श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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तनु धनु तेरा तूं प्रभु मेरा हमरै वसि किछु नाहि ॥ जिउ जिउ राखहि तिउ तिउ रहणा तेरा दीआ खाहि ॥३॥

पद्अर्थ: वसि = वश में। खाहि = खाते हैं।3।

अर्थ: (हे प्रभु!) मेरा ये शरीर, मेरा ये धन सब कुछ तेरा ही दिया हुआ है, तू ही मेरा मालिक है। (हम जीव अपने उद्यम से तेरे नाम जपने के योग्य भी नहीं हैं) हमारे बस में कुछ भी नहीं है। तू हम जीवों को जिस-जिस हाल में रखता है उसी तरह ही हम जीवन बिताते हैं, हम तेरा ही दिया हुआ हरेक पदार्थ खाते हैं।3।

जनम जनम के किलविख काटै मजनु हरि जन धूरि ॥ भाइ भगति भरम भउ नासै हरि नानक सदा हजूरि ॥४॥४॥१३९॥

पद्अर्थ: किलविख = पाप। मजनु = स्नान। धूरि = चरणों की धूल। भाइ = प्रेम से।4।

अर्थ: हे नानक! (कह:) परमात्मा के सेवकों (के चरणों) की धूल में (किया हुआ) स्नान (मनुष्य के) जन्मों-जन्मांतरों के (किए हुए) पाप दूर कर देता है, प्रभु-प्रेम से भक्ति की इनायत से (मनुष्य का) हरेक किस्म का डर वहम नाश हो जाता है, और परमात्मा सदा अंग-संग प्रतीत होने लग पड़ता है।4।4।139।

आसा महला ५ ॥ अगम अगोचरु दरसु तेरा सो पाए जिसु मसतकि भागु ॥ आपि क्रिपालि क्रिपा प्रभि धारी सतिगुरि बखसिआ हरि नामु ॥१॥

पद्अर्थ: अलख = हे अगम्य (पहुँच से परे) प्रभु! अगोचरु = (अ+गो+चरु। गो = ज्ञान-इंद्रिय। चरु = पहुँच) जिस तक ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच नहीं हो सकती। मसतकि = माथे पर। क्रिपालि = कृपालु ने। प्रभि = प्रभु ने। सतिगुरि = सतिगुर ने।1।

अर्थ: हे अगम्य (पहुँच से परे) प्रभु! तू मनुष्यों की ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच से परे है, तेरे दर्शन वही मनुष्य करता है, जिसके मस्तक के भाग्य जाग पड़ते हैं। (हे भाई! जिस मनुष्य पर) कृपा के घर परमात्मा ने कृपा की निगाह की सतिगुरु ने उसे परमात्मा के नाम (-जपने की दाति) बख्श दी।1।

कलिजुगु उधारिआ गुरदेव ॥ मल मूत मूड़ जि मुघद होते सभि लगे तेरी सेव ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: कलिजुगु = (भाव) कलजुगी जीवों को, विकारी जीवों को। गुरदेव = हे गुरदेव! मल मूत = गंदे। जि = जो। मुघद = मूर्ख। सभि = सारे।1। रहाउं

अर्थ: हे सतिगुरु! तूने (तो) कलियुग को भी बचा लिया है (जिसे और युगों से बुरा समझा जाता है, भाव जो भी पहले) गंदे व मूर्ख (थे वह) सारे तेरी सेवा में आ के लगे हैं (तेरी बताई प्रभु की सेवा-भक्ति करने लग पड़े हैं)।1। रहाउ।

तू आपि करता सभ स्रिसटि धरता सभ महि रहिआ समाइ ॥ धरम राजा बिसमादु होआ सभ पई पैरी आइ ॥२॥

पद्अर्थ: बिसमादु = हैरान। धरता = सहारा देने वाला।2।

अर्थ: हे प्रभु! तू स्वयं सारी सृष्टि को पैदा करने वाला है तू स्वयं (ही) सारी सृष्टि को आसरा देने वाला है, तू स्वयं ही सारी सृष्टि में व्यापक है (फिर कोई युग अच्छा कैसे? और कोई जुग बुरा कैसे? चाहे इस कलियुग को चारों युगों से बुरा कहा जाता है, फिर भी) धर्मराज हैरान हो रहा है (कि गुरु की कृपा से विकारों से हट के) सारी लुकाई तेरे चरणों में जुड़ रही है। (सो, अगर पुराने विचारों की तरफ भी जाएं तो भी ये कलियुग बुरा युग नहीं, और ये जुग जीवों को बुरे-कर्मों की ओर नहीं प्रेरता)।2।

सतजुगु त्रेता दुआपरु भणीऐ कलिजुगु ऊतमो जुगा माहि ॥ अहि करु करे सु अहि करु पाए कोई न पकड़ीऐ किसै थाइ ॥३॥

पद्अर्थ: भणीऐ = कहा जाता है। अहि करु = इस हाथ। किसै थाइ = किसी दूसरी जगह।3।

अर्थ: हे भाई! सतियुग को, त्रेते को, द्वापर को (अच्छा) युग कहा जाता है (पर, प्रत्यक्ष दिख रहा है कि बल्कि) कलियुग सारे युगों में श्रेष्ठ है (क्योंकि इस जुग में) जो हाथ कोई कर्म करता है, वही हाथ उसका फल भुगतता है। कोई मनुष्य किसी और मनुष्य की जगह (विकारों के कारण) पकड़ा नहीं जाता।3।

हरि जीउ सोई करहि जि भगत तेरे जाचहि एहु तेरा बिरदु ॥ कर जोड़ि नानक दानु मागै अपणिआ संता देहि हरि दरसु ॥४॥५॥१४०॥

पद्अर्थ: करहि = तू करता है। जाचहि = मांगते हैं। बिरदु = मूल प्राकृतिक स्वभाव। कर = (दोनों) हाथ। जोड़ि = जोड़ के। हरि = हे हरि! 4।

अर्थ: हे भाई! (कोई भी युग हो, तू अपने भक्तों की लज्जा सदा रखता आया है) तू वही कुछ करता है जो तेरे भक्त तुझसे मांगते हैं, ये तेरा बिरद है (मूल स्वभाव है)। हे हरि! (तेरा दास नानक भी अपने) दोनों हाथ जोड़ के (तेरे दर से) दान मांगता है कि नानक को अपने संत-जनों का दर्शन दे।4।5।140।


रागु आसा महला ५ घरु १३    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

सतिगुर बचन तुम्हारे ॥ निरगुण निसतारे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सतिगुर = हे सतिगुरु! निरगुण = गुण हीन लोग।1। रहाउ।

अर्थ: हे सतिगुरु! तेरे वचन ने (तेरी शरण पड़े अनेक) गुण-हीन लोगों को (संसार-समुंदर से) पार लंघा दिया।1। रहाउ।

महा बिखादी दुसट अपवादी ते पुनीत संगारे ॥१॥

पद्अर्थ: बिखादी = झगड़ालू। अपवादी = बुरे वचन बोलने वाले। ते = वह लोग। संगारे = (तेरी) संगत में।1।

अर्थ: हे सतिगुरु! तेरी संगति में रह के वे लोग भी पवित्र आचरण वाले बन गए, जो पहले बड़े कटु स्वभाव वाले थे, बुरे आचरण वाले थे और गलत बोल बोलने वाले थे।1।

जनम भवंते नरकि पड़ंते तिन्ह के कुल उधारे ॥२॥

पद्अर्थ: नरकि = नर्क में।2।

अर्थ: हे सतिगुरु! तूने उन लोगों के कुलों के कुल (विकारों में गिरने से) बचा लिए, जो अनेक जूनियों में भटकते आ रहे थे और (जनम-मरण के चक्कर के) नर्क में पड़े हुए थे।2।

कोइ न जानै कोइ न मानै से परगटु हरि दुआरे ॥३॥

पद्अर्थ: मानै = आदर देता। दुआरे = दर पर।3।

अर्थ: हे सतिगुरु! तेरी मेहर से वे मनुष्य भी प्रभु के दर पर आदर-मान पाने के लायक हो गए, जिन्हें पहले कोई जानता-पहचानता ही नहीं था जिन्हें (जगत में) कोई आदर नहीं था देता।3।

कवन उपमा देउ कवन वडाई नानक खिनु खिनु वारे ॥४॥१॥१४१॥

पद्अर्थ: देउ = में दूँ। वारे = कुर्बान।4।

अर्थ: हे नानक! (कह: हे सतिगुरु!) मैं तेरे जैसा और किसे कहूँ? मैं तेरी क्या तारीफ करूँ? मैं तुझसे हरेक पल कुर्बान जाता हूँ।4।1।141।

नोट: यहाँ से घरु 13 के शबदों का संग्रह आरम्भ होता है। देखें अंक1।

आसा महला ५ ॥ बावर सोइ रहे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: बावर = कमले, झल्ले, पागल।1। रहाउ।

अर्थ: (माया के मोह में) बावरे हुए मनुष्य (गलफ़त की नींद में) सोए रहते हैं।1। रहाउ।

मोह कुट्मब बिखै रस माते मिथिआ गहन गहे ॥१॥

पद्अर्थ: बिखै रस = विषियों के रस में। मिथिआ गहन गहे = झूठे मैदान फतह करते हैं।1।

अर्थ: (हे भाई! ऐसे लोग) परिवार के मोह और विषियों के स्वादों में मस्त हो के झूठे मैदान मारते रहते हैं।1।

मिथन मनोरथ सुपन आनंद उलास मनि मुखि सति कहे ॥२॥

पद्अर्थ: मिथन मनोरथ = झूठी मनो कामनाएं। उलास = चाव, खुशियां। मनि = मन में। मुखि = मुंह से। सति = सदा कायम रहने वाले।2।

अर्थ: (हे भाई! माया के मोह में पागल हुए मन) उन पदार्थों की लालसा करते रहते हैं जिनसे साथ नहीं निभना जो सुपने में प्रतीत हो रहे मौज-मेलों की भांति हैं, (ऐसे लोग) इन पदार्थों को अपने मन में सदा कायम रहने वाला समझते हैं, मुंह से भी उन्हें ही पक्के साथी कहते हैं।2।

अम्रितु नामु पदारथु संगे तिलु मरमु न लहे ॥३॥

पद्अर्थ: अंम्रित नामु = आत्मिक जीवन देने वाला हरि नाम। मरमु = भेद।3।

अर्थ: हे भाई! आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम ही सदा साथ देने वाला पदार्थ है, पर माया के मोह में झल्ले हुए मनुष्य इस हरि-नाम का भेद तिल भर भी नहीं समझते।3।

करि किरपा राखे सतसंगे नानक सरणि आहे ॥४॥२॥१४२॥

पद्अर्थ: आहे = आए हैं।4।

अर्थ: (जीवों के भी क्या वश?) हे नानक! प्रभु मेहर करके जिस मनुष्यों को साधु-संगत में रखता है वही उस प्रभु की शरण में आए रहते हैं।4।2।142।

आसा महला ५ तिपदे ॥ ओहा प्रेम पिरी ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: प्रेम पिरी = प्यारे का प्रेम।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई! मुझे तो) प्यारे (प्रभु) का वह प्रेम ही (चाहिए)।1। रहाउ।

कनिक माणिक गज मोतीअन लालन नह नाह नही ॥१॥

पद्अर्थ: कनिक = सोना। माणिक = मोती। गज मातीअन = बड़े बड़े मोती।1।

अर्थ: (हे भाई! प्रभु के प्यार के बदले में) सोना, मोती, बड़े बड़े मोती, हीरे लाल- मुझे इनमें से कुछ भी नहीं चाहिए, नहीं चाहिए।1।

राज न भाग न हुकम न सादन ॥ किछु किछु न चाही ॥२॥

पद्अर्थ: साद = स्वादिष्ट खाने। चाही = मैं चाहता हूँ।2।

अर्थ: (हे भाई! प्रभु के प्यार की जगह) ना राज, ना धन-पदार्थ, ना हकूमत ना ही स्वादिष्ट खाने- मुझे किसी भी चीज की जरूरत नहीं।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh