श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 407 चरनन सरनन संतन बंदन ॥ सुखो सुखु पाही ॥ नानक तपति हरी ॥ मिले प्रेम पिरी ॥३॥३॥१४३॥ पद्अर्थ: बंदन = नमस्कार। सुखो सुखु = सुख ही सुख। पाही = मैं पाता हूँ। हरी = हर ली, दूर की।3। अर्थ: हे भाई! संत-जनों के चरणों की शरण, संत-जनों के चरणों पे नमस्कार- मैं इसी में सुख ही सुख अनुभव करता हूँ। हे नानक! अगर प्यारे प्रभु का प्रेम मिल जाए तो वह मन में से तृष्णा की जलन दूर कर देता है।3।3।143। आसा महला ५ ॥ गुरहि दिखाइओ लोइना ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: गुरहि = गुरु ने। लोइना = (इन) आँखों से।1। रहाउ। अर्थ: (हे मोहन प्रभु!) गुरु ने मुझे इन आँखो से तेरे दर्शन करा दिए हैं।1। रहाउ। ईतहि ऊतहि घटि घटि घटि घटि तूंही तूंही मोहिना ॥१॥ पद्अर्थ: ईतहि = इस लोक में। ऊतहि = उस लोक में। घटि घटि = हरेक शरीर में। मोहिना = हे मोहन प्रभु!।1। अर्थ: (अब) हे मोहन! इस लोक में, परलोक में, हरेक शरीर में, हरेक हृदय में (मुझे) तू ही दिख रहा है।1। कारन करना धारन धरना एकै एकै सोहिना ॥२॥ पद्अर्थ: कारन करना = जगत का मूल रचने वाला। धरना = सृष्टि। सोहिना = हे सोहणे प्रभु!।2। अर्थ: (अब) हे सोहाने प्रभु! (मुझे यकीन हो गया है कि) एक तू ही सारे जगत का मूल रचने वाला है, एक तू ही सारी सृष्टि को सहारा देने वाला है।2। संतन परसन बलिहारी दरसन नानक सुखि सुखि सोइना ॥३॥४॥१४४॥ पद्अर्थ: परसन = छूने। सुखि = सुख में। सोइना = लीनता।3। अर्थ: हे नानक! (कह: हे मोहन प्रभु!) मैं तेरे संतों के चरण छूता हूँ उनके दर्शनों से सदके जाता हूँ। (संतों की कृपा से ही तेरा मिलाप होता है, और) सदा के लिए आत्मिक आनंद में लीनता प्राप्त होती है।3।4।144। आसा महला ५ ॥ हरि हरि नामु अमोला ॥ ओहु सहजि सुहेला ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: अमोला = जो किसी भी मूल्य से ना मिल सके। ओहु = वह (मनुष्य)। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुहेला = आसान।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को परमात्मा का अमोलक नाम प्राप्त हो जाता है वह मनुष्य आत्मिक अडोलता में टिका रहता है वह मनुष्य आसान जीवन व्यतीत करता है।1। रहाउ। संगि सहाई छोडि न जाई ओहु अगह अतोला ॥१॥ पद्अर्थ: संगि = साथ। सहाई = साथी। ओहु = वह (परमात्मा)। अगाह = जो पकड़ा ना जा सके।1। अर्थ: हे भाई! परमात्मा ही सदा साथ रहने वाला साथी है, वह कभी छोड़ के नहीं जाता, पर वह (किसी चतुराई-समझदारी से) वश में नहीं आता उसके बराबर और कोई नहीं है।1। प्रीतमु भाई बापु मोरो माई भगतन का ओल्हा ॥२॥ पद्अर्थ: मोरो = मेरा। ओला = सहारा।2। अर्थ: हे भाई! वह परमात्मा ही मेरा प्रीतम है मेरा भाई है मेरा पिता है और मेरी माँ है, वह परमात्मा ही अपने भक्तों (की जिंदगी) का सहारा है।2। अलखु लखाइआ गुर ते पाइआ नानक इहु हरि का चोल्हा ॥३॥५॥१४५॥ पद्अर्थ: अलखु = जिस का सही स्वरूप समझ में ना आ सके। गुर ते = गुरु से। चोला = चोहल, अजब करिश्में।3। अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) उस परमात्मा का सही स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता, गुरु ने मुझे उसकी समझ बख्श दी है, गुरु से मैंने उसका मिलाप हासिल किया है। ये उस परमात्मा का एक अजब तमाशा है (कि वह गुरु के द्वारा मिल जाता है)।3।4।145। आसा महला ५ ॥ आपुनी भगति निबाहि ॥ ठाकुर आइओ आहि ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: निबाहि = सदा वास्ते दिए रख। ठाकुर = हे ठाकुर! आहि = तमन्ना करके।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मालिक! मैं तमन्ना करके (तेरी शरण) आया हूँ, मुझे अपनी भक्ति सदा दिए रख।1। रहाउ। नामु पदारथु होइ सकारथु हिरदै चरन बसाहि ॥१॥ पद्अर्थ: पदारथु = कीमती चीज। सकारथु = सफल कामयाब। बसाहि = बसाए रख।1। अर्थ: हे मेरे मालिक! अपने चरण मेरे दिल में बसाए रख, मुझे अपना कीमती नाम दिये रख, ता कि मेरा जीवन सफल हो जाए।1। एह मुकता एह जुगता राखहु संत संगाहि ॥२॥ पद्अर्थ: मुकता = मुक्ति। जुगता = युक्ति। संगाहि = संगति में।2। अर्थ: हे मेरे मालिक! मुझे अपने संतों की संगति में रखे रख, यही मेरे वास्ते मुक्ति है, और यही मेरे वास्ते जीवन-युक्ति है।2। नामु धिआवउ सहजि समावउ नानक हरि गुन गाहि ॥३॥६॥१४६॥ पद्अर्थ: धिआवउ = मैं स्मरण करता हूँ। सहजि = आत्मिक अडोलता में। गाहि = गाह के, डुबकी लगा के।3। अर्थ: हे नानक! (कह:) हे हरि! (मेहर कर) तेरे गुणों में डुबकी लगा के मैं तेरा नाम स्मरण करता रहूँ और आत्मिक अडोलता में टिका रहूँ।3।6।146। आसा महला ५ ॥ ठाकुर चरण सुहावे ॥ हरि संतन पावे ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सुहावे = सुख देने वाले, सोहने। पावे = प्राप्त किए।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) मालिक प्रभु के चरण सोहणे हैं, पर प्रभु के संतों को (इनका मिलाप) प्राप्त होता है।1। रहाउ। आपु गवाइआ सेव कमाइआ गुन रसि रसि गावे ॥१॥ पद्अर्थ: आपु = स्वै भाव। रसि = रस से, आनंद से। गावे = गाए हैं।1। अर्थ: (हे भाई! परमात्मा के संत) स्वैभाव दूर करके परमातमा की सेवा-भक्ति करते हैं और उसके गुण बड़े आनंद से गाते रहते हैं।1। एकहि आसा दरस पिआसा आन न भावे ॥२॥ पद्अर्थ: एकहि = एक (परमात्मा) की ही। पिआसा = चाहत। आन = कुछ और।2। अर्थ: (हे भाई! परमात्मा के संतों को) एक परमात्मा की (सहायता की) ही आशा टिकी रहती है, उन्हें परमात्मा के दर्शनों की चाहत लगी रहती है (इसके बिना) कोई और (दुनियावी आशाएं) अच्छी नहीं लगती।2। दइआ तुहारी किआ जंत विचारी नानक बलि बलि जावे ॥३॥७॥१४७॥ पद्अर्थ: नानक = हे नानक!।3। अर्थ: हे नानक! (कह: हे प्रभु! तेरे संतों के हृदय में तेरे चरणों का प्रेम होना-ये) तेरी ही मेहर है (नहीं तो) बिचारे जीवों का क्या जोर है। हे प्रभु! मैं तुझसे कुर्बान जाता हूँ।3।7।147। आसा महला ५ ॥ एकु सिमरि मन माही ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मन माही = मन में।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई! अपने) मन में एक परमात्मा को स्मरण करता रह।1। रहाउ। नामु धिआवहु रिदै बसावहु तिसु बिनु को नाही ॥१॥ पद्अर्थ: रिदै = हृदय में। को = कोई (और)।1। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम स्मरण किया करो, हरि-नाम अपने दिल में बसाए रखो। परमात्मा के बिना और कोई (सहायता करने वाला) नहीं है।1। प्रभ सरनी आईऐ सरब फल पाईऐ सगले दुख जाही ॥२॥ पद्अर्थ: आईऐ = आना चाहिए। सगले = सारे। जाही = जाते हैं, दूर हो जाते हैं।2। अर्थ: (हे भाई!) आओ, परमात्मा की शरण पड़े रहें (और परमात्मा से) सारे फल हासिल करें। (परमात्मा की शरण पड़ने से) सारे दुख दूर हो जाते हैं।2। जीअन को दाता पुरखु बिधाता नानक घटि घटि आही ॥३॥८॥१४८॥ पद्अर्थ: को = का। बिधाता = विधाता। घटि घटि = हरेक घट में। आही = है।3। अर्थ: हे नानक! (कह:) विधाता अकाल-पुरख सब जीवों को दातें देने वाला है, वह हरेक शरीर में मौजूद है।3।8।148। आसा महला ५ ॥ हरि बिसरत सो मूआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सो = वह मनुष्य। मूआ = आत्मिक मौत मर गया।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को परमात्मा की याद भूल गई वह आत्मिक मौत मर गया।1। रहाउ। नामु धिआवै सरब फल पावै सो जनु सुखीआ हूआ ॥१॥ पद्अर्थ: सुखीआ = सुखी। पावै = प्राप्त कर लेता है।1। अर्थ: जो मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करता रहता है, वह सारे (मन-इच्छित) फल हासिल कर लेता है और आसान जीवन गुजारता है।1। राजु कहावै हउ करम कमावै बाधिओ नलिनी भ्रमि सूआ ॥२॥ पद्अर्थ: राजु = राजा। हउ करम = अहंकार के कर्म। भ्रमि = भ्रम में, वहम में। सूआ = तोता। नलिनी = (वह नलकी जिससे तोते को पकड़ते हैं। एक खाली नलकी किसी सीख आदि में परो के दोनों सिरों पर डंडों आदि का सहारा दे के चरखी सी बना ली जाती है। उसके ऊपर चोगा रखने का प्रबंध किया जाता है। नीचे पानी भरा खुला बरतन रखा जाता है। तोता चोगे की लालच में चरखी के ऊपर बैठता है, वह उस तोते के भार से उलट जाती है। नीचे पानी देख के तोता पानी में गिरने से बचने के लिए नलकी को कस के पकड़े रखता है और पकड़ा जाता है)।2। अर्थ: (पर, हे भाई! परमात्मा का नाम बिसार के जो मनुष्य अपने आप को) राजा (भी) कहलवाता है वह अहंकार पैदा करने वाले काम (ही) करता है वह (राज के गुरूर में ऐसे) बंधा रहता है जैसे (डूबने से बचे रहने के) वहम में तोता नलकी से चिपका रहता है।2। कहु नानक जिसु सतिगुरु भेटिआ सो जनु निहचलु थीआ ॥३॥९॥१४९॥ पद्अर्थ: भेटिआ = मिल गया। निहचलु = अटल आत्मिक जीवन वाला। थीआ = हो गया।3। अर्थ: हे नानक! कह: जिस मनुष्य को सतिगुरु मिल जाता है वह मनुष्य अटल आत्मिक जीवन वाला बन जाता है।3।9।149। आसा महला ५ घरु १४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ ओहु नेहु नवेला ॥ अपुने प्रीतम सिउ लागि रहै ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: नेहु = प्यार। नवेला = नया, सजरा। सिउ = साथ।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! जो प्यार प्यारे प्रीतम प्रभु से बना रहता है वह प्यार सदा नया बना रहता है (दुनिया वाले प्यार जल्दी ही फीके पड़ जाते हैं)।1। रहाउ। जो प्रभ भावै जनमि न आवै ॥ हरि प्रेम भगति हरि प्रीति रचै ॥१॥ पद्अर्थ: प्रभ भावै = प्रभु को प्यारा लगता है। जनमि = (बार बार) जनम में। रचै = मस्त रहता है।1। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य प्रभु को प्यारा लगने लग जाता है (वह उस प्यार की इनायत से बार-बार) जनम में नहीं आता। जिस मनुष्य को हरि का प्रेम प्राप्त हो जाता है हरि की भक्ति प्राप्त हो जाती है वह (सदा) हरि की प्रीति में मस्त रहता है।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |