श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 398 जिस नो मंने आपि सोई मानीऐ ॥ प्रगट पुरखु परवाणु सभ ठाई जानीऐ ॥३॥ पद्अर्थ: मंने = आदर देता है। सोई = वही मनुष्य। मानीऐ = माना जाता है, (हर जगह) आदर पाता है। जानीऐ = जाना जाता है, मशहूर हो जाता है।3। अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य को परमात्मा स्वयं आदर देता है वह (हर जगह) आदर पाता है, वह मनुष्य (लोक-परलोक में) सब जगह प्रसिद्ध हो जाता है। वह मशहूर हो चुका हर जगह जाना-माना जाता है।3। दिनसु रैणि आराधि सम्हाले साह साह ॥ नानक की लोचा पूरि सचे पातिसाह ॥४॥६॥१०८॥ पद्अर्थ: रैणि = रात। आराधि = आराधना करके। समाले = हृदय में बसाए रखे। लोचा = तमन्ना। पूरि = पूरी कर। सचे = हे सदा स्थिर रहने वाले!।4। अर्थ: हे (मेरे) सदा कायम रहने वाले पातशाह! (मेरी) नानक की ये तमन्ना पूरी कर (कि नानक) दिन-रात तेरी आराधना करके तुझे स्वास-स्वास (अपने) हृदय में बसाए रखे।4।6।108। आसा महला ५ ॥ पूरि रहिआ स्रब ठाइ हमारा खसमु सोइ ॥ एकु साहिबु सिरि छतु दूजा नाहि कोइ ॥१॥ पद्अर्थ: पूरि रहिआ = व्यापक है, मौजूद है। स्रब ठाइ = सब जगह में। सोइ = वह (परमात्मा)। सिरि = सिर पे। छत्रु = छत्र।1। अर्थ: (हे भाई!) हमारा वह खसम-सांई हरेक जगह व्यापक है, (सब जीवों का वह) एक ही मालिक है (सारी सृष्टि की बादशाहियत का) छत्र (उसके) सिर पर है, उसके बराबर और कोई नहीं।1। जिउ भावै तिउ राखु राखणहारिआ ॥ तुझ बिनु अवरु न कोइ नदरि निहारिआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: राखणहारिआ = हे रक्षा करने की सामर्थ्य रखने वाले! नदरि = निगाह। निहालिआ = देखा।1। रहाउ। अर्थ: हे सब जीवों की रक्षा करने में समर्थ प्रभु! जैसे तुझे ठीक लगे, उसी तरह मेरी रक्षा कर। मैंने तेरे बिना अभी तक कोई अपनी आँखो से नहीं देखा जो तेरे जैसा हो।1। रहाउ। प्रतिपाले प्रभु आपि घटि घटि सारीऐ ॥ जिसु मनि वुठा आपि तिसु न विसारीऐ ॥२॥ पद्अर्थ: प्रतिपाले = पालना करता है। घटि घटि = हरेक शरीर में। सारीऐ = सारे, सार लेता है। मनि = मन में। वुठा = आ बसा। विसारीऐ = बिसारता है, भुलाता।2। अर्थ: (हे भाई!) हरेक शरीर में बैठा प्रभु हरेक की सार लेता है, हरेक की पालना करता है। जिस मनुष्य के मन में वह प्रभु स्वयं बसता है, उसे कभी फिर भुलाता नहीं।2। जो किछु करे सु आपि आपण भाणिआ ॥ भगता का सहाई जुगि जुगि जाणिआ ॥३॥ पद्अर्थ: आपण भाणा = अपनी रजा अनुसार। सहाई = मददगार। जुगि जुगि = हरेक युग में।3। अर्थ: (हे भाई! जगत में) जो कुछ कर रहा है परमात्मा स्वयं ही अपनी रजा अनुसार कर रहा है, (जगत में) ये बात प्रसिद्ध है कि हरेक युग में परमात्मा अपने भक्तों की सहायता करता आ रहा है।3। जपि जपि हरि का नामु कदे न झूरीऐ ॥ नानक दरस पिआस लोचा पूरीऐ ॥४॥७॥१०९॥ पद्अर्थ: जपि = जप के। न झूरीऐ = चिन्ता फिक्र नहीं करते। लोचा = चाहत। पूरीऐ = पूरी कर।4। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम जप-जप के फिर कभी किसी किस्म की कोई चिन्ता नहीं करनी पड़ती। (हे प्रभु! तेरे दास) नानक को तेरे दर्शन की प्यास है (नानक की ये) चाहत पूरी कर।4।7।109। आसा महला ५ ॥ किआ सोवहि नामु विसारि गाफल गहिलिआ ॥ कितीं इतु दरीआइ वंञन्हि वहदिआ ॥१॥ पद्अर्थ: किआ सोवहि = तू क्यों सो रहा है? विसारि = भुला के। गाफल = हे गाफल! गहिलिआ = हे गहिले! हे बेपरवाह! कितीं = कितने ही, अनेक जीव। इतु = इस में। दरीआइ = (संसार) दरिया में। वंञन्हि = जा रहे हैं। वहदिया = बहते हुए।1। अर्थ: हे गाफ़ल मन! हे बेपरवाह मन! परमात्मा का नाम भुला के क्यूँ (माया के मोह की नींद में) सो रहा है? (देख, नाम बिसार के) अनेक ही जीव इस (संसार-) नदी में बहते जा रहे हैं।1। बोहिथड़ा हरि चरण मन चड़ि लंघीऐ ॥ आठ पहर गुण गाइ साधू संगीऐ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: बोहिथड़ा = सोहना जहाज। मन = हे मन! चढ़ि = चढ़ के। साधू संगीऐ = गुरु की संगति में।1। रहाउ। अर्थ: हे (मेरे) मन! परमात्मा के चरण एक सुंदर सा जहाज हैं; (इस जहाज में) चढ़ के (संसार समुंदर से पार) लांघ जाते हैं (इस वास्ते, हे मन!) गुरु की संगति में रहके आठों पहर प्रमात्मा के गुण गाता रहा कर।1। रहाउ। भोगहि भोग अनेक विणु नावै सुंञिआ ॥ हरि की भगति बिना मरि मरि रुंनिआ ॥२॥ पद्अर्थ: भोगहि = (जीव) भोगते हैं। सुंञिआ = सूने, आत्मिक जीवन से खाली। मरि मरि = आत्मिक मौत सहेड़ के। रुंनिआ = दुखी होते हैं।2। अर्थ: (हे मन! मोह की नींद में सोए हुए जीव दुनिया के) अनेक भोग भोगते रहते हैं, पर परमात्मा के नाम के बिना आत्मिक जीवन से खाली ही रह जाते हैं। परमात्मा की भक्ति के बिना (ऐसे जीव) सदा आत्मिक मौत पा पा के दुखी होते रहते हैं।2। कपड़ भोग सुगंध तनि मरदन मालणा ॥ बिनु सिमरन तनु छारु सरपर चालणा ॥३॥ पद्अर्थ: तनि = शरीर पर। मरदन = वटना आदि। मालणा = मलते हैं। छारु = राख, मिट्टी। सरपर = जरूर।3। अर्थ: (हे मन!) देख, जीव (सुंदर-सुंदर) कपड़े पहनते हैं, स्वादिष्ट पदार्थ खाते हैं, शरीर पर सुगंधि वाले वटने आदि मलते हैं, पर परमात्मा के नाम-स्मरण के बिना उनका ये शरीर राख (के समान ही रहता) है, इस शरीर ने तो आखिर जरुर नाश हो जाना है।3। महा बिखमु संसारु विरलै पेखिआ ॥ छूटनु हरि की सरणि लेखु नानक लेखिआ ॥४॥८॥११०॥ पद्अर्थ: बिखमु = बिखड़ा, मुश्किल। विरले = किसी विरले मनुष्य ने। छूटनु = (इस विषम संसार से) निजात।4। अर्थ: हे नानक! (कह:) किसी विरले (भाग्यशाली) ने देखा है कि यह संसार- (समंद्र) बड़ा भयानक है, परमात्मा की शरण पड़ने पर ही इस में से बचाव होता है। (वही बचता है जिसके माथे पर प्रभु-नाम के स्मरण का) लेख लिखा हुआ है।4।8।110। आसा महला ५ ॥ कोइ न किस ही संगि काहे गरबीऐ ॥ एकु नामु आधारु भउजलु तरबीऐ ॥१॥ पद्अर्थ: किस ही संगि = किसी के भी साथ। गरबीऐ = गर्व करें। आधारु = आसरा। भउजलु = संसार समुंदर। तरबीऐ = तैर सकते हैं।1। अर्थ: (हे मेरी जिंदे!) कोई मनुष्य सदा किसी के साथ नहीं निभता (इस वास्ते संबंधी आदि का) का कोई गुमान नहीं करना चाहिए। सिर्फ परमात्मा का नाम ही (असल) आसरा है (नाम के आसरे ही) संसार-समुंदर से पार लांघ सकते हैं।1। मै गरीब सचु टेक तूं मेरे सतिगुर पूरे ॥ देखि तुम्हारा दरसनो मेरा मनु धीरे ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सचु = सदा कायम रहने वाला। टेक = आसरा। सतिगुर = हे सतिगुरु! देखि = देख के। धीरे = धैर्य पकड़ता है।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे पूरे सतिगुरु (प्रभु)! तू सदा कायम रहने वाला है मुझ गरीब का तू ही सहारा है। तेरे दर्शन करके मेरा मन (इस संसार-समुंदर से पार लांघ सकने के लिए) धैर्य पकड़ता है।1। रहाउ। राजु मालु जंजालु काजि न कितै गनुो ॥ हरि कीरतनु आधारु निहचलु एहु धनुो ॥२॥ पद्अर्थ: जंजालु = मोह में फंसाने वाला। काजि कितै = किसी भी काम। गनुो = (असल शब्द ‘गनु’ है, यहां पढ़ना है ‘गनो’) गिनो, पैमायश। आधारु = आसरा। धनुो = (असल शब्द है ‘धनु’, यहां पढ़ना है ‘धनो’)।2। अर्थ: (हे जिंदे!) दुनिया की पातशाही और धन-पदार्थ मन को मोहे रखते हैं, (इस राज-माल को आखिर) किसी काम आता ना समझ। परमात्मा की महिमा ही जिंद का असल आसरा है, यही सदा कायम रहने वाला धन है।2। जेते माइआ रंग तेत पछाविआ ॥ सुख का नामु निधानु गुरमुखि गाविआ ॥३॥ पद्अर्थ: रंग-तमाशे। तेते = वह सारे। पछाविआ = परछावें (की तरह ढल जाने वाले)। सुख निधानु = सुखों का खजाना।3। अर्थ: (हे जिंदे!) माया के जितने भी रंग-तमाशे हैं, वे सारे परछाई की तरह ढल जाने वाले हैं, परमात्मा का नाम ही सारे सुखों का खजाना है, ये नाम गुरु की शरण पड़ के ही सराहा जा सकता है।3। सचा गुणी निधानु तूं प्रभ गहिर ग्मभीरे ॥ आस भरोसा खसम का नानक के जीअरे ॥४॥९॥१११॥ पद्अर्थ: गहिर = गहिरा। गंभीर = बड़े जिगरे वाला। जीअ रे = हे जिंदे! 4। अर्थ: हे प्रभु! तू गहरा है, तू बड़े जिगरे वाला है, तू सदा कायम रहने वाला है, तू सारे गुणों का खजाना है। हे नानक की जिंदे! इस पति-प्रभु की ही (अंत तक निभने वाले साथ की) आस रख, पति-प्रभु का ही भरोसा रख।4।9।111। आसा महला ५ ॥ जिसु सिमरत दुखु जाइ सहज सुखु पाईऐ ॥ रैणि दिनसु कर जोड़ि हरि हरि धिआईऐ ॥१॥ पद्अर्थ: सहज सुखु = आत्मिक अडोलता का आनंद। रैणि = रात। कर जोड़ि = (दोनों) हाथ जोड़ के।1। नोट: ‘जिस का’ में से शब्द ‘जिस’ की मात्रा ‘ु’ संबंधक ‘का’ के कारण हट गई है। अर्थ: (हे भाई!) जिस परमात्मा का स्मरण करने से हरेक दुख दूर हो जाता है और आत्मिक अडोलता का आनंद मिलता है उसके आगे दोनों हाथ जोड़ के सदा उसका ध्यान धरना चाहिए।1। नानक का प्रभु सोइ जिस का सभु कोइ ॥ सरब रहिआ भरपूरि सचा सचु सोइ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सभु कोइ = हरेक जीव। सचा = सदा कायम रहने वाला।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) नानक का पति-प्रभु वह है जिसका पैदा किया हुआ हरेक जीव है। वह प्रभु सब जीवों में व्यापक है, वह सदा कायम रहने वाला है, सिर्फ वही सदा कायम रहने वाला है।1। रहाउ। अंतरि बाहरि संगि सहाई गिआन जोगु ॥ तिसहि अराधि मना बिनासै सगल रोगु ॥२॥ पद्अर्थ: संगि = साथ। सहाई = सहायता करने वाला। गिआनि जोगु = जाननेयोग्य। आराधि = स्मरण कर। मना = हे मन! सगल = सारा।2। अर्थ: हे मेरे मन! उस परमात्मा की आरधना किया कर जो सबके अंदर बस रहा है, जो सारे संसार में बस रहा है, जो सबके साथ रहता है, जो सबकी सहायता करता है, जिससे गहरी जान-पहिचान डालनी बहुत जरूरी है (हे मन! उसका स्मरण करने से) हरेक रोग का नाश हो जाता है।2। राखनहारु अपारु राखै अगनि माहि ॥ सीतलु हरि हरि नामु सिमरत तपति जाइ ॥३॥ पद्अर्थ: राखनहारु = रक्षा करने की सामर्थ्य वाला। माहि = में। सीतलु = ठंड देने वाला।3। अर्थ: हे भाई! सबकी रक्षा करने की सामर्थ्य वाला बेअंत परमात्मा (माँ के पेट की) आग में (हरेक जीव की) रक्षा करता है, उस परमात्मा का नाम (मन में) ठंड डालने वाला है, उसका नाम स्मरण करने से (मन में से तृष्णा की) तपश बुझ जाती है।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |