श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 355

आसा महला १ ॥ काइआ ब्रहमा मनु है धोती ॥ गिआनु जनेऊ धिआनु कुसपाती ॥ हरि नामा जसु जाचउ नाउ ॥ गुर परसादी ब्रहमि समाउ ॥१॥

पद्अर्थ: काइआ = शरीर, मनुष्य का शरीर, विकारों से बचा हुआ शरीर। ब्रहमा = ब्राहमण। मनु = पवित्र मन। गिआनु = परमात्मा के साथ गहरी सांझ। धिआनु = परमात्मा की याद में तवज्जो जोड़नी। कुस = कुश, दूब, दभ। कुस पाती = हरी घास का छल्ला, दूब का छल्ला (जो कानी उंगली के साथ की उंगली में पहना जाता है कोई पूजा आदि करने के समय)। जसु = महिमा। जाचउ = मैं मांगता हूँ। परसादी = प्रसादि, किरपा से। ब्रहमि = परमात्मा में। समाउ = मैं लीन रहूँ।1।

अर्थ: (नाम की इनायत से विकारों से बचा हुआ) मानव शरीर ही (उच्च जाति का) ब्राहमण है, (पवित्र हुआ) मन (ब्राहमण की) धोती है। परमात्मा के साथ गहरी जान-पहचान जनेऊ है और प्रभु चरणों में जुड़ी हुई तवज्जो दूब का छल्ला। मैं तो (हे पांडे!) परमात्मा का नाम ही (दक्षिणा) मांगता हूँ, महिमा ही मांगता हूँ, ताकि गुरु की किरपा से (नाम स्मरण करके) परमात्मा में लीन रहूँ।1।

पांडे ऐसा ब्रहम बीचारु ॥ नामे सुचि नामो पड़उ नामे चजु आचारु ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: पांडे = हे पण्डित! नामे = नाम में ही। नामो पढ़उ = मैं नाम (-रूपी वेद आदि) पढ़ता हूँ। चजु = धार्मिक रस्में करनी। आचारु = धार्मिक रस्में करनीं।1। रहाउ।

अर्थ: हे पांडे! परमात्मा के नाम में ही स्वच्छता है, मैं तो परमातमा का नाम-स्मरण (रूपी वेद) पढ़ता हूँ। प्रभु के नाम में ही सारी धार्मिक रस्में आ जाती हैं। तू भी इसी तरह परमात्मा के गुणों की विचार कर।1। रहाउ।

बाहरि जनेऊ जिचरु जोति है नालि ॥ धोती टिका नामु समालि ॥ ऐथै ओथै निबही नालि ॥ विणु नावै होरि करम न भालि ॥२॥

पद्अर्थ: बाहरि = शरीर पर पहना हुआ। अेथै = इस लोक में। ओथै = परलोक में। होरि = और। भालि = ढूँढ।2।

नोट: ‘होरि’ है ‘होर’ का बहुवचन है।

अर्थ: (हे पांडे!) बाहरी जनेऊ तब तक ही है जब तक ज्योति शरीर में मौजूद है (फिर ये किस काम का?)। प्रभु का नाम दिल में संभाल- यही धोती है यही है टीका (तिलक)। ये नाम ही लोक-परलोक में साथ निभाता है। (हे पांडे!) नाम बिसार के धर्म के नाम पर और ही रस्में ना तलाशता फिर।2।

पूजा प्रेम माइआ परजालि ॥ एको वेखहु अवरु न भालि ॥ चीन्है ततु गगन दस दुआर ॥ हरि मुखि पाठ पड़ै बीचार ॥३॥

पद्अर्थ: पूजा = मूर्ति के आगे धूप धुखाना। प्रेम माइआ = माया का मोह। परजालि = अच्छी तरह जला दे। चीनै = जो मनुष्य देखता है। ततु = सर्व-व्यापक ज्योति। गगन = आकाश, चित्त-रूपी आकाश, दिमाग। 3।

अर्थ: (नाम में जुड़ के) माया का मोह (अपने अंदर से) अच्छी तरह जला दे- यही है देव-पूजा। हर जगह एक परमात्मा को देख, (हे पांडे!) उसके बिना किसी और देवते को ना ढूँढता रह। जो मनुष्य हर जगह व्यापक परमात्मा को पहचान लेता है उसने मानों दसवें-द्वार में समाधि लगाई हुई है। जो मनुष्य प्रभु के नाम को सदा अपने मुँह में रखता है (उचारता है), वह (वेद आदि पुस्तकों के) विचार पढ़ रहा है।3।

भोजनु भाउ भरमु भउ भागै ॥ पाहरूअरा छबि चोरु न लागै ॥ तिलकु लिलाटि जाणै प्रभु एकु ॥ बूझै ब्रहमु अंतरि बिबेकु ॥४॥

पद्अर्थ: लिलाट = माथे पर। बिबेकु = दो चीजों में अंतर करने की सूझ।4।

अर्थ: (हे पांडे! प्रभु चरणों से) प्रीत (जोड़, ये) है (मूर्ति को) भोग, (इसकी इनायत से) मन की भटकना दूर हो जाती है, डर उतर जाता है। प्रभु-रक्षक के तेज से (अपने अंदर प्रकाश कर) कोई कामादिक चोर नजदीक नहीं फटकता। जो मनुष्य एक परमात्मा के साथ गहरी सांझ डालता है, उसने मानो, माथे पर तिलक लगाया हुआ है। जो अपने अंदर बसते प्रभु को पहचानता है वह अच्छे-बुरे कर्म की परख सीख लेता है (यही है असल बिबेक)।4।

आचारी नही जीतिआ जाइ ॥ पाठ पड़ै नही कीमति पाइ ॥ असट दसी चहु भेदु न पाइआ ॥ नानक सतिगुरि ब्रहमु दिखाइआ ॥५॥२०॥

पद्अर्थ: आचारी = धार्मिक रस्मों के द्वारा। कीमति = कद्र। असटदसी = अठारह (पुराणों) ने। चहु = चार वेदों ने। सतिगुरि = गुरु ने।5।

अर्थ: (हे पांडे!) परमात्मा निरी धार्मिक रस्मों से वश में नहीं किया जा सकता, वेद आदि पुस्तकों आदि के पाठ पढ़ने से भी उसकी समझ नहीं पड़ सकती। जिस परमात्मा का भेद अठारह पुराणों और चारों वेदों को नही मिला, हे नानक! सतिगुरु ने (हमें) वह (अंदर-बाहर हर जगह) दिखा दिया है।5।20।

आसा महला १ ॥ सेवकु दासु भगतु जनु सोई ॥ ठाकुर का दासु गुरमुखि होई ॥ जिनि सिरि साजी तिनि फुनि गोई ॥ तिसु बिनु दूजा अवरु न कोई ॥१॥

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की तरफ मुंह रखने वाला, जो गुरु के सन्मुख रहे, गुरु के बताए राह पर चलने वाला। जिनि = जिस प्रभु ने। सिरि = सृष्टि। फुनि = दुबारा। गोई = नाश की।1।

अर्थ: गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य ही परमात्मा का दास बनता है, वही मनुष्य (असल) सेवक है दास है भक्त है, (उसे सदा ये यकीन रहता है कि) जिस प्रभु ने ये सृष्टि रची है वही इसे दुबारा नाश करता है, उस जैसा और कोई दूसरा नहीं है।1।

साचु नामु गुर सबदि वीचारि ॥ गुरमुखि साचे साचै दरबारि ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सबदि = शब्द के द्वारा। विचारि = विचार के। साचे = सुर्ख़रू। दरबारि = दरबार में।1। रहाउ।

अर्थ: गुरु के शब्द के द्वारा परमात्मा का सदा स्थिर रहने वाला नाम विचार के गुरु के सन्मुख रहने वाले लोग सदा अटल प्रभु के दरबार में सही स्वीकार होते हैं।1। रहाउ।

सचा अरजु सची अरदासि ॥ महली खसमु सुणे साबासि ॥ सचै तखति बुलावै सोइ ॥ दे वडिआई करे सु होइ ॥२॥

पद्अर्थ: अरजु = विनती। तखति = तख़्त पर। करे सु होइ = सब कुछ करने के समर्थ।2।

अर्थ: गुरु के सन्मुख रहके की हुई विनती और अरदास ही असल (प्रार्थना) है, महल का मालिक पति-प्रभु उस अरदास को सुनता है और आदर देता है (शाबाश कहता है), अपने सदा अटल तख़्त पर (बैठा हुआ प्रभु) उस सेवक को बुलाता है, और वह सब कुछ करने में समर्थ प्रभु उसे आदर-मान देता है।2।

तेरा ताणु तूहै दीबाणु ॥ गुर का सबदु सचु नीसाणु ॥ मंने हुकमु सु परगटु जाइ ॥ सचु नीसाणै ठाक न पाइ ॥३॥

पद्अर्थ: ताणु = ताकत। दीबाणु = आसरा। नीसाणु = परवाना, राहदारी। परगटु = मशहूर, आदर पा के। नीसाणै = राहदारी के कारण। ठाक = रोक।3।

अर्थ: (हे प्रभु!) गुरमुख को तेरा ही ताण है (सहारा है) तेरा ही आसरा है। गुरु का शब्द ही उसके पास रहने वाला सदा चिर परवाना है। गुरमुखि परमात्मा की रज़ा को (सिर माथे, पूरी तरह से) मानता है, जगत में शोभा कमा के जाता है, गुरु-शब्द की सच्ची राहदारी के कारण उसकी जिंदगी के रास्ते में कोई विकार रुकावट नहीं डाल सकता।3।

पंडित पड़हि वखाणहि वेदु ॥ अंतरि वसतु न जाणहि भेदु ॥ गुर बिनु सोझी बूझ न होइ ॥ साचा रवि रहिआ प्रभु सोइ ॥४॥

पद्अर्थ: वखाणहि = व्याख्यान करते हैं, समझाते हैं। बूझ = समझ। रवि रहिआ = व्यापक है।4।

अर्थ: पण्डित लोग वेद पढ़ते हैं और-और लोगों को व्याख्या करके सुनाते हैं, पर (निरे विद्या के मान में रहके) ये भेद नहीं जानते कि परमात्मा का नाम-पदार्थ अंदर ही मौजूद है। सदा-स्थिर प्रभु हरेक के अंदर व्यापक हे, पर ये समझ गुरु की शरण पड़े बिना नहीं आती।4।

किआ हउ आखा आखि वखाणी ॥ तूं आपे जाणहि सरब विडाणी ॥ नानक एको दरु दीबाणु ॥ गुरमुखि साचु तहा गुदराणु ॥५॥२१॥

पद्अर्थ: हउ = मैं। आखि = कह के। सरब विडाणी = हे सारे करिश्में करने वाले! गुदराणु = गुजरान, जिंदगी का सहारा।5।

(नोट: जैसे शब्द ‘काज़ी’ का दूसरा उच्चारण ‘कादी’ है, जैसे ‘नज़रि’ का दूसरा ‘नदरि’ है, वैसे ही शब्द ‘गुजराणु’ का ‘गुदराणु’ है)।

अर्थ: हे चोजी प्रभु! गुरु के सन्मुख रहने का मैं क्या ज़िक्र करूँ? क्या कह के सुनाऊँ? तू (इस भेद) को खुद ही जानता है।

हे नानक! गुरमुखि के लिए प्रभु का ही एक दरवाजा है आसरा है जहाँ गुरु के सन्मुख रहके स्मरण करना उसकी जिंदगी का सहारा बना रहता है।5।21।

आसा महला १ ॥ काची गागरि देह दुहेली उपजै बिनसै दुखु पाई ॥ इहु जगु सागरु दुतरु किउ तरीऐ बिनु हरि गुर पारि न पाई ॥१॥

पद्अर्थ: काची गागरि = कच्चा घड़ा। देह = शरीर। दुहेली = दुखों का घर बनी हुई। दुतरु = जिसे तैरना मुश्किल है।1।

अर्थ: (नित्य विकारों में खचित रहने के कारण) ये शरीर दुखों का घर बन गया है (विकारों के असर से ये नहीं निकलता) और कच्चे घड़े के समान है (जो तुरंत पानी में गल जाता है), पैदा होता है, (सारी उम्र) दुख पाता है और फिर नाश हो जाता है (एक तरफ़ तो कच्चे घड़े जैसा ये शरीर है, दूसरी तरफ़) ये जगत एक ऐसा समुंदर है जिससे पार लांघना बहुत मुश्किल है, (इस विकार भरे शरीर का आसरा ले के) इसमें से तैरा नहीं जा सकता, गुरु परमात्मा का आसरा लिए बिना पार नहीं किया जा सकता।1।

तुझ बिनु अवरु न कोई मेरे पिआरे तुझ बिनु अवरु न कोइ हरे ॥ सरबी रंगी रूपी तूंहै तिसु बखसे जिसु नदरि करे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: हरे = हे हरि! रंगी रूपी = रंगों में रूपों में।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे प्यारे हरि! मेरा तेरे बिना और कोई (आसरा) नहीं, तेरे बिना मेरा कोई नहीं। तू सारे रंगों में, सारे रूपों में मौजूद है। (हे भाई!) जिस जीव पर (वह) मेहर की नजर करता है उसको बख्श लेता है।1। रहाउ।

सासु बुरी घरि वासु न देवै पिर सिउ मिलण न देइ बुरी ॥ सखी साजनी के हउ चरन सरेवउ हरि गुर किरपा ते नदरि धरी ॥२॥

पद्अर्थ: सासु = सास, माया। घरि = घर मे। बुरी = चंदरी, बुरे स्वभाव वाली। सखी साजनी = सजनियां सहेलियां, सत्संगी। हउ = मैं। सरेवउ = मैं सेवा करती हूँ।2।

नोट: शब्द ‘सासु’ संस्कृत के शब्द ‘श्वश्रु’ से बना है। अंत में ‘ु’ मात्रा होने के कारण पुलिंग प्रतीत होता है, पर है स्त्रीलिंग।

अर्थ: (मेरा प्रभु-पति मेरे हृदय-घर में ही बसता है, पर) ये बुरी सास (माया) मुझे हृदय-घर में टिकने ही नहीं देती (मेरे मन को सदा बाहर मायावी पदार्थों के पीछे भगाए फिरती है) ये चंद्री मुझे पति से मिलने नहीं देती। (इस बुरी औरत से बचने के लिए) मैं सत्संगी सहेलियों की सेवा करती हूँ (सत्संग में गुरु मिलता है), गुरु की किरपा से पति-प्रभु मेरे पर मेहर की नजर करता है।2।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh