श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 371 जिचरु वसी पिता कै साथि ॥ तिचरु कंतु बहु फिरै उदासि ॥ करि सेवा सत पुरखु मनाइआ ॥ गुरि आणी घर महि ता सरब सुख पाइआ ॥२॥ पद्अर्थ: जिचरु = जितना समय। पिता = (भाव) गुरु। कंतु = जीव। फिरै उदासि = भटकता फिरता है। सतपुरखु = अकाल पुरख, परमात्मा। गुरि = गुरु ने। आणी = ला दी।2। अर्थ: (ये भक्ति रूप स्त्री) जब तक गुरु के पास ही रहती है तब तक जीव बहुत भटकता फिरता है। जब (गुरु के द्वारा जीव ने) सेवा करके परमात्मा को प्रसन्न किया, तब गुरु ने (इसके हृदय-) घर में ला के बैठाई और इसने सुख आनंद प्राप्त कर लिए।2। बतीह सुलखणी सचु संतति पूत ॥ आगिआकारी सुघड़ सरूप ॥ इछ पूरे मन कंत सुआमी ॥ सगल संतोखी देर जेठानी ॥३॥ पद्अर्थ: बतीह सुलखणी = (लज्जा, निम्रता, दया, प्यार आदि) बक्तीस सुलक्षणों वाली। सचु = सदा कायम रहने वाले परमात्मा का नाम। संतति = संतान। सुघड़ = निपुण। सरूप = सुंदर। इछ मन कंत = कंत के मन की इच्छा। संतोखी = संतोष देती है। देर जेठानी = देवरानी जेठानी, (आशा-तृष्णा) को।3। अर्थ: (ये भक्ति रूपी स्त्री दया, निम्रता, लज्जा आदि) बक्तीस सुंदर लक्षणों वाली है, सदा स्थिर परमात्मा का नाम इस की संतान है, पुत्र हैं। (ये स्त्री) आज्ञा में चलने वाली है, निपुण है, सुंदर रूप वाली है। जीव-कंत पति की (हरेक) इच्छा ये पूरी करती है, देवरानी जेठानी (आशा-तृष्णा) को ये हर तरह से संतोष देती है (शांत करती है)।3। सभ परवारै माहि सरेसट ॥ मती देवी देवर जेसट ॥ धंनु सु ग्रिहु जितु प्रगटी आइ ॥ जन नानक सुखे सुखि विहाइ ॥४॥३॥ पद्अर्थ: सरेसट = श्रेष्ठ, उत्तम। मती = (शब्द ‘मति’ का बहुवचन) मतें, सलाहें, मश्वरे। देवी = देने वाली। देवर जेसट = देवरों जठों, (ज्ञानेंद्रियों) को। सुखि = सुख में। विहाइ = बीतती है।4। अर्थ: (मीठे बोल,विनम्रता, सेवा, दान, दया) सार (आत्मिक) परिवार में (भक्ति) सबसे उत्तम है, सारे देवरों-जेठों (ज्ञान-इंद्रिय) को मश्वरे देने वाली है (सही मार्ग-दर्शन करने के काबिल है)। हे दास नानक! (कह:) वह हृदय-घर भाग्यशाली है, जिस घर में (ये भक्ति रूपी स्त्री) आ के दर्शन देती है, (जिस मनुष्य के हृदय में प्रगट होती है उसकी उम्र) सुख आनंद में बीतती है।4।3। आसा महला ५ ॥ मता करउ सो पकनि न देई ॥ सील संजम कै निकटि खलोई ॥ वेस करे बहु रूप दिखावै ॥ ग्रिहि बसनि न देई वखि वखि भरमावै ॥१॥ पद्अर्थ: मता = सलाह, फैसला। सील = शील, मीठा स्वभाव। संजम = विकारों से बचने के यत्न। निकटि = नजदीक। ग्रिहि = गृह में, हृदय घर में।1। अर्थ: (आत्मिक अडोलता के लिए) मैं जो भी सलाह करता हूँ उसे (ये माया) सफल नहीं होने देती। मीठे स्वभाव और संजम के ये हर समय नजदीक (रखवाली बन के) खड़ी रहती है (इस वास्ते मैं ना शील हासिल कर सकता हूँ ना ही संजम)। (ये माया) अनेक वेश धारण करती है, अनेक रूप दिखाती है, हृदय घर में ये मुझे टिकने नहीं देती, कई तरीकों से मुझे भटकाती फिरती है।1। घर की नाइकि घर वासु न देवै ॥ जतन करउ उरझाइ परेवै ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: नाइकि = मालिका। करउ = मैं करता हूँ। उरझाइ परेवै = और उलझनों में डाल देती है।1। रहाउ। अर्थ: (ये माया मेरे) हृदय घर की मलिका बन बैठी है, मुझे घर का बसेरा देती ही नहीं (मुझे आत्मिक अडोलता नहीं मिलने देती)। अगर मैं (आत्मिक अडोलता के लिए) यत्न करता हूँ, तो बल्कि ज्यादा उलझनें डाल देती है।1। रहाउ। धुर की भेजी आई आमरि ॥ नउ खंड जीते सभि थान थनंतर ॥ तटि तीरथि न छोडै जोग संनिआस ॥ पड़ि थाके सिम्रिति बेद अभिआस ॥२॥ पद्अर्थ: आमरि = आलिम, कारिंदी। थनंतर = स्थान अंतर, और-और जगहें। तटि = नदी के तट पर। तीरथि = तीर्थ पर।2। अर्थ: (ये माया) धुर दरगाह से तो सेविका बना के भेजी हुई (जगत में) आई है, (पर यहाँ आ के इसने) नौ खण्डों वाली सारी धरती जीत ली है, सारी ही जगहें अपने अधीन कर ली हैं, नदियों के तट पर हरेक तीर्थों पर बैठे योग-साधना करने वाले और सन्यास धारण करने वाले भी (इस माया ने) नहीं छोड़े। स्मृतियां पढ़-पढ़ के, और वेदों के (पाठों के) अभ्यास कर-कर के पण्डित लोग भी (इसके सामने) हार गए हैं।2। जह बैसउ तह नाले बैसै ॥ सगल भवन महि सबल प्रवेसै ॥ होछी सरणि पइआ रहणु न पाई ॥ कहु मीता हउ कै पहि जाई ॥३॥ अर्थ: मैं जहाँ भी (जा के) बैठता हूँ (ये माया) मेरे साथ ही आ बैठती है, ये बड़े बल वाली है, सारे ही भवनों में जा पहुँचती है, किसी कमजोर की शरण पड़ने से ये मेरे से परे नहीं हटती। सो, हे मित्र! बता, (इस माया से पीछा छुड़ाने के लिए) मैं किस के पास जाऊँ?।3। सुणि उपदेसु सतिगुर पहि आइआ ॥ गुरि हरि हरि नामु मोहि मंत्रु द्रिड़ाइआ ॥ निज घरि वसिआ गुण गाइ अनंता ॥ प्रभु मिलिओ नानक भए अचिंता ॥४॥ पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। मोहि = मुझे। द्रिढ़ाइआ = पक्का कराया। घरि = घर में। अचिंता = चिन्ता रहित।4। अर्थ: (सत्संगी मित्र से) उपदेश सुन के मैं गुरु के पास आया, गुरु ने परमात्मा का नाम-मंत्र मुझे (मेरे हृदय में) पक्का करके दे दिया। (उस नाम-मंत्र की इनायत से) बेअंत परमात्मा के गुण गा-गा के मैं अब अपने हृदय में आ बसा हूँ। हे नानक! (कह: अब मुझे) परमात्मा मिल गया है, और मैं (माया के हमलों की ओर से) बेफिक्र हो गया हूँ।4। घरु मेरा इह नाइकि हमारी ॥ इह आमरि हम गुरि कीए दरबारी ॥१॥ रहाउ दूजा ॥४॥४॥ पद्अर्थ: दरबारी = हजूरी में रहने वाला। हम = मुझे। आमरि = सेविका। रहाउ दूजा। अर्थ: (अब ये हृदय-घर) मेरा अपना घर बन गया है (ये माया) मलिका भी मेरी (दासी) बन गई है। गुरु ने इसको मेरी सेविका बना दिया है और मुझे प्रभु की हजूरी में रहने वाला बना दिया है।1। रहाउ दूजा।4।4। आसा महला ५ ॥ प्रथमे मता जि पत्री चलावउ ॥ दुतीए मता दुइ मानुख पहुचावउ ॥ त्रितीए मता किछु करउ उपाइआ ॥ मै सभु किछु छोडि प्रभ तुही धिआइआ ॥१॥ पद्अर्थ: मता = सलाह। जि = कि। पत्री = चिट्ठी। चलावउ = मैं भेजूँ। दुइ = दो। पहुचावउ = पहुचाऊँ। करउ = मैं करूँ। उपाइआ = उपाय। प्रभ = हे प्रभु! तुही = तुझे ही।1। अर्थ: पहले मुझे सलाह दी गई कि (वैरी बन के आ रहे को) चिट्ठी लिख के भेजूँ। फिर सलाह मिली कि मैं (उसके पास) दो मनुष्य भेजूँ, तीसरी सलाह मिली कि मैं कोई ना कोई उपाय जरूर करूँ। पर हे प्रभु! अन्य सभी यत्न छोड़ के मैंने सिर्फ तुझे ही स्मरण किया।1। महा अनंद अचिंत सहजाइआ ॥ दुसमन दूत मुए सुखु पाइआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: अचिंत = निश्चिंतता। सहजाइआ = सहज, आत्मिक अडोलता। दूत = वैरी।1। रहाउ। अर्थ: (परमात्मा का आसरा लेने से) बड़ा आत्मिक आनंद मिलता है, निश्चिंतता हो जाती है, आत्मिक अडोलता पैदा हो जाती है, सारे वैरी दुश्मन समाप्त हो जाते हैं (कौई वैरी नहीं प्रतीत होता), (इस तरह) अंतरात्मे सुख मिलता है।1। रहाउ। सतिगुरि मो कउ दीआ उपदेसु ॥ जीउ पिंडु सभु हरि का देसु ॥ जो किछु करी सु तेरा ताणु ॥ तूं मेरी ओट तूंहै दीबाणु ॥२॥ पद्अर्थ: सतिगुरि = गुरु ने। मो कउ = मुझे। कउ = को। जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। करी = मैं करता हूँ। ताणु = बल। दीबाणु = आसरा।2। अर्थ: सतिगुरु ने मुझे शिक्षा दी है कि ये जिंद और शरीर सब कुछ परमात्मा के रहने के लिए जगह है। (इस वास्ते) मैं जो कुछ भी करता हूँ तेरा सहारा ले के करता हूँ, तू ही मेरी ओट है तू ही मेरा आसरा है।2। तुधनो छोडि जाईऐ प्रभ कैं धरि ॥ आन न बीआ तेरी समसरि ॥ तेरे सेवक कउ किस की काणि ॥ साकतु भूला फिरै बेबाणि ॥३॥ पद्अर्थ: नो = को। कैं धरि = किस तरफ? आन = और, अन्य। बीआ = दूसरा। समसरि = बराबर। काणि = अधीनता। साकतु = ईश्वर से टूटा हुआ। बेबाणि = बीयाबान में, जंगल में। अर्थ: हे प्रभु! तुझे छोड़ के और जाएं भी तो कहाँ? (क्योंकि) तेरे बराबर का दूसरा कोई और है ही नहीं (जिसे निश्चय हो उस) तेरे सेवक को और किस की अधीनता हो सकती है? (पर, हे प्रभु!) तुझसे टूटा हुआ मनुष्य गलत रास्ते पर पड़ के (मानो) उजाड़ में भटकता फिरता है।3। तेरी वडिआई कही न जाइ ॥ जह कह राखि लैहि गलि लाइ ॥ नानक दास तेरी सरणाई ॥ प्रभि राखी पैज वजी वाधाई ॥४॥५॥ नोट: सिख इतिहास बताता है कि दुखदाई सुलही खान वाली बला टलने पर सतिगुरु जी ने ये शब्द उचारा था। पद्अर्थ: जह कह = जहाँ कहाँ, हर जगह। गलि = गले से। लाइ = लगा के। प्रभि = प्रभु ने। पैज = इज्जत। वाधाई = बढ़ाई, बढ़ी हुई अवस्था, प्रगति, आत्मिक बल। वजी = बज गई, जोर में आ गई।4। अर्थ: हे प्रभु! तू कितना बड़ा है ये बात मुझसे बयान नहीं की जा सकती, तू हर जगह (मुझे अपने) गले से लगा के बचा लेता है। हे दास नानक! (कह: हे प्रभु!) मैं तेरी ही शरण पड़ा रहता हूँ। (हे भाई!) प्रभु ने मेरी इज्जत रख ली है (मुसीबतों के वक्त भी उसकी मेहर से) मेरे अंदर चढ़दीकला (प्रगति का आत्म बल) प्रबल रहती है।4।5। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |