेही = करते हैं। फलु = मानव जीवन का लाभ। करमा = मेहर, बख्शिश।3। अर्थ: जो मनुष्य स्वच्छ हृदय की भूमि में गुरु-शब्द-रूपी-बाग़ के वृक्ष लगाते हैं और प्रेम-रूपी पानी से सींचते हैं, उन सभी को अकाल-पुरख का नाम-फल लगता है। पर प्रभु की मेहर के बिना ये दाति नहीं मिलती।3। जेते जीअ तेते सभि तेरे विणु सेवा फलु किसै नाही ॥ दुखु सुखु भाणा तेरा होवै विणु नावै जीउ रहै नाही ॥४॥ पद्अर्थ: सभि = सारे। विणु सेवा = स्मरण के बग़ैर। भाणा = रजा। जीउ = जिंद। रहै नाही = रह नहीं सकती, धीरज नहीं आता।4। अर्थ: हे प्रभु! ये सारे ही जीव तेरे ही पैदा किए हुए हैं, तेरा स्मरण किए बिना मानव जीवन का लाभ किसी को नहीं मिल सकता। (जो भी पैदा हुआ है उसे) कभी दुख और कभी सुख मिलना -ये तो तेरी रजा है (पर दुख में जीव घबरा जाता है, सुखों में आपे से बाहर होता है) तेरे नाम की टेक के बिना जिंद अडोल रह ही नहीं सकती।4। मति विचि मरणु जीवणु होरु कैसा जा जीवा तां जुगति नाही ॥ कहै नानकु जीवाले जीआ जह भावै तह राखु तुही ॥५॥१९॥ नोट: इस शब्द का शीर्षक देखें। शब्द ‘पंचपदे’ बताता है कि आगे वे शब्द हैं जिनमें पाँच-पाँच बंद हैं। शब्द ‘पंचपदे’ के नीचे लगा अंक ६ बताता है कि ऐसे शब्द गिनती में छह हैं। पद्अर्थ: मरणु = मौत, स्वैभाव की मौत। जा = अगर। जीवा = मैं (और जीवन) जीऊँ। जुगति = युक्ति, ढंग, तरीका, सही ढंग। जीवाले = जीवित रखता है, आत्मिक जीवन देता है।5। अर्थ: गुरु की बताई हुई मति पर चल कर स्वै भाव का मर जाना- यही है सही जीवन। अगर मनुष्य का स्वार्थी जीवन नहीं खत्म हुआ तो वह जीवन व्यर्थ है। अगर मैं यह स्वार्थी जीवन जीता हूँ, तो इसे जीवन का सही ढंग नहीं कहा जा सकता। नानक कहता है परमात्मा जिंदगी देने वाला है (उसी की हजूरी में अरदास करनी चाहिए कि) हे प्रभु! जहाँ तेरी रजा है वहाँ हमें रख (भाव, अपनी रज़ा में रख और नाम जपने की दाति बख्श)।5।19। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |