श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 391 आसा महला ५ ॥ ना ओहु मरता ना हम डरिआ ॥ ना ओहु बिनसै ना हम कड़िआ ॥ ना ओहु निरधनु ना हम भूखे ॥ ना ओसु दूखु न हम कउ दूखे ॥१॥ पद्अर्थ: ओहु = वह परमात्मा। हम = हम (उसी की ही अंश) जीव। कढ़िआ = चिन्ता फिक्र करते हुए। निरधनु = कंगाल।1। अर्थ: (हे भाई! हम जीवोंकी परमात्मा से अलग कोई हस्ती नहीं। वह स्वयं ही जीवात्मा-रूप में शरीरों के अंदर बरत रहा है) वह परमात्मा कभी मरता नहीं (हमारे अंदर भी वह स्वयं ही है) हमें भी मौत से डर नहीं होना चाहिए। वह परमात्मा कभी नाश नहीं होता, हमें भी (विनाश की) कोई चिन्ता नहीं होनी। वह प्रभु कंगाल नहीं है, हम भी अपने आप को भूखे-गरीब ना समझें। उसे कोई दुख नहीं छूता, हमें भी कोई दुख नहीं छूना चाहिए।1। अवरु न कोऊ मारनवारा ॥ जीअउ हमारा जीउ देनहारा ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मारनवारा = मारने की सामर्थ्य वाला। जीअउ = जीतारहे। जीउ देनहारा = जिंद देने वाला।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) जीता रहे हमें जिंद देने वाला परमात्मा (परमात्मा स्वयं सदा कायम रहने वाला है, वही हम जीवों को जिंद देने वाला है, और) उसके बिना और कोई हमें मारने कीताकत नहीं रखता।1। रहाउ। ना उसु बंधन ना हम बाधे ॥ ना उसु धंधा ना हम धाधे ॥ ना उसु मैलु न हम कउ मैला ॥ ओसु अनंदु त हम सद केला ॥२॥ पद्अर्थ: धाधे = धंधों में ग्रसे हुए। केला = खुशियां।2। अर्थ: उस परमात्मा को माया के बंधन जकड़ नहीं सकते (इस वास्ते असल में) हम भी माया के मोह में बंधे हुए नहीं हैं। उसे कोई मायावी दौड़-भाग ग्रस नहीं सकती, हम भी धंधों में ग्रसे हुए नहीं हैं। (हमारे असल) उस परमात्मा को विकारों की मैल नहीं लग सकती, हमें भी मैल नहीं लगनी चाहिए। उसे सदा आनंद ही आनंद है, हम भी सदा (आनंद में) खिले ही रहें।2। ना उसु सोचु न हम कउ सोचा ॥ ना उसु लेपु न हम कउ पोचा ॥ ना उसु भूख न हम कउ त्रिसना ॥ जा उहु निरमलु तां हम जचना ॥३॥ पद्अर्थ: सोचु = चिन्ता-फिक्र। पोचा = माया का प्रभाव। जचना = पूजने योग्य,पवित्र।3। अर्थ: (हे भाई!) उस परमात्मा को चिन्ता-फिक्र नहीं व्याप्तता (हमारे अंदरवह स्वयं ही है) हमें भी कोई फिक्र नहीं होना चाहिए। उस पर माया का कोई प्रभाव नहीं पड़ता, फिर हमारे ऊपर क्यों पड़े? उस परमात्मा को माया का मालिक नहीं दबा सकता, हमें भी माया की तृष्णा नहीं व्यापनी चाहिए। जब वह परमात्मा पवित्र-स्वरूप है (वही हमारे अंदर मौजूद है) तो हम भी शुद्ध स्वरूप ही होने चाहिए।3। हम किछु नाही एकै ओही ॥ आगै पाछै एको सोई ॥ नानक गुरि खोए भ्रम भंगा ॥ हम ओइ मिलि होए इक रंगा ॥४॥३२॥८३॥ पद्अर्थ: आगै पाछै = लोक परलोक में। गुरि = गुरु ने। भंगा = विघन। ओइ = उस में।4। अर्थ: (हे भाई!) हमारा कोई अलग अस्तित्व नहीं है (सब में) वह परमात्मा स्वयं ही स्वयं है। इस लोक में और परलोक में हर जगह वह परमात्मा खुद ही खुद है। हे नानक! जब गुरु ने (हमारे अंदर से हमारी निहित अलग हस्ती के) भ्रम दूर कर दिए जो (हमारे उससे एक-रूप होने के राह में) विघन (डाल रहे हैं), तब हम उस (परमात्मा से) मिल के उस से एक-मेक हो जाते हैं।4।32।83। आसा महला ५ ॥ अनिक भांति करि सेवा करीऐ ॥ जीउ प्रान धनु आगै धरीऐ ॥ पानी पखा करउ तजि अभिमानु ॥ अनिक बार जाईऐ कुरबानु ॥१॥ पद्अर्थ: भांति = तरीका। करीऐ = करनी चाहिए। जीउ = जिंद! करउ = मैं करूँ। तजि = त्याग के।1। अर्थ: हे माँ! (प्रभु को प्यारी हो चुकी सत्संगी जीव-स्त्री की) सेवा अनेक प्रकार से करनी चाहिए। ये जिंद ये प्राण और (अपना) धन (सब कुछ) उसके आगे रख देना चाहिए (उस जीव-स्त्री से) अनेक बार सदके होना चाहिए। (हे माँ! अगर मेरे पर कृपा हो तो) मैं भी अहंकार त्याग के उसका पानी ढोने और उसको पंखा करने की सेवा करूँ।1। साई सुहागणि जो प्रभ भाई ॥ तिस कै संगि मिलउ मेरी माई ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: साई = वही (जीव-स्त्री)। सुहागणि = सुहागनि, पति प्रभु वाली। भाई = अच्छी लगी। माई = हे माँ!।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरी माँ! जो जीव-स्त्री प्रभु-पति को प्यारी लग जाती है वही सुहागन बन जाती है। (अगर मेरे पर मेहर हो, अगर मेरे भाग्य जागें तो) मैं भी उस सुहागनि की संगति में मिल के बैठूँ।1। रहाउ। दासनि दासी की पनिहारि ॥ उन्ह की रेणु बसै जीअ नालि ॥ माथै भागु त पावउ संगु ॥ मिलै सुआमी अपुनै रंगि ॥२॥ पद्अर्थ: दासनि दासी = दासियों की दासी। पनिहारि = पानी भरने वाली। उन्ह की = उस सुहागिनों की, उन सत्संगियों की। रेणु = चरण धूल। जीअ नालि = जिंद के साथ। माथै = माथे पर। संगु = साध, संगत। रंगि = प्रेम रंग में।2। अर्थ: हे माँ! मेरे माथे पर (पूर्बले कर्मों के) भाग्य जाग पड़ें तो मैं उन सुहागिनों की संगति हासिल करूँ, उनकी दासियों की पानी ढोने वाली बनूँ, उन सुहागनों की चरण-धूल मेरी जिंद के साथ टिकी रहे। (हे माँ! सुहागनों की संगत के सदके ही) पति-प्रभु अपने प्रेम रंग में आ के मिल पड़ता है।2। जाप ताप देवउ सभ नेमा ॥ करम धरम अरपउ सभ होमा ॥ गरबु मोहु तजि होवउ रेन ॥ उन्ह कै संगि देखउ प्रभु नैन ॥३॥ पद्अर्थ: देवउ = मैं दे दूँ, देऊँ। अरपउ = मैं भेट कर दूँ। गरबु = अहंकार। रेन = चरण धूल। नैन = आँखों से। होमा = हवनकुण्ड।3। अर्थ: (लोग देवताओं आदि को वश में करने के लिए कई मंत्रों आदि के जाप करते हैं। कई जंगलों में जा के धूड़ियां तपाते हैं, एवं अनेक किस्म के साधन करते हैं। कई लोग तीर्थ-स्नान आदि निहित धार्मिक कर्म करते हैं, यज्ञ-हवन आदि करते हैं। पर, हे माँ! उन सुहागिनों की संगत के बदले में) मैं सारे जाप, सारे ताप व अन्य सारे साधन देने को तैयार हूँ, सारे (निहित) धार्मिक कर्म, सारे यज्ञ-हवन भेट करने को तैयार हूँ। (मेरी ये तमन्ना है कि) अहंकार छोड़ के, मोह त्याग के मैं उन सुहागिनों की चरण-धूल बन जाऊँ (क्योंकि, हे माँ!) उन सुहागिनों की संगति में रह के ही मैं प्रभु-पति को इन आँखों से देख सकूँगी।3। निमख निमख एही आराधउ ॥ दिनसु रैणि एह सेवा साधउ ॥ भए क्रिपाल गुपाल गोबिंद ॥ साधसंगि नानक बखसिंद ॥४॥३३॥८४॥ पद्अर्थ: निमख = आँख झपकने जितना समय। रैणि = रात। साधउ = मै सुधार लूँ। गुपाल = धरती का पालनहार। साध संगि = साधु-संगत में। बखसिंद = मेहर करने वाला।4। अर्थ: (हे माँ!) मैं पल-पल यही मन्नत माँगती हूँ (कि मुझे उन सुहागिनों की संगति मिले और) मैं दिन-रात उनकी सेवा का साधन करती रहूँ। हे नानक! जो जीव-स्त्री साधु-संगत में जा पहुँचती है बख्शनहार गोपाल गोबिंद-प्रभु जी उस पर दयाल हो जाते हैं।4।33।84। आसा महला ५ ॥ प्रभ की प्रीति सदा सुखु होइ ॥ प्रभ की प्रीति दुखु लगै न कोइ ॥ प्रभ की प्रीति हउमै मलु खोइ ॥ प्रभ की प्रीति सद निरमल होइ ॥१॥ पद्अर्थ: लगै न = नहीं लग सकता। खोइ = नाश कर लेता है। सद = सदा। निरमल = पवित्र करने वाली।1। अर्थ: हे मित्र! (जो मनुष्य) परमात्मा की प्रीति (अपने दिल में बसाता है उसे) सदा आत्मिक आनंद मिला रहता है, (उसको) कोई दुख नहीं व्याप सकता, (वह मनुष्य अपने अंदर से) अहंकार की मैल दूर कर लेता है, (ये प्रीति उसे) सदा पवित्र जीवन वाला बनाए रखती है।1। सुनहु मीत ऐसा प्रेम पिआरु ॥ जीअ प्रान घट घट आधारु ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मीत = हे मित्र! जीअ आधारु = जिंद का आसरा। घट घट = हरेक जीव का।1। रहाउ। अर्थ: हे मित्र! सुनो, (परमात्मा के साथ डाला हुआ) प्रेम-प्यार ऐसी दाति है कि ये हरेक जीव की जिंद की, हरेक जीव के प्राणों का आसरा बन जाता है।1। रहाउ। प्रभ की प्रीति भए सगल निधान ॥ प्रभ की प्रीति रिदै निरमल नाम ॥ प्रभ की प्रीति सद सोभावंत ॥ प्रभ की प्रीति सभ मिटी है चिंत ॥२॥ पद्अर्थ: निधान = खजाने। रिदै = हृदय में। चिंत = चिन्ता।2। अर्थ: हे मित्र! (जिस मनुष्य के दिल में) परमात्मा की प्रीति (आ बसी उसको, मानो) सारे खजाने (प्राप्त) हो गए, उसके हृदय में (जीवन को) पवित्र करने वाला हरि-नाम (आ बसता है), (वह लोक परलोक में) सदा शोभा-महिमा वाला बना रहता है, उसकी हरेक किस्म की चिन्ता मिट जाती है।2। प्रभ की प्रीति इहु भवजलु तरै ॥ प्रभ की प्रीति जम ते नही डरै ॥ प्रभ की प्रीति सगल उधारै ॥ प्रभ की प्रीति चलै संगारै ॥३॥ पद्अर्थ: भवजलु = संसार समुंदर। उधारै = बचा लेता है। संगारै = साथ, संग।3। अर्थ: हे मित्र! (जिस मनुष्य के हृदय में) परमात्मा की प्रीति (आ बसती है) वह इस संसार समुंदर से पार लांघ जाता है, वह जम-दूतों से भय नहीं खाता (उसको आत्मिक मौत नहीं छू सकती। वह खुद विकारों से बचा रहता है और) अन्य सभी को (विकारों से) बचा लेता है। (हे मित्र!) परमात्मा की प्रीति (ही एक ऐसी राशि-पूंजी है जो) सदा मनुष्य का साथ देती है।3। आपहु कोई मिलै न भूलै ॥ जिसु क्रिपालु तिसु साधसंगि घूलै ॥ कहु नानक तेरै कुरबाणु ॥ संत ओट प्रभ तेरा ताणु ॥४॥३४॥८५॥ पद्अर्थ: आपहु = अपने उद्यम से। भूले = भूलता है, कुराह पड़ता है। घूलै = मिलाता है। संत = संतों को।4। अर्थ: (पर, हे मित्र! परमात्मा के साथ प्रीति जोड़नी किसी मनुष्य के अपने बस की बात नहीं) अपने उद्यम से ना कोई मनुष्य (परमात्मा के चरणों में) जुड़ा रह सकता है और ना ही कोई (विछुड़ के) कुमार्ग पर पड़ता है जिस मनुष्य पर प्रभु दयावान होता है उसे साधु-संगत में मिलाता है (और, साधु-संगत में टिक के वह परमात्मा के साथ प्यार डालना सीख लेता है)। हे नानक! कह: हे प्रभु! मैं तुझसे कुर्बान जाता हूँ, तू ही संतों की ओट है, तू ही संतों का तान-बल है।4।34।85। आसा महला ५ ॥ भूपति होइ कै राजु कमाइआ ॥ करि करि अनरथ विहाझी माइआ ॥ संचत संचत थैली कीन्ही ॥ प्रभि उस ते डारि अवर कउ दीन्ही ॥१॥ पद्अर्थ: भूपति = (भू = धरती। पति = मालिक) राजा। अनरथ = अर्नथ, धक्के, पाप। विहाझी = इकट्ठी कर ली। संचत = एकत्र करते हुए। कीनी = बना ली। प्रभि = प्रभु ने। थैली = (भाव) खजाना। डारि = सुटा के।1। अर्थ: (हे भाई! अगर किसी ने) राजा बन के राज (का आनंद भी) भोग लिया (लोगों पे) ज्यादतियां कर-कर के माल-धन भी जोड़ लिया, जोड़-जोड़ के (अगर उसने) खजाना (भी) बना लिया (तो भी क्या हुआ?) परमात्मा ने (आखिर) उससे छीन के किसी और को दे दिया (मौत के समय वह अपने साथ तो ना ले जा सका)।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |