श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 394 लाल जवेहर भरे भंडार ॥ तोटि न आवै जपि निरंकार ॥ अम्रित सबदु पीवै जनु कोइ ॥ नानक ता की परम गति होइ ॥२॥४१॥९२॥ पद्अर्थ: लाल = हीरे। भंडार = खजाने। जपि = जप के। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला जल। जनु कोइ = जो भी मनुष्य। परम गति = सबसे उच्च आत्मिक आवस्था।2। अर्थ: हे नानक! (उच्च आत्मिक जीवन वाले गुण, मानो) हीरे जवाहरात हैं, परमात्मा का नाम जप-जप के मनुष्य के अंदर इनके खजाने भर जाते हैं और कभी इनकी कमी नहीं रहती। गुरु का शब्द आत्मिक जीवन देने वाला जल (अमृत) है, जो भी मनुष्य ये नाम-जल पीता है उसकी सबसे उच्च आत्मिक अवस्था बन जाती है।2।41।92। आसा घरु ७ महला ५ ॥ हरि का नामु रिदै नित धिआई ॥ संगी साथी सगल तरांई ॥१॥ पद्अर्थ: रिदै = हृदय में। धिआई = मैं ध्याऊँ। सगल = सारे। तरांई = मैं पार लांघ जाऊँ।1। अर्थ: (हे भाई! अंग-संग बसते गुरु की ही कृपा से) मैं परमात्मा का नाम सदा अपने हृदय में ध्याता हूँ (इस तरह मैं संसार-समुंदर से पार लांघने के योग्य हो रहा हूँ) अपने संगियों-साथियों (ज्ञान-इंद्रिय) को पार लंघाने के काबिल बन रहा हूँ।1। गुरु मेरै संगि सदा है नाले ॥ सिमरि सिमरि तिसु सदा सम्हाले ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: संगि = साथ। तिसु = उस (परमात्मा) को। समाले = संभालूँ, मैं हृदय में टिका के रखूँ।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई! मेरा) गुरु सदा मेरे साथ बसता है मेरे अंग-संग रहता है (प्रभु की कृपा से) मैं उस (परमात्मा) को सदा स्मरण करके सदा अपने दिल में बसाए रखता हूँ।1। रहाउ। तेरा कीआ मीठा लागै ॥ हरि नामु पदारथु नानकु मांगै ॥२॥४२॥९३॥ पद्अर्थ: नानकु मांगै = नानक माँगता है।2। अर्थ: (हे प्रभु! ये तेरे मिलाए हुए गुरु की मेहर ही है कि) मुझे तेरा किया हुआ हरेक काम अच्छा लग रहा है और (तेरा दास) नानक तेरे से (तेरी) सबसे कीमती वस्तु तेरा नाम मांग रहा है।2।42।93। आसा महला ५ ॥ साधू संगति तरिआ संसारु ॥ हरि का नामु मनहि आधारु ॥१॥ पद्अर्थ: साधू = गुरु। मनहि = मन का। आधारु = आसरा।1। अर्थ: हे भाई! (जो भी मनुष्य निम्रता धार के गुरु की संगति करता है) गुरु की संगति की इनायत से वह संसार समुंदर से पार लांघ जाता है (क्योंकि) परमात्मा का नाम उसके मन का आसरा बना रहता है।1। चरन कमल गुरदेव पिआरे ॥ पूजहि संत हरि प्रीति पिआरे ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: चरन कमल = कमल फूल जैसे सुंदर कोमल चरण। पूजहि = पूजते हैं। पिआरे = प्यार से।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) हरि के संत जन, प्रीति से प्यार से गुरदेव के सुंदर कोमल चरण पूजते रहते हैं।1। रहाउ। जा कै मसतकि लिखिआ भागु ॥ कहु नानक ता का थिरु सोहागु ॥२॥४३॥९४॥ पद्अर्थ: मसतकि = माथे पर। सोहागु = अच्छे भाग्य। थिरु = सदा कायम रहने वाला।2। अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्य के माथे पे (पूर्बले जन्मों के कर्मों के) लिखे लेख जाग पड़ते हैं उसको मिली ये सौभाग्य (गुरु की संगति की इनायत से) सदैव कायम रहती है।2।43।94। नोट: नं: 92, 93 और 94 ये तीन शब्द दो-दो बंदों वाले हैं। आसा महला ५ ॥ मीठी आगिआ पिर की लागी ॥ सउकनि घर की कंति तिआगी ॥ प्रिअ सोहागनि सीगारि करी ॥ मन मेरे की तपति हरी ॥१॥ पद्अर्थ: पिर की = प्रभु पति की। आगिआ = रजा। सउकनि घर की = मेरे हृदय घर में बसती सौकन। सउकनि = पति के मिलाप में रोक डालने वाली माया। कंति = कंत ने। तिआगी = खलासी कर दी है। सीगारि करी = मुझे सोहणी बना दिया है। तपसि = तपश। हरी = हर ली, दूर कर दी है।1। अर्थ: (हे सखी! गुरु की कृपा से जब से) मुझे प्रभु पति की रजा मीठी लग रही है (तब से) प्रभु-पति ने मेरा हृदय-घर कब्जा करके बैठी मेरी सौतन (माया) से मेरी खलासी करा दी है। प्यारे ने सोहागनि बना के मुझे (मेरे आत्मिक जीवन को) सुंदर बना दिया है, और मेरे मन की (तृष्णा की) तपस दूर कर दी है।1। भलो भइओ प्रिअ कहिआ मानिआ ॥ सूखु सहजु इसु घर का जानिआ ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: भलो भइओ = अच्छा हुआ, मेरे भाग्य जाग पड़े। प्रिअ कहिआ = प्यारे का हुक्म। सहजु = आत्मिक अडोलता। इसु घर का = इस हृदय घर का।1। रहाउ। अर्थ: (हे सखी!) मेरे भाग्य जाग गए हैं (कि गुरु की कृपा से) मैंने प्यारे (प्रभु पति) की रजा (मीठी कर के) माननी आरम्भ कर दी है, अब मेरे इस हृदय घर में बसते सुख और आत्मिक अडोलता से मेरी गहरी सांझ बन गई है।1। रहाउ। हउ बंदी प्रिअ खिजमतदार ॥ ओहु अबिनासी अगम अपार ॥ ले पखा प्रिअ झलउ पाए ॥ भागि गए पंच दूत लावे ॥२॥ पद्अर्थ: हउ = मैं। बंदी = दासी। खिजमतदार = सेवा करने वाली। ओहु = वह प्रभु पति। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अपार = बेअंत। ले = लेकर। झलउ = मैं झलती हूँ। पाए = पैरों में (खड़े हो के)। दूत = वैरी। लावै = काटे, (आत्मिक जीवन को) काटने वाले।2। अर्थ: (हे सखी! अब) मैं प्यारे प्रभु-पति की दासी बन गई हूँ सेवादारनी बन गई हूँ। (हे सखी! मेरा) वह (पति) कभी मरने वाला नहीं, अगम्य (पहुँच से परे) और बेअंत है। (हे सखी! गुरु की कृपा से जब से) पंखा (हाथ में) पकड़ के उसके पैरों में खड़े हो के मैं उस प्यारे को झलती रहती हूँ (तब से मेरे आत्मिक जीवन की जड़ें) काटने वाले कामादिक पाँचों विकार भाग गए हैं।2। ना मै कुलु ना सोभावंत ॥ किआ जाना किउ भानी कंत ॥ मोहि अनाथ गरीब निमानी ॥ कंत पकरि हम कीनी रानी ॥३॥ पद्अर्थ: कुलु = ऊँचा खानदान। किआ जाना = मैं क्या जानूँ? किउ = किस तरह? भानी = पसंद आई। मोहि = मुझे। कंत = कंत ने। कीनी = बना ली।3। अर्थ: (हे सखी!) मेरा ना कोई ऊँचा खानदान है, ना (किसी गुण की इनायत से) मैं शोभा की मालिक हूँ, मुझे पता नहीं कि मैं कैसे प्रभु-पति को अच्छी लग रही हूँ। (हे सखी! ये गुरु पातशह ही की मेहर है कि) मुझ अनाथ को, गरीबनी को, निमाणी को, कंत प्रभु ने (बाँह से) पकड़ के अपनी रानी बना लिया है।3। जब मुखि प्रीतमु साजनु लागा ॥ सूख सहज मेरा धनु सोहागा ॥ कहु नानक मोरी पूरन आसा ॥ सतिगुर मेली प्रभ गुणतासा ॥४॥१॥९५॥ पद्अर्थ: मुखि लागा = मुंह पर लगा, दिखा, दर्शन हुए। धनु = धन्य, भाग्यशाली। मोरी = मेरी। सतिगुर = सतिगुर ने। गुणतासा = गुणों का खजाना।4। अर्थ: (हे सहेलिए! जब से) मुझे मेरा सज्जन प्रीतम मिला है, मेरे अंदर आनंद बन रहा है आत्मिक अडोलता पैदा हो गई है, मेरे भाग्य जाग पड़े हैं। हे नानक! कह: (हे सखिए! प्रभु-पति के मिलाप की) मेरी आस पूरी हो गई है, सतिगुरु ने ही मुझे गुणों के खजाने उस प्रभु से मिलाया है।4।1।95। नोट: शब्द नं: 94 से फिर चार बंदों वाले शब्द शुरू हो गए हैं। आसा महला ५ ॥ माथै त्रिकुटी द्रिसटि करूरि ॥ बोलै कउड़ा जिहबा की फूड़ि ॥ सदा भूखी पिरु जानै दूरि ॥१॥ पद्अर्थ: माथै = माथे पे। त्रिकुटी = तिउड़ी। करूरि = गुस्से भरी। फूड़ि = खरवीं।1। अर्थ: (हे भाई! उस माया-स्त्री के) माथे पे त्रिकुटी (पड़ी रहती) है उसकी निगाह गुस्से से भरी रहती है वह (सदा) कड़वा बोलती है, जीभ भी कटु है (सारे जगत के आत्मिक जीवन को हड़प करके भी) वह भूखी की भूखी रहती है (जगत में आ रहे सब जीवों को हड़पने को तैयार रहती है) वह (माया-स्त्री) प्रभु-पति को कहीं दूर बसता समझती है (प्रभु-पति की परवाह ही नहीं करती)।1। ऐसी इसत्री इक रामि उपाई ॥ उनि सभु जगु खाइआ हम गुरि राखे मेरे भाई ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: रामि = राम ने, परमात्मा ने। उपाई = पैदा की। उनि = उस (स्त्री) ने। हम = मुझे। गुरि = गुरु ने।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे भाई! परमात्मा ने (माया) एक ऐसा स्त्री पैदा की हुई है कि उसने सारे जगत को खा लिया है (अपने काबू में किया हुआ है), मुझे तो गुरु ने (उस माया स्त्री से) बचा के रखा है।1। रहाउ। पाइ ठगउली सभु जगु जोहिआ ॥ ब्रहमा बिसनु महादेउ मोहिआ ॥ गुरमुखि नामि लगे से सोहिआ ॥२॥ पद्अर्थ: ठगउरी = ठग-बूटी, वह नशीली बूटी जो खिला के ठग भोले राहगीरों को ठग लिया करते हैं। जोहिआ = ताक में दृष्टि में रखा हुआ है। मोहिआ = मोह में फसा लिया। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। नामि = नाम में। से = वह लोग। सोहिआ = सोहने बन गए।2। अर्थ: (हे भाई! माया-स्त्री ने) ठग-बूटी खिला के सारे जगत को अपनी ताक में रखा हुआ है। (जीव की भी क्या बिसात? उसने तो) ब्रहमा को, विष्णु को, शिव को अपने मोह में फंसाया हुआ है। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ के परमात्मा के नाम में जुड़े रहते हैं (उससे बच के) सोहने आत्मिक जीवन वाले बने रहते हैं।2। वरत नेम करि थाके पुनहचरना ॥ तट तीरथ भवे सभ धरना ॥ से उबरे जि सतिगुर की सरना ॥३॥ पद्अर्थ: क्रि = कर के। पुनह चरना = पुनह आचरण, प्रायश्चित, पछतावे के तौर पर किए हुए धार्मिक कर्म। तट = नदी का किनारा। धरना = धरती। उबरे = (माया के पंजे से) बचे। जि = जो।3। अर्थ: (हे भाई! अनेक लोग) व्रत रख-रख के धार्मिक नियम निबाह-निबाह के और (किए पापों के प्रभाव मिटाने के लिए) पछतावे के तौर पर धार्मिक रस्में कर-कर के थक गए, अनेक तीर्थों पर सारी धरती पर भटक चुके (पर इस माया-स्त्री से ना बच सके)। (हे भाई!) सिर्फ वही लोग बचते हैं जो गुरु की शरण पड़ते हैं।3। माइआ मोहि सभो जगु बाधा ॥ हउमै पचै मनमुख मूराखा ॥ गुर नानक बाह पकरि हम राखा ॥४॥२॥९६॥ पद्अर्थ: मेहि = मोह में। पचै = ख्वार होता है। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला। गुर = हे गुरु! 4। अर्थ: (हे भाई!) सारा जगत माया के मोह में बंधा पड़ा है। अपने मन के पीछे चलने वाला मूर्ख मनुष्य अहंकार में दुखी होता रहता है। हे नानक! (कह:) हे गुरु! मुझे तूने ही मेरी बाँह पकड़ के (इसके पँजे से) बचाया है।4।2।96। आसा महला ५ ॥ सरब दूख जब बिसरहि सुआमी ॥ ईहा ऊहा कामि न प्रानी ॥१॥ पद्अर्थ: सरब = सारे। बिसरहि = तू बिसरता है। सुआमी = हे स्वामी! ईहा = इस लोक में। ऊहा = परलोक में। कामि न = किसी काम नहीं आता।1। अर्थ: हे मालिक प्रभु! जब (किसी जीव के मन में से) तू बिसर जाता है तो उसे सारे दुख आ घेरते हैं, वह जीव लोक-परलोक में किसी काम नहीं आता (उसका जीवन व्यर्थ हो जाता है)।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |