श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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महा बचित्र सुंदर आखाड़े रण महि जिते पवाड़े ॥ हउ मारउ हउ बंधउ छोडउ मुख ते एव बबाड़े ॥ आइआ हुकमु पारब्रहम का छोडि चलिआ एक दिहाड़े ॥२॥

पद्अर्थ: बचित्र = आश्चर्य। आखाड़े = कुश्ती वगैरा के अभ्यास का मैदान। जिते = जीत लिए। पवाड़े = झगड़े। हउ = मैं। बंधउ = मैं बांधता हूँ। एव = इस तरह। ते = से। बबाड़े = बकता है, वाही तबाही बोलता है।2।

अर्थ: अगर कोई मनुष्य बड़े आश्चर्यजनक रूप से सुंदर अखाड़े (भाव, कुश्तियां आदि) जीतता है अगर वह रणभूमि में जा के (बड़े-बड़े) झगड़े-लड़ाईयां जीत लेता है और अपने मुंह से ऐसे अवा-तबा भी (बड़कें मारता है) बोलता है कि मैं (अपने वैरियों को) मार सकता हूँ (उनको) बाँध सकता हूँ (और अगर जी चाहे तो उन्हें कैद से) छोड़ भी सकता हूँ (तो भी क्या हुआ?) आखिर एक दिन परमात्मा का हुक्म आता है (मौत आ जाती है, और) ये सब कुछ छोड़ के यहां से चला जाता है।2।

करम धरम जुगति बहु करता करणैहारु न जानै ॥ उपदेसु करै आपि न कमावै ततु सबदु न पछानै ॥ नांगा आइआ नांगो जासी जिउ हसती खाकु छानै ॥३॥

पद्अर्थ: जुगति बहु = अनेक तरीकों से। जासी = चला जाएगा। खाकु = मिट्टी।3।

अर्थ: अगर कोई मनुष्य (और लोगों को दिखाने के लिए) अनेक किस्मों के (निहित) धार्मिक कर्म करता हो, पर विधाता प्रभु से सांझ ना डाले। यदि और लोगों को तो (धर्म का) उपदेश करता फिरे पर अपना धार्मिक जीवन ना बनाए, और परमात्मा की महिमा की वाणी की सार ना समझे, तो वह खाली हाथ जगत में आता है और यहां से खाली हाथ ही चला जाता है (उसके ये दिखावे के धार्मिक काम व्यर्थ ही जाते हैं) जैसे हाथी (स्नान करके फिर अपने ऊपर) मिट्टी डाल लेता है।3।

संत सजन सुनहु सभि मीता झूठा एहु पसारा ॥ मेरी मेरी करि करि डूबे खपि खपि मुए गवारा ॥ गुर मिलि नानक नामु धिआइआ साचि नामि निसतारा ॥४॥१॥३८॥

पद्अर्थ: सभि = सारे। झूठा = नासवंत। पसारा = खिलारा। खपि खपि = ख्वार हो हो के। मिलि = मिल के। साचि नामि = सदा कायम रहने वाले परमात्मा के नाम में जुड़ने से।4।

अर्थ: हे संत जनो! हे सज्जनो! हे मित्रो! सारे सुन लो, ये सारा जगत पसारा नाशवान है। जो लोग नित्य ये कहते रहे कि ये मेरी धन-दौलत है ये मेरी जायदाद है वह (माया-मोह के समुंदर में) डूबे रहे और दुखी हो हो के आत्मिक मौत मरते रहे।

हे नानक! जिस मनुष्य ने सतिगुरु को मिल केपरमात्मा का नाम स्मरण किया, सदा कायम रहने वाले परमात्मा के नाम में जुड़ के (इस संसार समुंदर से) उसका पार-उतारा हो गया।4।1।38।

नोट: ‘घरु ३’ का ये पहला शब्द है अब तक कुल 38 शब्द महला ५ के आ चुके हैं।


रागु आसा घरु ५ महला ५    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

भ्रम महि सोई सगल जगत धंध अंध ॥ कोऊ जागै हरि जनु ॥१॥

पद्अर्थ: भ्रम = भटकना। सोई = सोई हुई। सगल = सारी (दुनिया)। अंध = अंधी। कोऊ = कोई विरला।1।

अर्थ: (हे भाई!) जगत के धंधों में अंधी होई हुई सारी दुनिया माया की भटकना में सोई पड़ी है। कोई दुर्लभ परमात्मा का भक्त (इस मोह की नींद में से) जाग रहा है।1।

महा मोहनी मगन प्रिअ प्रीति प्रान ॥ कोऊ तिआगै विरला ॥२॥

पद्अर्थ: मोहनी = मन को मोह लेने वाली माया। मगन = मस्त। प्रिअ = प्यारी। प्रान = प्राण, जिंद।2।

अर्थ: (हे भाई!) मन को मोह लेने वाली बली माया में दुनिया मस्त पड़ी है, (माया के साथ ये) प्रीति प्राणों से भी प्यारी लग रही है। कोई दुर्लभ मनुष्य ही (माया की इस प्रीति को) छोड़ता है।2।

चरन कमल आनूप हरि संत मंत ॥ कोऊ लागै साधू ॥३॥

पद्अर्थ: आनूप = सुंदर। मंत = उपदेश। साधू = गुरमुख मनुष्य।3।

अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के सोहाने सुंदर चरणों में, संत जनों के उपदेश में, कोई विरला गुरमुख मनुष्य ही चिक्त जोड़ता है।3।

नानक साधू संगि जागे गिआन रंगि ॥ वडभागे किरपा ॥४॥१॥३९॥

पद्अर्थ: संगि = संगति में। साधू = गुरु। रंगि = रंग में।4।

अर्थ: हे नानक! कोई भाग्यशाली मनुष्य जिस पर प्रभु की कृपा हो जाए, गुरु की संगति में आ के (गुरु के बख्शे) ज्ञान के रंग में (रंग के, माया के मोह की नींद में से) जागता रहता है।4।1।39।

नोट: ‘घरु ५’ का यह पहला शब्द है। महला ५ के कुल शब्द ३९ आ चुके हैं।


ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु आसा घरु ६ महला ५ ॥

जो तुधु भावै सो परवाना सूखु सहजु मनि सोई ॥ करण कारण समरथ अपारा अवरु नाही रे कोई ॥१॥

पद्अर्थ: परवाना = स्वीकार। सहजु = आत्मिक अडोलता। मनि = मन में। सोई = वही (परमात्मा की रजा मानना ही)। रे = हे भाई!।1।

अर्थ: हे प्रभु! जो कुछ तुझे अच्छा लगता है वह तेरे सेवकों को (सिर माथे पर) स्वीकार होता है, तेरी रजा ही उनके मन में आनंद और आत्मिक अडोलता पैदा करती है। हे प्रभु! तुझे ही तेरे दास सब कुछ करने और जीवों से कराने की ताकत रखने वाला मानते हैं, तू ही उनकी निगाह में बेअंत है।

हे भाई! परमात्मा के दासों को परमात्मा के बराबर का और कोई नहीं दिखाई देता।1।

तेरे जन रसकि रसकि गुण गावहि ॥ मसलति मता सिआणप जन की जो तूं करहि करावहि ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: रसकि = रस ले के, स्वाद से। गावहि = गाते हैं। मसलति = सलाह मश्वरा। मता = फैसला।1। रहाउ।

अर्थ: (हे प्रभु!) तेरे दास बारंबार स्वाद से तेरे गुण गाते रहते हैं। जो कुछ तू खुद करता है जो कुछ जीवों से कराता है (उसको सिर माथे पे मानना ही) तेरे दासों के वास्ते समझदारी है (आत्मिक जीवन की अगुवाई के लिए) सलाह मश्वरा और फैसला हैं1। रहाउ।

अम्रितु नामु तुमारा पिआरे साधसंगि रसु पाइआ ॥ त्रिपति अघाइ सेई जन पूरे सुख निधानु हरि गाइआ ॥२॥

पद्अर्थ: अंम्रितु = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला। त्रिपति = तृप्ति, संतोष। अघाइ = पेट भर के। निधानु = खजाना।2।

अर्थ: हे प्यारे प्रभु! तेरे दासों के वास्ते तेरा नाम आत्मिक जीवन देने वाला है, साधु-संगत में बैठ के वह (तेरे नाम का) रस लेते हैं। (हे भाई!) जिन्होंने सुखों के खजाने हरि की महिमा की, वह मनुष्य गुणों से भरपूर हो गए वही मनुष्य (माया की तृष्णा की ओर से) तृप्त हो गए।2।

जा कउ टेक तुम्हारी सुआमी ता कउ नाही चिंता ॥ जा कउ दइआ तुमारी होई से साह भले भगवंता ॥३॥

पद्अर्थ: कउ = को। टेक = आसरा। भगवंता = भाग्यशाली।3।

अर्थ: हे प्रभु! हे सवामी! जिस मनुष्यों को तेरा आसरा है उन्हें कोई चिन्ता छू नहीं सकती। हे स्वामी! जिस पर तेरी मेहर हुई, वह (नाम-धन से) शाहूकार बन गए और भाग्यशाली हो गए।3।

भरम मोह ध्रोह सभि निकसे जब का दरसनु पाइआ ॥ वरतणि नामु नानक सचु कीना हरि नामे रंगि समाइआ ॥४॥१॥४०॥

पद्अर्थ: भरम = भटकन। ध्रोह = ठगी। सभि = सारे। निकसे = निकल गए। सचु = सदा कायम रहने वाला। नामे = नाम में ही। रंगि = प्रेम से।4।

अर्थ: हे नानक! (कह:) जब ही कोई मनुष्य परमात्मा के दर्शन करता है (उसके अंदर से) भटकना, मोह, ठगीयां आदि सारे विकार निकल जाते हैं। वह मनुष्य सदा कायम रहने वाले परमात्मा के नाम को अपना रोज काव्यवहार बना लेता है, वह प्रभु के प्रेम रंग में (रंग के) परमात्मा के नाम में ही लीन रहता है।4।1।40।

नोट: ‘घरु ६’ के नए संग्रह का ये पहला शब्द है।

आसा महला ५ ॥ जनम जनम की मलु धोवै पराई आपणा कीता पावै ॥ ईहा सुखु नही दरगह ढोई जम पुरि जाइ पचावै ॥१॥

पद्अर्थ: मलु = पापों की मैल। पराई = औरों की। ईहा = इस लोक में। ढोई = आसरा, ठिकाना। जमपुरि = जम के नगर में। जाइ = जा के। पचावै = ख्वार होता है, दुखी होता है।1।

अर्थ: (निंदक) दूसरों के अनेक जन्मों के किए विकारों की मैल धोता है (और वह मैल, वह अपने मन के अंदर संस्कारों के रूप में इकट्ठी कर लेता है, इस तरह वह) अपने किए कर्मों का बुरा फल स्वयं ही भोगता है। (निंदा के कारण उसको) इस लोक में सुख नहीं मिलता, परमात्मा की हजूरी में भी उसे आदर की जगह नहीं मिलती, वह नर्क में पहुँच के दुखी होता रहता है।1।

निंदकि अहिला जनमु गवाइआ ॥ पहुचि न साकै काहू बातै आगै ठउर न पाइआ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: निंदकि = निंदक ने। अहिला = कीमती। काहू बातै = किसी भी बात में। आगै = परलोक में।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई!) संत की निंदा करने वाले मनुष्य ने (निंदा के कारण अपना) कीमती मानव जनम गवा लिया। (संत की निंदा करके वह ये आशा करता है कि उन्हें दुनिया की नजरों में गिरा के मैं उनकी जगह आदर-सत्कार हासिल कर लूंगा, पर वह निंदक) किसी भी रूप में (संत जनों) की बराबरी नहीं कर सकता, (निेदा के कारण) आगे परलोक में भी उसे आदर की जगह नहीं मिलती।1। रहाउ।

किरतु पइआ निंदक बपुरे का किआ ओहु करै बिचारा ॥ तहा बिगूता जह कोइ न राखै ओहु किसु पहि करे पुकारा ॥२॥

पद्अर्थ: किरतु = पिछले जन्मों में किए मंद कर्मों के संसकारों का समूह। पइआ = पेश किया, सामने आ गया। बपुरा = बिचारा, बद नसीब, दुर्भाग्य। तहा = उस जगह, उस निघरी आत्मिक अवस्था में। बिगूता = ख्वार होता है, दुखी होता है। पाहि = पास।2।

अर्थ: पर निंदक के भी बस की बात नहीं (वह निंदा जैसे बुरे कर्म से हट नहीं सकता, क्योंकि) पिछले जन्मों के किए कर्मों के संस्कार उस दुर्भाग्यपूर्ण निंदक के पल्ले पड़ जाते हैं (उसके अंदर जाग पड़ते हैं और उसे निंदा की तरफ प्रेरित करते हैं)। निंदक ऐसी खराब हुई (निघरी हुई) आत्मिक दशा में ख्वार होता रहता है कि वहाँ (भाव, उस गिरी हुई निघरी दशा में से निकालने के लिए) कोई उसकी मदद नहीं कर सकता। सहायता के लिए वह किसी के पास पुकार करने के काबिल भी नहीं रहता।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh