श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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निंदक की गति कतहूं नाही खसमै एवै भाणा ॥ जो जो निंद करे संतन की तिउ संतन सुखु माना ॥३॥

पद्अर्थ: गति = उच्च आत्मिक अवस्था। कत हूं = कहीं भी। एवैं = ऐसे ही।3।

अर्थ: पति-प्रभु की रजा ऐसे ही है कि (संत-जनों की) निंदा करने वाले मनुष्य को कहीं भी उच्च आत्मिक अवस्था प्राप्त नहीं हो सकती (क्योंकि वह ऊँची आत्मिक अवस्था वालों की तो सदा निंदा करता है। दूसरी तरफ़) ज्यों-ज्यों कोई मनुष्य संत-जनों की निंदा करता है (कमियां बयान करजा है) त्यों-त्यों संत-जन इस में सुख प्रतीत करते हैं (उनको अपने आत्मिक जीवन की पड़ताल करने का मौका मिलता रहता है)।3।

संता टेक तुमारी सुआमी तूं संतन का सहाई ॥ कहु नानक संत हरि राखे निंदक दीए रुड़ाई ॥४॥२॥४१॥

पद्अर्थ: सहाई = मददगार।4।

अर्थ: हे मालिक प्रभु! तेरे संत-जनों को (जीवन की अगुवाई के लिए) सदा तेरा ही आसरा रहता है, तू (संतों का जीवन ऊँचा करने में) मददगार भी बनता है।

हे नानक! कह: (उस निंदा की इनायत से) संतों को तो परमात्मा (बुरे कर्मों से) बचाए रखता है पर निंदा करने वालों को (उनके निंदा की बाढ़ में) बहा देता है (उनके आत्मिक जीवन को निंदा की बाढ़ में बहा के समाप्त कर देता है)।4।2।41।

आसा महला ५ ॥ बाहरु धोइ अंतरु मनु मैला दुइ ठउर अपुने खोए ॥ ईहा कामि क्रोधि मोहि विआपिआ आगै मुसि मुसि रोए ॥१॥

पद्अर्थ: बाहरु = बाहरी ओर, शरीर, देह। अंतरु = अंदरूनी। खोए = गवा लिए। ईहा = इस लोक में। कामि = काम में। विआपिआ = फसा रहा। आगै = परलोक में। मुसि मुसि = सिसक सिसक के।1।

अर्थ: जो मनुष्य (तीर्थ आदि पर सिर्फ) शरीर धो के अंदरूनी मन (विकारों से) मैला ही रखता है वह लोक-परलोक अपने दोनों स्थान गवा लेता है। इस लोक में रहते हुए काम-वासना में, क्रोध में, मोह में फसा रहता है, आगे परलोक में जा के सिसक-सिसक के रोता है।1।

गोविंद भजन की मति है होरा ॥ वरमी मारी सापु न मरई नामु न सुनई डोरा ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मति = अक्ल। होरा = और किस्म की। वरमी = बिल। डोरा = बहरा।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का भजन करने वाली अक्ल और किस्म की होती है (उसमें दिखावा नहीं होता)। अगर मनुष्य परमात्मा का नाम नहीं सुनता, यदि नाम की ओर से बहरा रहता है (तो बाहरी धार्मिक कर्म ऐसे ही हैं जैसे सांप को मारने की जगह सांप के बिल को ही कूटे जाने), पर अगर बिल को ही मारते जाएं तो इस तरह साँप नहीं मरता (बाहरी कर्मों से मन वश में नहीं आता)।1। रहाउ।

माइआ की किरति छोडि गवाई भगती सार न जानै ॥ बेद सासत्र कउ तरकनि लागा ततु जोगु न पछानै ॥२॥

पद्अर्थ: किरति = मेहनत। सार = बद्र, सूझ। कउ = को। तरकन लागा = बहसने लग पड़ा। ततु = अस्लियत। जोगु = मिलाप।2।

अर्थ: (जिस मनुष्य ने त्याग के भुलेखे में आजीविका की खातिर) माया कमाने का उद्यम छोड़ दिया वह भक्ति की कद्र भी नहीं जानता। जो मनुष्य वेद-शास्त्र आदि धर्म-पुस्तकों को सिर्फ बहसों में ही उपयोग करना आरम्भ कर देता है वह (आत्मिक जीवन की) अस्लियत नहीं समझता, वह परमात्मा का मिलाप नहीं समझता।2।

उघरि गइआ जैसा खोटा ढबूआ नदरि सराफा आइआ ॥ अंतरजामी सभु किछु जानै उस ते कहा छपाइआ ॥३॥

पद्अर्थ: ढबूआ = चांदी का रूपया। ते = से, की ओर से।3।

अर्थ: जैसे जब कोई खोटा रुपया सर्राफा की नजर पड़ता है तो उसका खोट प्रत्यक्ष दिखाई दे जाता है; (वैसे ही जो मनुष्य अंदर से विकारी है, पर बाहर से धार्मिक भेखी) वह परमातमा से (अपने अंदर का खोट) छुपा नहीं सकता, हरेक के दिल की जानने वाला परमात्मा उसकी हरेक करतूत को जानता है।3।

कूड़ि कपटि बंचि निमुनीआदा बिनसि गइआ ततकाले ॥ सति सति सति नानकि कहिआ अपनै हिरदै देखु समाले ॥४॥३॥४२॥

पद्अर्थ: कूड़ि = झूठ में, माया के मोह में। कपटि = ठगी में। बंचि = ठगे जा के। निंमुनीआदा = बे मुनियादा, जिसकी पक्की नींव नहीं है। ततकाले = उसी क्षण, तुरंत। सति = सच। नानकि = नानक ने। समाले = संभाल के।4।

अर्थ: मनुष्य की इस जगत में चार-रोजा जिंदगी है पर ये माया के मोह में ठगी-फरेब में आत्मिक जीवन लुटा के बड़ी जल्दी आत्मिक मौत मर जाता है।

हे भाई! नानक ने ये बात यकीनन सच कही है कि परमात्मा के नाम को अपने हृदय में बसता देख (यही आत्मिक जीवन है, यही जीवन उद्देश्य है)।4।3।42।

आसा महला ५ ॥ उदमु करत होवै मनु निरमलु नाचै आपु निवारे ॥ पंच जना ले वसगति राखै मन महि एकंकारे ॥१॥

पद्अर्थ: निरमलु = निर्मल, साफ, पवित्र। आपु = स्वै भाव, अहंकार। पंच जना = कामादिक पाँचों को। वसगति = काबू में।1।

अर्थ: (हे भाई! परमात्मा का भक्त ज्यों-ज्यों महिमा का) उद्यम करता है उसका मन पवित्र होता जाता है, वह अपने अंदर से स्वै भाव दूर करता है (ये मानो, वह परमात्मा की हजूरी में) नाच करता है। (परमात्मा का सेवक) अपने मन में परमात्मा को बसाए रखता है (इस तरह) वह कामादिक पाँचों को काबू में रखता है।1।

तेरा जनु निरति करे गुन गावै ॥ रबाबु पखावज ताल घुंघरू अनहद सबदु वजावै ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: निरति = नाच, भक्ति का नृत्य। पखावज = तबला। ताल = छैणे। अनहद = एक रस, बिना साज बजाए पैदा होने वाला राग।1। रहाउ।

अर्थ: हे प्रभु! (देवी-देवताओं के भक्त अपने ईष्ट की भक्ति करने के समय उसके आगे नृत्य करते हैं, पर) तेरा भक्त तेरी महिमा के गीत गाता है (ये, मानो) वह नाच करता है। हे प्रभु! तेरा भक्त तेरी महिमा का शब्द रूप बाजा (अपने अंदर) लगातार बजाता रहता है (शब्द को हर वक्त अपने हृदय में बसाए रखता है) यही है उसके वास्ते रबाब तबला छैणे और घुंघरू (आदि साजों का बजना)।1। रहाउ।

प्रथमे मनु परबोधै अपना पाछै अवर रीझावै ॥ राम नाम जपु हिरदै जापै मुख ते सगल सुनावै ॥२॥

पद्अर्थ: परबोधै = जगाता है, समझाता है। अवर = और लोगों को। रीझावै = खुश करता है। ते = से।2।

अर्थ: (परमात्मा की महिमा की इनायत से परमात्मा का भक्त) पहले अपने मन को (मोह की नींद में से) जगाता है, फिर औरों के अंदर (महिमा की) रीझ पैदा करता है। पहले वह अपने हृदय में परमात्मा के नाम का जाप करता है और फिर मुंह से वह जाप और लोगों को भी सुनाता है।2।

कर संगि साधू चरन पखारै संत धूरि तनि लावै ॥ मनु तनु अरपि धरे गुर आगै सति पदारथु पावै ॥३॥

पद्अर्थ: कर संगि = हाथों से। साधू चरन = गुरमुखों के पैर। पखारै = पखाले, धोता है। तनि = शरीर पर। अरपि = हवाले करके। सति = सदा कायम रहने वाला।3।

अर्थ: (परमात्मा का सेवक) अपने हाथों से गुरमुखों के पैर धोता है संत जनों के चरणों की धूल अपने शरीर पर लगाता है, अपना मन गुरु के हवाले करता है अपना शरीर (हरेक ज्ञानेन्द्रिय) गुरु को सौंप देता है और गुरु से सदा कायम रहने वाला हरि नाम प्राप्त करता है।3।

जो जो सुनै पेखै लाइ सरधा ता का जनम मरन दुखु भागै ॥ ऐसी निरति नरक निवारै नानक गुरमुखि जागै ॥४॥४॥४३॥

पद्अर्थ: पेखै = देखता है। सरधा = यकीन। ता का = उसका। निवारै = दूर करती है। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने वाला मनुष्य।4।

अर्थ: हे नानक! (परमात्मा की महिमा एक ऐसा नाच है कि) जो जो मनुष्य इसको सिदक धारण करके सुनता देखता है उसके जनम-मरण के चक्करों का दुख दूर हो जाता है। ऐसा नाच गुरु की शरण पड़ने वाले मनुष्य को नर्कों से बचा लेता है (इस नाच की इनायत से) वह (मोह की नींद से) जाग जाता है।4।4।43।

आसा महला ५ ॥ अधम चंडाली भई ब्रहमणी सूदी ते स्रेसटाई रे ॥ पाताली आकासी सखनी लहबर बूझी खाई रे ॥१॥

पद्अर्थ: अधम = नीच। चंडाली = चंडालन। सूदी = शूद्रनी। ते = से। स्रेसटाई = श्रेष्ट, उत्तम। रे = हे भाई! सखनी = खाली, असंतुष्ट, वंचित। लहबर = (अरबी ‘लहब’ = आग की लाट)। बूझी = बुझ गई। खाई = खाई गई, खत्म हो गई।1।

अर्थ: हे भाई! नाम अमृत की इनायत से अति नीच चण्डालण रुचि (मानो) ब्राहमणी हो गई और शूद्रनी से ऊँचे कुल वाली हो गई। जो तवज्जो पहले पाताल से लेकर आकाश तक सारी दुनिया के पदार्थ ले के भी भूखी ही रहती थी उसकी तृष्णा की आग की लाट बुझ गई।1।

घर की बिलाई अवर सिखाई मूसा देखि डराई रे ॥ अज कै वसि गुरि कीनो केहरि कूकर तिनहि लगाई रे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: बिलाई = बिल्ली। घर की बिलाई = मन की संतोष हीन रुचि। अवर सिखाई = और तरह से सिखाई गई। मूसा = चूहा। अज = बकरी, विनम्रता। गुरि = गुरु ने। केहरि = शेर, अहंकार। कूकर = कुत्ता, तमो गुण वाली इंद्रिय। तिनहि = तृण, घास।1। रहउ।

अर्थ: (जिस मनुष्य को गुरु ने नाम-अमृत पिला दिया उसकी पहले वाली) संतोष-हीन रुचि बिल्ली अब और ही किस्म की शिक्षा लेती है वह दुनिया के पदार्थ (चूहा) देख के लालच करने से शर्माती है। गुरु ने उसके अहंकार-शेर को निम्रता-बकरी के अधीन कर दिया है, उसकी तमोगुणी इन्द्रियों (कुत्तों) को सतो गुणों की तरफ (घास खाने पर) लगा दिया।1। रहाउ।

बाझु थूनीआ छपरा थाम्हिआ नीघरिआ घरु पाइआ रे ॥ बिनु जड़ीए लै जड़िओ जड़ावा थेवा अचरजु लाइआ रे ॥२॥

पद्अर्थ: थूनीआ = थमियां। नीघरिआ = नि घरा, भटकता फिरता। जड़ीआ = सोनारा। जड़ावा = जड़ाऊ गहना। थेवा = नग।2।

अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य को गुरु ने नाम-अमृत पिला दिया उसके मन का) छप्पर (छत) दुनियावी पदार्थों की आशाओं की थंमियों के बिना ही थमा गया उसके भटकते मन ने (प्रभु चरणों में) ठिकाना ढूँढ लिया। कारीगर सुनारों कीसहायता के बिना ही (उसके मन का) जड़ाऊ गहना तैयार हो गया और उस मन-गहने में परमात्मा के नाम का सुंदर नग जड़ दिया गया।2।

दादी दादि न पहुचनहारा चूपी निरनउ पाइआ रे ॥ मालि दुलीचै बैठी ले मिरतकु नैन दिखालनु धाइआ रे ॥३॥

पद्अर्थ: दादी = फरियादी, गिले करने वाला। दादि = इन्साफ। चूपी = शांत रहने वाला। निरनउ = इन्साफ, निर्णय। मालि = मल के। दुलीचै = दहलीज पर। मिरतकु = आम तौर पे मुर्दा। नैन दिखालनु = और लोगों को आँखें दिखाना, घूरना। धाइआ = दूर हो गया।3।

अर्थ: (हे भाई! परमात्मा के चरणों से विछुड़ के नित्य) शिकवे-शिकायतें करने वाला (अपनी मन-इच्छित) इन्साफ़ कभी भी प्राप्त नहीं कर सकता था (पर अब जबसे नाम-अमृत मिल गया तो) शांत-चित्त हुए को न्याय मिलने लग पड़ा। (ये विश्वास हो गया कि परमात्मा जो कुछ करता है ठीक करता है)। (नाम-अमृत की इनायत से मनुष्य का पहले वाला) और लोगों को घूरने वाला स्वभाव खत्म हो गया, दुलीचे मल के बैठने वाली (अहंकार भरी रुचि) उसे अब आत्मि्क मौत मरी हुई दिखाई देने लग पड़ी।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh