श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 402 रे मन किआ करहि है हा हा ॥ द्रिसटि देखु जैसे हरिचंदउरी इकु राम भजनु लै लाहा ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: है हा हा = आहा आहा। द्रिसटि = ध्यान से। हरि चंदउरी = हरी चंद पुरी, हरिश्चंद्र की नगरी, गंर्धब नगरी, ठग-नगरी, धूँएं का पहाड़। लाहा = लाभ।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मन! (माया का पसारा देख के क्या खुशियां मना रहा है तू) क्या आहा आहा करता फिरता है? ध्यान से देख! ये सारा पसारा धूँएं के पहाड़ जैसा है। परमात्मा का भजन किया कर, सिर्फ इसी से (मनुष्य जीवन में) लाभ (कमाया जा सकता है)।1। रहाउ। जैसे बसतर देह ओढाने दिन दोइ चारि भोराहा ॥ भीति ऊपरे केतकु धाईऐ अंति ओरको आहा ॥२॥ पद्अर्थ: बसतर = कपड़े। ओढाने = पहने हुए। भोराहा = भुर जाते हैं। भीति = दीवार। ऊपरे = ऊपर। केतकु = कितने। धाईऐ = दौड़ सकते हैं। अंति = आखिर। ओरको = ओड़क, आखिरी सिरा। आहा = आ जाता है।2। अर्थ: हे मन! (ये जगत पसारा यूँ ही है) जैसे शरीर पर पहने हुए कपड़े, दो चार दिनों में ही पुराने हो जाते हैं। हे मन! दीवार पर कहाँ तक दौड़ सकते हैं? आखिर उसका आखिरी सिरा आ ही जाता है (जिंदगी के गिने-चुने स्वाश अवश्य ही समाप्त होने हैं)।2। जैसे अ्मभ कुंड करि राखिओ परत सिंधु गलि जाहा ॥ आवगि आगिआ पारब्रहम की उठि जासी मुहत चसाहा ॥३॥ पद्अर्थ: अंभ = अम्भस्, पानी। कुंड = हौज। परत = पड़ता है। सिंधु = नमक। आवगि = आएगी। जासी = चला जाएगा। मुहत = महूरत, दो घड़ियां। चसा = पल का तीसरा हिस्सा।3। अर्थ: हे मन! (ये उम्र ऐसे ही है) जैसे पानी का कुण्ड बना के रखा हो, और उसमें नमक पड़ते सार ही वह गल जाता है। हे मन! जब (जिसे) परमात्मा का हुक्म (बुलावा) आएगा, वह उसी वक्त उठ के चल पड़ेगा।3। रे मन लेखै चालहि लेखै बैसहि लेखै लैदा साहा ॥ सदा कीरति करि नानक हरि की उबरे सतिगुर चरण ओटाहा ॥४॥१॥१२३॥ नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ में से ‘ु’ की मात्रा संबंधन ‘नो’ के कारण हट गई है। पद्अर्थ: लेखे = लेखे में, गिनती ने सांसों में ही। चालहि = तू चलता है। कीरति = महिमा। उबरे = बच गए। ओटाहा = आसरा।4। अर्थ: हे मेरे मन! तू अपने गिने-चुने स्वासों के अंदर ही जगत में चलता फिरता है और बैठता है (गिने-चुने) लेख के मुताबिक ही तू सांस लेता है, (ये आखिर समाप्त हो जाने हैं)। हे नानक! सदा परमात्मा की महिमा करता रह। जो मनुष्य गुरु के चरणों का आसरा लेते हैं (और प्रभु की महिमा करते हैं) वह (माया के मोह में फंसने से) बच जाते हैं।4।1।123। आसा महला ५ ॥ अपुसट बात ते भई सीधरी दूत दुसट सजनई ॥ अंधकार महि रतनु प्रगासिओ मलीन बुधि हछनई ॥१॥ पद्अर्थ: अपुसट = अपुष्ट, कच्ची, उलटी। बात ते = बात से। सीधरी = अच्छी सीधी। दूत = वैरी। प्रगासिओ = चमक पड़ा। मलीन = मैली। हछनई = साफ सुथरी।1। अर्थ: (हे भाई! जब गुरु से मिलाप हुआ तो मेरी हरेक) उलट बात भी सीधी हो गई (मेरे पहले) बुरे वैरी (अब) सज्जन-मित्र बन गए, (मेरे मन के) घुप अंधेरे में (गुरु का बख्शा हुआ ज्ञान-) रतन चमक पड़ा है, (विकारों से) मैली हो चुकी मेरी अकल साफ-सुथरी हो गई।1। जउ किरपा गोबिंद भई ॥ सुख स्मपति हरि नाम फल पाए सतिगुर मिलई ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: जउ = जब। सुख संपति = आतिमक आनंद की दौलत।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! जब मेरे पर गोबिंद की कृपा हुई, मैं सतिगुरु को मिला (और सतिगुरु के मिलाप की इनायत से) फल (के तौर पर) मुझे आत्मिक आनंद की दौलत और परमात्मा के नाम की प्राप्ति हो गई।1। रहाउ। मोहि किरपन कउ कोइ न जानत सगल भवन प्रगटई ॥ संगि बैठनो कही न पावत हुणि सगल चरण सेवई ॥२॥ पद्अर्थ: मोहि = मुझे। किरपन = कंजूस, नकारा। संगि = साथ। सेवई = सेवा करती है।2। अर्थ: (हे भाई! गुरु से मिलाप के पहले) मुझ नकारे को कोई नहीं था जानता। अब मैं सारे भवनों में श्रेष्ठ हो गया हूँ। (पहले) मैं किसी के पास बैठने के काबिल नहीं था, अब सारी लुकाई मेरे चरणों की सेवा करने लग पड़ी है।2। आढ आढ कउ फिरत ढूंढते मन सगल त्रिसन बुझि गई ॥ एकु बोलु भी खवतो नाही साधसंगति सीतलई ॥३॥ पद्अर्थ: आढ = आधी दमड़ी। कउ = वास्ते। मन त्रिसन = मन की तृष्णा। खवतो = सहता। सीतलई = ठंडे स्वभाव वाला।3। अर्थ: (हे भाई! गुरु-मिलाप से पहले तृष्णा अधीन हो के) मैं आधी-आधी दमड़ी को ढूँढता-फिरता था (गुरु की इनायत से) मेरे मन की सारी तृष्णा बुझ गई है। पहले मैं (किसी का) एक भी (कड़वा) बोल सह नहीं सकता था, साधु-संगत के सदका अब मेरा दिल ठंडा-ठार हो गया है।3। एक जीह गुण कवन वखानै अगम अगम अगमई ॥ दासु दास दास को करीअहु जन नानक हरि सरणई ॥४॥२॥१२४॥ पद्अर्थ: जीह = जीभ। कवन = कौन कौन से? अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। करीअहु = बना ले।4। अर्थ: (हे भाई! गोबिंद की अपार कृपा से मुझे सतिगुरु मिला, उस गोबिंद के) कौन-कौन से गुण (उपकार) मेरी ये एक जीभ बयान करे? वह अगम्य (पहुँच से परे) है अगम्य (पहुँच से परे) है अगम्य (पहुँच से परे) है (उसके सारे गुण-उपकार बताए नहीं जा सकते)। हे नानक! (सिर्फ यही कहता रह -) हे हरि! मैं दास तेरी शरण आया हूँ, मुझे अपने दासों के दासों का दास बनाए रख।4।2।124। आसा महला ५ ॥ रे मूड़े लाहे कउ तूं ढीला ढीला तोटे कउ बेगि धाइआ ॥ ससत वखरु तूं घिंनहि नाही पापी बाधा रेनाइआ ॥१॥ पद्अर्थ: रे मूढ़े = हे मूर्ख! ढीला = ढीला, आलसी। तोटा = घटा। बेगि = जल्दी। धइआ = दौड़ता है। ससत = सस्ता। वखरु = सौदा। घिंनहि नाही = तू नहीं लेता। पापी = हे पापी! रेनाइआ = ऋण से, करजे से।1। अर्थ: हे (मेरे) मूर्ख (मन)! (आत्मिक जीवन के) लाभ (वाले काम) के लिए तू बहुत आलसी है पर (आत्मिक जीवन की राशि के) घाटे वास्ते तू जल्दी उठ दौड़ता है! हे पापी! तू सस्ता सौदा लेता नहीं, (विकारों के) करजे के बोझमें बंधा हुआ है।1। सतिगुर तेरी आसाइआ ॥ पतित पावनु तेरो नामु पारब्रहम मै एहा ओटाइआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सतिगुर = हे गुरु! आसाइआ = आस। पतित पावनु = विकारों में गिरे हुए को पवित्र करने वाला। पारब्रहम = हे पारब्रहम! एहा = यही।1। रहाउ। अर्थ: हे गुरु! मुझे तेरी (सहायता) की उम्मीद है। हे परमात्मा! (मैं विकारी तो बहुत हूँ, पर) मुझे यही सहारा है कि तेरा नाम विकारों में गिरे हुए को पवित्र करने वाला है।1। रहाउ। गंधण वैण सुणहि उरझावहि नामु लैत अलकाइआ ॥ निंद चिंद कउ बहुतु उमाहिओ बूझी उलटाइआ ॥२॥ पद्अर्थ: गंधण = गंध भरे, गंदे। वैण = बैन, बोल, गीत। सुणहि = तू सुनता है। उरझावहि = तू मस्त होता है। अलकाइआ = आलस करता है। निंद चिंद = निंदा का ख्याल। उमाहिओ = तुझे चाव चढ़ता है। उलटाइआ = उल्टी ही।2। अर्थ: हे मूर्ख! तू गंदे गीत सुनता है और (सुन के) मस्त होता है। परमात्मा का नाम लेते हुए तू आलस करता है किसी की निंदा की सोच से भी तुझे बहुत चाव चढ़ता है। हे मूर्ख! तूने हरेक बात उलटी ही समझी हुई है।2। पर धन पर तन पर ती निंदा अखाधि खाहि हरकाइआ ॥ साच धरम सिउ रुचि नही आवै सति सुनत छोहाइआ ॥३॥ पद्अर्थ: पर तन = पराया शरीर। परती = पराई। अखाधि = वह चीजें जो नहीं खानी चाहिए। हरकाइआ = हलकाया, हलका हुआ। सचा = सदा साथ निभने वाला। रुचि = प्यार। सति = सदा स्थिर नाम। छोहाइआ = क्षोभ, छूह लगती है, गुस्सा आता है।3। अर्थ: हे मूर्ख! तू पराया धन (चुराता है), पराया रूप (बुरी निगाह से देखता है), पराई निंदा (करता है, तू लोभ से) हलकाया हुआ है। वही चीजें खाता है जो तुझे नहीं खानी चाहिए। हे मूर्ख! सदा साथ निभने वाले धर्म के साथ तेरा प्यार नहीं पड़ता, सच-उपदेश सुनने में तुझे खिझ लगती है।3। दीन दइआल क्रिपाल प्रभ ठाकुर भगत टेक हरि नाइआ ॥ नानक आहि सरण प्रभ आइओ राखु लाज अपनाइआ ॥४॥३॥१२५॥ पद्अर्थ: भगत = भक्तों को। आहि = चाह से, तमन्ना करके। प्रभ = हे प्रभु! अपनाइआ = अपना (सेवक) बना के। लज्जा = इज्जत।4। अर्थ: हे नानक! (कह:) रे दीनों पर दया करने वाले ठाकुर! हे कृपा के घर प्रभु! तेरे भक्तों को तेरे नाम का सहारा है। हे प्रभु! मैं चाहत करके तेरी शरण आया हूँ, मुझे अपना दास बना के मेरी लज्जा रख (मुझे मंद-कर्मों से बचाए रख)।4।3।125। आसा महला ५ ॥ मिथिआ संगि संगि लपटाए मोह माइआ करि बाधे ॥ जह जानो सो चीति न आवै अह्मबुधि भए आंधे ॥१॥ पद्अर्थ: मिथिआ = झूठा, नाशवान। संगि = संगी, साथी। संगि = साथ, संगति में। लपटाए = चिपके हुए, मोह में फंसे हुए। करि = के कारण। बाधे = बंधे हुए। जह = जहां। जानो = जाना। चीति = चिक्त में। अहंबुधि = (अहं = मैं। बुधि = अकल) मैं मैं कहने वाली अक्ल, अहंकार। आंधे = अंधे।1। अर्थ: (दुर्भाग्यशाली मनुष्य) झूठे साथियों की संगति में मस्त रहता है माया के मोह में बंधा रहता है, (ये जगत छोड़ के) जहाँ (आखिर) जाना है वह जगह (इसके) ख्याल में कभी नहीं आती, अहंम् में अंधा हुआ रहता है।1। मन बैरागी किउ न अराधे ॥ काच कोठरी माहि तूं बसता संगि सगल बिखै की बिआधे ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मन = हे मन! बैरागी = माया के मोह से उपराम। काच = कच्ची। माहि = में। बिखै = विषौ विकार। बिआधे = रोग।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मन! तू माया के मोह से उपराम हो के परमात्मा की आराधना क्यूँ नहीं करता? (तेरा ये शरीर) कच्ची कोठरी (है जिसमें तू बस रहा है,) तेरे साथ सारे विषौ-विकारों के रोग चिपके हुए हैं।1। रहाउ। मेरी मेरी करत दिनु रैनि बिहावै पलु खिनु छीजै अरजाधे ॥ जैसे मीठै सादि लोभाए झूठ धंधि दुरगाधे ॥२॥ पद्अर्थ: रैनि = रात। बिहावै = गुजरती है। छीजै = कम हो रही है। अरजाधे = आरजा, उम्र। सादि = स्वाद में। धंधि = धंधे में। दुरगाधै = दुरगंध में।2। अर्थ: ‘ये मेरी मल्कियत है ये मेरी जयदाद है’ -ये कहते हुए ही (दुर्भाग्यशाली मनुष्य का) दिन गुजर जाता है (इसी तरह फिर) रात गुजर जाती है, पल-पल छिन-छिन कर कर के इसकी उम्र घटती जाती है। जैसे मीठे के स्वाद में (मक्खी) फंस जाती है वैसे ही (दुर्भाग्यशाली मनुष्य) झूठे धंधे की दुर्गन्ध में फसा रहता है।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |