श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 357 आस पिआसी सेजै आवा ॥ आगै सह भावा कि न भावा ॥२॥ पद्अर्थ: पिआसी = प्यास से व्याकुल। आस प्यासी = दुनिया की आशाओं की प्यास से व्याकुल।2। अर्थ: मैं सेज पर आती हूँ (मैं हृदय रूपी सेज की तरफ पलटती हूँ, पर अभी भी) दुनिया की आशाओं की प्यास से मैं व्याकुल हूँ। (ऐसी आत्मिक दशा से कैसे यकीन बने, कैसे पक्का हो कि) मैं पति-प्रभु को पसंद आऊँ।2। किआ जाना किआ होइगा री माई ॥ हरि दरसन बिनु रहनु न जाई ॥१॥ रहाउ॥ अर्थ: हे माँ! (सारी उम्र माया की नींद में सोए रहने के कारण) मुझे समझ नहीं आ रही कि मेरा क्या बनेगा (मुझे पति-प्रभु स्वीकार करेगा कि नहीं, पर अब) प्रभु-पति के दर्शन के बिना मुझे ढाढस नहीं बंधता।1। रहाउ। प्रेमु न चाखिआ मेरी तिस न बुझानी ॥ गइआ सु जोबनु धन पछुतानी ॥३॥ पद्अर्थ: तिस = तिख, प्यास, माया की तृष्णा। धन = जीव-स्त्री।3। अर्थ: (हे माँ! सारी उम्र) मैंने प्रभु-पति के प्रेमका स्वाद नहीं चखा; इस करके मेरी माया वाली तृष्णा (की आग) नहीं बुझ सकी। मेरी जवानी गुजर गई है, अब मेरी जिंद पछतावा कर रही है।3। अजै सु जागउ आस पिआसी ॥ भईले उदासी रहउ निरासी ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: अजै = अब भी जब कि शरीर कायम है। रहउ = मैं रह जाऊँ, मैं हो जाऊँ।1। रहाउ। अर्थ: (हे माँ! जवानी तो गुजर गई है, पर अरदास कर) अभी भी मैं माया की आशाओं की प्यास से उपराम हो के माया की आशाएं त्याग के जीवन गुजारूँ (शायद मेहर कर ही दे)।1। रहाउ। हउमै खोइ करे सीगारु ॥ तउ कामणि सेजै रवै भतारु ॥४॥ पद्अर्थ: खोइ = नाश करके। सीगारु = आत्मिक श्रृंगार, आत्मा को सुंदर बनाने वाला उद्यम। भतारु = पति, खसम, प्रभु।4। अर्थ: जब जीव-स्त्री अहंकार गवा देती है जब जिंद को सुंदर बनाने का ऐसा प्रयत्न करती है, तब उस जीव-स्त्री को पति-प्रभु उसकी हृदय-सेज पे आ के मिलता है।4। तउ नानक कंतै मनि भावै ॥ छोडि वडाई अपणे खसम समावै ॥१॥ रहाउ॥२६॥ अर्थ: हे नानक! तब ही जीव-स्त्री पति-प्रभु के मन को भाती है, जब मान-बड़ाई (घमण्ड वगैरा) छोड़ के अपने पति की रज़ा में लीन होती है।1। रहाउ। नोट: आम तौर पर हरेक शब्द में एक बंद ‘रहाउ’ का होता है। शब्द ‘रहाउ’ का अर्थ है ‘ठहर जाओ’। यही बंद है शब्द का ‘केन्द्रिय भाव’ वाला। उपरोक्त शब्द में चार ‘रहाउ’ के बंद हैं। शब्द के हरेक बंद के साथ एक-एक ‘रहाउ’ का बंद है। इनमें तरतीब वार मनुष्य की चारों अवस्थाओं का वर्णन किया गया है, जिनमें से गुजर के जीव का प्रभु से मिलाप होता है: 1. पछतावा, 2. दर्शन की चाह, 3. व्याकुलता और 4. रज़ा में लीनता। आसा महला १ ॥ पेवकड़ै धन खरी इआणी ॥ तिसु सह की मै सार न जाणी ॥१॥ पद्अर्थ: पेवकड़ै = पेके घर में, जगत के मोह में। धन = स्त्री, जीव-स्त्री। खरी = बहुत। इआणी = अंजान, मूर्ख। सह की = पति की। सार = कद्र।1। नोट: शब्द ‘सहु’ और ‘सह’ का फर्क याद रखने योग्य है। शब्द ‘सहु’ कर्ताकारक एकवचन है और ‘ु’ की मात्रा से शब्द समाप्त होता है। परन्तु संबंधक ‘की’ के कारण ये ‘ु’ की मात्रा हट गई है। अर्थ: पर, जगत के मोह में फंस के जीव-स्त्री बहुत मूर्ख रहती है। (इस मोह में फंस के ही) मैं उस पति-प्रभु (के मेहर की नजर) की कद्र नहीं समझ सकी (और उसके चरणों से विछुड़ी रही)।1। सहु मेरा एकु दूजा नही कोई ॥ नदरि करे मेलावा होई ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: एकु = सदा एक रस रहने वाला।1। रहाउ। अर्थ: मेरा पति-प्रभु हर समय एक रस रहता है, उस जैसा और कोई नहीं है। वह सदा मेहर की नजर करता है (उसकी मेहर की नजर से ही) मेरा उससे मिलाप हो सकता है।1। रहाउ। साहुरड़ै धन साचु पछाणिआ ॥ सहजि सुभाइ अपणा पिरु जाणिआ ॥२॥ पद्अर्थ: सहुरड़ै = साहुरे घर में, जगत के मोह से निकल के, प्रभु चरणों में जुड़ के। सहजि = अडोल अवस्था में। सुभाइ = प्रेम में।2। अर्थ: जो जीव-स्त्री जगत के मोह से निकल के प्रभु-चरणों में जुड़ती है वह (प्रभु की मेहर की नजर से) सदा उस स्थिर प्रभु (की कद्र) पहचान लेती है; अडोल अवस्था में टिक के प्रेम में जुड़ के वह अपने पति प्रभु के साथ गहरी सांझ डाल लेती है।2। गुर परसादी ऐसी मति आवै ॥ तां कामणि कंतै मनि भावै ॥३॥ पद्अर्थ: गुर परसादी = गुर प्रसादि, गुरु की किरपा से। कंतै मनि = कंत के मन में।3। अर्थ: जब गुरु की किरपा से (जीव-स्त्री को) ऐसी अक्ल आ जाती है (कि वह जगत का मोह छोड़ के प्रभु चरणों में जुड़ने का उद्यम करती है) तब जीव-स्त्री कंत (पति) प्रभु के मन को भाने लगती है।3। कहतु नानकु भै भाव का करे सीगारु ॥ सद ही सेजै रवै भतारु ॥४॥२७॥ पद्अर्थ: भै का = डर का। भाव का = प्रेम का। सीगारु = आत्मिक सोहज।4। अर्थ: नानक कहता है जो जीव-स्त्री परमात्मा के डर का और प्रेम का श्रृंगार बनाती है, उसके हृदय-सेज पर प्रभु-पति सदा आ के टिका रहता है।4।27। आसा महला १ ॥ न किस का पूतु न किस की माई ॥ झूठै मोहि भरमि भुलाई ॥१॥ पद्अर्थ: झूठै मोहि = झूठे मोह के कारण। भरमि = भटकना में (पड़ कर)। भुलाई = (दुनिया) भूली हुई है, गलत रास्ते पर पड़ी हुई है।1। अर्थ: झूठे मोह के कारण दुनिया भटकना में पड़ के गलत रास्ते पर पड़ी हुई है (माता-पिता-पुत्र आदि को ही अपना सदा साथी जान के जीव परमात्मा को बिसारे बैठा है) असल में ना माँ, ना पुत्र कोई भी किसी का पक्का साथी नहीं है।1। मेरे साहिब हउ कीता तेरा ॥ जां तूं देहि जपी नाउ तेरा ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: कीता तेरा = तेरा पैदा किया हुआ। जपी = मैं जपता हूँ।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मालिक प्रभु! मैं तेरा पैदा किया हुआ हूँ (मेरी सारी शारीरिक व आत्मिक जरूरतें तू ही जानता है और पूरी करने के समर्थ है, मेरे आत्मिक जीवन की खातिर) जब तू मुझे अपना नाम देता है, तभी मैं जप सकता हूँ।1। रहाउ। बहुते अउगण कूकै कोई ॥ जा तिसु भावै बखसे सोई ॥२॥ पद्अर्थ: कूकै = पुकार करे। तिसु भावै = उस प्रभु को ठीक लगे।2। अर्थ: अनेक ही पाप किए हुए हों, फिर भी अगर कोई मनुष्य (परमात्मा के दर पर) अरजोई करता है (परमात्मा पैदा किए की लज्जा रखता है) जब उसे (उस अति विकारी की भी आरजू) पसंद आती है तो वह बख्शिश करता है (और उसके आत्मिक जीवन के वास्ते उसको अपने नाम की दाति देता है)।2। गुर परसादी दुरमति खोई ॥ जह देखा तह एको सोई ॥३॥ पद्अर्थ: दुरमति = खोटी मति। जह = जिस तरफ, जिधर। देखा = मैं देखता हूँ।3। अर्थ: मैं जिधर भी देखता हूँ उधर (सब जीवों को पैदा करने वाला) वह परमातमा ही व्यापक देखता हूँ (पर ये भी तभी दिखाई देता है जब) गुरु की किरपा से हमारी खोटी मति नाश होती है।3। कहत नानक ऐसी मति आवै ॥ तां को सचे सचि समावै ॥४॥२८॥ पद्अर्थ: सचे = सच में ही, सदा कायम रहने वाले प्रभु में ही।4। अर्थ: नानक कहता है कि जब (प्रभु की अपनी मेहर से गुरु के द्वारा) जीव को ऐसी अक्ल आ जाए कि हर तरफ उसे परमात्मा ही दिखे, तो जीव सदा उस सदा-स्थिर परमात्मा की याद में लीन रहता है।4।28। आसा महला १ दुपदे ॥ तितु सरवरड़ै भईले निवासा पाणी पावकु तिनहि कीआ ॥ पंकजु मोह पगु नही चालै हम देखा तह डूबीअले ॥१॥ पद्अर्थ: दुपदे = दा पदों वाले, दो बंदों वाले शब्द। तितु = उस में। सरवरड़ै = भयानक सरोवर में। तितु सरवरड़ै = उस डरावने सरोवर में। भईले = हुआ है। पावकु = आग। तिनहि = उस (प्रभु) ने (खुद ही)। पंक = कीचड़। पंकजु मोह = पंक जो मोह, मोह का कीचड़। पगु = पैर। हम देखा = हमारे देखते ही, हमारे सामने ही। तह = उस में, वहाँ। डूबीअले = डूब गए।1। अर्थ: (हम जीवों का) उस भयानक सरोवर में बसेरा है जिसमें उस प्रभु ने खुद ही पानी की जगह (तृष्णा की) आग पैदा की है, (और उस सरोवर में) जो मोह का कीचड़ है (उसमें जीवों के) पैर चल नहीं सकते (भाव, जीव मोह के कीचड़ में फंसे हुए हैं), हमारे सामने ही कई जीव (मोह के कीचड़ में फंस के तृष्णा की आग के अथाह जल में) डूबते जा रहे हैं।1। मन एकु न चेतसि मूड़ मना ॥ हरि बिसरत तेरे गुण गलिआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मन = हे मन! मूढ़ = हे मूर्ख! गलिआ = गलते जाते हैं, कम होते जाते हैं।1। रहाउ। अर्थ: हे मन! हे मूर्ख मन! तू एक प्रभु को याद नहीं करता। तू ज्यों-ज्यों प्रभु को बिसारता है, तेरे (अंदर से) गुण कम होते जाते हैं।1। रहाउ। ना हउ जती सती नही पड़िआ मूरख मुगधा जनमु भइआ ॥ प्रणवति नानक तिन्ह की सरणा जिन्ह तूं नाही वीसरिआ ॥२॥२९॥ पद्अर्थ: हउ = मैं। जती = जत वाला, काम-वासना को रोक के रखने वाला। सती = सत वाला, उच्च आचरण वाला। मुगधा = मूर्ख, बेसमझ। जनमु = जीवन। प्रणवति = विनती करता है।2। अर्थ: हे प्रभु! ना मैं जती हूँ, ना मैं सती हूँ, ना ही मैं पढ़ा (-लिखा) हूँ, मेरा जीवन तो मूर्खों बेसमझों वाला बना हुआ है, (भाव, जत-सत और विद्या इस तृष्णा की आग और मोह के कीचड़ में गिरने से बचा नहीं सकते। अगर मनुष्य प्रभु को बिसार दे, तो जत-सत-विद्या के होते हुए भी मनुष्य की जिंदगी महा मूर्खों वाली ही होती है)। (सो) नानक बिनती करता है: (हे प्रभु! मुझे) उन (गुरमुखों) की शरण में (रख) जिन्हें तू नहीं भूला (जिन्हें तेरी याद नहीं भूली)।2।29। आसा महला १ ॥ छिअ घर छिअ गुर छिअ उपदेस ॥ गुर गुरु एको वेस अनेक ॥१॥ पद्अर्थ: छिअ = छह। घर = शास्त्र। छिअ घर = (सांख, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा, योग, वेदांत)। गुर = करता, शास्त्र के रचयता। छिअ गुर = (कल्प, गौतम, कणाद, जैमिनी, पतंजलि, व्यास)। उपदेस = शिक्षा, सिद्धांत। गुरु गुरु = ईष्ट गुरु। एको = एक ही।1। अर्थ: छह शास्त्र हैं, छह ही (इन शास्त्रों के) चलाने वाले हैं, छह ही इनके सिद्धांत हैं। पर इन सभी का मूल-गुरु (परमातमा) एक ही है। (ये सारे सिद्धांत) उस एक प्रभु के ही अनेक वेश हैं (प्रभु की हस्ती के प्रकाश के कई रूप हैं)।1। जै घरि करते कीरति होइ ॥ सो घरु राखु वडाई तोहि ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: जै घरि = जिस घर के द्वारा, जिस सत्संग घर में। कीरति = कीर्ति, महिमा। वडाई = उपमा। तोहि = तुझे।1। रहाउ। अर्थ: जिस (सत्संग-) घर में अकाल पुरख की महिमा होती है, (हे भाई!) तू घर को संभाल के रख (उस सत्संग का आसरा ले, इसी में) तुझे बड़ाई मिलेगी।1। रहाउ। विसुए चसिआ घड़ीआ पहरा थिती वारी माहु भइआ ॥ सूरजु एको रुति अनेक ॥ नानक करते के केते वेस ॥२॥३०॥ पद्अर्थ: आँख की 15 झपक =1 विसा। 15 विसुए = 1 चसा। 30 चसे = 1 पल। 30 पल = 1 घड़ी। 7.5 घड़ियां = 1 पहर। (15 तिथियां। 7 वार। 12 महीने। 6 ऋतुएं)। वेस = रूप। केते = कितने, अनेक।2। अर्थ: जैसे विसूए, चसे, घड़ियां, पहर, तिथिएं, वार, महीने (आदि) व अनेक ऋतुएं हैं, पर सूरज एक ही है (जिसके ये सारें अलग-अलग स्वरूप हैं), वैसे ही, हे नानक! कर्तार के (ये सारे जीव-जंतु) अनेको स्वरूपों में हैं।2।30। नोट: ‘घरु २’ के 30 शब्दों का संग्रह यहीं पर समाप्त होता है। आगे ‘घरु ३’ के शब्द शुरू होते हैं। नए सिरे से मूलमंत्र का लिखा जाना भी यही बताता है कि नया संग्रह आरम्भ हो रहा है। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |