श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 382 सोई अजाणु कहै मै जाना जानणहारु न छाना रे ॥ कहु नानक गुरि अमिउ पीआइआ रसकि रसकि बिगसाना रे ॥४॥५॥४४॥ पद्अर्थ: अजाणु = मूर्ख। जाना = जानता हूँ। जानणहारु = जिसने जान लिया है वह। छाना = छुपा हुआ। गुरि = गुरु ने। रसकि = स्वाद लगा के। बिगसाना = खिला रहता है।4। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य (निरा ज़बानी ज़बानी) कहता है कि मैंने (आत्मिक जीवन के भेद को) समझ लिया है वह अभी मूर्ख है, जिसने (सचमुच आत्मिक जीवन को नाम-रस को) समझ लिया है वह कभी छुपा नहीं रहता है। हे नानक! कह: जिसको गुरु ने आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पिला दिया है वह इस नाम-जल का स्वाद ले ले के सदा खिला रहता है।4।5।44। आसा महला ५ ॥ बंधन काटि बिसारे अउगन अपना बिरदु सम्हारिआ ॥ होए क्रिपाल मात पित निआई बारिक जिउ प्रतिपारिआ ॥१॥ पद्अर्थ: काटि = काट के। बिसारे = भुला देता है। बिरदु = मूल स्वभाव। समारिआ = संभाले, याद रखता है। नोट: इस शब्द में प्रयोग हुए भूतकाल-शब्द का अर्थ वर्तमान काल में करना है। पद्अर्थ: निआई = की तरह। प्रतिपारिआ = प्रतिपालना, रक्षा करता है।1। अर्थ: (हे भाई! गुरु की शरण आए सिखों के माया के) बंधन काट के परमात्मा (उनके पिछले किए) अवगुणों को भुला देता है (और इस तरह) अपना मूल स्वभाव (बिरद) याद रखता है, माता-पिता की तरह उन पर दयावान होता है और बच्चों की तरह उन्हें पालता है।1। गुरसिख राखे गुर गोपालि ॥ काढि लीए महा भवजल ते अपनी नदरि निहालि ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: गुर गोपालि = गुर गोपाल ने। गोपाल = धरती का रक्षक। भवजल = संसार समुंदर। ते = से। निहालि = देख।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) गुरु की शरण पड़ने वाले (भाग्यशाली) सिखों को सबसे बड़ा जगत-पालक प्रभु (विकारों से) बचा लेता है। अपनी मेहर की नजर से देख के उन्हें बड़े संसार-समुंदर में से निकाल लेता है।1। रहाउ। जा कै सिमरणि जम ते छुटीऐ हलति पलति सुखु पाईऐ ॥ सासि गिरासि जपहु जपु रसना नीत नीत गुण गाईऐ ॥२॥ पद्अर्थ: सिमरणि = स्मरण से। छुटीऐ = निजात मिलती है। हलति = इस लोक में। पलति = परलोक में। सासि = सांस के साथ। गिरासि = ग्रास के साथ। रसना = जीभ से।2। अर्थ: जिस परमात्मा के नाम जपने की इनायत से जमों से (आत्मिक मौत से) खलासी मिलती है, इस लोक और परलोक में सुख भोगते हैं (हे भाई!) हरेक सांस से हरेक ग्रास से उसका नाम अपनी जीभ से जपा करो। आओ, सदा ही उसकी महिमा के गीत गाते रहें।2। भगति प्रेम परम पदु पाइआ साधसंगि दुख नाठे ॥ छिजै न जाइ किछु भउ न बिआपे हरि धनु निरमलु गाठे ॥३॥ पद्अर्थ: परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा। संगि = संगति में। छिजै = कमजोर होता। जाइ = जाता,गायब होता। न बिआपे = नहीं व्याप्तता, जोर नहीं डाल सकता। निरमलु = पवित्र। गाठे = गांठ में, पल्ले।3। अर्थ: (हे भाई! गुरु की शरण आने वाले) सिखों के पास परमात्मा के नाम का पवित्र धन इकट्ठा हो जाता है (उस धन को किसी चोर आदि का) डर नहीं व्याप्तता, वह धन कम नहीं होता, वह धन गायब भी नहीं होता, साधु-संगत में आ के (उन गुरसिखों के सारे) दुख दूर हो जाते हैं, परमात्मा के प्रेम और भक्ति की इनायत से वह सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा हासिल कर लेते हैं।3। अंति काल प्रभ भए सहाई इत उत राखनहारे ॥ प्रान मीत हीत धनु मेरै नानक सद बलिहारे ॥४॥६॥४५॥ पद्अर्थ: इत उत = इस लोक में और परलोक में। हीतु = हितू, हितैषी। मेरे = मेरे वास्ते, मेरे पास, मेरे हृदय में।4। अर्थ: (हे भाई!) प्रभु जी (गुरसिखों के) अंत समय भी मददगार बनते हैं,इस लोक और परलोक में रक्षा करते हैं। हे नानक! (कह:) मैं परमात्मा पर से सदा कुर्बान जाता हूँ उसका नाम ही मेरे पास ऐसा धन है जो मेरे प्राणों का हितैषी और मेरा मित्र है।4।6।45। आसा महला ५ ॥ जा तूं साहिबु ता भउ केहा हउ तुधु बिनु किसु सालाही ॥ एकु तूं ता सभु किछु है मै तुधु बिनु दूजा नाही ॥१॥ पद्अर्थ: साहिबु = मालिक। सालाही = मैं सराहना करूँ। सभु किछु = हरेक (जरूरत की) चीज।1। अर्थ: हे प्रभु! अगर तू मालिक (मेरे सिर पर हाथ रखे रहे, तो मुझे माया-जहर से) कोई डर-खतरा नहीं हो सकता, मैं तुझ बिना किसी और की सराहना नहीं करता (मैं तेरे बिना किसी और को माया-जहर से बचाने के समर्थ नहीं समझता)। हे प्रभु! अगर एक तू ही मेरी ओर रहे तो हरेक जरूरत वाली चीज मेरे पास है, तेरे बिना मेरा और कोई सहायता करने वाला नहीं है।1। बाबा बिखु देखिआ संसारु ॥ रखिआ करहु गुसाई मेरे मै नामु तेरा आधारु ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: बाबा = हे प्रभु! बिखु = जहर। संसारु = जगत (का मोह)। गुसाई मेरे = हे मेरे मालिक! आधारु = आसरा।1। रहाउ। अर्थ: हे प्रभु! मैंने देख लिया है कि संसार (का मोह) जहर है (जो आत्मिक जीवन को मार डालता है)। हे मेरे पति-प्रभु! (इस जहर से) मुझे बचाए रख, तेरा नाम मेरी जिंदगी का आसरा बना रहे।1। रहाउ। जाणहि बिरथा सभा मन की होरु किसु पहि आखि सुणाईऐ ॥ विणु नावै सभु जगु बउराइआ नामु मिलै सुखु पाईऐ ॥२॥ पद्अर्थ: जाणहि = तू जानता है। बिरथा = व्यथा, पीड़ा। सभा = सारी। पहि = पास। बउराइआ = झल्ला हुआ।2। अर्थ: हे प्रभु! तू ही (हरेक जीव के) मन की सारी पीड़ा जानता है, तेरे बिना किसी और को अपने मन का दुख-दर्द बताना व्यर्थ है। (हे भाई!) परमात्मा के नाम से टूट के सारा जगत झल्ला हुआ फिरता है। अगर परमात्मा का नाम प्राप्त हो जाए तो आत्मिक आनंद मिल जाता है।2। किआ कहीऐ किसु आखि सुणाईऐ जि कहणा सु प्रभ जी पासि ॥ सभु किछु कीता तेरा वरतै सदा सदा तेरी आस ॥३॥ पद्अर्थ: किआ कहीऐ = कुछ नहीं कहना चाहिए। जि = जो कुछ। वरतै = बरत रहा है, हो रहा है।3। अर्थ: (हे भाई! अपने मन का दुख-दर्द) जो कुछ भी कहना हो परमात्मा के पास ही कहना चाहिए (क्योंकि परमात्मा ही हमारे दुख दूर करने के काबिल है)।3। जे देहि वडिआई ता तेरी वडिआई इत उत तुझहि धिआउ ॥ नानक के प्रभ सदा सुखदाते मै ताणु तेरा इकु नाउ ॥४॥७॥४६॥ पद्अर्थ: इत उत = लोक परलोक में। तुझहि = तुझे ही। ताणु = बल, आसरा।4। अर्थ: हे प्रभु! अगर तू मुझे कोई मान-बड़ाई (मान-सम्मान) बख्शता है तो इससे भी तेरी ही शोभा फैलती है क्योंकि मैं तो इस लोक और परलोक में सदा तेरा ही ध्यान धरता हूँ। हे नानक के प्रभु! हे सदा सुख देने वाले प्रभु! तेरा नाम ही मेरे वास्ते सहारा है।4।7।46। आसा महला ५ ॥ अम्रितु नामु तुम्हारा ठाकुर एहु महा रसु जनहि पीओ ॥ जनम जनम चूके भै भारे दुरतु बिनासिओ भरमु बीओ ॥१॥ पद्अर्थ: अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला जल। ठाकुर = हे पालणहार प्रभु! जनहि = जन ने ही, दास ने ही। भै = डर, खतरे। भारे = बोझ, जिम्मेवारियां। दुरतु = पाप। बीओ = दूसरा।1। नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन। अर्थ: हे ठाकुर! तेरा नाम आत्मिक जीवन देने वाला जल है (गुरु की सहायता से) ये श्रेष्ठ रस तेरे किसी दास ने ही पीया है (जिसने पीया उसके) जन्मों-जन्मांतरों के डर और (किये विकारों के) भार खत्म हो गए, (उसके अंदर से) पाप नाश हो गया (उसके अंदर की) दूसरी भटकना (माया की भटकना) दूर हो गई।1। दरसनु पेखत मै जीओ ॥ सुनि करि बचन तुम्हारे सतिगुर मनु तनु मेरा ठारु थीओ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मै जीओ = मुझे आत्मिक जीवन मिलता है। सतिगुर = हे सतिगुर! ठारु = शीतल, ठंडा, शांत।1। रहाउ। अर्थ: हे सतिगुरु! तेरा दर्शन करके मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा हो जाता है, तेरे वचन सुन के मेरा मन ठंडा-ठार हो जाता है।1। रहाउ। तुम्हरी क्रिपा ते भइओ साधसंगु एहु काजु तुम्ह आपि कीओ ॥ दिड़ु करि चरण गहे प्रभ तुम्हरे सहजे बिखिआ भई खीओ ॥२॥ पद्अर्थ: ते = से। दिढ़ु करि = दृढ़ करके, पक्का करके, कस के। गहे = पकड़ लिए। सहजे = सहज, आत्मिक अडोलता में टिक के। बिखिआ = माया (का प्रभाव)। खीओ = क्षय, नाश।2। अर्थ: हे प्रभु! तेरी मेहर से (मुझे) गुरु की संगति हासिल हुई, ये (सुंदर) काम तूने स्वयं ही किया, (गुरु की शिक्षा से) मैंने, हे प्रभु! तेरे चरण कस कर पकड़ लिए, मैं आत्मिक अडोलता में टिक गया और (मेरे अंदर से) माया का जोर खत्म हो गया है।2। सुख निधान नामु प्रभ तुमरा एहु अबिनासी मंत्रु लीओ ॥ करि किरपा मोहि सतिगुरि दीना तापु संतापु मेरा बैरु गीओ ॥३॥ पद्अर्थ: सुख निधान = हे सुखों के खजाने! अबिनाशी = कभी नाश ना होने वाला। मोहि = मुझे। सतिगुरि = गुरु ने। गीओ = चला लिया है।3। अर्थ: हे सुखों के खजाने प्रभु! कभी ना नाश होने वाला तेरा नाम-मंत्र मैंने जपना शुरू कर दिया, तेरा ये नाम-मंत्र मेहर करके मुझे सतिगुरु ने दिया (जिसकी इनायत से) मेरे अंदर से (हरेक किस्म का) दुख-कष्ट और वैर-विरोध दूर हो गया।3। धंनु सु माणस देही पाई जितु प्रभि अपनै मेलि लीओ ॥ धंनु सु कलिजुगु साधसंगि कीरतनु गाईऐ नानक नामु अधारु हीओ ॥४॥८॥४७॥ पद्अर्थ: देही = शरीर। जितु = जिसके द्वारा। प्रभि = प्रभु ने। साध संगि = साधु-संगत में। हीओ = हृदय का। आधारु = आसरा।4। अर्थ: हे नानक! (कह:) मुझे भाग्यशाली मानव शरीर मिला जिसकी इनायत से प्रभु ने मुझे अपने चरणों में जोड़ लिया (लोग कलियुग की निंदा करते हैं, पर) ये कलियुग भी मुबारक है अगर गुरु की संगति में टिक के परमात्मा का कीर्तन किया जाए और अगर परमात्मा का नाम हृदय का आसरा बना रहे।4।8।47। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |