श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 392 काच गगरीआ अ्मभ मझरीआ ॥ गरबि गरबि उआहू महि परीआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: काच गगरीआ = कच्ची मिट्टी की गागरि। अंभ = अम्भस्, पानी। मझरीआ = बीच। गरबि = अहंकार करके। ऊआ हू महि = उसी (संसार समुंदर) में ही। परीआ = पड़ जाती है, डूब जाती है।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई! ये मानव शरीर पानी में पड़ी हुई) कच्ची मिट्टी की गागर (जैसा है जो हवा से उछल-उछल के) पानी में ही (गलती जाती है। इस तरह मनुष्य भी) अहंकार कर-करके उसी (संसार-समुंदर) में ही डूब जाता है (अपना आत्मिक जीवन गर्क कर लेता है)।1। रहाउ। निरभउ होइओ भइआ निहंगा ॥ चीति न आइओ करता संगा ॥ लसकर जोड़े कीआ स्मबाहा ॥ निकसिआ फूक त होइ गइओ सुआहा ॥२॥ पद्अर्थ: निरभउ = निडर, निधड़क। निहंगा = निसंग, ढीठ। चीति = चिक्त में। करता = कर्तार। जोड़े = जमा किए। संबाहा = इकट्ठे।2। अर्थ: (हे भाई! राज के गुमान में यदि वह मौत से) निडर हो गया निधड़क हो गया (यदि उसने) फौजें जमां कर कर के बड़ा सारा लश्कर बना लिया (तो भी क्या हुआ?) जब (आखिरी समय) उसके श्वास निकल गए तो (उसका) शरीर मिट्टी हो गया।2। ऊचे मंदर महल अरु रानी ॥ हसति घोड़े जोड़े मनि भानी ॥ वड परवारु पूत अरु धीआ ॥ मोहि पचे पचि अंधा मूआ ॥३॥ पद्अर्थ: अरु = और। हसति = हाथी। जोड़े = कपड़े। मनि भानी = मन भाते। मोहि = मोह में। पचे पचि = पच पच, जल जल के, ख्वार हो हो के। मूआ = आत्मिक मौत मर गया।3। अर्थ: (हे भाई! यदि उसको) ऊँचे महल-माढ़ियां (रहने के लिए मिल गए) और (सुंदर) रानी (मिल गई। अगर उसने) हाथी घोड़े (बढ़िया) मन-भाते कपड़े (इकट्ठे कर लिए। यदि वह) पुत्रो-बेटियों वाला बड़े परिवार वाला बन गया, तो भी तो (माया के) मोह में ख्वार हो हो के (वह) माया के मोह में (अंधा हो के) आत्मिक मौत ही सहेड़ बैठा।3। जिनहि उपाहा तिनहि बिनाहा ॥ रंग रसा जैसे सुपनाहा ॥ सोई मुकता तिसु राजु मालु ॥ नानक दास जिसु खसमु दइआलु ॥४॥३५॥८६॥ पद्अर्थ: जिनहि = जिस (परमात्मा) ने। उपाहा = पैदा किया। बिनाहा = नाश कर दिया।4। अर्थ: (हे भाई!) जिस परमात्मा ने (उसे) पैदा किया था उसी ने उसको नाश भी कर दिया। उसके भोगे हुए रंग-तमाशे और मौज-मेले सपने की ही तरह हो गए। हे दास नानक! (कह:) वही मनुष्य (माया के मोह से) बचा रहता है उसके पास (सदा कायम रहने वाला) राज और धन है जिस पर पति प्रभु दयावान होता है (और जिसे अपने नाम का खजाना बख्शता है)।4।35।86। आसा महला ५ ॥ इन्ह सिउ प्रीति करी घनेरी ॥ जउ मिलीऐ तउ वधै वधेरी ॥ गलि चमड़ी जउ छोडै नाही ॥ लागि छुटो सतिगुर की पाई ॥१॥ पद्अर्थ: इन्ह सिउ = इस (माया) से। घनेरी = बहुत। जउ मिलिऐ = जब इससे साथ बनाएं। गलि = गले से। लागि = लग के। छुटो = छूटा, बचता है। पाई = पैरों पर।1। अर्थ: (हे भाई!) अगर इस (माया) से ज्यादा प्रीति करें तो ज्यों-ज्यों इससे साथ बनाते जाते हैं, त्यों-त्यों इससे मोह बढ़ता जाता है। (आखिर) जब ये गले से चिपकी हुई छोड़ती ही नहीं, तब सतिगुरु के चरणों में लग के इससे निजात पाते हैं।1। जग मोहनी हम तिआगि गवाई ॥ निरगुनु मिलिओ वजी वधाई ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: जग मोहनी = जगत को मोहने वाली। निरगुन = माया के तीन गुणों से ऊपर रहने वाला प्रभु। वधाई = मन की चढ़ती कला, उत्शाह भरी अवस्था। वजी = बज गई (जैसे बाजा बजता है), प्रबल हो गई।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई! गुरु की कृपा से जब से) मुझे माया के तीन गुणों के प्रभाच से ऊपर रहने वाला परमात्मा मिला है मेरे अंदर उत्साह भरी अवस्था प्रबल हो गई है, तब से ही मैंने सारे जगत को मोहने वाली माया (के मोह) को त्याग के परे फेंक दिया है।1। रहाउ। ऐसी सुंदरि मन कउ मोहै ॥ बाटि घाटि ग्रिहि बनि बनि जोहै ॥ मनि तनि लागै होइ कै मीठी ॥ गुर प्रसादि मै खोटी डीठी ॥२॥ पद्अर्थ: सुंदरि = सुंदरी, मोहनी। बाटि = रास्ते में। घटि = घाट पे, पत्तन पे। ग्रिहि = घर मे। बनि = बन में। जोहै = देखती है। मनि = मन में। तनि = तन में, दिल में। प्रसादि = कृपा से।2। अर्थ: (हे भाई! ये माया) ऐसी सुन्दर है कि (मनुष्य के) मन को (तुरन्त) मोह लेती है। रास्ते में (चलते हुए) पत्तन से (गुजरते हुए) घर में (बैठे हुए) जंगल-जंगल में (भटकते हुए भी ये मन को मोहने के लिए) ताक लगाए रखती है। मीठी बन के ये मन में तन में आ चिपकती है। पर मैंने गुरु की कृपा से देख लिया है कि ये बड़ी खोटी है।2। अगरक उस के वडे ठगाऊ ॥ छोडहि नाही बाप न माऊ ॥ मेली अपने उनि ले बांधे ॥ गुर किरपा ते मै सगले साधे ॥३॥ पद्अर्थ: अगरक = आगे आगे चलने वाले, चौधरी, मुसाहब। ठगाऊ = ठग। उनि = उन (चौधरियों) ने। साधे = काबू कर लिए।3। अर्थ: (हे भाई! कामादिक) उस माया के मुहासब (भी) बड़े ठग हैं, माँ हो पिता हो किसी को भी ठगने से नहीं बख्शते। जिस-जिस ने इनके साथ मेल-मुलाकात रखी, उनको इन चौधरियों ने अच्छी तरह बांध लिया, पर मैंने गुरु की कृपा से इन सभी को काबू कर लिया है।3। अब मोरै मनि भइआ अनंद ॥ भउ चूका टूटे सभि फंद ॥ कहु नानक जा सतिगुरु पाइआ ॥ घरु सगला मै सुखी बसाइआ ॥४॥३६॥८७॥ पद्अर्थ: मोरै मनि = मेरे मन में। सभि = सारे। फंद = फाहे, जाल।4। अर्थ: हे नानक! जब से मुझे सतिगुरु मिल गए हैं तब से अब मेरे मन में आनंद बना रहता है (मेरे अंदर से इन कामादिक चौधरियों का) डर-भय उतर गया है इनके डाले हुए सारे जाल टूट गए हैं। मैंने अब अपना सारा घर सुखी बसा लिया है (मेरी सारी ज्ञान-इंद्रिय वाला परिवार इनकी मार से बच के आत्मिक आनंद ले रहा है)।4।36।87। आसा महला ५ ॥ आठ पहर निकटि करि जानै ॥ प्रभ का कीआ मीठा मानै ॥ एकु नामु संतन आधारु ॥ होइ रहे सभ की पग छारु ॥१॥ पद्अर्थ: निकटि = नजदीक। मानो = मानता है। संतन = संतों का। आधारु = आसरा। पग = पैर। छारु = स्वाह, धूल।1। अर्थ: परमात्मा का भक्त परमात्मा को आठों पहर अपने नजदीक बसता समझता है, जो कुछ परमात्मा करता है उसको मीठा करके मानता है। (हे भाई!) परमात्मा का नाम ही संत-जनों (की जिंदगी) का आसरा (बना रहता) है। संत-जन सबके पैरों की धूल बने रहते हैं।1। संत रहत सुनहु मेरे भाई ॥ उआ की महिमा कथनु न जाई ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: रहत = जीवन जुगति, रहिणी। उआ की = उस (रहनी) की। महिमा = उपमा।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे भाई! (परमात्मा के) संत की जीवन-जुगति सुन (उसका जीवन इतना ऊँचा है कि) उसका बड़प्पन बयान नहीं किया जा सकता।1। रहाउ। वरतणि जा कै केवल नाम ॥ अनद रूप कीरतनु बिस्राम ॥ मित्र सत्रु जा कै एक समानै ॥ प्रभ अपुने बिनु अवरु न जानै ॥२॥ पद्अर्थ: वरतणि = रोज का आहर। जा कै = जिसके हृदय में। अनद रूप कीरतनु = आनंद स्वरूप प्रभु की महिमा। बिस्राम = टेक, सहारा। सत्र = शत्रु। समान = बराबर।2। अर्थ: (हे भाई! संत वह है) जिसके हृदय में सिर्फ हरि स्मरण का ही आहर टिका रहता है, सदा आनंद में रहने वाले परमात्मा की महिमा ही (संत की जिंदगी का) सहारा है। (हे भाई! संत वह है) जिसे मित्र और शत्रु एक ही जैसे (मित्र ही) लगते हैं (क्योंकि संत सब जीवों में) अपने प्रभु के बिना किसी और को (बसता) नहीं समझता।2। कोटि कोटि अघ काटनहारा ॥ दुख दूरि करन जीअ के दातारा ॥ सूरबीर बचन के बली ॥ कउला बपुरी संती छली ॥३॥ पद्अर्थ: अघ = पाप। काटनहार = काटने की ताकत वाला। जीअ के दातार = आत्मिक जीवन देने वाले। सूरबीर = सूरमे। बली = बलवान, बहादुर। कउला = माया। बपुरी = बिचारी। संती = संतों ने। छली = वश में कर ली।3। अर्थ: (हे भाई! परमात्मा का संत औरों के) करोड़ों ही पाप दूर करने की ताकत रखता है। (हे भाई!) परमात्मा के संत (दूसरों के) दुख दूर करने के योग्य हो जाते हैं वह (लोगों को) आत्मिक जीवन देने की सामर्थ्य रखते हैं। (प्रभु के संत विकारों के मुकाबले में) शूरवीर होते हैं, किए वचनों की पालना करते हैं। (संतों की निगाह में ये माया भी बेचारी से प्रतीत होती है) इस बेचारी माया को संतों ने अपने वश में कर लिया होता है।3। ता का संगु बाछहि सुरदेव ॥ अमोघ दरसु सफल जा की सेव ॥ कर जोड़ि नानकु करे अरदासि ॥ मोहि संतह टहल दीजै गुणतासि ॥४॥३७॥८८॥ पद्अर्थ: ता का = उस (संत) का। बाछहि = चाहते हैं। सुरदेव = आकाशीय देवते। अमोघ = व्यर्थ ना जाने वाला। सफल = फल देने वाली। कर = (दोनों) हाथ। जोड़ि = जोड़ के। मोहि = मुझे। गुणतासि = हे गुणों के खजाने हरि!।4। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के संत का मिलाप आकाशी देवते भी तलाश्ते रहते हैं। संत का दर्शन व्यर्थ नहीं जाता, संत की सेवा जरूर फल देती है। (हे भाई!) नानक (दोनों) हाथ जोड़ के अरजोई करता है: हे गुणों के खजाने प्रभु! मुझे संत जनों की सेवा की दाति बख्श।4।37।88। आसा महला ५ ॥ सगल सूख जपि एकै नाम ॥ सगल धरम हरि के गुण गाम ॥ महा पवित्र साध का संगु ॥ जिसु भेटत लागै प्रभ रंगु ॥१॥ पद्अर्थ: सगल = सारे। जपि = जप के। एकै = एक (परमात्मा) का। गाम = गाना। साध का संगु = गुरमुखि की संगति। जिसु = जिस (गुरमुख) को। भेटत = मिल के। रंगु = प्रेम।1। अर्थ: (हे भाई!) गुरु की संगति बहुत पवित्र करने वाली है, गुरु को मिलने से परमात्मा का प्रेम (दिल में) पैदा हो जाता है, (गुरु की संगति में रह के) परमात्मा का नाम जपके सारे सुख प्राप्त हो जाते हैं। (हे भाई!) परमात्मा की महिमा करने में ही और सारे धर्म आ जाते हैं।1। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |