श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 361 गुर कै दरसनि मुकति गति होइ ॥ साचा आपि वसै मनि सोइ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: दरसनि = शास्त्र के द्वारा। मुकति = विकारों से खलासी। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। साचा = सदा कायम रहने वाला प्रभु। मनि = मन में। सोइ = वह ही।1। रहाउ। अर्थ: गुरु के (दिये हुए) शास्त्र के द्वारा विकारों से मुक्ति हो जाती है, वह सदा कायम रहने वाला परमात्मा स्वयं मन में आ बसता है।1। रहाउ। गुर दरसनि उधरै संसारा ॥ जे को लाए भाउ पिआरा ॥ भाउ पिआरा लाए विरला कोइ ॥ गुर कै दरसनि सदा सुखु होइ ॥२॥ पद्अर्थ: उधरै = (विकारों से) बच जाता है। को = कोई मनुष्य। भाउ = प्रेम।2। अर्थ: अगर कोई मनुष्य (गुरु के शास्त्र में) प्रेम-प्यार जोड़े तो (प्रेम जोड़ने वाला) जगत गुरु के शास्त्र की इनायत से (विकारों से) बच जाता है। पर कोई दुर्लभ (विरला) मनुष्य ही (गुरु के शास्त्र में) प्रेम-प्यार करता है। (हे भाई!) गुरु के शास्त्र में (चित्त जोड़ने से) सदा आत्मिक आनंद मिलता है।2। गुर कै दरसनि मोख दुआरु ॥ सतिगुरु सेवै परवार साधारु ॥ निगुरे कउ गति काई नाही ॥ अवगणि मुठे चोटा खाही ॥३॥ पद्अर्थ: मोख दुआरु = विकारों से खलासी देने वाला दरवाजा। साधारु = स+आधारु, आसरे वाला। काई गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। अवगणि = अवगण में, पाप में। मुठे = लूटे जा रहे। खाही = खाहि, खाते हैं।3। अर्थ: गुरु के शास्त्र में (तवज्जो टिकाने से) विकारों से मुक्ति पाने वाला रास्ता मिल जाता है। जो मनुष्य सतिगुरु की शरण पड़ता है वह अपने परिवार के वास्ते भी (विकारों से बचने के लिए) सहारा बन जाता है। जो मनुष्य गुरु की शरण नहीं पड़ता, उसे कोई उच्च आत्मिक अवस्था नहीं प्राप्त होती। (हे भाई!) जो मनुष्य पाप (-कर्म) में (फंस के आत्मिक जीवन की ओर से) लूटे जा रहे हैं, वह (जीवन-सफ़र में) (विकारों की) मार खाते हैं।3। गुर कै सबदि सुखु सांति सरीर ॥ गुरमुखि ता कउ लगै न पीर ॥ जमकालु तिसु नेड़ि न आवै ॥ नानक गुरमुखि साचि समावै ॥४॥१॥४०॥ पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने से। ता कउ = उस (मनुष्य) को। पीर = पीड़ा, दुख। जमकालु = मौत, आत्मिक मौत। साचि = सदा कायम रहने वाले परमात्मा में। समावै = लीन हो जाता है।4। अर्थ: (हे भाई!) गुरु के शब्द में जुड़ने से (मनुष्य के) शरीर को सुख मिलता है शांति मिलती है, गुरु की शरण पड़ने से उसे कोई दुख छू नहीं सकता। हे नानक! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है आत्मिक मौत उसके नजदीक नहीं फटकती। वह मनुष्य सदा कायम रहने वाले परमात्मा में लीन हुआ रहता है।4।1।40। नोट: अंक 4 बताता है कि इस शब्द के चार बंद हैं। अंक 1 बताता है कि तीसरे गुरु, गुरु अमरदास जी का ये पहला शब्द है।
गुरु नानक देव जी के शब्द------39
आसा महला ३ ॥ सबदि मुआ विचहु आपु गवाइ ॥ सतिगुरु सेवे तिलु न तमाइ ॥ निरभउ दाता सदा मनि होइ ॥ सची बाणी पाए भागि कोइ ॥१॥ पद्अर्थ: सबदि = गुरु के शब्द द्वारा। मुआ = (माया के मोह से) अछोह हो गया। आपु = स्वै भाव। तिलु = रत्ती भर भी। तमाइआ = लालच। मनि = मन में। भागि = किस्मत से।1। अर्थ: जो मनुष्य गुरु के शब्द में जुड़ के (माया के मोह की ओर से) निर्लिप हो जाता है वह अपने अंदर से स्वै-भाव दूर कर लेता है। जो मनुष्य सतिगुरु की शरण पड़ता है उसे (माया की) रत्ती भर भी लालच नहीं रहती। उस मनुष्य के मन में वह दातार सदा बसा रहता है जिसे किसी का कोई डर नहीं। पर कोई विरला मनुष्य ही अच्छी किस्मत से सदा स्थिर रहने वाले प्रभु की महिमा की वाणी के द्वारा उस को मिल सकता है।1। गुण संग्रहु विचहु अउगुण जाहि ॥ पूरे गुर कै सबदि समाहि ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: संग्रहु = इकट्ठे करो (अपने अंदर)। जाहि = दूर हो जाएंगे। समाहि = (प्रभु में) लीन हो जाएगा।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई! अपने अंदर परमात्मा के) गुण इकट्ठे करो। (परमात्मा की महिमा करते रहो, महिमा की इनायत से) मन में से विकार दूर हो जाते हैं। पूरे गुरु के शब्द से (महिमा करके) तू (गुणों के मालिक प्रभु में) टिका रहेगा।1। रहाउ। गुणा का गाहकु होवै सो गुण जाणै ॥ अम्रित सबदि नामु वखाणै ॥ साची बाणी सूचा होइ ॥ गुण ते नामु परापति होइ ॥२॥ पद्अर्थ: वखाणै = उच्चारता है, स्मरण करता है। सूचा = पवित्र। ते = से।2। अर्थ: जो मनुष्य परमात्मा की महिमा का सौदा करता है वह उस महिमा की कद्र समझता है; वह मनुष्य आत्मिक जीवन देने वाले गुरु शब्द के द्वारा परमात्मा का नाम स्मरण करता रहता है। सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा की महिमा की वाणी की इनायत से वह मनुष्य पवित्र जीवन वाला हो जाता है। महिमा की इनायत से उसको परमात्मा के नाम का सौदा मिल जाता है।2। गुण अमोलक पाए न जाहि ॥ मनि निरमल साचै सबदि समाहि ॥ से वडभागी जिन्ह नामु धिआइआ ॥ सदा गुणदाता मंनि वसाइआ ॥३॥ पद्अर्थ: मनि निरमल = पवित्र मन में। सबदि = शब्द के द्वारा। मंनि = मनि, मन में।3। अर्थ: परमात्मा के गुणों का मूल्य नहीं पड़ सकता, किसी भी कीमत पर नहीं मिल सकते, (हां,) सदा स्थिर रहने वाले प्रभु की महिमा के शबदके द्वारा (ये गुण) पवित्र हुए मन में आ बसते हैं। (हे भाई!) जिस लोगों ने परमात्मा का नाम स्मरण किया है, अपने गुणों की दाति देने वाला प्रभु अपने मन में बसाया है वे बड़े भाग्यशाली हैं।3। जो गुण संग्रहै तिन्ह बलिहारै जाउ ॥ दरि साचै साचे गुण गाउ ॥ आपे देवै सहजि सुभाइ ॥ नानक कीमति कहणु न जाइ ॥४॥२॥४१॥ पद्अर्थ: जाउ = मैं जाता हूँ। दरि साचै = सदा स्थिर प्रभु के दर पर। गाउ = मैं गाता हूँ। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्रेम में।4। अर्थ: (हे भाई!) जो जो मनुष्य परमातमा के गुण (अपने अंदर) इकट्ठे करता है, मैं उनसे कुर्बान जाता हूँ (उनकी संगति की इनायत से) मैं सदा स्थिर प्रभु के दर पर (टिक के) उस सदा कायम रहने वाले के गुण गाता हूँ। हे नानक! (गुणों की दाति जिस मनुष्य को) प्रभु खुद देता है (वह मनुष्य) आत्मिक अडोलता में टिकता है प्रेम में जुड़ा रहता है (उसके उच्च जीवन का मूल्य नहीं बताया जा सकता)।4।2।41। आसा महला ३ ॥ सतिगुर विचि वडी वडिआई ॥ चिरी विछुंने मेलि मिलाई ॥ आपे मेले मेलि मिलाए ॥ आपणी कीमति आपे पाए ॥१॥ पद्अर्थ: मेलि = (प्रभु के) मिलाप में। आपे = (प्रभु) स्वयं ही। कीमति = कद्र।1। अर्थ: (हे भाई!) सतिगुरु में ये बहुत बड़ा गुण है कि वह अनेक जन्मों से विछुड़े हुए जीवों को परमात्मा के चरणों में जोड़ देता है। प्रभु स्वयं ही (गुरु) मिलाता है, गुरु मिला के अपने चरणों में जोड़ता है और (इसतरह जीवों के दिल में) अपने नाम की कद्र स्वयं ही पैदा करता है।1। हरि की कीमति किन बिधि होइ ॥ हरि अपर्मपरु अगम अगोचरु गुर कै सबदि मिलै जनु कोइ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: किन बिधि = किस तरीके से? अपरंपरु = परे से परे। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचरु = (अ+गो+चरु। गो = ज्ञान-इंद्रिय। चरु = पहुँच) जिस तक ज्ञानेन्द्रियो की पहुँच नहीं हो सकती। कोइ = को बिरला।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) किस तरीके से (मनुष्य के मन में) परमात्मा (के नाम) की कद्र पैदा हो? परमात्मा परे से परे है, परमात्मा अगम्य (पहुँच से परे) है, परमात्मा तक ज्ञान-इंद्रिय द्वारा पहुँच नहीं हो सकती। (बस!) गुरु के शब्द से (ही) कोई विरला मनुष्य प्रभु को मिलता है (और उसके अंदर प्रभु के नाम की कद्र पैदा होती है)।1। रहाउ। गुरमुखि कीमति जाणै कोइ ॥ विरले करमि परापति होइ ॥ ऊची बाणी ऊचा होइ ॥ गुरमुखि सबदि वखाणै कोइ ॥२॥ पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। करमि = मेहर से। ऊचा = उच्च जीवन वाला।2। अर्थ: कोई विरला मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा के नाम की कद्र समझता है किसी विरले को परमात्मा की मेहर से (परमात्मा का नाम) मिलता है। सबसे उच्च प्रभु के महिमा की वाणी की इनायत से मनुष्य उच्च जीवन वाला बन जाता है। कोई (विरला भाग्यशाली मनुष्य) गुरु की शरण पड़ कर गुरु के शब्द के द्वारा परमात्मा का नाम स्मरण करता है।2। विणु नावै दुखु दरदु सरीरि ॥ सतिगुरु भेटे ता उतरै पीर ॥ बिनु गुर भेटे दुखु कमाइ ॥ मनमुखि बहुती मिलै सजाइ ॥३॥ पद्अर्थ: सरीरि = शरीर में, हृदय में। भेटे = मिले। ता = तब। बिनु गुर भेटे = गुरु को मिले बिना। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला।3। अर्थ: परमात्मा का नाम स्मरण के बिना मनुष्य के शरीर में (विकारों का) दुख रोग पैदा होया रहता है। जब मनुष्य को गुरु मिलता है तब उसका ये दुख दूर हो जाता है। गुरु को मिले बिना मनुष्य वही कर्म कमाता है जो दुख पैदा करें, (इस तरह) अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य को सदा बहुत ज्यादा सजा मिलती रहती है।3। हरि का नामु मीठा अति रसु होइ ॥ पीवत रहै पीआए सोइ ॥ गुर किरपा ते हरि रसु पाए ॥ नानक नामि रते गति पाए ॥४॥३॥४२॥ पद्अर्थ: अति रसु = बहुत रस वाला। पीआए = पिलाता है। सोइ = वह (प्रभु) ही। ते = से। नामि = नाम में। रते = रंग के। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था।4। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम (एक ऐसा अमृत है जो) मीठा है, बड़े रस वाला है। पर वही मनुष्य ये नाम-रस पीता रहता है, जिसको वह परमात्मा खुद पिलाए। हे नानक! गुरु की किरपा से ही मनुष्य परमात्मा के नाम-जल का आनंद लेता है, नाम-रंग में रंग के मनुष्य उच्च आत्मिक अवस्था हासिल कर लेता है।4।3।42। आसा महला ३ ॥ मेरा प्रभु साचा गहिर ग्मभीर ॥ सेवत ही सुखु सांति सरीर ॥ सबदि तरे जन सहजि सुभाइ ॥ तिन कै हम सद लागह पाइ ॥१॥ पद्अर्थ: साचा = सदा कायम रहने वाला। गहिर = गहिरा, जिसके दिल का भेद ना पाया जा सके। गंभीर = गहरे जिगरे वाला, बड़े जिगरे वाला। सेवत = स्मरण करके। सबदि = गुर शब्द के द्वारा। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्रेम में। सद = सदा। लागह = (हम) लगते हैं। पाइ = पैरों में।1। अर्थ: (हे भाई!) प्यारा प्रभु सदा कायम रहने वाला है, गहरा है और बड़े जिगरे वाला है। उसका स्मरण करने से शरीर को सुख मिलता है, शांति मिलती है। (जो मनुष्य) गुरु के माध्यम से (स्मरण करते हैं वह संसार समुंदर से) पार लांघ जाते हैं। वे आत्मिक अडोलता में टिके रहते हैं, वे प्रभु-प्रेम में जुड़े रहते हैं। हम (मैं) सदा उनके चरणों में नत्मस्तक होते हैं (होता हूँ)।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |