श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 405 रागु आसा महला ५ घरु १२ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ तिआगि सगल सिआनपा भजु पारब्रहम निरंकारु ॥ एक साचे नाम बाझहु सगल दीसै छारु ॥१॥ पद्अर्थ: भजु = स्मरण कर। साचे = सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के। बाझहु = बिना। छारु = राख, निकम्मी।1। अर्थ: (हे भाई! संसार-समुंदर में से पार लांघने के लिए इस संबंधी अपनी) सारी सियानपें छोड़ दे, परमात्मा निरंकार का स्मरण किया कर। सदा कायम रहने वाले परमात्मा का नाम स्मरण के बिना (संसार-समुंदर से पार लांघने संबंधी और) हरेक चतुराई निकम्मी (मूर्खता साबित होती) है।1। सो प्रभु जाणीऐ सद संगि ॥ गुर प्रसादी बूझीऐ एक हरि कै रंगि ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: जाणीऐ = समझना चाहिए। सद = सदा। संगि = अंग संग बसता। प्रसादी = प्रसाद, कृपा से। बूझीऐ = समझ आती है। रंगि = प्रेम में (जुड़ने से)।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई! अगर संसार-समुंदर में से अपनी जीवन-बेड़ी सही-सलामत पार लंघानी है, तो) उस परमात्मा को हमेशा अपने अंग-संग बसता समझना चाहिए। ये समझ तभी पड़ सकती है अगर गुरु की कृपा से एक परमात्मा के प्यार में टिके रहें।1। रहाउ। सरणि समरथ एक केरी दूजा नाही ठाउ ॥ महा भउजलु लंघीऐ सदा हरि गुण गाउ ॥२॥ पद्अर्थ: समरथ = ताकत वाली। सरणि = ओट, आसरा। केरी = की। भउजलु = संसार समुंदर।2। अर्थ: (हे भाई! संसार-समुंदर से पार लंघा सकने की) ताकत रखने वाली सिर्फ एक परमात्मा की ओट है, इसके बिना और कोई सहारा नहीं (इस वास्ते, हे भाई!) सदा परमात्मा के गुण गाता रह तो ही इस बिखड़े संसार-समुंदर से पार लांघा जा सकेगा।2। जनम मरणु निवारीऐ दुखु न जम पुरि होइ ॥ नामु निधानु सोई पाए क्रिपा करे प्रभु सोइ ॥३॥ पद्अर्थ: निवारीऐ = दूर किया जा सकता है। जमपुरि = जम की पुरी में। निधान = खजाना।3। अर्थ: (हे भाई! यदि परमात्मा को सदा अंग-संग बसता पहचान लें तो) जनम-मरन का चक्कर समाप्त हो जाता है, जमों के शहर में निवास नहीं होता (आत्मिक मौत नजदीक नहीं फटकती) कोई दुख छू नहीं सकता। (पर सारे गुणों का) खजाना ये हरि-नाम वही मनुष्य प्राप्त करता है जिस पर प्रभु स्वयं कृपा करता है।3। एक टेक अधारु एको एक का मनि जोरु ॥ नानक जपीऐ मिलि साधसंगति हरि बिनु अवरु न होरु ॥४॥१॥१३६॥ पद्अर्थ: अधारु = आसरा। मनि = मन में। जोरु = बल, ताण, सहारा।4। अर्थ: (हे भाई!) एक परमात्मा की ही ओट, एक परमात्मा का ही आसरा, एक परमात्मा का ही मन में तकिया (जम-पुरी से बचा सकता) है। (इस वास्ते) हे नानक! साधु-संगत में मिल के परमात्मा का ही नाम स्मरणा चाहिए, परमात्मा के बिना और कोई नहीं (जो जमपुरी से बचा सके जो संसार समुंदर से पार लंघा सके)।4।1।136। नोट: यहाँ से घर 12 के शबदों का संग्रह आरम्भ हुआ है। आसा महला ५ ॥ जीउ मनु तनु प्रान प्रभ के दीए सभि रस भोग ॥ दीन बंधप जीअ दाता सरणि राखण जोगु ॥१॥ पद्अर्थ: जीउ = जिंद। तनु = शरीर। के दीए = के दिए हुए। सभि = सारे। रस भोग = स्वादिष्ट पदार्थ। दीन बंधप = गरीबों का रिश्तेदार। जीअ दाता = आत्मिक जीवन देने वाला। जोगु = समर्थ।1। अर्थ: (हे भाई!) ये जिंद, ये मन, ये शरीर, ये प्राण, सारे स्वादिष्ट पदार्थ -ये सब परमात्मा के दिए हुए हैं। परमात्मा ही गरीबों का (असल) संबंधी है, परमात्मा ही आत्मिक जीवन देने वाला है, परमात्मा ही शरण पड़े की रक्षा करने में समर्थ है।1। मेरे मन धिआइ हरि हरि नाउ ॥ हलति पलति सहाइ संगे एक सिउ लिव लाउ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मन = हे मन! हलति = (अत्र) इस लोक में। पलति = (परत्र) परलोक में। सहाइ = सहाई। संगे = साथ रहने वाला। लिव लाउ = तवज्जो/ध्यान जोड़।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मन! सदा परमात्मा का नाम स्मरण करता रह। परमात्मा ही इस लोक में और परलोक में तेरी सहायता करने वाला है तेरे साथ रहने वाला है। एक परमात्मा के साथ ही तवज्जो जोड़े रख।1। रहाउ। बेद सासत्र जन धिआवहि तरण कउ संसारु ॥ करम धरम अनेक किरिआ सभ ऊपरि नामु अचारु ॥२॥ पद्अर्थ: जन = लोक। धिआवहि = विचारते हैं। कउ = वास्ते। करम धरम = (वेदों-शास्त्रों के अनुसार निहित हुई) धार्मिक मर्यादा।2। अर्थ: हे भाई! संसार-समुंदर से पार लांघने के वास्ते लोग वेदों-शास्त्रों को विचारते हैं (और उनके बताए मुताबिक निहित) अनेक धार्मिक कर्म व अन्य साधन करते हैं। पर परमात्मा का नाम-स्मरण एक ऐसा धार्मिक उद्यम है जो उन निहित सब धार्मिक कर्मों से ऊँचा है श्रेष्ठ है।2। कामु क्रोधु अहंकारु बिनसै मिलै सतिगुर देव ॥ नामु द्रिड़ु करि भगति हरि की भली प्रभ की सेव ॥३॥ पद्अर्थ: बिनसै = नाश हो जाता है। सतिगुर मिलै = (जो मनुष्य) गुरु को मिलता है।3। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु-देव को मिल जाता है (और उसकी शिक्षा के अनुसार परमात्मा का नाम स्मरण करता है, उसके मन में से) काम-वासना दूर हो जाती है क्रोध मिट जाता है, अहंकार खत्म हो जाता है। (हे भाई! तू भी अपने हृदय में) परमात्मा का नाम पक्की तरह टिकाए रख, परमात्मा की भक्ति कर। परमात्मा की सेवा-भक्ति ही बढ़िया काम है।3। चरण सरण दइआल तेरी तूं निमाणे माणु ॥ जीअ प्राण अधारु तेरा नानक का प्रभु ताणु ॥४॥२॥१३७॥ पद्अर्थ: दइआल = हे दयालु! जीअ अधारु = जीवात्मा का आसरा। ताणु = सहारा।4। अर्थ: हे दया के घर प्रभु! मैंने तेरे चरणों की ओट ली है, तू ही मुझ निमाणे को आदर देने वाला है। हे प्रभु! मुझे अपनी जिंद वास्ते, प्राणों के वास्ते तेरा ही सहारा है। हे भाई! (दास) नानक का आसरा परमात्मा ही है।4।2।137। आसा महला ५ ॥ डोलि डोलि महा दुखु पाइआ बिना साधू संग ॥ खाटि लाभु गोबिंद हरि रसु पारब्रहम इक रंग ॥१॥ पद्अर्थ: डोलि डोलि = (असल संगी परमात्मा से) श्रद्धा हीन हो के कभी इधर कभी उधर। साधू = गुरु। खाटि = कमा के। हरि रसु = हरि नाम का स्वाद। पारब्रहम इक रंग = एक परमात्मा (के मिलाप) का आनंद।1। अर्थ: (हे मन!) गुरु की संगति से वंचित रह के (असल सहाई परमात्मा से) सिदक-हीन हो हो के तू बड़ा दुख सहता रहा। अब तो हरि-नाम का स्वाद चख, एक परमात्मा के मिलाप का आनंद ले (यही है जीवन का) लाभ (ये) कमा ले।1। हरि को नामु जपीऐ नीति ॥ सासि सासि धिआइ सो प्रभु तिआगि अवर परीति ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: को = का। नीति = नित्य, सदा। सासि सासि = हरेक सांस के साथ। अवर = और दूसरी।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम सदा जपते रहना चाहिए। (हे भाई!) हरेक सांस के साथ उस परमात्मा को स्मरण करता रह, औरों की प्रीति त्याग दे।1। रहाउ। करण कारण समरथ सो प्रभु जीअ दाता आपि ॥ तिआगि सगल सिआणपा आठ पहर प्रभु जापि ॥२॥ पद्अर्थ: करण कारण = सारे जगत का मूल। जीअ दाता = आत्मिक जीवन देने वाला।2। अर्थ: (हे भाई! दुखों से छुटकारा पाने के लिए) और सारी चतुराईयां छोड़ दे, आठों पहर प्रभु को याद करता रह। वह प्रभु ही सारे जगत का मूल है, (दुख दूर करने के) समर्थ है, वह खुद ही आत्मिक जीवन देने वाला है।2। मीतु सखा सहाइ संगी ऊच अगम अपारु ॥ चरण कमल बसाइ हिरदै जीअ को आधारु ॥३॥ पद्अर्थ: सखा = दोस्त। सहाइ = सहाई। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। हिरदै = हृदय में। जीअ को = जिंद को।3। अर्थ: हे भाई! वह सबसे ऊँचा, अगम्य (पहुँच से परे) व बेअंत परमात्मा ही तेरा असल मित्र है दोस्त है सहायक है साथी है, उसके सोहाने कोमल चरण अपने दिल में बसाए रख, वही जिंद का (असली) सहारा है।3। करि किरपा प्रभ पारब्रहम गुण तेरा जसु गाउ ॥ सरब सूख वडी वडिआई जपि जीवै नानकु नाउ ॥४॥३॥१३८॥ पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! गाउ = गाऊँ। जपि = जप के। जीवै नानकु = नानक जीता है।4। अर्थ: हे प्रभु! हे पारब्रहम! मेहर कर मैं सदा तेरे गुण गाता रहूँ तेरी महिमा करता रहूँ। (तेरी महिमा में ही) सारे सुख हैं और बड़ी इज्जत है। (तेरा दास) नानक तेरा नाम स्मरण करके आत्मिक जीवन प्राप्त करता है।4।3।138। आसा महला ५ ॥ उदमु करउ करावहु ठाकुर पेखत साधू संगि ॥ हरि हरि नामु चरावहु रंगनि आपे ही प्रभ रंगि ॥१॥ पद्अर्थ: करउ = मैं करूँ। करावहु = तू कराता रह। ठाकुर = हे ठाकुर! साधू संगि = गुरु की संगति में। चरावहु = चढ़ाऔ। रंगनि = रंगने। प्रभ = हे प्रभु! रंगि = (अपने नाम रंग में) रंग।1। अर्थ: हे मेरे मालिक! (मुझसे ये उद्यम) करवाता रह, गुरु की संगति में तेरे दर्शन करते हुए मैं तेरा नाम जपने का आहर करता रहूँ। हे प्रभु! मेरे मन पर तू अपने नाम की रंगत चढ़ा दे, तू खुद ही (मेरे मन को अपने प्रेम के रंग में) रंग दे।1। मन महि राम नामा जापि ॥ करि किरपा वसहु मेरै हिरदै होइ सहाई आपि ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: जापि = जपूँ, मैं जपता रहूँ। हिरदै = हृदय में।1। रहाउ। अर्थ: हे प्रभु! (मेरे पर) किरपा कर, मेरे दिल में आ बस। यदि तू मेरा मददगार बने तो मैं अपने मन में तेरा राम-नाम जपता रहूँ।1। रहाउ। सुणि सुणि नामु तुमारा प्रीतम प्रभु पेखन का चाउ ॥ दइआ करहु किरम अपुने कउ इहै मनोरथु सुआउ ॥२॥ पद्अर्थ: प्रीतम = हे प्रीतम! पेखन का = देखने का। किरम = कीड़ा, नाचीज। सुआउ = गर्ज।2 अर्थ: हे मेरे प्यारे! तू मेरा मालिक है, अपने इस नाचीज सेवक पर मेहर कर कि तेरा नाम सुन-सुन के मेरे अंदर तेरे दर्शनों का चाव बना रहे- मेरा ये उद्देश्य पूरा कर, मेरी ये अभिलाषा पूरी कर।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |