श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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रागु आसा घरु २ महला ५    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

जिनि लाई प्रीति सोई फिरि खाइआ ॥ जिनि सुखि बैठाली तिसु भउ बहुतु दिखाइआ ॥ भाई मीत कुट्मब देखि बिबादे ॥ हम आई वसगति गुर परसादे ॥१॥

पद्अर्थ: खाइआ = खाया जाता है। सुखि = सुख से, आदर से। देखि = देख के। बिबादे = झगड़ते हैं। हम वसगति = हमारे वश में। परसादे = प्रसादि, कृपा से।1।

अर्थ: जिस मनुष्य ने (इस माया के साथ) प्यार डाला, वही पलट के खाया गया (माया ने उसी को ही खा लिया)। जिसने (इसका) आदर करके इसे अपने पास बैठाया उसे ही (माया ने) बहुत डराया। भाई-मित्र-परिवार (के जीव, सारे ही इस माया को) देख के (आपस में) लड़ पड़ते हैं। गुरु की कृपा से ये हमारे वश में आ गई है।1।

ऐसा देखि बिमोहित होए ॥ साधिक सिध सुरदेव मनुखा बिनु साधू सभि ध्रोहनि ध्रोहे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: बिमोहित = मस्त। साधिक = साधना करने वाले। सुर = देवते। सिध = साधना में माहिर हुए जोगी। साधू = गुरु। सभि = सारे। ध्रोहनि = ठगनी (माया) ने। ध्रोहे = ठग लिए।1। रहाउ।

अर्थ: साधना करने वाले जोगी, साधना में पहुँचे हुए जोगी, देवते, मनुष्य- ये सारे (माया को) देख के बहुत मस्त हो जाते हैं। गुरु के बिना ये सारे ठगनी (माया) के हाथों ठगे जाते हैं।1। रहाउ।

इकि फिरहि उदासी तिन्ह कामि विआपै ॥ इकि संचहि गिरही तिन्ह होइ न आपै ॥ इकि सती कहावहि तिन्ह बहुतु कलपावै ॥ हम हरि राखे लगि सतिगुर पावै ॥२॥

पद्अर्थ: इकि = बहुत, अनेक। कामि = काम-वासना से। विआपै = काबू कर लेती है। संचहि = इकट्ठी करते हैं। आपै = अपनी। सती = दानी। कलपावै = दुखी करती है। पावै = पैरों पर।2।

नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।

अर्थ: अनेक लोग त्यागी बन के घूमते फिरते हैं (पर) उन्हें (ये माया) काम-वासना के रूप में आ दबोचती है। अनेक लोग (अपने आप को) दानी कहलवाते हैं, उनको (भी) ये बहुत दुखी करती है। सतिगुरु के चरणों में लगने के कारण हमें परमात्मा ने (इस माया के पंजे से) बचा लिया है।2।

तपु करते तपसी भूलाए ॥ पंडित मोहे लोभि सबाए ॥ त्रै गुण मोहे मोहिआ आकासु ॥ हम सतिगुर राखे दे करि हाथु ॥३॥

पद्अर्थ: भुलाए = गलत रास्ते पर डाल दिए। लोभि = लोभ में। सबाए = सारे। आकासु = (भाव) आकाश वासी, देवते।3।

अर्थ: तप कर रहे तपस्वियों को (इस माया ने) भटका दिया। सारे विद्वान पंडित लोग लोभ में फंस के (माया के हाथों) ठगे गए। सारे ही त्रै-गुणी जीव ठगे जा रहे हैं। हमें तो गुरु ने अपना हाथ दे के (इस तरफ से) बचा लिया है।3।

गिआनी की होइ वरती दासि ॥ कर जोड़े सेवा करे अरदासि ॥ जो तूं कहहि सु कार कमावा ॥ जन नानक गुरमुख नेड़ि न आवा ॥४॥१॥

पद्अर्थ: दासि = दासी। कर = हाथ। कमावा = कमाऊँ।4।

अर्थ: हे दास नानक! (कह:) जो मनुष्य परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाल लेता है (ये माया) उसकी दासी बन के कार करती है, उसके आगे (दोनों) हाथ जोड़ती है उसकी सेवा करती है, उसके आगे विनती करती है (और कहती है:) मैं वही काम करूँगी जो तू कहे, मैं उस मनुष्य के पास नहीं जाऊँगी (मैं उस मनुष्य पर अपना दबाव नहीं डालूँगी) जो गुरु की शरण पड़ता है।4।1।

नोट: अंक १ बताता है कि महला ५ (पाँचवां) का ये पहला शब्द है।

आसा महला ५ ॥ ससू ते पिरि कीनी वाखि ॥ देर जिठाणी मुई दूखि संतापि ॥ घर के जिठेरे की चूकी काणि ॥ पिरि रखिआ कीनी सुघड़ सुजाणि ॥१॥

पद्अर्थ: ससू ते = सास से। ससु = (भाव,) अज्ञानता। पिरि = पिर ने। वाखि = अलग। देर जिठाणी = दिवरानी जेठानी, आशा तृष्णा। जिठेरा = धर्म राज। काणि = धौंस। सुजाणि = सुजान ने।1।

नोट: शब्द ‘ससु’ के बाद में ‘ु’ की मात्रा है, पर है स्त्रीलिंग। संस्कृत शब्द है स्वश्रू। संबंधक के कारण ‘ु’ की जगह ‘ू’ हो जाता है, जैसे, ‘खाकु’ से ‘खाकू’, ‘जिंदु’ से ‘जिंदू’।

अर्थ: (गुरु की कृपा से मुझे प्रभु पति मिला) पति ने मुझे (आज्ञानता रूपी) सास से अलग कर लिया है, मेरी दिवरानी और जिठानी (आशा और तृष्णा इस) दुख-कष्ट से मर गई हैं (कि मुझे पति मिल गया है)। (मेरे पर) जेठ (धर्मराज) की भी धौंस नहीं रही। अच्छे सयाने पति ने मुझे (इन सबसे) बचा लिया है।1।

सुनहु लोका मै प्रेम रसु पाइआ ॥ दुरजन मारे वैरी संघारे सतिगुरि मो कउ हरि नामु दिवाइआ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: दुरजन = बुरे लोग, खराब भाव। संघारे = मार लिए हैं। सतिगुरि = गुरु ने।1। रहाउ।

अर्थ: हे लोगो! सुनो, (गुरु की कृपा से) मैंने परमात्मा के प्यार का आनंद पाया है।, गुरु ने मुझे परमात्मा के नाम की दाति दी है (उसकी इनायत से) मैंने बुरे भाव मार लिए हैं (कामादिक) वैरी समाप्त कर लिए हैं।1। रहाउ।

प्रथमे तिआगी हउमै प्रीति ॥ दुतीआ तिआगी लोगा रीति ॥ त्रै गुण तिआगि दुरजन मीत समाने ॥ तुरीआ गुणु मिलि साध पछाने ॥२॥

पद्अर्थ: प्रथमै = पहले। लोगा रीति = लोक राज, जगत चाल, लोकाचारी रस्में। समाने = एक जैसे। तुरीआ = चौथा पद जहाँ माया के गुण छू नहीं सकते। साध = गुरु।2।

अर्थ: (जब गुरु की कृपा से मुझे प्रभु पति मिला, तो सब से) पहले मैं अहंकार को प्यार करना छोड़ दिया, फिर मैंने लोकाचारी रस्में छोड़ीं। फिर मैंने माया के तीनों गुण त्याग के वैरी और मित्र एक समान (मित्र ही) समझ लिए। गुरु को मिल के मैंने उस गुण से सांझडाल ली जो (माया के तीनों गुणों से ऊपर) चौथे आत्मिक दर्जे पर पहुँचाता है।2।

सहज गुफा महि आसणु बाधिआ ॥ जोति सरूप अनाहदु वाजिआ ॥ महा अनंदु गुर सबदु वीचारि ॥ प्रिअ सिउ राती धन सोहागणि नारि ॥३॥

पद्अर्थ: सहज = आत्मिक अडोलता। बाधिआ = बांधा, बनाया। जोति सरूप = वह जिसकी हस्ती नूर ही नूर है। अनाहदु = अनहत, बिना बजाए, एक रस, वह राग जो साज को बजाए बिना ही पैदा हो रहा हो। वीचारि = विचार के। धन = धन्य, भाग्यों वाली। नारि = स्त्री। सोहागणि = सुहाग वाली।3।

अर्थ: (जोगी गुफा में बैठ कर आसन लगाता है। जब प्रभु की कृपा से मुझे प्रभु-पति मिला तो मैं) आत्मिक अडोलता (की) गुफा में अपना आसन जमा लिया। मेरे अंदर निरे नूर ही नूर रूपी परमात्मा के मिलाप का एक-रस बाजा बजने लगा। गुरु के शब्द विचार-विचार के मेरे अंदर बड़ा आत्मिक आनंद पैदा हो रहा है। (हे लोगो!) धन्य है वह (जीव-) स्त्री, भाग्यशाली है वह (जीव-) स्त्री जो (प्रभु) पति के प्यार-रंग से रंगी गयी है।3।

जन नानकु बोले ब्रहम बीचारु ॥ जो सुणे कमावै सु उतरै पारि ॥ जनमि न मरै न आवै न जाइ ॥ हरि सेती ओहु रहै समाइ ॥४॥२॥

पद्अर्थ: ब्रहम बीचारु = परमात्मा के गुणों का विचार।4।

अर्थ: (हे भाई!) दास नानक परमात्मा के गुणों के विचार ही उचारता रहता है। जो भी मनुष्य परमात्मा की महिमा सुनता है और उसके अनुसार अपना जीवन ऊँचा उठाता है वह (संसार-समुंदर से) पार लांघ जाता है, वह (बारंबार) ना पैदा होता है ना मरता है वह (वह जगत में बार-बार) ना आता है ना ही (यहां से बार-बार) जाता है। वह सदा परमात्मा की याद में लीन रहता है।4।2।

आसा महला ५ ॥ निज भगती सीलवंती नारि ॥ रूपि अनूप पूरी आचारि ॥ जितु ग्रिहि वसै सो ग्रिहु सोभावंता ॥ गुरमुखि पाई किनै विरलै जंता ॥१॥

पद्अर्थ: निज = अपनी, अपने आप की, आत्मा के काम आने वाली। सील = मीठा स्वभाव। नारि = स्त्री। रूपि = रूप में। अनूप = उपमा रहित, बेमिसाल। आचारि = आचार में, आचरण में। जितु = जिस में। ग्रिहि = हृदय घर में। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के।1।

अर्थ: आत्मा के काम आने वाली (परमात्मा की) भक्ती (मानो) मीठे स्वभाव वाली एक स्त्री है (जो) रूप में बेमिसाल है (जो) आचरण में मुकम्मल है। जिस (हृदय) घर में (ये स्त्री) बसती है वह घर शोभा वाला बन जाता है। पर, किसी विरले जीव ने गुरु की शरण पड़ के (ये स्त्री) प्राप्त की है।1।

सुकरणी कामणि गुर मिलि हम पाई ॥ जजि काजि परथाइ सुहाई ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सुकरणी = श्रेष्ठ करणी। कामणि = स्त्री। मिलि = मिल के। जजि = जग में। काजि = विवाह में। परथाइ = हर जगहं1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई!) गुरु को मिल के मैंने श्रेष्ठ करणी- (रूप) स्त्री हासिल की है जो विवाह-शादियों में हर जगह सुंदर लगती है।1। रहाउ।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh