श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 356 आपु बीचारि मारि मनु देखिआ तुम सा मीतु न अवरु कोई ॥ जिउ तूं राखहि तिव ही रहणा दुखु सुखु देवहि करहि सोई ॥३॥ पद्अर्थ: आपु = अपने आप को। मारि = मार के। करहि = तू करता है।3। अर्थ: हे प्रभु! (गुरु की किरपा से) जब मैंने अपने आप को सवार के अपना मन मार के देखा तो (मुझे दिखाई पड़ा कि) तेरे जैसा मित्र और कोई नहीं है। हम जीवों को तू जिस हालत में रखता है, उसी हालत में हम रह सकते हैं। दुख भी तू ही देता है, सुख भी तू ही देता है। जो कुछ तू करता है, वही होता है।3। आसा मनसा दोऊ बिनासत त्रिहु गुण आस निरास भई ॥ तुरीआवसथा गुरमुखि पाईऐ संत सभा की ओट लही ॥४॥ पद्अर्थ: आसा = उमीद। मनसा = मन का फुरना, चाहत, तमन्ना, लालसा। तुरीआवसथा = वह आत्मिक हालत जहाँ माया नहीं पकड़ सकती।4। अर्थ: गुरु की शरण पड़ने से ही माया वाली आस और लालसा मिटती हैं। त्रिगुणी माया की आशाओं से निर्लिप रह सकते हैं। जब सत्संग का आसरा लें, जब गुरु के बताए हुए राह पर चलें, तभी वह आत्मिक अवस्था बनती है जहाँ माया छू ना सके।4। गिआन धिआन सगले सभि जप तप जिसु हरि हिरदै अलख अभेवा ॥ नानक राम नामि मनु राता गुरमति पाए सहज सेवा ॥५॥२२॥ पद्अर्थ: गिआन = धर्म चर्चा। धिआन = समाधियां। सभि = सारे। अलख = जिसके गुण बयान ना हो सकें। अभेव = जिसका भेद ना पाया जा सके। नामि = नाम में। सेवा = स्मरण। सहज सेवा = अडोल अवस्था में टिक के स्मरण।5। नोट: नदियों के किनारे के तैराक बाढ़ के दौरान पक्के घड़ों का आसरा ले के दरिया से पार लांघ जाते हैं। रावी नदी के किनारे पर रहते हुए ये आँखों देखा नजारा यहाँ दृष्टांत के तौर पर यहाँ प्रयोग करते हैं। अर्थ: जिस मनुष्य के हृदय में अलख व अभेव परमात्मा बस जाए, उसे मानो सारे जप-तप-ज्ञान-ध्यान प्राप्त हो गए। हे नानक! गुरु की मति पर चलने से मन प्रभु के नाम में रंगा जाता है, मन अडोल अवस्था में रहके स्मरण करता है।5।22। आसा महला १ पंचपदे२ ॥ मोहु कुट्मबु मोहु सभ कार ॥ मोहु तुम तजहु सगल वेकार ॥१॥ पद्अर्थ: कुटंबु = परिवार, परिवार की ममता।1। अर्थ: (हे भाई!) मोह (मनुष्य के मन में) परिवार की ममता पैदा करता है, मोह (जगत की) सारी कार चला रहा है, (पर मोह ही) विकार पैदा करता है, (इस वास्ते) मोह त्याग।1। मोहु अरु भरमु तजहु तुम्ह बीर ॥ साचु नामु रिदे रवै सरीर ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: बीर = हे वीर! हे भाई! सरीर = (भाव) मनुष्य। रवै = स्मरण करता है।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! (दुनिया का) मोह छोड़ और मन की भटकना दूर कर। (मोह त्याग के ही) मनुष्य परमात्मा का अटल नाम हृदय में स्मरण कर सकता है।1। रहाउ। सचु नामु जा नव निधि पाई ॥ रोवै पूतु न कलपै माई ॥२॥ पद्अर्थ: जा = जब। नवनिधि = नौ खजाने। पूतु = माया का पुत्र मन, माया में खचित मन। माई = माया (की खातिर)।2। अर्थ: जब मनुष्य परमात्मा का सदा स्थिर नाम (-रूपी) नौ-निधि प्राप्त कर लेता है (तो उसका मन माया में खचित नहीं रहता, फिर) मन माया की खातिर रोता नहीं, कलपता नहीं।2। एतु मोहि डूबा संसारु ॥ गुरमुखि कोई उतरै पारि ॥३॥ पद्अर्थ: एतु = इस में। मोहि = मोह में। एतु मोहि = इस मोह में।3। अर्थ: इस मोह में सारा जगत डूबा पड़ा है, कोई विरला मनुष्य जो गुरु के बताए रास्ते पर चलता है (मोह के समुंदर में से) पार लांघता है।3। एतु मोहि फिरि जूनी पाहि ॥ मोहे लागा जम पुरि जाहि ॥४॥ पद्अर्थ: पाहि = तू पाएगा। जमपुरि = जमके देश में। जाहि = तू जाएगा।4। अर्थ: (हे भाई!) इस मोह में (फसा हुआ) तू बार-बार जूनियों में पड़ेगा, मोह में ही जकड़ा हुआ तू यमराज के देश में जाएगा।4। गुर दीखिआ ले जपु तपु कमाहि ॥ ना मोहु तूटै ना थाइ पाहि ॥५॥ पद्अर्थ: दीखिआ = दिक्षा, शिक्षा। कमाहि = लोग कमाते हैं। थाइ पाहि = स्वीकार होते हैं।5। अर्थ: जो लोग (रिवाज के तौर पे) गुरु की शिक्षा ले के जप-तप कमाते हैं, उनका मोह नहीं टूटता, (इन जपों-तपों से) वह (प्रभु की हजूरी में) स्वीकार नहीं होते।5। नदरि करे ता एहु मोहु जाइ ॥ नानक हरि सिउ रहै समाइ ॥६॥२३॥ नोट: शब्द नं: 19 का शीर्षक था ‘पंचपदे’। सो, शब्द नंबर 24 तक पंचपदे ही हैं। पर यहां फिर शीर्षक आ गया ‘पंच पदे’। ये ‘पंचपदे’ उस संग्रह का हिस्सा ही हैं, वैसे इनके ‘बंद’ छोटे हैं। ये शब्द नंबर 23 छह बंदों का है, पर शीर्षक आम तौर पर चौपदे, पंचपदे, दुपदे ही हैं। ‘छेपदा’ शीर्षक कहीं भी नहीं बरता गया। सो, इसे भी ‘पंचपदा’ ही कहा गया है। पद्अर्थ: रहै समाइ = लीन हुआ रहता है।6। अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्य पे प्रभु की नजर करता है, उसका ये मोह दूर होता है, वह सदा परमात्मा (की याद) में लीन रहता है।6।23। आसा महला १ ॥ आपि करे सचु अलख अपारु ॥ हउ पापी तूं बखसणहारु ॥१॥ पद्अर्थ: सचु = सदा कायम रहने वाला। अलखु = जिसका स्वरूप बयान ना हो सके।1। अर्थ: (जो कुछ जगत में हो रहा है) सदा कायम रहने वाला अलख बेअंत परमात्मा (सब जीवों में व्यापक हो के) खुद कर रहा है। (हे प्रभु! ये अटल नियम भुला के) मैं गुनाहगार हूँ (पर फिर भी तू) बख्शिश करने वाला है।1। तेरा भाणा सभु किछु होवै ॥ मनहठि कीचै अंति विगोवै ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: तेरा भाणा = जो कुछ तुझे अच्छा लगता है। हठि = हठ से। अंति = आखिर को। विगोवै = ख्वार होता है।1। रहाउ। अर्थ: जगत में जो कुछ होता है सब कुछ वही होता है जो (हे प्रभु!) तुझे अच्छा लगता है, (पर ये अटल सच्चाई भुला के) मनुष्य निरे अपने मन के हठ से (भाव, निरी अपनी अक्ल का आसरा ले के) काम करने पर आखिर दुखी होता है।1। रहाउ। मनमुख की मति कूड़ि विआपी ॥ बिनु हरि सिमरण पापि संतापी ॥२॥ पद्अर्थ: मनमुख = जो अपने मन के पीछे चलता है। कूड़ि = झूठ में, माया के मोह मे। विआपी = ग्रसी रहती है, फसी रहती है। पापि = पाप के कारण। संतापी = दुखी।2। अर्थ: (निरे) अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य की अक्ल माया के मोह में फंसी रहती है, (इस तरह) प्रभु के स्मरण से वंचित हो के (माया के लालच में किए) किसी बुरे कर्म के कारण दुखी होती है।2। दुरमति तिआगि लाहा किछु लेवहु ॥ जो उपजै सो अलख अभेवहु ॥३॥ पद्अर्थ: दुरमति = बुरी मति। तिआगि = छोड़ के। लाहा = लाभ। अभेवहु = अभेव प्रभु से।3। अर्थ: (हे भाई! माया के मोह में फसी) दुर्मति त्याग के कुछ आत्मिक लाभ भी कमाओ, (ये यकीन लाओ कि) जो कुछ पैदा हुआ है, उस अलख और अभेव प्रभु से ही पैदा हुआ है (भाव, परमातमा सब कुछ करने के समर्थ है)।3। ऐसा हमरा सखा सहाई ॥ गुर हरि मिलिआ भगति द्रिड़ाई ॥४॥ पद्अर्थ: सहाई = मदद करने वाला। द्रिढ़ाई = मन में दृढ़ कर दी।4। अर्थ: (हम जीव बार-बार भूलते हैं और अपनी अक्ल पर मान करते हैं, पर) हमारा मित्र प्रभु सदा सहायता करने वाला है (उसकी मेहर से) जो मनुष्य गुरु से मिल जाता है, गुरु उसे परमात्मा की भक्ति की ही ताकीद करता है।4। सगलीं सउदीं तोटा आवै ॥ नानक राम नामु मनि भावै ॥५॥२४॥ पद्अर्थ: सउदीं = सौदों में। तोटा = घाटा। मनि = मन में।5। अर्थ: (प्रभु का स्मरण भुला के) सारे दुनियावी सौदों में घाटा ही घाटा है (उम्र व्यर्थ गुजरती जाती है); हे नानक! (उस मनुष्य को कोई कमी नहीं आती) जिसके मन में परमात्मा का नाम प्यारा लगता है।5।24। आसा महला १ चउपदे४ ॥ विदिआ वीचारी तां परउपकारी ॥ जां पंच रासी तां तीरथ वासी ॥१॥ पद्अर्थ: पंचरासी = पाँच कामादिकों रास कर लेने वाला, वश में कर लेने वाला।1। अर्थ: (विद्या प्राप्त करके) जो मनुष्य दूसरों के साथ भलाई करने वाला हो गया है तो ही समझो कि वह विद्या पा के विचारवान बना है। तीर्थों पर निवास रखने वाला तभी सफल है, अगर उसने पाँचो कामादिक वश में कर लिए हैं।1। घुंघरू वाजै जे मनु लागै ॥ तउ जमु कहा करे मो सिउ आगै ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: आगै = परलोक में।1। रहाउ। अर्थ: अगर मेरा मन प्रभु चरणों में जुड़ना सीख गया है तभी (भक्तिया बन के) घुंघरू बजाने सफल हैं। फिर परलोक में यम मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता।1। रहाउ। आस निरासी तउ संनिआसी ॥ जां जतु जोगी तां काइआ भोगी ॥२॥ पद्अर्थ: काइआ भोगी = काया को भोगने वाला, गृहस्थी।2। अर्थ: अगर सब मायावी-आशाओं से उपराम है तो समझो ये सन्यासी है। अगर (गृहस्थ में होते हुए) जोगी वाला जत (कायम) है तो उसे असल गृहस्थी जानो।2। दइआ दिग्मबरु देह बीचारी ॥ आपि मरै अवरा नह मारी ॥३॥ पद्अर्थ: दिगंबरु = (दिग+अंबर) दिशा हैं जिसके कपड़े, नंगा रहने वाला, नागा जैनी।3। अर्थ: अगर (हृदय में) दया है, अगर शरीर को (विकारों की ओर से पवित्र रखने की) विचार वाला भी है,तो वह असल दिगंबर (नागा जैनी); जो मनुष्य खुद (विकारों की ओर से) मरा हुआ है वही है (असल अहिंसावादी) जो और लोगों को नहीं मारता।3। एकु तू होरि वेस बहुतेरे ॥ नानकु जाणै चोज न तेरे ॥४॥२५॥ पद्अर्थ: चोज = करिश्मे, तमाशे।4। अर्थ: (पर किसी को बुरा नहीं कहा जा सकता, हे प्रभु!) ये सारे तेरे ही अनेको वेश है, हरेक वेश में तू खुद ही मौजूद है। नानक (बिचारा) तेरे करिश्मे-तमाशे समझ नहीं सकता।4।25। नोट: ये सारा संग्रह ‘घरु 2’ का चला आ रहा है। पहले 18 शब्द‘चउपदे’ हैं, फिर 6 शब्द ‘पंचपदे’ हैं। अब फिर ‘चउपदे’ आरम्भ हो गए हैं। ये गिनती में चार हैं। देखें शब्द ‘चउपदे’ के नीचे 4 लिखा है। पहले चउपदे शबदों के हरेक बंद में ‘चौपाई’ की तरह की कम से कम चार तुकें हैं, ‘दोहरा’ मेल की दो तुकें हैं। पर इस नए संग्रह में ‘चौपाई-मेल की तुकें ही सिर्फ दो-दो हैं। यह संग्रह पहले से अलग लिख दिया गया है। नोट: इस शब्द की तुकों में दो-दो चीजों का मुकाबला करके एक से दूसरी बढ़िया बताई गई है: तीरथवासी वही समझो जो पंचरासी है। अगर ‘मनु लागै’ तो ‘घुंघरू वाजै’ स्वीकार है। अगर ‘आस निरासी’ है तो ही ‘संनिआसी’ है। अगर ‘जोगी जतु’ है तो ही असल ‘काइआ भोगी’ है। अगर ‘दइआ’ है, अगर ‘देह बीचारी’ है तो ही ‘दिगंबर’ है। अगर ‘आपि मरै’ तो ही समझो कि ‘अवरा नह मारी’। इसी तरह पहली तुक में भी एक चीज के मुकाबले दूसरी स्वीकार की गई है; भाव, वही है ‘विदिआ वीचारी’ जो ‘परउपकारी’ है। सो, पहली तुक के पाठ के समय शब्द ‘तां’ पे विश्राम करना है। अर्थ के समय शब्द ‘परउपकारी’ के साथ शब्द ‘या’ इस्तेमाल करना है। आसा महला १ ॥ एक न भरीआ गुण करि धोवा ॥ मेरा सहु जागै हउ निसि भरि सोवा ॥१॥ पद्अर्थ: निसि = रात। निसि भरि = सारी रात, सारी उम्र। सोवा = मैं सोऊँ, मैं मोह की नींद में सोई रहूँ। जागै = जागता है, विकार उसके नजदीक नहीं फटकते।1। अर्थ: मैं सिर्फ किसी अवगुण से लिबड़ी हुई नहीं हूँ कि अपने अंदर गुण पैदा करके एक अवगुण को धो सकूँ (मेरे अंदर तो बेअंत अवगुण हैं, क्योंकि) मैं तो सारी उम्र-रात ही (मोह की नींद में) सोई रही और मेरा पति-प्रभु जागता रहता है (उसके नजदीक मोह फटक ही नहीं सकता)।1। इउ किउ कंत पिआरी होवा ॥ सहु जागै हउ निस भरि सोवा ॥१॥ रहाउ॥ अर्थ: ऐसी हालत में, मैं पति-प्रभु को कैसे प्यारी लग सकती हूँ? पति जागता है और मैं सारी रात सोई रहती हूँ।1। रहाउ। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |