श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 400

द्रिसटि तेरी सुखु पाईऐ मन माहि निधाना ॥ जा कउ तुम किरपाल भए सेवक से परवाना ॥३॥

पद्अर्थ: द्रिसटि = नजर, निगाह। निधाना = खजाना। जा कउ = जिस पर। परवाना = स्वीकार।3।

अर्थ: हे प्रभु! तेरी मेहर की नजर से सुख मिलता है (जिनपे तेरी मेहर हो उनके) मन में (तेरा नाम-) खजाना आ बसता है। हे प्रभु! जिस पे तू दयावान होता है वह तेरे सेवक तेरे दर पर स्वीकार होते हैं।3।

अम्रित रसु हरि कीरतनो को विरला पीवै ॥ वजहु नानक मिलै एकु नामु रिद जपि जपि जीवै ॥४॥१४॥११६॥

पद्अर्थ: कीरतनो = कीर्तन, महिमा। अंम्रित रसु = आत्मिक जीवन देने वाला जल। वजहु = वजीफा, तनख्वाह।4।

अर्थ: हे भाई! परमात्माकी महिमा आत्मिक जीवन देने वाला रस है, कोई विरला (भाग्यशाली) मनुष्य ये (अमृत रस) पीता है।

हे नानक! (कह: जिस नौकर को) परमात्मा का नाम-वजीफा मिल जाता है वह अपने हृदय में ये नाम सदा जप के आत्मिक जीवन हासिल कर लेता है।4।14।116।

आसा महला ५ ॥ जा प्रभ की हउ चेरुली सो सभ ते ऊचा ॥ सभु किछु ता का कांढीऐ थोरा अरु मूचा ॥१॥

पद्अर्थ: हउ = मैं। चेरी = दासी। चेरुली = बेचारी दासी। ते = से। ता का = उस (प्रभु) का। कांढीऐ = कहा जाता है। मूचा = बहुत। थोरा अरु मूचा = थोड़ा और ज्यादा, छोटी बड़ी हरेक चीज।1।

अर्थ: हे सहेलियो! मैं जिस प्रभु की निमाणी सी दासी हूँ मेरा वह मालिक प्रभु सबसे ऊँचा है, मेरे पास जो कुछ भी छोटी-बड़ी चीज है उस मालिक की ही कहलाती है।1।

जीअ प्रान मेरा धनो साहिब की मनीआ ॥ नामि जिसै कै ऊजली तिसु दासी गनीआ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: धनो = धन। जीअ = जिंद। मनीआ = मानती हूँ। नामि = नाम से। ऊजली = सही रास्ते पर, इज्जत वाली। तिसु = उस (प्रभु) की। गनीआ = गिनती हूं।1। रहाउ।

अर्थ: हे सहेलियो! मेरी जिंद, मेरे प्राण, मेरा धन-पदार्थ - ये सब कुछ मैं अपने मालिक प्रभु की दी हुई दाति मानती हूँ। जिस मालिक-प्रभु के नाम की इनायत से मैं इज्जत वाली हो गई हूँ मैं अपने आप को उसकी दासी गिनती हूँ।1। रहाउ।

वेपरवाहु अनंद मै नाउ माणक हीरा ॥ रजी धाई सदा सुखु जा का तूं मीरा ॥२॥

पद्अर्थ: वेपरवाहु = बेमुहताज। अनंद मै = आनंदमय, आनंद स्वरूप। माणक = मोती। धाई = ध्रापी, तृप्त। मीरा = पातशाह।2।

अर्थ: (हे मेरे मालिक प्रभु!) तूझे किसी की मुहताजी नहीं, तू सदा आनंद-स्वरूप है, तेरा नाम मेरे वास्ते मोती है हीरा है। हे प्रभु! जिस जीव-स्त्री का (जिस जीव-स्त्री के सिर पर) तू पातशाह (बनता) है वह (माया की ओर से) तृप्त रहती है, संतुष्ट रहती है वह सदा आनंद पाती है।2।

सखी सहेरी संग की सुमति द्रिड़ावउ ॥ सेवहु साधू भाउ करि तउ निधि हरि पावउ ॥३॥

पद्अर्थ: संग की = साथ की। सहेरी = हे सहेलियो! सुमति = अच्छी मति। द्रिढ़ावउ = दृढ़ाऊँ, मैं निश्चय कराती हूँ। साधू = गुरु। भाउ = प्रेम। करि = कर के। निधि = खजाना। पावउ = मैं हासिल करती हूँ, पाऊँ।3।

(नोट: शब्द ‘सवहु’ और ‘पावउ’ की व्याकरणात्मक शक्ल खास ध्यान से देखने योग्य है)।

अर्थ: हे मेरे साथ की सहेलियो! मैं तुम्हें ये भली सलाह बारंबार याद करवाती हूँ (जो मुझे गुरु से मिली हुई है), तुम श्रद्धा व प्रेम धारण करके गुरु की शरण पड़ो। (मैं जब से गुरु की शरण में आई हूँ) तब से मैं परमात्मा का नाम-खजाना हासिल कर रही हूँ।3।

सगली दासी ठाकुरै सभ कहती मेरा ॥ जिसहि सीगारे नानका तिसु सुखहि बसेरा ॥४॥१५॥११७॥

पद्अर्थ: सगली = सारी, हरेक जीव-स्त्री। ठाकुरै = ठाकुर की। जिसहि = जिसे। सीगारे = सुंदर बनाता है। सुखहि = सुख में। बसेरा = वास।4।

अर्थ: हे मेरी सहेलियो! हरेक जीव-स्त्री ही मालिक प्रभु की दासी है, हरेक जीव-स्त्री कहती है कि परमात्मा मेरा मालिक है। पर, हे नानक! (कह: हे सहेलियो!) जिस जीव-स्त्री (के जीवन) को (मालिक प्रभु स्वयं) सुंदर बनाता है उसका निवास सुख आनंद में बना रहता है।4।15।117।

आसा महला ५ ॥ संता की होइ दासरी एहु अचारा सिखु री ॥ सगल गुणा गुण ऊतमो भरता दूरि न पिखु री ॥१॥

पद्अर्थ: संता की = सत्संगियों की। होइ = बन जा। दासरी = निमाणी सी दासी। आचारा = कर्तव्य। री = हे जिंदे! ऊतमो = उत्तम, श्रेष्ठ। भरता = पति प्रभु। न पिख = ना देख, ना समझ।1।

अर्थ: हे मेरी सोहनी जिंदे! तू सत्संगियों की निमाणी दासी बनी रह- बस! ये कर्तव्य सीख, और, हे जिंदे! उस पति-प्रभु को कहीं दूर बसता ना समझ जो सारे गुणों का मालिक है जो अपने गुणों के कारण सबसे श्रेष्ठ है।1।

इहु मनु सुंदरि आपणा हरि नामि मजीठै रंगि री ॥ तिआगि सिआणप चातुरी तूं जाणु गुपालहि संगि री ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सुंदरि = हे सुंदरी! हे सुंदर जिंदे! नामि = नाम में। मजीठै = मजीठ से, मजीठ जैसे पक्के रंग से। चातुरी = चतुराई। गुपालहि = गोपाल को। संगि = अपने साथ बसता।1। रहाउ।

अर्थ: हे (मेरी) सोहणी जिंदे! तू अपने इस मन को मजीठ (जैसे पक्के) परमात्मा के नाम रंग से रंग ले, अपने अंदर की सियानप और चतुराई छोड के (ये गुमान छोड़ कि तू बड़ी सियानी है और चतुर है), हे जिंदे! सृष्टि के मालिक प्रभु को अपने साथ बसता समझती रह।1। रहाउ।

भरता कहै सु मानीऐ एहु सीगारु बणाइ री ॥ दूजा भाउ विसारीऐ एहु त्मबोला खाइ री ॥२॥

पद्अर्थ: मानीऐ = मानना चाहिए। सीगारु = श्रृंगार। दूजा भाउ = प्रभु पति को छोड़ के किसी और का प्यार। तंबोला = पान का बीड़ा।2।

अर्थ: हे मेरी सोहणी जिंदे! पति-प्रभु जो हुक्म करता है वह (मीठा करके) मानना चाहिए- बस! इस बात को (अपने जीवन का) श्रृंगार बनाए रख। परमात्मा के बिना और (माया आदि का) प्यार भुला देना चाहिए- (ये नियम आत्मिक जीवन वास्ते, जैसे, पान का बीड़ा है) हे जिंदे! ये पान खाया कर।2।

गुर का सबदु करि दीपको इह सत की सेज बिछाइ री ॥ आठ पहर कर जोड़ि रहु तउ भेटै हरि राइ री ॥३॥

पद्अर्थ: करि = बना। दीपको = दीपक। सत = ऊँचा आचरण। कर = (दोनों) हाथ। जोड़ि = जोड़ के। तउ = तब ही। भेटै = मिलता है। हरि राइ = प्रभु पातशाह।3।

अर्थ: हे मेरी सोहणी जिंदे! सतिगुरु के शब्द को दीपक बना (जो तेरे अंदर आत्मिक जीवन का प्रकाश पैदा करे) और उस आत्मिक जीवन की (अपने हृदय में) सेज बिछा। हे सोहणी जिंदे! (अपने अंतरात्मे) आठों पहर (दोनों) हाथ जोड़ के (प्रभु चरणों में) टिकी रह, तब ही प्रभु-पातशाह (आ के) मिलता है।3।

तिस ही चजु सीगारु सभु साई रूपि अपारि री ॥ साई सुोहागणि नानका जो भाणी करतारि री ॥४॥१६॥११८॥

पद्अर्थ: तिस ही = उसी का ही। चजु = सलीका। सभु = सारा। साई = वही (जीव-स्त्री)। रूपि = सुंदर रूप वाली। अपारि = अपार प्रभु में। भाई = पसंद आई है। करतारि = कर्तार में (लीन)।4।

नोट: ‘तिस ही’ में ‘तिसु’ में से ‘ु’ की मात्रा क्रिया विषोशण ‘ही’ के कारण हटा दी गई है।

नोट: ‘सुोहागणि’ में अक्षर ‘स’ के साथ दो मात्राएं हैं ‘ो’ और ‘ु’। असल शब्द ‘सोहागणि’ है; यहाँ ‘सुहागणि’ पढ़ना है।

अर्थ: हे नानक! (कह:) हे मेरी सोहणी जिंदे! उसी जीव-स्त्री को सलीके वाली (निपुण) माना जाता है उसी जीव-स्त्री का (आत्मिक) श्रृंगार स्वीकार होता है, वह जीव-स्त्री सुंदर रूप वाली समझी जाती है जो बेअंत परमात्मा (के चरणों) में लीन रहती है। हे जिंदे! वही जीव-स्त्री सुहाग-भाग वाली है जो (कर्तार को) प्यारी लगती है जो कर्तार (की याद) में लीन रहती है।4।16।118।

आसा महला ५ ॥ डीगन डोला तऊ लउ जउ मन के भरमा ॥ भ्रम काटे गुरि आपणै पाए बिसरामा ॥१॥

पद्अर्थ: डीगन = (विकारों में) गिरना। डोला = (माया के मोह में) डोल जाना, मोह में फस जाना। तऊ लउ = उतने समय तक ही। भरमा = दौड़ भाग। गुरि = गुरु ने। बिसरामा = टिकाव।1।

अर्थ: हे भाई! विकारों में गिरने और मोह में फंसने का सबब तब तक बना रहता है जब तक मनुष्य के मन की (माया की खातिर) दौड़-भाग टिकी रहती हैं। पर प्यारे गुरु ने जिस मनुष्य की भटकनें दूर कर दीं उसने मानसिक टिकाव प्राप्त कर लिया।1।

ओइ बिखादी दोखीआ ते गुर ते हूटे ॥ हम छूटे अब उन्हा ते ओइ हम ते छूटे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: ओइ = वह। बिखादी = झगड़ालू। दोखीआ = वैरी। ते = वह सारे। गुर ते = गुरु से। हूटे = थक गए। उना ते = उनसे। हम ते = हम से।1। रहाउ।

नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन।

अर्थ: (हे भाई!) ये जितने भी कामादिक झगड़ालू वैरी हैं गुरु की शरण पड़ने से ये सारे ही थक गए है (हमें दुखी करने से बाज आ गए)। अब उनसे हमें निजात मिल गई है, उन सभी ने हमारा पीछा छोड़ दिया है।1। रहाउ।

मेरा तेरा जानता तब ही ते बंधा ॥ गुरि काटी अगिआनता तब छुटके फंधा ॥२॥

पद्अर्थ: मेरा तेरा = मेर तेर, वितकरा। तब ही ते = तभी से। बंधा = मोह के बंधन। छुटके = खुल गए, टूट गए। फंधा = फाहियां।2।

अर्थ: जब से मनुष्य मेर-तेर (वितकरे) करता चला आ रहा है तब से ही इसे माया के मोह के बंधन पड़े हुए हैं। पर, जब गुरु ने अज्ञानता दूर कर दी तब मोह के फंदों से खलासी मिल गई।2।

जब लगु हुकमु न बूझता तब ही लउ दुखीआ ॥ गुर मिलि हुकमु पछाणिआ तब ही ते सुखीआ ॥३॥

पद्अर्थ: तब लउ ही = तब तक ही। गुर मिलि = गुरु को मिल के। तब हीते = तब से ही।3।

अर्थ: हे भाई! जब तक मनुष्य परमात्मा की रजा को नहीं समझता उतने समय तक ही दुखी रहता है। पर जिसने गुरु की शरण पड़ के परमात्मा की रजा को समझ लिया वह उसी समय से सुखी हो गया।3।

ना को दुसमनु दोखीआ नाही को मंदा ॥ गुर की सेवा सेवको नानक खसमै बंदा ॥४॥१७॥११९॥

पद्अर्थ: को = कोई मनुष्य। दोखीआ = वैरी। खसम = पति का।4।

अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य गुरु की सेवा करके परमात्मा का सेवक बन जाता है पति-प्रभु का गुलाम बन जाता है, उसे कोई मनुष्य अपना दुश्मन नहीं दिखता, कोई वैरी नहीं प्रतीत होता, कोई उसे बुरा नहीं लगता।4।17।119।

आसा महला ५ ॥ सूख सहज आनदु घणा हरि कीरतनु गाउ ॥ गरह निवारे सतिगुरू दे अपणा नाउ ॥१॥

पद्अर्थ: सहज = आत्मिक अडोलता। घणा = बहुत। गाउ = गाऊँ, मैं गाता हूँ। गरह = 9ग्रह। निवारे = दूर कर दिए। दे = दे कर। अपणा नाउ = परमात्मा का प्यारा नाम जिस को गुरु स्वयं भी जपता है।1।

अर्थ: (हे भाई!) गुरु ने मुझे वह हरि-नाम दे के जो नाम वह स्वयं जपता है, ने मेरे पर से (जैसे) नौवों (9) ग्रहों की मुसीबतें दूर कर दी हों। मैं परमात्मा के महिमा के गीत गाता रहता हूँ, और (मेरे अंदर) आत्मिक अडोलता का बड़ा सुख-आनंद बना रहता है।1।

बलिहारी गुर आपणे सद सद बलि जाउ ॥ गुरू विटहु हउ वारिआ जिसु मिलि सचु सुआउ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सद सद = सदा ही, सदा सदा। जाउ = जाऊँ, मैं जाता हूँ। बलि = सदके। विटहु = सं। हउ = मैं। मिलि = मिल के। सचु = सदा स्थिर नाम। सुआउ = स्वार्थ, उद्देश्य, जीवन का निशाना।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई!) मैं अपने गुरु से कुर्बान जाता हूँ, सदा ही सदके जाता हूँ, मैं गुरु से वारने जाता हूँ, क्योंकि उस (गुरु) को मिल के ही मैंने सदा स्थिर प्रभु का नाम स्मरणा (अपनी जिंदगी का) उद्देश्य बनाया है।1। रहाउ।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh