श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 399 सूख सहज आनंद घणा नानक जन धूरा ॥ कारज सगले सिधि भए भेटिआ गुरु पूरा ॥४॥१०॥११२॥ पद्अर्थ: घणा = बहुत। जन धूरा = प्रभु के सेवकों की चरण धूल। सिधि = सफलता।4। अर्थ: हे नानक! (कह:) जिस मनुष्य को पूरा गुरु मिल जाता है, जो मनुष्य संत-जनों के चरणों की धूल में टिका रहता है उसे आत्मिक अडोलता के बहुत सुख-आनंद प्राप्त हुए रहते हैं।, उसे सारे काम-काजों में सफलता मिलती है।4।10।1112। आसा महला ५ ॥ गोबिंदु गुणी निधानु गुरमुखि जाणीऐ ॥ होइ क्रिपालु दइआलु हरि रंगु माणीऐ ॥१॥ पद्अर्थ: गुणी निधानु = गुणों का खजाना। गुरमुखि = गुरु के द्वारा। जाणीऐ = जाना जाता है, गहरी सांझ पड़ती है। हरि रंगु = हरि के प्रेम।1। अर्थ: (हे संत जनो!) परमात्मा सारे गुणों का खजाना है, गुरु की शरण पड़ के ही उसके साथ गहरी सांझ डाली जा सकती है, अगर वह प्रभु दयावान हो प्रसन्न हो जाए तो उसका प्रेम (-आनंद) पाया जा सकता है।1। आवहु संत मिलाह हरि कथा कहाणीआ ॥ अनदिनु सिमरह नामु तजि लाज लोकाणीआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मिलाह = हम मिलें। अनदिनु = हर रोज। सिमरह = हम स्मरण करें। तजि = त्याग के। लोक = जगत। लोकाई = जगत की।1। रहाउ। अर्थ: हे संत जनो! आओ, हम इकट्ठे बैठें और परमात्मा की महिमा की बातें करें, लोक-लज्जा छोड़ के हर वक्त उसका नाम स्मरण करते रहें।1। रहाउ। जपि जपि जीवा नामु होवै अनदु घणा ॥ मिथिआ मोहु संसारु झूठा विणसणा ॥२॥ पद्अर्थ: जीवा = जीऊँ, मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा होता है, मेरी जिंदगी को सहारा मिलता है। घणा = बहुत। मिथिआ = झूठ, व्यर्थ। झूठा = सदा कायम रहने वाला।2। अर्थ: (हे संत जनो!) मैं तो ज्यों-ज्यों (परमातमा का) नाम जपता हूँ मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा होता है मेरे अंदर बड़ा आनंद पैदा होता है (उस वक्त मुझे प्रत्यक्ष अनुभव होता है कि) संसार (का मोह) व्यर्थ मोह है, संसार सदा कायम रहने वाला नहीं, संसार तो नाश हो जाने वाला है (इसके मोह में से सुख-आनंद कैसे मिले?)।2। चरण कमल संगि नेहु किनै विरलै लाइआ ॥ धंनु सुहावा मुखु जिनि हरि धिआइआ ॥३॥ पद्अर्थ: संगि = साथ। नेहु = प्यार। किनै विरलै = किसी विरले मनुष्य ने। सुहावा = सोहना। जिनि = जिस ने।3। अर्थ: (पर, हे संत जनों!) किसी विरले (भाग्यशाली) मनुष्य ने परमात्मा के सुंदर कोमल चरणों से प्यार डाला है जिस ने (जिसने ये प्यार डाला है) परमात्मा का नाम स्मरण किया है उसका मुखड़ा भाग्यशाली है, उसका मुंह सुहाना लगता है।3। जनम मरण दुख काल सिमरत मिटि जावई ॥ नानक कै सुखु सोइ जो प्रभ भावई ॥४॥११॥११३॥ पद्अर्थ: काल = मौत, आत्मिक मौत। जावई = जाता है। भावई = भाता है।4। अर्थ: (हे संत जनो!) परमात्मा का नाम स्मरण करने से जनम-मरण (के चक्करों) का दुख मिट जाता है। (हे संत जनो!) जो कुछ प्रभु को अच्छा लगता है (वही ठीक है। ये निश्चय जो नाम जपने की इनायत से पैदा होता है) नानक के हृदय में आनंद (पैदा किए रखता है)।4।11।113। आसा महला ५ ॥ आवहु मीत इकत्र होइ रस कस सभि भुंचह ॥ अम्रित नामु हरि हरि जपह मिलि पापा मुंचह ॥१॥ पद्अर्थ: मीत = हे मित्र! इकत्र होइ = इकट्ठे हो के, मिल के। रस कस = हरेक किस्म के स्वादिष्ट पदार्थ। सभि = सारे। भुंचहु = हम खाएं (स्वाद से)। जपह = हम जपें। मिलि = मिल के। मुंचह = दूर कर लें।1। अर्थ: हे मित्र! आओ, मिल के आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम जपें (और नाम की इनायत से अपने सारे) पाप नाश कर लें- यही धन, जैसे, सारे स्वादिष्ट पदार्थ, आओ, ये सारे स्वादिष्ट व्यंजन खाएं।1। ततु वीचारहु संत जनहु ता ते बिघनु न लागै ॥ खीन भए सभि तसकरा गुरमुखि जनु जागै ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: ततु = अस्लियत, मानसजनम का असल उद्देश्य। ता ते = इस (उद्यम) से। खीन = कमाजोर। तसकरा = चोर। जागै = सचेत रहता है।1। रहाउ। अर्थ: हे संत जनो! ये सोचा करो कि मनुष्य जीवन का असल उद्देश्य क्या है, इस प्रयास से (जीवन-यात्रा में) कोई रुकावट नहीं पडती, कामादिक सारे चोर नाश हो जाते हैं (क्योंकि) गुरु की शरण पड़ने से मनुष्य (इन चोरों के हमलों से) सुचेत रहता है।1। रहाउ। बुधि गरीबी खरचु लैहु हउमै बिखु जारहु ॥ साचा हटु पूरा सउदा वखरु नामु वापारहु ॥२॥ पद्अर्थ: गरीबी = निम्रता। लैहु = पल्ले बाँधो। बिखु = जहर (आत्मिक जीवन को समाप्त करने वाली)। जारहु = जला दो। साचा = सदा कायम रहने वाला। हटु = बड़ी दुकान। वापारहु = खरीदो।2। अर्थ: हे संत जनो! विनम्रता वाली बुद्धि धारण करो- ये जीवन-यात्रा का खर्च पल्ले बाँधो। (नाम की इनायत से अपने अंदर से) अहंकार को जला दो (जो आत्मिक जीवन को समाप्त कर देने वाला) जहर (है)। (हे संत जनो! हरि-नाम गुरु से मिलता है, गुरु का घर ही) सदा कायम रहने वाली दुकान है (गुरु-दर से ही हरि नाम का) पूरा सौदा मिलता है (गुरु दर से) नाम-सौदा खरीदो।2। जीउ पिंडु धनु अरपिआ सेई पतिवंते ॥ आपनड़े प्रभ भाणिआ नित केल करंते ॥३॥ पद्अर्थ: जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। अरपिआ = भेट कर दिया। पति = इज्जत। प्रभू भाणिआ = प्रभु को अच्छे लगते हैं। केल = आनंद।3। अर्थ: (हे संत जनो! जिस मनुष्यों ने हरि-नाम-धन खरीदने के लिए) अपनी जिंद, अपना शरीर, अपना दुनियावी धन भेटा कर दिया वह मनुष्य (लोक-परलोक में) आदरणीय हो गए, वे अपने परमात्मा को प्यारे लगने लग पड़े, वे सदा आत्मिक आनंद पाने लग गए।3। दुरमति मदु जो पीवते बिखली पति कमली ॥ राम रसाइणि जो रते नानक सच अमली ॥४॥१२॥११४॥ पद्अर्थ: दुरमति = खोटी अक्ल। मदु = शराब। बिखली = वृषली, व्यभचारिण, शूद्राणी। बिखली पति = दुराचारी मनुष्य। रसाइणि = रसायन में। रसाइण = रस+आयन, सारे रसों का घर, सब से श्रेष्ठ रस। रते = मस्त। सच = सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा। अमली = जिसे अमल लगा हुआ हो, जो मल के बिना रह ना सके। अमल = नशा।4। अर्थ: (हे संत जनो!) खोटी मति (जैसे) शराब है जो मनुष्य ये शराब पीने लग जाते हैं (जो गुरु का आसरा छोड़ के खोटी मति के पीछे चलने लग जाते हैं) वे दुराचारी हो जाते हैं वे (विकारों में) पागल हो जाते हैं। पर, हे नानक! जो मनुष्य परमात्मा के नाम के श्रेष्ठ रस में मस्त रहते हैं उनको सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा के नाम का अमल लग जाता है।4।12।114। आसा महला ५ ॥ उदमु कीआ कराइआ आर्मभु रचाइआ ॥ नामु जपे जपि जीवणा गुरि मंत्रु द्रिड़ाइआ ॥१॥ पद्अर्थ: कराइआ = (जैसे गुरु ने उद्यम) करने की प्रेरणा की है। आरंभु = (नाम जपने के उद्यम का) आरम्भ। जपे जपि = जप जप के। जीवणा = आत्मिक जीवन मिल गया है। गुरि = गुरु ने। द्रिढ़ाइआ = पक्का कर दिया है।1। अर्थ: (हे भाई!) जैसे गुरु ने उद्यम करने की प्रेरणा की है वैसे ही मैंने उद्यम किया है और परमात्मा का नाम जपने के उद्यम का आरम्भ मैंने कर दिया है। गुरु ने मेरे हृदय में नाम-मंत्र पक्का करके टिका दिया है, अब नाम जप-जपके मुझे आत्मिक जीवन मिल गया है।1। पाइ परह सतिगुरू कै जिनि भरमु बिदारिआ ॥ करि किरपा प्रभि आपणी सचु साजि सवारिआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: पाइ = पैरो पर। परह = पड़ें। कै पाइ = के पैरों पे। जिनि = जिस (गुरु) ने। बिदारिआ = नाश कर दिया है। करि = कर के। प्रभि = प्रभु ने। सचु साजि = सदा स्थिर नाम (जपने का रास्ता) चला के। सवारिआ = सवार दिया है, जीवन सोहणा बना दिया है।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई! आओ) उस गुरु के चरणों में ढह पड़ें जिसने हमारे मन की भटकना नाश कर दी है। (गुरु की इनायत के साथ ही) परमात्मा ने अपनी कृपा करके (अपना) सदा-स्थिर नाम (जपने का रास्ता) चला के हमारा जीवन सुंदर बना दिया है।1। रहाउ। करु गहि लीने आपणे सचु हुकमि रजाई ॥ जो प्रभि दिती दाति सा पूरन वडिआई ॥२॥ पद्अर्थ: करु = हाथ (एकवचन)। गहि = पकड़ के। सचं = सदा स्थिर रहने वाला। हुकमि = हुक्म अनुसार। रजाई = रजा का मालिक। प्रभि = प्रभु ने।2। अर्थ: (हे भाई!) वह रजा का मालिक परमात्मा सदा कायम रहने वाला है उसने अपने हुक्म में मेरा हाथ पकड़ के मुझे अपने चरणों में लीन कर लिया है। (अपने नाम की) जो दाति मुझे दी है वही मेरे वास्ते सबसे बड़ा आदर-मान है।2। सदा सदा गुण गाईअहि जपि नामु मुरारी ॥ नेमु निबाहिओ सतिगुरू प्रभि किरपा धारी ॥३॥ पद्अर्थ: गाईअहि = गाए जा रहे हैं। मुरारी = (मुरा+अरि, मुर दैत्य का वैरी) परमात्मा। नेम = रोज की मर्यादा। जपि = जपूँ, मैं जपता हूं।3। अर्थ: (हे भाई! अब मेरे दिल में) सदा ही परमात्मा के गुण गाए जा रहे हैं, मैं सदा परमात्मा का नाम जपता रहता हूँ। प्रभु ने मेहर की है। गुरु मेरा (नाम जपने का) नियम सफल कर रहा है।3। नामु धनु गुण गाउ लाभु पूरै गुरि दिता ॥ वणजारे संत नानका प्रभु साहु अमिता ॥४॥१३॥११५॥ पद्अर्थ: गाउ = मैं गाता हूँ। गुरि = गुरु ने। वणजारे = वणज करने वाले। अमिता = बेअंत, जिसे नापा ना जा सके, जिसकी हस्ती का नाप ना लिया जा सके।4। अर्थ: (हे भाई! अब) परमात्मा का नाम ही (मेरा) धन है, मैं सदा परमात्मा के गुण गाता रहता हूँ पूरे गुरु ने मुझे (मानव जनम में किए जाने वाले वणज का ये) लाभ दिया है। हे नानक! (कह: हे भाई! नाम-रस का) शाहूकार परमात्मा बेअंत ताकत का मालिक है उसके संत-जन (उसकी मेहर से ही उसके नाम के) बंजारे हैं (मानव जनम का लाभ हासिल करने के लिए संत-जनों की शरण पड़ना चाहिए)।4।13।115। आसा महला ५ ॥ जा का ठाकुरु तुही प्रभ ता के वडभागा ॥ ओहु सुहेला सद सुखी सभु भ्रमु भउ भागा ॥१॥ पद्अर्थ: जा का = जिस मनुष्य का। ठाकुरु = मालिक। प्रभ = हे प्रभु! सुहेला = आसान। सद = सदा। भ्रम = भटकना।1। अर्थ: हे प्रभु! तू खुद ही जिस मनुष्य के सिर पर मालिक है उसके बड़े भाग्य (समझने चाहिए), वह सदा आसान (जीवन व्यतीत करता) है वह सदा सुखी (रहता) है उसका हरेक किस्म का डर और भ्रम दूर हो जाता है।1। हम चाकर गोबिंद के ठाकुरु मेरा भारा ॥ करन करावन सगल बिधि सो सतिगुरू हमारा ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: चाकर = सेवक, नौकर। भारा = बड़े जिगरे वाला। सगल बिधि = सारे तरीकों से।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) मैं उस गोबिंद का सेवक हूँ मेरा वह मालिक है जो सबसे बड़ा है जो (सब जीवों में व्यापक हो के स्वयं ही) सारे तरीकों से (सब कुछ) करने वाला है। और (जीवों से) कराने वाला है, वही मेरा गुरु है (मेरे जीवन-राह में रौशनी देने वाला है)।1। रहाउ। दूजा नाही अउरु को ता का भउ करीऐ ॥ गुर सेवा महलु पाईऐ जगु दुतरु तरीऐ ॥२॥ पद्अर्थ: को = कोई। अउरु = और। ता का = उस का। महलु = प्रभु का ठिकाना। दुतरु = जिससे पार लांघना बहुत मुश्किल है। तरीऐ = तैरा जा सकता है।2। अर्थ: (हे भाई! जगत में) परमात्मा के बराबर का और कोई नहीं है जिसका डर माना जाए। (हे भाई!) गुरु की बताई सेवा करने से (परमात्मा के चरणों में) ठिकाना मिल जाता है, और इस संसार (-समुंदर) से पार लांघ जाते हैं जिससे (वैसे) पार लांघना बहुत ही मुश्किल है।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |