श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 383 आसा महला ५ ॥ आगै ही ते सभु किछु हूआ अवरु कि जाणै गिआना ॥ भूल चूक अपना बारिकु बखसिआ पारब्रहम भगवाना ॥१॥ पद्अर्थ: आगै हीते = धुर दरगाह से ही। कि = कौन सा? भूल चूक = गलतियां।1। अर्थ: जो बख्शिश मेरे ऊपर हुई है धुर से ही हुई है; इसके बिना जीव और क्या ज्ञान समझ सकता है? मेरी अनेक भूलें-चूकें देख के भी पारब्रहम भगवान ने मुझे अपने बालक को बख्श लिया है।1। सतिगुरु मेरा सदा दइआला मोहि दीन कउ राखि लीआ ॥ काटिआ रोगु महा सुखु पाइआ हरि अम्रितु मुखि नामु दीआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मोहि = मुझे। कउ = को। दीन = कंगाल। मुखि = मुंह में। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला जल।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) मेरा सतिगुरु सदा ही दयावान रहता है उसने मुझे (आत्मिक जीवन के सरमाए से) कंगाल को (आत्मिक मौत लाने वाले रोग से) बचा लिया। (सतिगुरु ने) मेरे मुंह में परमात्मा का आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल डाला (मेरा विकारों का) रोग काटा गया, मुझे बड़ा आत्मिक आनंद प्राप्त हुआ।1। रहाउ। अनिक पाप मेरे परहरिआ बंधन काटे मुकत भए ॥ अंध कूप महा घोर ते बाह पकरि गुरि काढि लीए ॥२॥ पद्अर्थ: परहरिआ = दूर कर दिए। मुकत = स्वतंत्र, मुक्त। कूप = कूँआं। ते = से, में से। अंध घोर = घोर अंधकार। पकरि = पकड़ के। गुरि = गुरु ने।2। अर्थ: (हे भाई!) गुरु ने मेरे अनेक पाप दूर कर दिए हैं, मेरे (माया के मोह के) बंधन काट दिए हैं, मैं (मोह के बंधनों से) स्वतंत्र हो गया हूँ। गुरु ने मेरी बाँह पकड़ के मुझे (माया के मोह के) घोर अंधकार में से निकाल लिया है।2। निरभउ भए सगल भउ मिटिआ राखे राखनहारे ॥ ऐसी दाति तेरी प्रभ मेरे कारज सगल सवारे ॥३॥ पद्अर्थ: राखनहारे = बचाने की स्मर्था रखने वाले प्रभु ने। सगल = सारे।3। अर्थ: (हे भाई! विकारों से) बचा सकने की ताकत रखने वाले परमात्मा ने (मुझे विकारों से) बचा लिया है, अब (माया के हमलों से) बे-फिक्र हूँ। (इस ओर से) मेरा हरेक किस्म का डर-खतरा समाप्त हो गया है। हे मेरे प्रभु! तेरी ऐसी बख्शिश मेरे ऊपर हुई है कि मेरे (आत्मिक जीवन के) सारे ही कारज सफल हो गए हैं।3। गुण निधान साहिब मनि मेला ॥ सरणि पइआ नानक सुोहेला ॥४॥९॥४८॥ पद्अर्थ: मुनि = मन में। मेला = मिलाप। सुोहेला = आसान।4। नोट: अक्षर ‘स’ पर दो मात्राएं है ‘ु’ और ‘ो’ की। असल शब्द है ‘सुहेला’, पर यहां इसे ‘सोहेला’ पढ़ना है। अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) गुणों के खजाने मालिक-प्रभु का मेरे मन में मिलाप हो गया है (जब का गुरु की कृपा से) मैं (उसकी) शरण पड़ा हूँ मैं निष्चिंत हो गया हूँ।4।9।48। आसा महला ५ ॥ तूं विसरहि तां सभु को लागू चीति आवहि तां सेवा ॥ अवरु न कोऊ दूजा सूझै साचे अलख अभेवा ॥१॥ पद्अर्थ: सभु को = हरेक जीव। लागू = वैरी। चीति = चित्त में। आवहि = अगर तू आ बसे। सेवा = आदर। अवरु = और। साचे = हे सदा कायम रहने वाले! अलख = हे अलख! (जिसका सही रूप बयान नहीं किया जा सके)। अभेव = जिसका भेद ना पाया जा सके।1। अर्थ: हे प्रभु! यदि तू मेरे मन में से बिसर जाए तो हरेक जीव मुझे वैरी प्रतीत होता है। पर अगर तू मेरे चित्त में आ बसे तो हर कोई मेरा आदर-सत्कार करता है। हे सदा कायम रहने वाले! हे अलख! हे अभेव प्रभु! मुझे (जगत में) तेरे बराबर का और कोई नहीं दिखता।1। चीति आवै तां सदा दइआला लोगन किआ वेचारे ॥ बुरा भला कहु किस नो कहीऐ सगले जीअ तुम्हारे ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: आवै चीति = यदि परमात्मा चित्त में आ बसे। वेचारे = निमाणे। कहु = बता। जीअ = जीव।1। रहाउ। नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के मन में परमात्मा की याद टिकी रहती है उस पर परमात्मा सदा दयावान रहता है, दुनिया के बिचारे लोग उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते। हे प्रभु! सारे जीव तेरे पैदा किए हुए हैं। फिर बता, किसको ठीक कहा जा सकता है और किसे बुरा कहा जा सकता है? (भाव, परमातमा की याद मन में बसाने वाले मनुष्य को सब जीव परमात्मा के पैदा किए हुए दिखते हैं, वह किसी को बुरा नहीं समझता)।1। रहाउ। तेरी टेक तेरा आधारा हाथ देइ तूं राखहि ॥ जिसु जन ऊपरि तेरी किरपा तिस कउ बिपु न कोऊ भाखै ॥२॥ पद्अर्थ: आधारा = आसरा। देइ = दे के। कउ = को। बिपु = विप्रेय, बुरा वचन। भाखै = बोलता, कहता।2। अर्थ: हे प्रभु! मुझे तेरी ही ओट है, तेरा ही आसरा है, तू अपना हाथ दे के स्वयं (हमारी) रक्षा करता है। जिस मनुष्य पे तेरी (मेहर की) नजर हो उसे कोई मनुष्य बुरे वचन नहीं कहता।2। ओहो सुखु ओहा वडिआई जो प्रभ जी मनि भाणी ॥ तूं दाना तूं सद मिहरवाना नामु मिलै रंगु माणी ॥३॥ पद्अर्थ: ओहो = वह ही। मनि = मन मे। भाणी = पसंद आती। दाना = जानने वाला। माणी = मैं माणू, मैं भोगूं। सद = सदा।3। नोट: ‘ओहा’ स्त्रीलिंग शब्द है ‘ओहो’ का। अर्थ: हे प्रभु जी! जो बात तुझे अपने मन में अच्छी लगती है वही मेरे वास्ते सुख है, वही मेरे वास्ते आदर-सत्कार है। तू सबके दिल की जानने वाला है, तू सदा सब जीवों पे दयावान रहता है। मैं तभी आनंद ले सकता हूँ जब मुझे तेरा नाम मिला रहे।3। तुधु आगै अरदासि हमारी जीउ पिंडु सभु तेरा ॥ कहु नानक सभ तेरी वडिआई कोई नाउ न जाणै मेरा ॥४॥१०॥४९॥ पद्अर्थ: जिउ = जिंद, प्राण। पिंडु = शरीर। नानक = हे नानक!।4। अर्थ: हे प्रभु! तेरे आगे मेरी अरदास है: मेरे ये प्राण ये शरीर सब कुछ तेरा ही दिया हुआ है। हे नानक! कह: (अगर कोई मेरा आदर-सत्कार करता है तो) ये तेरी ही बख्शी हुई बड़ाई है। (यदि मैं तुझे भुला बैठूँ तो) कोई जीव मेरा नाम पता करने की भी परवाह ना करे।4।10।49। आसा महला ५ ॥ करि किरपा प्रभ अंतरजामी साधसंगि हरि पाईऐ ॥ खोलि किवार दिखाले दरसनु पुनरपि जनमि न आईऐ ॥१॥ पद्अर्थ: प्रभ अंतरजामी = हे सबके दिलों की जानने वाले प्रभु! साध संगति = साधु-संगत में। किवार = किवाड़, दरवाजे। पुनरपि = पुनः अपि, फिर भी, बार बार। जनमि = जनम में।1। अर्थ: हे सबके दिल की जानने वाले प्रभु! मेहर कर (और मुझे गुरु की संगति मिला)। (हे भाई!) गुरु की संगति में रहने से परमात्मा मिल जाता है, हमारे (माया के मोह के बंद पड़े) किवाड़ खोल के अपने दर्शन करवाता है, और दुबारा (हम) जन्मों के चक्करों में नहीं पड़ते।1। मिलउ परीतम सुआमी अपुने सगले दूख हरउ रे ॥ पारब्रहमु जिन्हि रिदै अराधिआ ता कै संगि तरउ रे ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मिलउ = मैं मिलूँ। हरउ = मैं दूर करूँ। हे = हे भाई! जिन्हि = जिस मनुष्य ने। रिदै = हृदय में। ता कै संगि = उसकी संगति में।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! (यदि मेरे ऊपर प्रभु की कृपा हो जाए तो) मैं अपने प्यारे पति-प्रभु को मिल जाऊँ और अपने सारे दुख दूर कर लूँ। हे भाई! जिस मनुष्य ने परमात्मा प्रभु को अपने हृदय में स्मरण किया है, मैं भी उसकी संगति में रहके संसार-समुंदर से पार लांघ जाऊँ।1। रहाउ। महा उदिआन पावक सागर भए हरख सोग महि बसना ॥ सतिगुरु भेटि भइआ मनु निरमलु जपि अम्रितु हरि रसना ॥२॥ पद्अर्थ: महा = बड़ा। उदिआन = जंगल। पावक = आग। सागर = समुंदर। हरख = हर्ष, खुशी। सोग = गमी। भेटि = भेटे, मिलता है। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम। रसना = जीभ (से)।2। अर्थ: (हे भाई! प्रभु से विछुड़ के ये जगत मनुष्य के वास्ते) एक बड़ा जंगल बन जाता है (जिसमें मनुष्य भटकता फिरता है) आग का समुंदर बन जाता है (जिसमें मनुष्य जलता रहता है) कभी खुशी में बसता है, कभी ग़मीं में। जिस मनुष्य को गुरु मिल जाता है, आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम जीभ से जप के उस मनुष्य का मन पवित्र हो जाता है।2। तनु धनु थापि कीओ सभु अपना कोमल बंधन बांधिआ ॥ गुर परसादि भए जन मुकते हरि हरि नामु अराधिआ ॥३॥ पद्अर्थ: थापि = मिथ के। कोमल = नर्म, मीठे। परसादि = कृपा से। मुकते = स्वतंत्र, आजाद।3। अर्थ: (हे भाई!) इस शरीर को अपना समझ के, इस धन को अपना मान के जीव (माया के मोह के) मीठे-मीठे बंधनों से बंधे रहते हैं, पर जिस मनुष्यों ने परमात्मा के नाम की आराधना की वे गुरु की कृपा से (इन कोमल बंधनों से) आजाद हो जाते हैं।3। राखि लीए प्रभि राखनहारै जो प्रभ अपुने भाणे ॥ जीउ पिंडु सभु तुम्हरा दाते नानक सद कुरबाणे ॥४॥११॥५०॥ पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। प्रभ भाणै = प्रभु को अच्छे लगे। जीउ = जिंद, प्राण। पिंडु = शरीर। दाते = हे दातार! सद = सदा।4। अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य, प्यारे प्रभु को अच्छे लगने लग पड़ते हैं, उन्हें (माया के कोमल बंधनों से) बचाने की शक्ति वाले प्रभु ने बचा लिया। हे नानक! (कह:) हे दातार! ये प्राण और ये शरीर सब कुछ तेरा ही दिया हुआ है (मेहर कर, मैं इन्हें अपना ही ना समझता रहूँ)। हे दातार! मैं तुझ पे कुर्बान जाता हूँ।4।11।50। आसा महला ५ ॥ मोह मलन नीद ते छुटकी कउनु अनुग्रहु भइओ री ॥ महा मोहनी तुधु न विआपै तेरा आलसु कहा गइओ री ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मलन = (मन को) मैला करने वाली। ते = से। छुटकी = खलासी पाई। अनुग्रहु = कृपा। री = हे सखी! मोहनी = मन को मोहने वाली (माया)। न विआपै = जोर नहीं डाल सकती। कहा गइओ = कहां चला गया?।1। रहाउ। अर्थ: हे सहेली! तू मन को मैला करने वाली मोह की नींद से बच गई है, तेरे ऊपर कौन सी कृपा हुई है? (जीवों के मन को) मोह लेने वाली बली माया भी तेरे पर जोर नहीं डाल सकती, तेरा आलस भी सदा के लिए समाप्त हो गया है।1। रहाउ। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |