श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 379 आसा महला ५ ॥ जा का हरि सुआमी प्रभु बेली ॥ पीड़ गई फिरि नही दुहेली ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: जा का = जिस (मनुष्य) का। बेली = मददगार, सहाई। सुआमी = स्वामी, मालिक। दुहेली = दुखी, दुख भरी।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) सब जीवों का मालिक हरि प्रभु जिस मनुष्य का मददगार बन जाता है, उसका हरेक किस्म का दुख-दर्द दूर हो जाता है उसको पुनः कभी कोई दुख नहीं घेर सकते।1। रहाउ। करि किरपा चरन संगि मेली ॥ सूख सहज आनंद सुहेली ॥१॥ पद्अर्थ: संगि = साथ। सहज = आत्मिक अडोलता। सुहेली = सुखी, सुख भरी।1। अर्थ: (हे भाई!) जिस जीव को परमात्मा कृपा करके अपने चरणों में जोड़ लेता है उसके अंदर सुख आनंद आत्मिक अडोलता आ बसते हैं उसका जीवन सुखी हो जाता है।1। साधसंगि गुण गाइ अतोली ॥ हरि सिमरत नानक भई अमोली ॥२॥३५॥ पद्अर्थ: साध संगि = साधु-संगत में। गाइ = गा के। अतोली = जो तोली ना जा सके, जिसके बराबर की और कोई चीज ना मिल सके। अमोली = जिसका मूल्य ना पड़ सके।2। अर्थ: हे नानक! साधु-संगत में परमात्मा के गुण गा के परमात्मा का स्मरण करके (मनुष्य का जीवन इतना ऊँचा हो जाता है कि उसके) बराबर का कोई नहीं मिल सकता, उसकी कीमत का कोई नहीं मिल सकता।2।35। आसा महला ५ ॥ काम क्रोध माइआ मद मतसर ए खेलत सभि जूऐ हारे ॥ सतु संतोखु दइआ धरमु सचु इह अपुनै ग्रिह भीतरि वारे ॥१॥ पद्अर्थ: मद = अहंकार। मतसर = ईरखा। ए = ये सारे (बहुवचन)। सभि = सारे। जूऐ = जूए में। भीतरि = अंदर। वारे = ले आए।1। अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य गुरु की संगति में बैठता है वह) काम-क्रोध-माया का मोह-अहंकार-ईष्या- इन सारे विकारों को (मानो) जूए की बाजी में खेल के हार देता है और सत-संतोष-दया-धर्म-सच- इन गुणों को अपने हृदय घर में ले आता है।1। जनम मरन चूके सभि भारे ॥ मिलत संगि भइओ मनु निरमलु गुरि पूरै लै खिन महि तारे ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: चूके = खत्म हो गए। भारे = जिम्मेवारियां। गुरि = गुरु ने। खिन महि = बड़ी ही जल्दी।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) साधु-संगत में मिल बैठ के मन पवित्र हो जाता है (साधु-संगत में बैठने वाले को) पूरे गुरु ने एक छिन में (विकारों के समुंदर से) पार लंघा लिया, उसके जनम मरन के चक्कर समाप्त हो गए उसकी (अपने आप अपने सिर पर ली हुई) जिम्मेवारियां खत्म हो गई।1। रहाउ। सभ की रेनु होइ रहै मनूआ सगले दीसहि मीत पिआरे ॥ सभ मधे रविआ मेरा ठाकुरु दानु देत सभि जीअ सम्हारे ॥२॥ पद्अर्थ: रेनु = चरण धूल। मनूआ = मन। दीसहि = दिखाई देते हैं। मधे = में। समारे = संभाल करता है।2। अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य संगति में बैठता है उसका) मन सभी के चरणों की धूल बन जाता है उसे (सृष्टि के) सारे जीव प्यारे मित्र दिखते हैं (उसे प्रत्यक्ष दिखता है कि) प्यारा पालनहार प्रभु सब जीवों में मौजूद है और सब जीवों को दातें दे दे के सबकी संभाल कर रहा है।2। एको एकु आपि इकु एकै एकै है सगला पासारे ॥ जपि जपि होए सगल साध जन एकु नामु धिआइ बहुतु उधारे ॥३॥ पद्अर्थ: एकै पासारे = एक प्रभु का ही पसारा। साध जन = भले मनुष्य। उधारे = (विकारों से) बचा लिए।3। अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य साधु-संगत में आते हैं) परमात्मा का नाम स्मरण कर-कर के वह सारे मनुष्य गुरमुख बन जाते हैं, एक परमात्मा के नाम का ध्यान धर के वह और अनेक को विकारों से बचा लेते हैं (उन्हें निश्चय बन जाता है कि सारे संसार में) परमात्मा स्वयं ही स्वयं बस रहा है, ये सारा जगत उस एक परमात्मा का ही पसारा है।3। गहिर ग्मभीर बिअंत गुसाई अंतु नही किछु पारावारे ॥ तुम्हरी क्रिपा ते गुन गावै नानक धिआइ धिआइ प्रभ कउ नमसकारे ॥४॥३६॥ पद्अर्थ: गहिर = गहरा। गंभीर = बड़े जिगरे वाला। गुसाई = सृष्टि का मालिक। पारावारे = पार अवार, परला छोर और उरला किनारा। ते = से, साथ। कउ = को।4। अर्थ: हे नानक! (कह:) हे गहरे प्रभु! हे बड़े जिगरे वाले प्रभु! हे बेअंत गोसाई! तेरे गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता, तेरी हस्ती का उरला और परला छोर नहीं मिल सकता। जो भी कोई जीव तेरे गुण गाता है, जो भी कोई तेरा नाम स्मरण कर-कर के तेरे आगे सिर निवाता है वह ये सब कुछ तेरी मिहर से करता है।4।36। आसा महला ५ ॥ तू बिअंतु अविगतु अगोचरु इहु सभु तेरा आकारु ॥ किआ हम जंत करह चतुराई जां सभु किछु तुझै मझारि ॥१॥ पद्अर्थ: अविगत = अवयक्त, अदृष्ट। अगोचरु = (अ+गो+चरु) जो ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच से परे है। आकारु = दिखाई देता संसार। करह = हम करें। तुझै मझारि = तेरे (हुक्म के) अंदर।1। अर्थ: (हे ठाकुर!) तू बेअंत है, तू अदृष्ट है, तू ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच से परे है, ये दिखाई देता जगत सारा तेरा ही रचा हुआ है। हम तेरे पैदा किए हुए जीवतेरे सामने अपनी लयाकत का क्या दिखावा कर सकते हैं? जो कुछ हो रहा है सब तेरे हुक्म के अंदर हो रहा है।1। मेरे सतिगुर अपने बालिक राखहु लीला धारि ॥ देहु सुमति सदा गुण गावा मेरे ठाकुर अगम अपार ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: लीला = खेल। धारे = धारण करके, धार के। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे सतिगुरु! हे मेरे अगम्य (पहुँच से परे) और बेअंत ठाकुर! अपने बच्चों को अपना बेअंत करिश्मा बरता के (विकारों से) बचाए रख। मुझे अच्छी मति दे कि मैं तेरे गुण गाता रहूँ।1। रहाउ। जैसे जननि जठर महि प्रानी ओहु रहता नाम अधारि ॥ अनदु करै सासि सासि सम्हारै ना पोहै अगनारि ॥२॥ पद्अर्थ: जननि = माँ। जठर = पेट। अधारि = आसरे। सासि सासि = हरेक सांस से। अगनारि = आग।2। अर्थ: (हे ठाकुर! ये तेरी ही लीला है जैसे) जीव माँ के पेट में रहता हुआ तेरे नाम के आसरे जीता है (माँ के पेट में) वह हरेक सांस के साथ (तेरा नाम) याद करता है और आत्मिक आनंद लेता है उसे माँ के पेट की आग का सेका नहीं लगता।2। पर धन पर दारा पर निंदा इन सिउ प्रीति निवारि ॥ चरन कमल सेवी रिद अंतरि गुर पूरे कै आधारि ॥३॥ पद्अर्थ: दारा = स्त्री। निवारि = दूर कर। कमल = कमल फूल। सेवी = सेवीं, मैं सेवा करूँ। रिद = हृदय। आधारि = आसरे से।3। अर्थ: (हे ठाकुर! जैसे तू माँ के पेट में रक्षा करता है वैसे ही अब भी) पराया धन, पराई स्त्री, पराई निंदा- इन विकारों से मेरी प्रीति दूर कर। (मेहर कर) पूरे गुरु का आसरा ले के मैं तेरे सुंदर चरणों का ध्यान अपने हृदय में टिकाए रखूँ।3। ग्रिहु मंदर महला जो दीसहि ना कोई संगारि ॥ जब लगु जीवहि कली काल महि जन नानक नामु सम्हारि ॥४॥३७॥ पद्अर्थ: संगारि = संग जाने वाला, हमराही। जीवहि = तू जीता है। कली महि = जगत में। नोट: साधारण हालत में ‘कलिजुग’ बरता है क्योंकि जिस जुग में सतिगुरु जी आए उसका नाम ‘कलिजुग’ प्रसिद्ध है। यहाँ ‘कली काल’ से भाव है ‘संसार जगत’। पद्अर्थ: समारि = संभाल, हृदय में परो रख।4। अर्थ: हे दास नानक! (कह: हे भाई!) घर, मंदिर, महल, माढ़ियां जो भी तुझे दिख रहे हैं इन में से कोई भी (अंत समय) तेरे साथ नहीं जाएगा। (इस वास्ते) जब तक तू जगत में जी रहा है परमात्मा का नाम अपने हृदय में परोए रख (यही असली साथी है)।4।37। नोट: इन तीन शब्दों के आरम्भ में नहीं बताया गया कि इनको किस ‘घर’ में गाना है। पहले 34 शब्द ‘घर 2’ के थे। आगे ‘घर 3’ शुरू हो रहा है। आसा घरु ३ महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ राज मिलक जोबन ग्रिह सोभा रूपवंतु जुोआनी ॥ बहुतु दरबु हसती अरु घोड़े लाल लाख बै आनी ॥ आगै दरगहि कामि न आवै छोडि चलै अभिमानी ॥१॥ पद्अर्थ: मिलक = जीवन, जमीन। ग्रिह = घर। रूपवंतु = रूप वाला। जुोआनी = (असल शब्द ‘जुआनी है, यहां ‘जोआनी’ पढ़ना है)। दरबु = धन, द्रव्य। हसती = हाथी। बै = मूल्य खरीद के। आनी = ले आए। कामि = काम में।1। अर्थ: (हे भाई!) हकूमत, जमीन की मल्कियत, जोबन, घर, इज्जत, सुंदरता, जवानी, बहुत सारा धन, हाथी और घोड़े (अगर ये सब कुछ किसी मनुष्य के पास हो), अगर लाखों रूपए खर्च के (कीमती) लाल मूल्य ले के आए (और इन पदार्थां का गुमान करता रहे), पर आगे परमात्मा की दरगाह में (इनमें से कोई भी चीज) काम नहीं आती। (इन पदार्थों का) गुमान करने वाला मनुष्य (इन सभी को यहीं) छोड़ के (यहां से) दूर चल पड़ता है।1। काहे एक बिना चितु लाईऐ ॥ ऊठत बैठत सोवत जागत सदा सदा हरि धिआईऐ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: काहे = क्यूँ?।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) एक परमात्मा के बिना किसी और में प्रीति नहीं जोड़नी चाहिए। उठते बैठते सोते जागते सदा ही परमात्मा में तवज्जो जोड़े रखनी चाहिए।1। रहाउ। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |