श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 386 तनु मनु सीतलु जपि नामु तेरा ॥ हरि हरि जपत ढहै दुख डेरा ॥२॥ पद्अर्थ: सीतलु = ठंडा। जपि = जप के। जपत = जपते हुए। ढहै = गिर जाता है। दुख डेरा = दुखों का डेरा।2। अर्थ: हे प्रभु! तेरा नाम जप के मन शांत हो जाता है। शरीर (भी, हरेक ज्ञानेन्द्रिय भी) जप के शांत हो जाते हैं। हे भाई! परमात्मा का नाम जपते हुए दुखों का डेरा ही उठ जाता है।2। हुकमु बूझै सोई परवानु ॥ साचु सबदु जा का नीसानु ॥३॥ पद्अर्थ: हुकमु = रजा। सोई = वही (मनुष्य)। साचु = सदा कायम रहने वाला। साचु सबदु = सदा स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी। जा का = जिस का, जिसके पास। नीसानु = परवाना, राहदारी।3। अर्थ: (हे भाई! इस जीवन-यात्रा में) जिस मनुष्य के पास सदा कायम रहने वाले परमात्मा की महिमा की वाणी की राहदारी है (और इस राहदारी की इनायत से जो परमात्मा की) रजा को समझ लेता है (रजा में खुशी से) राजी रहता है, वह मनुष्य (परमात्मा की हजूरी में) स्वीकार हो जाता है।3। गुरि पूरै हरि नामु द्रिड़ाइआ ॥ भनति नानकु मेरै मनि सुखु पाइआ ॥४॥८॥५९॥ पद्अर्थ: गुरि पूरै = पूरे गुरु ने। भनति नानकु = नानक कहता है। मनि = मन ने।4। अर्थ: नानक कहता है: (हे भाई! जब से) पूरे गुरु ने परमात्मा का नाम मेरे हृदय में पक्का कर दिया है (तब से) मेरे मन ने (सदा) सुख ही अनुभव किया है।4।8।59। आसा महला ५ ॥ जहा पठावहु तह तह जाईं ॥ जो तुम देहु सोई सुखु पाईं ॥१॥ पद्अर्थ: पठावहु = तू भेजता है। तह तह = वहां वहां। जाई = मैं जाता हूँ। जो = जो कुछं। पाई = मैं पाता हूँ।1। अर्थ: (हे गोबिंद! ये तेरी ही मेहर है कि) जिधर तू मुझे भेजता हूँ, मैं उधर उधर ही (खुशी से) जाता हूँ, (सुख हो चाहे दुख हो) जो कुछ तू मुझे देता है, मैं उसको (सिर माथे पे) सुख (जान के) मानता हूँ।1। सदा चेरे गोविंद गोसाई ॥ तुम्हरी क्रिपा ते त्रिपति अघाईं ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: चेरे = दास। गोविंद = हे गोविंद! क्रिपा ते = कृपा से। त्रिपति अघाई = पूरी तरह से संतोष में रहता हूँ।1। रहाउ। अर्थ: हे गोबिंद! हे गुसाई! (मेहर कर, मैं) सदा तेरा दास बना रहूँ (क्योंकि) तेरी कृपा से ही मैं माया की तृष्णा से सदा तृप्त रहता हूँ।1। रहाउ। तुमरा दीआ पैन्हउ खाईं ॥ तउ प्रसादि प्रभ सुखी वलाईं ॥२॥ पद्अर्थ: पैन्उ = मैं पहनता हूँ, पहनूँ। खाई = मैं खाता हूँ। तउ प्रसादि = तेरी कृपा से। प्रभ = हे प्रभु! वलाई = मैं उम्र गुजारता हूँ।2। अर्थ: हे प्रभु! जो कुछ तू मुझे (पहनने को खाने को) देता है वही मैं (संतोष से) पहनता हूँ और खाता हूँ। तेरी कृपा से मैं (अपना जीवन) सुख आनंद से व्यतीत कर रहा हूँ।2। मन तन अंतरि तुझै धिआईं ॥ तुम्हरै लवै न कोऊ लाईं ॥३॥ पद्अर्थ: लवै = बराबर।3। अर्थ: हे प्रभु! मैं अपने मन में अपने हृदय में (सदा) तुझे ही याद करता रहता हूँ, तेरे बराबर का मैं और किसी को नहीं समझता।3। कहु नानक नित इवै धिआईं ॥ गति होवै संतह लगि पाईं ॥४॥९॥६०॥ पद्अर्थ: इवै = इसी तरह। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। संतह पाई = संत जनों के चरणों में।4। अर्थ: हे नानक! (प्रभु दर पर अरदास करता रह और) कह: (हे प्रभु! मेहर कर) मैं इसी तरह सदा तुझे स्मरण करता रहूँ। (तेरी मेहर हो तो तेरे) संत जनों के चरणों में लग के मुझे ऊँची आत्मिक अवस्था मिली रहे।4।9।60। आसा महला ५ ॥ ऊठत बैठत सोवत धिआईऐ ॥ मारगि चलत हरे हरि गाईऐ ॥१॥ पद्अर्थ: मारगि = रस्ते पर। चलत = चलते हुए। हरे हरि = हरि ही हरि।1। अर्थ: (हे भाई!) उठते बैठते सोते (जागते हर वक्त) परमात्मा को याद करते रहना चाहिए, रास्ते में चलते हुए भी सदा परमात्मा की महिमा करते रहना चाहिए।1। स्रवन सुनीजै अम्रित कथा ॥ जासु सुनी मनि होइ अनंदा दूख रोग मन सगले लथा ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: स्रवन = कानों से। सुनीजै = सुननी चाहिए। अंम्रित कथा = आत्मिक जीवन देने वाली महिमा। जासु सुनी = जिसको सुन के। मनि = मन में। मन = मन के। सगले = सारे।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) कानों से (परमात्मा की) आत्मिक जीवन देने वाली महिमा सुनते रहना चाहिए जिसके सुनने से मन में आत्मिक आनंद पैदा होता है और मन के सारे दुख-रोग दूर हो जाते हैं।1। रहाउ। कारजि कामि बाट घाट जपीजै ॥ गुर प्रसादि हरि अम्रितु पीजै ॥२॥ पद्अर्थ: कारजि = हरेक कार्य में। कामि = हरेक काम में। बाट = राह चलते हुए। घाट = पत्तन (से गुजरते हुए)।2। अर्थ: (हे भाई!) हरेक काम काज करते हुए, रास्ते पर चलते हुए, नदी घाट पार करते हुए परमात्मा का नाम जपते रहना चाहिए और गुरु की कृपा की इनायत से आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम जल पीते रहना चाहिए।2। दिनसु रैनि हरि कीरतनु गाईऐ ॥ सो जनु जम की वाट न पाईऐ ॥३॥ पद्अर्थ: दिनसु = दिन। रैनि = रात। जम की वाट = जम के रास्ते, उस जीवन-राह पे जहां आत्मिक मौत आ दबाए।3। अर्थ: (हे भाई1) दिन-रात परमात्मा के महिमा के गीत गाते रहना चाहिए (जो ये काम करता रहता है) जिंदगी के सफर में आत्मिक मौत उसके नजदीक नहीं फटकती।3। आठ पहर जिसु विसरहि नाही ॥ गति होवै नानक तिसु लगि पाई ॥४॥१०॥६१॥ पद्अर्थ: विसरहि नाही = तू नहीं बिसरता। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। तिसु पाई = उसके चरणों में।4। अर्थ: हे नानक! (कह: हे प्रभु!) जिस मनुष्य को आठों पहर किसी (भी वक्त) तू नहीं बिसरता, उसके चरणों में लग के (और मनुष्यों को भी) ऊँची आत्मिक अवस्था मिल जाती है।4।10।61। आसा महला ५ ॥ जा कै सिमरनि सूख निवासु ॥ भई कलिआण दुख होवत नासु ॥१॥ पद्अर्थ: जा कै सिमरनि = जिस (परमात्मा) के स्मरण से। सूख निवासु = (मन में) आनंद का वासा। कलिअण = सुख शांत, खैरीयत।1। अर्थ: (हे भाई! गुरु के कहे अनुसार उस परमात्मा का स्मरण करते रहो) जिसके नाम जपने की इनायत से (मन में) सुख का वासा हो जाता है, सदा सुख-शांति बनी रहती है और दुखों का नाश हो जाता है।1। अनदु करहु प्रभ के गुन गावहु ॥ सतिगुरु अपना सद सदा मनावहु ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: करहु = करोगे। मनावहु = खुश करो, प्रसंन्नता हासिल करो।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई! अपने गुरु के उपदेश के अनुसार चल के) सदा ही गुरु की प्रसन्नता प्राप्त करते रहो (गुरु के हुक्म अनुसार) परमात्मा की महिमा करते रहा करो (इसका नतीजा ये होगा कि सदा) आत्मिक आनंद पाते रहोगे।1। रहाउ। सतिगुर का सचु सबदु कमावहु ॥ थिरु घरि बैठे प्रभु अपना पावहु ॥२॥ पद्अर्थ: सचु सबदु = सदा स्थिर महिमा वाला गुर शब्द। घरि = हृदय घर में।2। अर्थ: (हे भाई!) सदा स्थिर परमात्मा की महिमा वाले गुर-शब्द को हर समय हृदय में रखो (शब्द अनुसार अपना जीवन घड़ते रहो। इस शब्द की इनायत से अपने) हृदय-घर में अडोल टिके रहोगे (भटकना खत्म हो जाएगी) और परमात्मा को अपने अंदर ही पा लोगे।2। पर का बुरा न राखहु चीत ॥ तुम कउ दुखु नही भाई मीत ॥३॥ पद्अर्थ: पर का = किसी और का। न राखहु चीत = चित्त में ना रखो। भाई मीत = हे भाई! हे मित्र!।3। अर्थ: हे भाई! हे मित्र! कभी किसी का बुरा ना चितवा करो (कभी मन में ये इच्छा ना पैदा होने दो कि किसी का नुकसान हो। इसका नतीजा ये होगा कि) तुम्हें भी कोई दुख नहीं व्यापेगा।3। हरि हरि तंतु मंतु गुरि दीन्हा ॥ इहु सुखु नानक अनदिनु चीन्हा ॥४॥११॥६२॥ पद्अर्थ: तंतु = टूणा। मंतु = मंत्र। गुरि = गुरु ने। नानक = हे नानक! अनदिनु = हर रोज। चीना = (बसता) पहचान लिया।4। अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्य को गुरु ने परमात्मा के नाम का ही टूणा दिया है, परमात्मा के नाम का ही मंत्र दिया है (वह मंत्र-टूणों द्वारा दूसरों का बुरा चितवने की जगह, अपने अंदर) हर समय (परमात्मा के नाम से पैदा हुआ) आत्मिक आनंद बसा पहचान लेता है।4।11।62। आसा महला ५ ॥ जिसु नीच कउ कोई न जानै ॥ नामु जपत उहु चहु कुंट मानै ॥१॥ पद्अर्थ: नीच कउ = छोटी जाति वाले मनुष्य को। न जानै = नहीं जानता पहचानता, किसी गिनती में नहीं गिनता। चहु कुंट = चारों तरफ, सारे संसार में। मानै = माना जाता है, आदर पाता है।1। अर्थ: हे प्रभु! जिस मनुष्य को नीच जाति का समझ के कोई जानता-पहचानता भी नहीं, तेरा नाम जपने की इनायत से सारे जगत में उसका आदर-मान होने लगता है।1। दरसनु मागउ देहि पिआरे ॥ तुमरी सेवा कउन कउन न तारे ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मागउ = मांगूँ, मैं मांगता हूँ। पिआरे = हे प्यारे! क्उन कउन = किस किस को, हरेक को।1। रहाउ। अर्थ: हे प्यारे प्रभु! मैं तेरा दर्शन मांगता हूँ (मुझे अपने दर्शनों की दाति) दे। जिसने तेरी सेवा-भक्ति की उस उस को (तूने अपने दर्शन दे के) संसार-समुंदर से पार लंघा दिया।1। रहाउ। जा कै निकटि न आवै कोई ॥ सगल स्रिसटि उआ के चरन मलि धोई ॥२॥ पद्अर्थ: निकटि = नजदीक। सगल = सारी। उआ के = उसके। मलि = मलमल के। धोई = धोती है।2। अर्थ: हे प्रभु! (कंगाल जान के) जिस मनुष्य के पास भी कोई नहीं फटकता (तेरा नाम जपने की इनायत से फिर) सारी लुकाई उसके पैर मल-मल के धोने लग पड़ती है।2। जो प्रानी काहू न आवत काम ॥ संत प्रसादि ता को जपीऐ नाम ॥३॥ पद्अर्थ: संत प्रसादि = गुरु की कृपा से। ता को नाम जपीऐ = उसे याद किया जाता है।3। अर्थ: हे प्रभु! जो मनुष्य (पहले) किसी का कोई काम सँवारने के काबिल नहीं था (अब) गुरु की कृपा से (तेरा नाम जपने के कारण) उसे हर जगह याद किया जाता है।3। साधसंगि मन सोवत जागे ॥ तब प्रभ नानक मीठे लागे ॥४॥१२॥६३॥ पद्अर्थ: मन = हे मन! नानक = हे नानक!।4। अर्थ: हे नानक! (कह:) हे मन! साधु-संगत में आ के (माया के मोह की नींद में) सोए हुए लोग जाग पड़ते हैं (आत्मिक जीवन की सूझ प्राप्त कर लेते हैं, और) तब उन्हें प्रभु जी प्यारे लगने लग पड़ते हैं।4।12।63। आसा महला ५ ॥ एको एकी नैन निहारउ ॥ सदा सदा हरि नामु सम्हारउ ॥१॥ पद्अर्थ: एको एकी = एक परमात्मा ही। निहारउ = निहारूँ, मैं देखता हूँ। समारउ = मैं हृदय में टिकाए रखता हूँ।1। अर्थ: (हे भाई! गुरु के प्रताप के सदके ही) मैं परमातमा को हर जगह ही बसता अपनी आँखों से देखता हूँ, और सदा ही परमात्मा का नाम अपने दिल में टिकाए रखता हूँ।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |