श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 396 आसा महला ५ ॥ सतिगुर साचै दीआ भेजि ॥ चिरु जीवनु उपजिआ संजोगि ॥ उदरै माहि आइ कीआ निवासु ॥ माता कै मनि बहुतु बिगासु ॥१॥ पद्अर्थ: साचै = सदा कायम रहने वाले परमात्मा ने। चिरुजीवनु = अटल आत्मिक जीवन। संजोगि = (गुरु की) संगत से। उदरै माहि = (माँ के) पेट में। कै मनि = के मन में। बिगासु = खुशी।1। अर्थ: (हे भाई!) सदा कायम रहने वाले परमात्मा ने गुरु (नानक) को (जगत में) भेजा है उसकी संगति (की इनायत) से (सिखों के दिल में) अटल आत्मिक जीवन पैदा हो रहा है। (हे भाई! जैसे जब माँ के) पेट में (बच्चा) आ निवास करता है तो माँ के मन में बहुत खुशी पैदा होती है (वैसे ही सिख के अंदर अटल आत्मिक जीवन आनंद पैदा करता है)।1। जमिआ पूतु भगतु गोविंद का ॥ प्रगटिआ सभ महि लिखिआ धुर का ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: पूतु = (परमात्मा का) पुत्र। सभ महि = सब जीवों के अंदर। प्रगटिआ = प्रगट हो पड़ा, जाग गया। लिखिआ धुर का = (जीवों के किए कर्मों अनुसार) धुर दरगाह का लिखा (संस्कार रूपी) लेख। रहाउ। अर्थ: (हे भाई! गुरु नानक) परमात्मा का भक्त पैदा हुआ (परमात्मा का) पुत्र पैदा हुआ (उसकी इनायत से उसकी शरण आने वाले) सारे जीवों के अंदर धुर-दरगाह के (सेवा-भक्ति के) लेख अंकुरित हो रहे हैं। रहाउ। दसी मासी हुकमि बालक जनमु लीआ ॥ मिटिआ सोगु महा अनंदु थीआ ॥ गुरबाणी सखी अनंदु गावै ॥ साचे साहिब कै मनि भावै ॥२॥ पद्अर्थ: दसी मासी = दस महीनों में। हुकमि = (परमात्मा के) हुक्म अनुसार। सोगु = चिन्ता फिक्र। सखी = जो सखी, जो सत्संगी। भावै = प्यारा लगता है।2। अर्थ: (हे भाई! जैसे जिस घर में) परमात्मा के हुक्म अनुसार दसवें महीने पुत्र पैदा होता है (तो उस घर में से) ग़म मिट जाता है और बड़ा उत्साह होता है; (वैसे ही जो सत्संगी) सहेली गुरु की महिमा की वाणी गाती है वह आत्मिक आनंद पाती है और वह सदा स्थिर रहने वाले प्रभु के मन को प्यारी लगती है।2। वधी वेलि बहु पीड़ी चाली ॥ धरम कला हरि बंधि बहाली ॥ मन चिंदिआ सतिगुरू दिवाइआ ॥ भए अचिंत एक लिव लाइआ ॥३॥ पद्अर्थ: वेलि = गुरसिखी वाली बेल। पीढ़ी = वंश, कुल। कला = ताकत, सत्ता। बंधि = बांध के, पक्की करके। बहाली = टिका दी। मन चिंदिआ = मन इच्छित (फल)। अचिंत = बेफिक्र।3। अर्थ: (हे भाई! जो भाग्यशाली मनुष्य गुरु की संगति की इनायत से) एक परमात्मा में तवज्जो जोड़ते हैं वे चिन्ता से रहित हो जाते हैं सतिगुरु उन्हें मन-इच्छित फल देता है, गुरु उन गुरसिखों में परमात्मा की धर्म-सत्ता पक्की करके टिका देता है, ये गुरसिख ही (गुरु की परमात्मा की) बढ़ रही बेल हैं, चल रही पीढ़ी हैं।3। जिउ बालकु पिता ऊपरि करे बहु माणु ॥ बुलाइआ बोलै गुर कै भाणि ॥ गुझी छंनी नाही बात ॥ गुरु नानकु तुठा कीनी दाति ॥४॥७॥१०१॥ पद्अर्थ: बोलै = बोलता है। कै भाणि = के भाणे में (चल के)। गुझी छंनी = छुपी हुई।4। नोट: पुत्र के जन्म का दृष्टांत दे के गुरु की शरण से प्राप्त हुए सुख का वर्णन किया गया है। अर्थ: (हे भाई!) अब ये कोई लुकी-छिपी बात नहीं है (हर कोई जानता है कि जिस मनुष्य पर) गुरु नानक दयावान होता है (जिसे नाम की) दाति देता है वह जो कुछ बोलता है गुरु का प्रेरित हुआ गुरु की रजा में ही बोलता है (वह अपने गुरु पर यूँ गर्व करता है) जैसे कोई पुत्र अपने पिता पर माण करता है (वह सिख गुरु से सहायता की उम्मीद भी वैसे ही रखता है जैसे पुत्र पिता से)।4।7।101। आसा महला ५ ॥ गुर पूरे राखिआ दे हाथ ॥ प्रगटु भइआ जन का परतापु ॥१॥ पद्अर्थ: पूरा = सब गुणों से भरपूर। दे = दे के। जन = सेवक।1। अर्थ: (हे भाई!) जिस सेवक को पूरा गुरु अपना हाथ दे के (विकार आदि से बचा के) रखता है उसकी शोभा-उपमा (सारे जगत में) प्रगट हो जाती है।1। गुरु गुरु जपी गुरू गुरु धिआई ॥ जीअ की अरदासि गुरू पहि पाई ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: जपी = मैं जपता हूँ। धिआई = मैं ध्याता हूँ। जीअ की = जिंद की। पहि = पास, से। पाई = मैं पाता हूँ। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) मैं सदा गुरु को ही याद करता हूँ; सदा गुरु का ही ध्यान धरता हूं। गुरु से ही मैं अपने मन की मांगी हुई जरूरतें हासिल करता हूँ। रहाउ। सरनि परे साचे गुरदेव ॥ पूरन होई सेवक सेव ॥२॥ पद्अर्थ: साचे गुरदेव सरन = सदा कायम रहने वाले परमात्मा के रूप सतिगुरु की शरण। पूरन = सफल।2। अर्थ: (हे भाई!) जो सेवक सदा स्थिर प्रभु के रूप सतिगुरु का आसरा लेते हैं उनकी सेवा (की मेहनत) सफल हो जाती है।2। जीउ पिंडु जोबनु राखै प्रान ॥ कहु नानक गुर कउ कुरबान ॥३॥८॥१०२॥ पद्अर्थ: जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। नानक = हे नानक! कउ = को।3। अर्थ: हे नानक! कह: (हे भाई!) अपना आप गुरु के हवाले कर देना चाहिए (गुरु, शरण पड़े सेवक की) जिंद को, शरीर को, जोबन को, प्राणों को (विकार आदि से) बचा के रखता है।3।8।102। आसा घरु ८ काफी महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ मै बंदा बै खरीदु सचु साहिबु मेरा ॥ जीउ पिंडु सभु तिस दा सभु किछु है तेरा ॥१॥ पद्अर्थ: बंदा = गुलाम। बै खरीद = मूल्य दे के खरीदा हुआ। सचु = सदा कायम रहने वाला। साहिबु = मालिक। जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर।1। नोट: ‘तिस का’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ की मात्रा ‘का’ संबंधक के कारण गायब है। अर्थ: हे भाई! मेरा मालिक सदा कायम रहने वाला है, मैं उसका मूल्य खरीदा ग़ुलाम हूँ। मेरी ये जिंद, मेरा ये शरीर सब कुछ उस मालिक प्रभु का ही दिया हुआ है। हे प्रभु! मेरे पास जो कुछ भी है सब तेरा ही बख्शा हुआ है।1। माणु निमाणे तूं धणी तेरा भरवासा ॥ बिनु साचे अन टेक है सो जाणहु काचा ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: धणी = मालिक। अन = अन्य। काचा = कच्चे जीवन वाला कमजोर जीवन वाला।1। रहाउ। अर्थ: हे प्रभु! मुझ निमाणे का तू ही माण है, मुझे तेरा ही भरोसा है। (हे भाई! जिस मनुष्य को) सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के बिना कोई और झाक टिकी रहे, तो समझो कि वह अभी कमजोर जीवन वाला है।1। रहाउ। तेरा हुकमु अपार है कोई अंतु न पाए ॥ जिसु गुरु पूरा भेटसी सो चलै रजाए ॥२॥ पद्अर्थ: अपार = जिसका दूसरा छोरना मिल सके, बेअंत। भेटसी = मिलेगा, मिलता है। रजाए = रजा में।2। अर्थ: हे प्रभु! तेरा हुक्म बेअंत है, कोई जीव तेरे हुक्म का अंत नहीं पा सकता, (तेरी मेहर से) जिस मनुष्य को गुरु मिल जाता है, वह तेरे हुक्म में चलता है।2। चतुराई सिआणपा कितै कामि न आईऐ ॥ तुठा साहिबु जो देवै सोई सुखु पाईऐ ॥३॥ पद्अर्थ: कितै कामि = किसी काम में। तुठा = प्रसन्न हुआ।3। अर्थ: (हे भाई! सुखों की खातिर मनुष्य अनेक) चतुराईआं और समझदारियां (करता है, पर कोई समझदारी, कोई चतुराई) किसी काम नहीं आती; वही सुख प्राप्त किया जा सकता है जो सुख मालिक प्रभु खुद प्रसन्न हो के देता है।3। जे लख करम कमाईअहि किछु पवै न बंधा ॥ जन नानक कीता नामु धर होरु छोडिआ धंधा ॥४॥१॥१०३॥ पद्अर्थ: कमाईअहि = कमाए जाएं। करम = निहित धार्मिक कर्म। बंधा = बंधन, रोक। धर = आसरा।4। अर्थ: (हे भाई! दुनियां में सुख-दुखों का चक्कर चलता रहता है, दुखों की निर्वित्ती के वास्ते) अगर लाखों ही (निहित धार्मिक) कर्म किए जाएं तो भी (दुखों की राह में) कोई रोक नहीं पड़ सकती। हे दास नानक! (कह:) मैंने तो परमात्मा के नाम को ही आसरा बनाया है, और (सुखों की खातिर) और दौड़-भाग छोड़ दी है।4।1।103। नोट: आसा घरु ८ काफी; यहाँ से उन शबदों का संग्रह आरम्भ होता है जो आठवें घर में गाए गए हैं, और, काफी एक रागिनी का नाम है। आसा महला ५ ॥ सरब सुखा मै भालिआ हरि जेवडु न कोई ॥ गुर तुठे ते पाईऐ सचु साहिबु सोई ॥१॥ पद्अर्थ: सरब सुखा = सारे सुखों को। हरि जेवडु = हरि मिलाप जितना सुख। तुठा = प्रसन्न हुआ हुआ। ते = से। सचु = सदा कायम रहने वाला।1। अर्थ: (हे भाई!) मैंने (दुनिया के) सारे सुखों को खोज के देखा है परमात्मा के मिलाप के बराबर का और कोई सुख नहीं है। और, वह सदा कायम रहने वाला मालिक-परमात्मा प्रसन्न हुए गुरु के द्वारा ही मिल सकता है।1। बलिहारी गुर आपणे सद सद कुरबाना ॥ नामु न विसरउ इकु खिनु चसा इहु कीजै दाना ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: बलिहारी = सदके। न विसरउ = मैं ना भुलाऊूं। चसा = पल का तीसरा हिस्सा, बहुत थोड़ा समय।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) मैं अपने गुरु से सदा सदके होता हूँ सदा कुर्बान जाता हूँ (मैं गुरु के पास अरजोई करता हूँ-हे गुरु!) मुझे ये दान दे कि मैं परमात्मा का नाम एक छिन वास्ते भी एक पल वास्ते भी ना भुलाऊँ।1। रहाउ। भागठु सचा सोइ है जिसु हरि धनु अंतरि ॥ सो छूटै महा जाल ते जिसु गुर सबदु निरंतरि ॥२॥ पद्अर्थ: भागठु = भाग्यों वाले, धनाड। जिसु अंतरि = जिस के हृदय में। छुटै = बचता है। जिस निरंतरि = जिसके अंदर सदा ही।2। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का नाम-धन बसता हो वही (असल) शाहूकार है, जिस मनुष्य के अंदर गुरु का शब्द एक-रस टिका रहे वह मनुष्य (माया के मोह के) बड़े जाल (में फंसने) से बचा रहता है।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |