श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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प्रभ संगि मिलीजै इहु मनु दीजै ॥ नानक नामु मिलै अपनी दइआ करहु ॥२॥१॥१५०॥

पद्अर्थ: संगि = साथ। मिलीजै = मिल सकते हैं। दीजै = अगर दिया जाए। नानक = नानक को।2।

अर्थ: (पर, हे भाई! इस प्यार का मूल्य भी देना पड़ता है) प्रभु (के चरणों) में (तभी) मिल सकते हैं अगर (अपना) ये मन उसके हवाले कर दें, (ये बात परमात्मा की मेहर से ही हो सकती है, इस वास्ते) हे नानक! (अरदास कर और कह: हे प्रभु!) अपनी मेहर कर (ता कि तेरे दास) नानक को तेरा नाम (तेरे नाम का प्यार) प्राप्त हो जाए।2।1।150।

नोट: घरु 14 के शबदों का संग्रह आरम्भ हुआ है।

आसा महला ५ ॥ मिलु राम पिआरे तुम बिनु धीरजु को न करै ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: राम = हे राम! धीरजु = शांति। को = और कोई भी।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे प्यारे राम! (मुझे) मिल। तेरे मिलाप के बिना और कोई भी (उद्यम) मेरे मन में शांति पैदा नहीं कर सकता।1। रहाउ।

सिम्रिति सासत्र बहु करम कमाए प्रभ तुमरे दरस बिनु सुखु नाही ॥१॥

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु!।1।

अर्थ: हे प्यारे राम! अनेक लोगों ने शास्त्रों-स्मृतियों के लिखे अनुसार (निहित धार्मिक) कर्म किए, पर, हे प्रभु! (इन कर्मों से तेरे दर्शन नसीब ना हुए, और) तेरे दर्शन के बिना आत्मिक आनंद नहीं मिलता।1।

वरत नेम संजम करि थाके नानक साध सरनि प्रभ संगि वसै ॥२॥२॥१५१॥

पद्अर्थ: संजम = इन्द्रियों को काबू करने के साधन। करि = कर के। साध = गुरु। संगि = साथ।2।

अर्थ: हे प्रभु! (शास्त्रों के कहे अनुसार) अनेक लोग व्रत रखते रहे, कई नेम निभाते रहे, इन्द्रियों को वश करने के यत्न करते रहे, पर ये सब कुछ करके वे थक गए (तेरे दर्शन प्राप्त ना हुए)।

हे नानक! गुरु की शरण पड़ने से (मनुष्य का मन) परमात्मा (के चरणों) में लीन हो जाता है (और मन को शांति प्राप्त हो जाती है)।2।2।151।

आसा महला ५ घरु १५ पड़ताल    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

बिकार माइआ मादि सोइओ सूझ बूझ न आवै ॥ पकरि केस जमि उठारिओ तद ही घरि जावै ॥१॥

पद्अर्थ: मादि = मद में, नशे में। सूझ बूझ = (सही जीवन की) समझ। पकरि = पकड़ के। जमि = जम ने। घरि जावै = अपने घर में जाता है, होश में आता है (कि सारी उम्र गलती करता रहा)।1।

अर्थ: (हे भाई!) विकारों में माया के नशे में मनुष्य सोया रहता है, इसे (सही जीवन-राह की) समझ नहीं आती। (जब अंत समय में) यम ने इसे केसों से पकड़ के उठाया (जब मौत सिर पर आ पहुँची) तब ही इसे होश आती है (कि सारी उम्र गलत रास्ते पर ही पड़ा रहा)।1।

लोभ बिखिआ बिखै लागे हिरि वित चित दुखाही ॥ खिन भंगुना कै मानि माते असुर जाणहि नाही ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: बिखिआ = माया। बिखै = विषो। हिरि = चुरा के। वित = धन। दुखाही = दुखते हैं। खिन भंगुन = छिण भंगुर, हछन में नाश हो जाने वाला। कै मानि = के माण में। असुर = दैत्य, निर्दयी लोग।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई!) माया के लोभ और विषियों में खचित (पराया) धन चुरा के (दूसरों के) दिल दुखाते हैं, पल में साथ छोड़ जाने वाली माया के गुमान में मस्त निर्दयी मनुष्य समझते नहीं (कि ये गलत जीवन-रास्ता है)।1। रहाउ।

बेद सासत्र जन पुकारहि सुनै नाही डोरा ॥ निपटि बाजी हारि मूका पछुताइओ मनि भोरा ॥२॥

पद्अर्थ: पुकारहि = पुकारते हैं। डोरा = बहरा। निपटि = बिल्कुल ही। हारि = हार के। मूका = अंत समय में आ के पहुँचता है। मनि = मन में। भोरा = मूर्ख।2।

अर्थ: (हे भाई!) वेद-शास्त्र (आदि धर्म-पुस्तकें उपदेश करती हैं) संत-जन भी पुकार-पुकार के कहते हैं पर (माया के नशे के कारण) बहरा हो चुका मनुष्य (उनके उपदेश को) सुनता नहीं। जब बिल्कुल ही जीवन बाजी हार के आखिर समय पर आ पहुँचता है तब ये मूर्ख अपने मन में पछताता है।2।

डानु सगल गैर वजहि भरिआ दीवान लेखै न परिआ ॥ जेंह कारजि रहै ओल्हा सोइ कामु न करिआ ॥३॥

पद्अर्थ: डानु = दण्ड। गैर वजहि = अकारण, कारण के बिना ही। दीवान लेखै = परमात्मा के लेखे में। जेंह कारजि = जिस काम (के करने) से। ओला = इज्जत।3।

अर्थ: (हे भाई! माया के नशे में मस्त मनुष्य विकारों में लगा हुआ) व्यर्थ ही दण्ड भोगता है (आत्मिक सजा भुगतता रहता है, ऐसे काम ही करता है जिनके कारण) परमात्मा की हजूरी में स्वीकार नहीं होता। जिस काम के करने से परमात्मा के दर पर इज्जत बने वह काम ये कभी भी नहीं करता।3।

ऐसो जगु मोहि गुरि दिखाइओ तउ एक कीरति गाइआ ॥ मानु तानु तजि सिआनप सरणि नानकु आइआ ॥४॥१॥१५२॥

नोट: पड़ताल = जहाँ ताल बार बार पलटता रहे, बदलता रहे।

पद्अर्थ: मेहि = मुझे। गुरि = गुरु ने। तउ = तब। एक = एक (परमात्मा) की। कीरति = महिमा। तजि = छोड़ के।4।

अर्थ: (हे भाई! जब) गुरु ने मुझे ऐसा (माया से ग्रसित) जगत दिखा दिया तब मैंने एक परमात्मा की महिमा करनी आरम्भ कर दी, तब गुमान त्याग के (और) आसरे छोड़ के, चतुराईयां छोड़ के (मैं दास) नानक परमात्मा की शरण आ पड़ा।4।1।152।

नोट: यहाँ से घरु 15 के शब्द शुरू होते हैं।

आसा महला ५ ॥ बापारि गोविंद नाए ॥ साध संत मनाए प्रिअ पाए गुन गाए पंच नाद तूर बजाए ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: बापारि = व्यापार में, वणज से। नाए = परमात्मा के नाम के। मनाए = प्रसन्न किए। प्रिअ पाए = प्यारे (के दर्शन) पाए। पंच नाद तूर = पाँच किस्म की आवाजें देने वाले बाजे (तंती साज, धात के, फूक से बजाए जाने वाले, तबला आदि, घड़ा आदि)।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा के नाम के व्यापार में लग जाता है, परमात्मा के गुण गाता है, संत-जनों की प्रसन्नता हासिल कर लेता है, उसे प्यारे प्रभु का मिलाप प्राप्त हो जाता है। उसके अंदर जैसे, पाँचों किस्मों के साज बजने लग जाते हैं।1। रहाउ।

किरपा पाए सहजाए दरसाए अब रातिआ गोविंद सिउ ॥ संत सेवि प्रीति नाथ रंगु लालन लाए ॥१॥

पद्अर्थ: सहजाए = सहज अवस्था, आत्मिक अडोलता। रातिआ = रंगे हुए। सिउ = साथ। सेवि = सेवा करके। रंगु लालन = प्यारे प्रभु का प्रेम।1।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा की किरपा से जिस मनुष्य को आत्मिक अडोलता हासिल हो जाती है, परमात्मा के दर्शन हो जाते हैं वह सदा के लिए परमात्मा के प्यार रंग में रंगा जाता है। गुरु की बताई सेवा की इनायत से उसको पति-प्रभु की प्रीति प्राप्त हो जाती है; लाल प्यारे का प्यार रंग चढ़ जाता है।1।

गुर गिआनु मनि द्रिड़ाए रहसाए नही आए सहजाए मनि निधानु पाए ॥ सभ तजी मनै की काम करा ॥ चिरु चिरु चिरु चिरु भइआ मनि बहुतु पिआस लागी ॥ हरि दरसनो दिखावहु मोहि तुम बतावहु ॥ नानक दीन सरणि आए गलि लाए ॥२॥२॥१५३॥

पद्अर्थ: मनि = मन में। रहसाए = रहस, खिलाव। नही आए = जनम मरन के चक्कर में नहीं पड़े। निधानु = खजाना। मनै की = मन की। काम करा = वासना। मोहि = मुझे। गलि = गले से।2।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य अपने मन में गुरु के दिए ज्ञान को पक्का कर लेता है, उसके अंदर खिलाव पैदा हो जाता है वह जनम-मरन के चक्कर में भी नहीं पड़ता। उसके अंदर आत्मिक अडोलता पैदा हो जाती है, वह अपने मन में नाम-खजाना पा लेता है। वह अपने मन की सारी वासनाएं त्याग देता है।

हे नानक! (तू भी अर्ज कर, और कह: हे प्रभु!) मैं दीन तेरी शरण आया हूँ, मुझे अपने गले से लगा ले। (तेरा दर्शन करके मुझे) बहुत चिर हो चुका है, मेरे मन में तेरे दर्शनों की तड़प पैदा हो रही है। हे हरि! मुझे अपने दर्शन दे, तू स्वयं ही मुझे बता (कि मैं कैसे तेरे दर्शन करूँ)।2।2।153।

आसा महला ५ ॥ कोऊ बिखम गार तोरै ॥ आस पिआस धोह मोह भरम ही ते होरै ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: कोऊ = कोई विरला, कोई दुर्लभ। बिखम = मुश्किल। गार = गढ़, किला। तोरै = तोड़ता है, सर करता है। पिआस = माया की तृष्णा। धोह = ठगी। भरम = भटकना। ते = से। होरै = (अपने मन को) रोकता है।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई! जगत में) कोई विरला मनुष्य ही है, जो सख्त किले को तोड़ता है (जिसमें जिंद कैद की हुई है, कोई विरला है, जो अपने मन को) दुनिया की आशाओं, माया की तृष्णा, ठगी-फरेब, मोह और भटकना से रोकता है।1। रहाउ।

काम क्रोध लोभ मान इह बिआधि छोरै ॥१॥

पद्अर्थ: बिआधि = बीमारियां, रोग। छोरै = छोड़ता है।1।

अर्थ: (हे भाई! जगत में कोई दुर्लभ मनुष्य है जो) काम-क्रोध-लोभ-अहंकार आदि बिमारियों को (अपने अंदर से) दूर करता है।1।

संतसंगि नाम रंगि गुन गोविंद गावउ ॥ अनदिनो प्रभ धिआवउ ॥ भ्रम भीति जीति मिटावउ ॥ निधि नामु नानक मोरै ॥२॥३॥१५४॥

पद्अर्थ: संगि = संगत में। रंगि = प्यार में। गावउ = मैं गाता हूँ, गाऊँ। अनदिनो = हर रोज। धिवउ = मैं स्मरण करता हूँ। भ्रम = भटकना। भीति = दीवार। जीति = जीत के। निधि = खजाना। मोरै = मेरे पास, मेरे हृदय में।2।

अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई! इन रोगों से बचने के लिए) मैं तो संत-जनों की संगति में रह के परमात्मा के नाम-रंग में लीन हो के परमात्मा के गुण गाता रहता हूँ, मैं तो हर वक्त परमात्मा का ध्यान धरता हूँ, और इस तरह भटकना की दीवार को जीत के (परमात्मा से बनी हुई दूरी) मिटाता हूँ। (हे भाई!) मेरे पास परमात्मा का नाम-खजाना ही है (जो मुझे विकारों से बचाए रखता है)।2।3।154।

आसा महला ५ ॥ कामु क्रोधु लोभु तिआगु ॥ मनि सिमरि गोबिंद नाम ॥ हरि भजन सफल काम ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: तिआगु = छोड़ के। मनि = मन में। काम = (सारे) काम।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई! अपने) मन में परमात्मा का नाम स्मरण करता रह (और नाम की इनायत से अपने अंदर से) काम-क्रोध और लोभ दूर कर ले। परमात्मा के स्मरण से सारे काम सफल हो जाते हैं।1। रहाउ।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh