श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 362 जो मनि राते हरि रंगु लाइ ॥ तिन का जनम मरण दुखु लाथा ते हरि दरगह मिले सुभाइ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मनि = मन में। लाइ = लगा के। दरगह = हजूरी में। सुभाइ = प्रेम से।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य परमात्मा का प्रेम-रंग इस्तेमाल कर करके अपने मन में (प्रेम रंग से) रंगे जाते हैं, उन मनुष्यों का जनम-मरण का चक्कर का दुख दूर हो जाता है। प्रेम की इनायत से वह मनुष्य परमात्मा की हजूरी में टिके रहते हैं।1। रहाउ। सबदु चाखै साचा सादु पाए ॥ हरि का नामु मंनि वसाए ॥ हरि प्रभु सदा रहिआ भरपूरि ॥ आपे नेड़ै आपे दूरि ॥२॥ पद्अर्थ: मंनि = मनि, मन में।2। अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य गुरु के शब्द का रस चखता है (उसे फिर प्रत्यक्ष यूँ दिखता है कि) परमात्मा सदा हर जगह व्याप रहा है, वह खुद ही (हरेक जीव के) अंग-संग है और खुद ही दूर (पहुँच से परे) भी है।2। आखणि आखै बकै सभु कोइ ॥ आपे बखसि मिलाए सोइ ॥ कहणै कथनि न पाइआ जाइ ॥ गुर परसादि वसै मनि आइ ॥३॥ पद्अर्थ: आखणि आखै = कहने को कहता है, रिवाज के तौर पर कहता है। बकै = बोलता है। सभु कोइ = हरेक मनुष्य। कहणै = कहने से। कथनि = कहने से। परसादि = किरपा से। मनि = मन में।3। अर्थ: (हे भाई!) रिवाजी तौर पर (कहने को तो) हरेक मनुष्य कहता है, सुनाता है कि (परमात्मा) हरेक के नजदीक बसता है, पर जिस किसी को वह अपने चरणों में मिलाता है, वह खुद ही मेहर करके मिलाता है। ज़ुबानी कहने अथवा बातें करने से परमात्मा नहीं मिलता, गुरु की किरपा से मन में आ बसता है।3। गुरमुखि विचहु आपु गवाइ ॥ हरि रंगि राते मोहु चुकाइ ॥ अति निरमलु गुर सबद वीचार ॥ नानक नामि सवारणहार ॥४॥४॥४३॥ पद्अर्थ: आपु = स्वै भाव। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला। रंगि राते = रंग में रंगे जाने के कारण। अति = बहुत। नामि = नाम के द्वारा।4। अर्थ: गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य अपने अंदर से स्वै-भाव दूर कर लेता है, और परमात्मा के प्रेम रंग में रंग के (अपने अंदर से माया का) मोह समाप्त कर लेता है। हे नानक! गुरु के शब्द की विचार मनुष्य को बहुत पवित्र जीवन वाला बना देती है, प्रभु नाम में जुड़ के मनुष्य औरों का जीवन सँवारने के लायक भी हो जाता है।4।4।43। आसा महला ३ ॥ दूजै भाइ लगे दुखु पाइआ ॥ बिनु सबदै बिरथा जनमु गवाइआ ॥ सतिगुरु सेवै सोझी होइ ॥ दूजै भाइ न लागै कोइ ॥१॥ पद्अर्थ: भाइ = प्यार में। भाउ = प्यार। दूजै भाइ = और के प्यार में। बिरथा = व्यर्थ। सेवै = शरण पड़ता है। कोइ = कोई भी मनुष्य।1। अर्थ: (जो मनुष्य परमात्मा को छोड़ के) किसी और के प्यार में मस्त रहते हैं उन्होंने दुख ही दुख सहा, गुरु के शब्द से वंचित रहके उन्होंने अपनी जिंदगी व्यर्थ गवा ली। जो कोई मनुष्य गुरु के बताए राह पर चलता है उसे (सही जीवन की) समझ आ जाती है, वह फिर माया के प्यार में नहीं लगता।1। मूलि लागे से जन परवाणु ॥ अनदिनु राम नामु जपि हिरदै गुर सबदी हरि एको जाणु ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मूलि = (जगत के) मूल (-प्रभु) में। से जन = वह लोग। अनदिनु = अनुदिन, हर रोज, हर समय। जपि = जप के। जाणु = जानने वाला, पहचानने वाला।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य) जगत के रचयता परमात्मा (की याद) में जुड़ते हैं वह मनुष्य (परमात्मा की नजरों में) स्वीकार हो जाते हैं। परमात्मा का नाम हर समय अपने हृदय में जपके गुरु के शब्द की इनायत से मनुष्य एक परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाल लेता है।1। रहाउ। डाली लागै निहफलु जाइ ॥ अंधीं कमी अंध सजाइ ॥ मनमुखु अंधा ठउर न पाइ ॥ बिसटा का कीड़ा बिसटा माहि पचाइ ॥२॥ पद्अर्थ: निहफलु = निष्फल। अंध = (माया में) अंधे हुए मनुष्य को। मनमुखु = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। पचाइ = जलता है।2। अर्थ: (जो मनुष्य जगत के मूल-प्रभु-वृक्ष को छोड़ के उसकी रची हुई माया रूपी) टहनियों से चिपका रहता है वह निष्फल ही जाता है (जीवन-फल प्राप्त नहीं कर सकता), बे-समझी के कामों पड़ के (माया के मोह में) अंधा हुआ मनुष्य (माया की भटकनों से बचने का) ठिकाना तलाश नहीं सकता (वह मनुष्य माया के मोह में ऐसे) दुखी होता है (जैसे) गंदगी का कीड़ा गंद में।2। गुर की सेवा सदा सखु पाए ॥ संतसंगति मिलि हरि गुण गाए ॥ नामे नामि करे वीचारु ॥ आपि तरै कुल उधरणहारु ॥३॥ पद्अर्थ: मिलि = मिल के। नामे = नामि ही, नाम में ही। उधरणहारु = बचाने के लायक।3। अर्थ: जो मनुष्य गुरु की बताई हुई सेवा करता है वह सदा आत्मिक आनंद पाता है (क्योंकि) साधु-संगत में मिल के वह परमात्मा के गुण गाता रहता है (महिमा करता रहता है)। वह सदा परमात्मा के नाम में जुड़ के (परमात्मा के गुणों की) विचार करता है। (इस तरह) वह स्वयं (संसार समुंदर से) पार लांघ जाता है और अपने कुलों को भी पार लंघाने के काबिल हो जाता है।3। गुर की बाणी नामि वजाए ॥ नानक महलु सबदि घरु पाए ॥ गुरमति सत सरि हरि जलि नाइआ ॥ दुरमति मैलु सभु दुरतु गवाइआ ॥४॥५॥४४॥ पद्अर्थ: वजाए = (बाजा) बजाता है। महलु = ठिकाना, प्रभु चरण। घरु = प्रभु का घरु। सतसरि = साधु-संगत रूपी सरोवर में। सरि = सरोवर में। जलि = जल से, पानी से। नाइआ = नहाया। दुरतु = पाप।4। अर्थ: परमात्मा के नाम में जुड़ के जो मनुष्य सतिगुरु की वाणी (का बाजा) बजाता है (अपने अंदर गुरु की वाणी का पूर्ण प्रभाव डाले रखता है), हे नानक! गुरु के शब्द की इनायत से वह मनुष्य परमात्मा के चरणों में घर महल हासिल कर लेता है। गुरु की मति ले के जिस मनुष्य ने सत्संग-सरोवर में परमात्मा के नाम-जल से स्नान किया, उसने बुरी खोटी मति की मैल धो ली। उसने (अपने अंदर से) सारे पाप दूर कर लिए।4।5।44। आसा महला ३ ॥ मनमुख मरहि मरि मरणु विगाड़हि ॥ दूजै भाइ आतम संघारहि ॥ मेरा मेरा करि करि विगूता ॥ आतमु न चीन्है भरमै विचि सूता ॥१॥ पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। मरहि = आत्मिक मौत मरते हैं। मरि = आत्मिक मौत मर के। दूजै भाइ = माया के प्यार में। आतम = आत्मिक जीवन। संघारहि = नाश कर लेते हैं। विगूता = ख़्वार होता है, दुखी होता है। आतमु = अपने आप को, अपने आत्मिक जीवन को। चीने = परखता, पहचानता। सूता = गाफ़ल हुआ रहता है।1। अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य (आत्मिक मौत) मरते हैं (इस तरह) मर के वह अपनी मौत ख़राब करते हैं, क्योंकि माया के मोह में पड़ के वे अपना आत्मिक जीवन तबाह कर लेते हैं। अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (ये धन) मेरा है (ये परिवार) मेरा है; नित्य यही कह: कह के दुखी होता रहता है, कभी अपने आत्मिक जीवन को नहीं पड़तालता, माया की भटकना में पड़ कर (आत्मिक जीवन) की ओर से गाफ़िल हुआ रहता है।1। मरु मुइआ सबदे मरि जाइ ॥ उसतति निंदा गुरि सम जाणाई इसु जुग महि लाहा हरि जपि लै जाइ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मरु = मौत, असली मौत, माया के मोह की ओर से मर जाना। सबदे = गुरु के शब्द के द्वारा। गुरि = गुरु ने। सम = बराबर। जाणाई = समझा दी। जुग महि = जीवन में। लाहा = लाभ, कमाई।1। रहाउ। अर्थ: कोई भला कहे या बुरा कहे, इसे एक जैसा ही सहना- गुरु ने जिस मनुष्य को ये सूझ बख्श दी है, वह मनुष्य इस जीवन में परमात्मा का नाम जप के (जगत से) कमाई कर के जाता है, वह मनुष्य (माया के मोह की और से) बेदाग़ मौत मरता है, गुरु के शब्द के द्वारा (मोह से) वह अछूता रहता है।1। रहाउ। नाम विहूण गरभ गलि जाइ ॥ बिरथा जनमु दूजै लोभाइ ॥ नाम बिहूणी दुखि जलै सबाई ॥ सतिगुरि पूरै बूझ बुझाई ॥२॥ पद्अर्थ: गरभ = जनम मरन के चक्कर में। गलि जाइ = गल जाता है, आत्मिक जीवन नाश कर लेता है। लोभाइ = लोभ करता है। दुखि = दुख में। सबाई = सारी दुनिया। सतिगुरि = सतिगुरु ने। बूझ = समझ।2। अर्थ: नाम से वंचित रहके मनुष्य जनम-मरन के चक्करों में आत्मिक जीवन नाश कर लेता है, वह सदा माया के मोह में फसा रहता है (इस वास्ते) उसकी जिंदगी व्यर्थ चली जाती है। नाम से जुदा रह के सारी दुनिया दुख में जलती रहती है। पर ये समझ पूरे गुरु ने (किसी विरले को) बख्शी है।2। मनु चंचलु बहु चोटा खाइ ॥ एथहु छुड़किआ ठउर न पाइ ॥ गरभ जोनि विसटा का वासु ॥ तितु घरि मनमुखु करे निवासु ॥३॥ पद्अर्थ: एथहु छुडकिआ = इस मानव जनम की बारी से थिड़का, इस मानव जनम को गवा के। ठउर = ठिकाना, जगह। तितु घरि = उस घर में।3। अर्थ: जिस मनुष्य का मन हर समय माया के मोह में भटकता है वह मोह की चोटें खाता रहता है। इस मानव जीवन में (स्मरण से) खोया हुआ फिर आत्मिक आनंद की जगह नहीं प्राप्त कर सकता। जनम-मरण का चक्र (मानो) गंदगी का घर है, इस घर में उस मनुष्य का निवास बना रहता है जो अपने मन के पीछे चलता है।3। अपुने सतिगुर कउ सदा बलि जाई ॥ गुरमुखि जोती जोति मिलाई ॥ निरमल बाणी निज घरि वासा ॥ नानक हउमै मारे सदा उदासा ॥४॥६॥४५॥ पद्अर्थ: बलि जाई = मैं कुर्बान जाता हूँ। निज घरि = अपने घर में। उदासा = विरक्त।4। अर्थ: (हे भाई!) मैं अपने सतिगुरु पर से सदा सदके जाता हूँ। गुरु की शरण पड़ने वाले मनुष्य की तवज्जो को गुरु परमात्मा की ज्योति में मिला देता है। हे नानक! गुरु की पवित्र वाणी की इनायत से अपने असल घर में (प्रभु-चरणों में) ठिकाना मिल जाता है। (गुरु की मेहर से मनुष्य) अहंकार को खत्म कर लेता है और (माया के मोह की ओर से) सदा उपराम रहता है।4।6।45। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |