श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 360 सिव नगरी महि आसणि बैसउ कलप तिआगी बादं ॥ सिंङी सबदु सदा धुनि सोहै अहिनिसि पूरै नादं ॥२॥ पद्अर्थ: सिव = परमात्मा, कल्याण स्वरूप। आसणि = आसन पर। बैसउ = मैं बैठता हूँ। कलप = कल्पना। बादं = वाद विवाद, झगडे, धंधे। धुनि = आवाज, सुरीली सुर। अहि = दिन। निसि = रात। पूरै = पूरा करता है, बजाता है।2। अर्थ: (हे जोगी!) मैं भी आसन पर बैठता हूँ, मैं मन की कल्पनाएं और दुनिया वाले झगड़े-झमेले छोड़ के कल्याण-स्वरूप प्रभु के देश में (प्रभु के चरणों में) टिक के बैठता हूँ (ये है मेरा आसन पर बैठना)। हे जोगी! तू सिंगी (बजाता है) मेरे अंदर गुरु का शब्द (गूँज रहा) है; ये ही सिंगी के मीठे और सुहाने सुर, जो मेरे अंदर चल रहे हैं। दिन-रात मेरा मन गुरु-शब्द का नाद बजा रहा है।2। पतु वीचारु गिआन मति डंडा वरतमान बिभूतं ॥ हरि कीरति रहरासि हमारी गुरमुखि पंथु अतीतं ॥३॥ पद्अर्थ: पतु = पात्र, प्याला, चिप्पी। वरतमान = हर जगह मौजूद। बिभूत = राख। रहरासि = मर्यादा। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहना। अतीत पंथु = विरक्त पंथ।3। अर्थ: (हे जोगी! तू हाथ में खप्पर ले के घर-घर से भिक्षा मांगता है, पर मैं प्रभु के दर से उसके गुणों की) विचार (मांगता हूँ, ये) है मेरा खप्पर (कासा)। परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाले रखने वाली मति (मेरे हाथ में) डण्डा है (जो किसी विकार को नजदीक नहीं फटकने देता)। प्रभु को हर जगह मौजूद देखना मेरे वास्ते शरीर पर मलने वाली राख है। अकाल पुरख की महिमा (मेरे वास्ते) जोग की (प्रभु से मिलाप की) मर्यादा है। गुरु के सन्मुख टिके रहना ही हमारा धर्म-रास्ता है जो हमें माया से विरक्त रखता है।3। सगली जोति हमारी समिआ नाना वरन अनेकं ॥ कहु नानक सुणि भरथरि जोगी पारब्रहम लिव एकं ॥४॥३॥३७॥ पद्अर्थ: संमिआ = बैरागण, लकड़ी आदि की टिक टिकी जिस पर बाँहें टिका के जोगी समाधि में बैठता है। नाना = कई प्रकार के। भरथरि जोगी = हे भरथरी जोगी!।4। नोट: गोरख भरथरी आदि प्रसिद्ध योगी गुरु नानक देव जी से पहले हो चुके थे। श्रद्धालु लोग अपने ईष्ट गुरु” रहबर के नाम पर अपने घरों में नाम रखते रहते हैं। मुसलमान मुहम्मद अली आदि नाम इस्तेमाल करते आ रहे हैं। हिन्दू राम कृष्ण आदि प्रयोग कर रहे हैं; सिख भी नानक, राम आदि नाम रख लेते हैं। इसी तरह जोगी भी अपने प्रसिद्ध जोगियों के नाम बरतते रहे हैं। भरथरी नाम वाला जोगी भी किसी ऐसी ही श्रेणी में से था। नोट: जोगी लोग अपने वेष के चिन्ह धारण करते हैं। मुंद्रा खिंथा, बिभूत, सिंगी, डण्डा, बैरागण (संमिआ) जोग-वेष की प्रसिद्ध चीजें हैं। शब्द जोग का अर्थ है ‘मिलाप’, ‘जोगी’ का अर्थ है वह जीव जो परमात्मा से मिला हुआ हो। गुरु नानक देव जी जोग-वेष के चिन्हों की तुलना प्रभु-चरणों में मनुष्य के आत्मक जीवन के भिन्न-भिन्न पहलुओं से करते हैं। अर्थ: हे नानक! (कह:) हे भरथरी योगी! सुन, सब जीवों में अनेक रूपों-रंगों में प्रभु की ज्योति को देखना- ये है हमारी बैरागण (संमिया) जो हमें प्रभु-चरणों में जुड़ने के लिए सहारा देती है।4।3।37। आसा महला १ ॥ गुड़ु करि गिआनु धिआनु करि धावै करि करणी कसु पाईऐ ॥ भाठी भवनु प्रेम का पोचा इतु रसि अमिउ चुआईऐ ॥१॥ पद्अर्थ: गिआनु = अकाल-पुरख के साथ गहरी सांझ। धिआनु = प्रभु की याद में तवज्जो जुड़ी रहनी। धावै = महूए के फूल। करणी = उच्च आचरण। कसु = बबूल कीछाल। भवनु = शरीर, देह अध्यास। भाठी = शराब निकालने वाली भट्ठी (उतारने वाला बरतन, बरतन के ऊपर नाली, बरतन के नीचे आग, इस सारे का समूह)। पोचा = ठण्डे पानी का पोचा उस नाली पर जिसमें से अर्क की भाप निकलती है, ताकि भाप ठण्डी हो के अर्क बनती जाए। इतु = इस के द्वारा। इतु रसि = इस (तैयार हुए) रस के द्वारा। अमिउ = अमृत।1। अर्थ: (हे जोगी!) परमात्मा के साथ गहरी सांझ को गुड़ बना, प्रभु चरणों में जुड़ी तवज्जो को महूए के फूल बना, उच्च आचरण को बबूल की छाल बना के (इनमें) मिला दे। शारीरिक मोह को जला- ऐसी शराब निकालने की भट्ठी तैयार कर, प्रभु चरणों में प्यार जोड़- ये है वह ठण्डा पोचा जो अर्क वाली नाली पर फेरना है। इस सारे मिलवें रस में से (अटल आत्मिक जीवन दाता) अमृत निकलेगा।1। बाबा मनु मतवारो नाम रसु पीवै सहज रंग रचि रहिआ ॥ अहिनिसि बनी प्रेम लिव लागी सबदु अनाहद गहिआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: बाबा = हे जोगी! मतवारो = मस्त। सहज = अडोलता। अहि = दिन। निसि = रात। अनाहद = एक रस, लगातार। गहिआ = पकड़ा, ग्रहण किया।1। रहाउ। अर्थ: हे जोगी! (तुम तवज्जो को टिकाने के लिए शराब पीते हो, ये नशा उतर जाता है; और तवज्जो दुबारा उखड़ जाती है) असल मस्ताना वह मन है जो परमात्मा के स्मरण का रस पीता है (स्मरण का आनंद लेता है) जो (नाम जपने की इनायत से) अडोलता के हुलारों में टिका रहता है, जिसे प्रभु-चरणों के प्रेम की इतनी लगन लगती है कि दिन-रात बनी रहती है, जो अपने गुरु के शब्द को सदा एक-रस अपने अंदर टिकाए रखता है।1। रहाउ। पूरा साचु पिआला सहजे तिसहि पीआए जा कउ नदरि करे ॥ अम्रित का वापारी होवै किआ मदि छूछै भाउ धरे ॥२॥ पद्अर्थ: पूरा = सब गुणों का मालिक प्रभु। साचु = सदा टिके रहने वाला। सहजे = अडोल अवस्था में (रख के)। मदि = शराब में। छूछै = फोक में। भाउ = प्यार।2। अर्थ: (हे जोगी!) ये है वह प्याला जिसकी मस्ती सदा टिकी रहती है, सब गुणों का मालिक प्रभु अडोलता में रख के उस मनुष्य को (ये प्याला) पिलाता है जिस पर खुद मेहर की नजर करता है। जो मनुष्य अटल आत्मिक जीवन देने वाले इस रस का व्यापारी बन जाए वह (तुम्हारी वाली इस) होछी शराब से प्यार नहीं करता।2। गुर की साखी अम्रित बाणी पीवत ही परवाणु भइआ ॥ दर दरसन का प्रीतमु होवै मुकति बैकुंठै करै किआ ॥३॥ पद्अर्थ: साखी = शिक्षा, उपदेश। अंम्रित = अटल आत्मिक जीवन देने वाली। परवाणु = स्वीकार।3। अर्थ: जिस मनुष्य ने अटल आत्मिक जीवन देने वाली गुरु की शिक्षा भरी वाणी का रस पीया है, वह पीते ही प्रभु की नजरों में स्वीकार हो जाता है, वह परमात्मा के दर के दीदार का प्रेमी बन जाता है, उसे फिर ना मुक्ति की जरूरत रहती है ना बैकुण्ठ की।3। सिफती रता सद बैरागी जूऐ जनमु न हारै ॥ कहु नानक सुणि भरथरि जोगी खीवा अम्रित धारै ॥४॥४॥३८॥ पद्अर्थ: रता = रंगा हुआ। जूऐ = जूए में। खीवा = मस्त। धार = ध्यान, तवज्जो।4। नोट: योगी समाधी के समय तवज्जो की एकाग्रता के लिए शराब पीते थे। सतिगुरु जी उस शराब का विरोध करते हैं। अर्थ: हे नानक! (कह:) हे भरथरी जोगी! जो मनुष्य प्रभु की महिमा में रंगा गया है वह सदा (माया के मोह से) विरक्त रहता है। वह आत्मिक मानव जीवन जूए में (भाव, व्यर्थ) नहीं गवाता, वह तो अटल आत्मिक जीवन दाते आनंद में मस्त रहता है।4।4।38। आसा महला १ ॥ खुरासान खसमाना कीआ हिंदुसतानु डराइआ ॥ आपै दोसु न देई करता जमु करि मुगलु चड़ाइआ ॥ एती मार पई करलाणे तैं की दरदु न आइआ ॥१॥ पद्अर्थ: खुरासान = ईरान के पूर्व और अफ़गानिस्तान के पश्चिम का देश जिसमें हरात और मशहद दो प्रसिद्ध नगर हैं। हिन्दुस्तान के लोग सिंध नदी के पश्चिम के देशों को खुरासान ही कह देते हैं। खसम = मालिक। खसमाना = सुपुर्दगी। आपै = अपने आप को। करता = कर्तार। मुगलु = बाबर। एती = इतनी। करलाणै = पुकार उठे। दरदु = दर्द, दुख, तरस।1। अर्थ: खुरासान की सुपुर्दगी (किसी और को) कर के (बाबर मुग़ल ने हमला करके) हिन्दुस्तान को सहमा दिया है। (जो लोग अपने फर्ज भुला के रंग-रलियों में पड़ जाते हें उन्हें सजा भुगतनी ही पड़ती है, इस बारे) ईश्वर अपने ऊपर दोष नहीं आने देता। (सो, फर्ज भुला के विकारों में मस्त पड़े पठान हाकमों को दण्ड देने के लिए कर्तार ने) मुग़ल बाबर को यमराज बना के (हिन्दोस्तान पर) चढ़ाई करवा दी। (पर, हे ईश्वर! बद-मस्त पठान हाकिमों के साथ गरीब निहत्थे भी पीसे गए) इतनी मार पड़ी कि वे (हाय-हाय) पुकार उठे। क्या (ये सब कुछ देख के) तुझे उन पे तरस नहीं आया?।1। करता तूं सभना का सोई ॥ जे सकता सकते कउ मारे ता मनि रोसु न होई ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: करता = हे कर्तार! सोई = सार लेने वाला, रक्षा करने वाला। सकता = तगड़ा। मनि = मन में। रोसु = रोश, गिला, गुस्सा।1। रहाउ। अर्थ: हे कर्तार! तू सभी जीवों की सार रखने वाला है। अगर कोई ताकतवान किसी ताकतवाले की मार-कुटाई करे तो (देखने वालों के) मन में गुस्सा-गिला नहीं होता (क्योंकि दोनों पक्ष एक-दूसरे को करारे हाथ दिखा लेते हैं)।1। रहाउ। सकता सीहु मारे पै वगै खसमै सा पुरसाई ॥ रतन विगाड़ि विगोए कुतीं मुइआ सार न काई ॥ आपे जोड़ि विछोड़े आपे वेखु तेरी वडिआई ॥२॥ पद्अर्थ: सीहु = शेर। पै = हल्ला कर के। वगै = गायों के झुंड को, गायों के कारवां को, निहत्थों को, गरीबों को। पुरसाई = पुरशिश, पूछ पड़ताल। रतन = रत्नों जैसे स्त्री पुरुष। विगाड़ि = बिगाड़ के। विगोए = ख्वार किए, नाश कर दिए। कुतीं = कुत्तों ने, मुग़लों ने। सार = खबर। जोड़ि = जोड़ के। वेखु = हे प्रभु! देख।2। अर्थ: पर, अगर कोई शेर (जैसा) शक्तिशाली गायों के झुंड (जैसे कमजोर निहत्थों) पर हमला करके मारने लगे, तो इसकी पूछ-पड़ताल (तो झुंड के) मालिक खसम से ही होती है (इसीलिए, हे कर्तार! मैं तेरे आगे पुकार करता हूँ)। (कुत्ते बाहर के कुत्तों को देख के बर्दाश्त नहीं कर सकते, फाड़ खाते हैं। इसी तरह मनुष्य को फाड़ खाने वाले इन मनुष्य-रूपी मुग़ल) कुत्तों ने (तेरे बनाए) सुंदर लोगों को मार-मार के मिट्टी में मिला दिया है, मरे हुओं की कोई सार नहीं लेता। (हे कर्तार! तेरी रजा तू ही जाने) तू खुद ही (संबंध) जोड़ के खुद ही (इनको मौत के घाट उतार के आपस में) विछोड़ देता है। देख! हे कर्तार! ये तेरी ताकत का करिश्मा है।2। जे को नाउ धराए वडा साद करे मनि भाणे ॥ खसमै नदरी कीड़ा आवै जेते चुगै दाणे ॥ मरि मरि जीवै ता किछु पाए नानक नामु वखाणे ॥३॥५॥३९॥ पद्अर्थ: साद = रंग रलियां। मनि = मन में। भाणे = भाते। मनि भाणे = जो भी मन में अच्छे लगें। खसमै नदरी = खसम प्रभु की निगाहों में। जेते = जितने भी। मरि मरि = मर के मर के, अपने आप को विकारों से हटा के।3। नोट: जब मक्के के ओर की तीसरी ‘उदासी’ (यात्रा) से गुरु नानक देव जी बग़दाद काबुल के रास्ते सन् 1521 में हिन्दोस्तान को वापस आ रहे थे, उन्हीं दिनों में बाबर ने भेरा सयालकोट मार के सैदपुर (ऐमनाबाद) पर हमला किया था। सतिगुरु जी भी ऐमनाबाद पहुँच चुके थे। बाबर के मुग़ल फौजियों के हाथों जो दुर्गति सैदपुर-निवासियों की आँखों देखी, उसका ज़िक्र सतिगुरु जी इस शब्द में कर रहे हैं। अर्थ: (धन-पदार्थ-हकूमत आदि के नशे में मनुष्य अपनी हस्ती को भूल जाता है और बड़ी अकड़ दिखा-दिखा के और लोगों को दुख देता है, पर ये नहीं समझता कि) अगर कोई मनुष्य अपने आप को बड़ा कहलवा ले, और मन-मर्जी की रंग-रलियां कर ले, तो भी वह खसम-प्रभु की नजरों में एक कीड़े समान ही है जो (धरती से) दाने चुग-चुग के निरवाह करता है (अहम् की बद्-मस्ती में वह मनुष्य जिंदगी बेकार ही गवा लेता है)। हे नानक! जो मनुष्य विकारों की ओर से खुद को मार के (आत्मिक जीवन) जीता है, और प्रभु का नाम स्मरण करता है वही यहाँ से कुछ कमाता है।3।5।39। नोट: ‘घरु ६’ के कुल 5 शब्द हैं। आसा राग में गुरु नानक देव जी के 39 शब्द हैं। रागु आसा घरु २ महला ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ हरि दरसनु पावै वडभागि ॥ गुर कै सबदि सचै बैरागि ॥ खटु दरसनु वरतै वरतारा ॥ गुर का दरसनु अगम अपारा ॥१॥ पद्अर्थ: दरसनु = शास्त्र। हरि दरसनु = परमात्मा का (मिलाप कराने वाला) शास्त्र। वडभागि = बड़े भाग्यों से, बड़ी किस्मत से। सबदि = शब्द के द्वारा। सचै बैरागि = सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के बैराग द्वारा। खटु = छह। खटु दरसन = छह शास्त्र (सांख, न्याय, विशेषिक, मीमांसा, योग और वेदांत)। वरतारा = रिवाज। गुर का दरसनु = गुरु का शास्त्र। अगम = अगम्य। अपारा = जिसका परला छोर ना मिल सके।1। अर्थ: (जगत में वेदांत आदि) छह शास्त्रों (की विकार) का रिवाज चल रहा है पर गुरु का (दिया हुआ) शास्त्र (इन छह शास्त्रों की) पहुँच से परे है (ये छह शास्त्र गुरु के शास्त्र का) अंत नहीं पा सकते। गुरु के शब्द में (जुड़ के) सदा कायम रहने वाले परमात्मा में लगन जोड़ के मनुष्य बड़ी किस्मत से परमात्मा का (मिलाप करवाने वाला गुर-) शास्त्र प्राप्त करता है।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |