श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 409 तजि मान मोह विकार मिथिआ जपि राम राम राम ॥ मन संतना कै चरनि लागु ॥१॥ पद्अर्थ: तजि = त्याग के। मिथिआ = झूठ। मन = हे मन! कै चरनि = के चरण में।1। अर्थ: हे मन! अहंकार-मोह-विकार-झूठ त्याग दे, सदा परमात्मा का स्मरण किया कर, और संत-जनों की शरण पड़ा रह।1। प्रभ गोपाल दीन दइआल पतित पावन पारब्रहम हरि चरण सिमरि जागु ॥ करि भगति नानक पूरन भागु ॥२॥४॥१५५॥ पद्अर्थ: गोपाल = सृष्टि के पालक। पतित = विकारों में गिरे हुए। पावन = पवित्र (करने वाला)। जागु = (विकारों से) सुचेत रह। भागु = भाग्य।2। अर्थ: हे भाई! उस हरि-प्रभु के चरणों का ध्यान धर के (माया के हमलों से) सचेत रह, जो धरती का रखवाला है जो दीनों पे दया करने वाला है और जो विकारों में गिरे हुए लोगों को पवित्र करने वाला है। हे नानक! (कह: हे भाई!) परमात्मा की भक्ति कर, तेरे भाग्य जाग जाएंगे।2।4।155। आसा महला ५ ॥ हरख सोग बैराग अनंदी खेलु री दिखाइओ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: हरख = खुशी। सोग = गम। बैराग = उपरामता। अनंदी = आनंद स्व्रूप् परमात्मा ने। खेल = जगत तमाशा। री = हे सखी!।1। रहाउ। अर्थ: हे सहेली! (हे सत्संगी!) आनंद-रूप परमात्मा ने मुझे ये जगत-तमाशा दिखा दिया है (इस जगत-तमाशे की अस्लियत दिखा दी है)। (इसमें कहीं) खुशी है (कहीं) ग़म है (कहीं) वैराग है।1। रहाउ। खिनहूं भै निरभै खिनहूं खिनहूं उठि धाइओ ॥ खिनहूं रस भोगन खिनहूं खिनहू तजि जाइओ ॥१॥ पद्अर्थ: खिन हूं = एक छिन में। भै = डर। निरभै = निर्भैता। उठि धाइओ = उठ के दौड़ता है। रस = स्वादिष्ट पदार्थ। तजि जाइओ = छोड़ जाता है।1। नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन। अर्थ: (हे सत्संगी! इस जगत-तमाशे में कहीं) एक पल में अनेक डर (आ घेरते हैं, कहीं) निडरता है (कहीं कोई दुनियावी पदार्थों की ओर) उठ के भागता है, कहीं एक पल में स्वादिष्ट पदार्थ भोगे जा रहे हैं कहीं कोई एक पल में इन भोगों को त्याग जाता है।1। खिनहूं जोग ताप बहु पूजा खिनहूं भरमाइओ ॥ खिनहूं किरपा साधू संग नानक हरि रंगु लाइओ ॥२॥५॥१५६॥ पद्अर्थ: ताप = धूणिआं आदि तपानी। साधू = गुरु। रंगु = प्रेम।2। अर्थ: (हे सखी! इस जगत-तमाशे में कहीं) जोग-साधना की जा रही है, कहीं धूणियां तपाई जा रही हैं, कहीं अनेक देव-पूजा हो रहीं हैं, कहीं और की ओर भटकनें भटकी जा रही हैं। हे नानक! (कह: हे सखी!) कहीं साधु-संगत में रख के एक पल में परमात्मा की मेहर हो रही है, और परमात्मा का प्रेम रंग बख्शा जा रहा है।2।4।156। रागु आसा महला ५ घरु १७ आसावरी ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ गोबिंद गोबिंद करि हां ॥ हरि हरि मनि पिआरि हां ॥ गुरि कहिआ सु चिति धरि हां ॥ अन सिउ तोरि फेरि हां ॥ ऐसे लालनु पाइओ री सखी ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: करि = कह, जप। मनि = मन में। पिआरि = प्यार कर। गुरि = गुरु ने। चिति = चिक्त कर। धरि = रख। अन सिउ = (परमात्मा के बिना) और से। तोरी = (प्रेम) तोड़ के। फेरि = (औरों से मन को) मोड़ ले। ऐसे = इस तरह। लालनु = प्यारा प्रभु। री सखी = हे सहेली!।1। रहाउ। अर्थ: (हे सखी!) सदा परमात्मा का स्मरण करती रह, (इस तरह अपने) मन में परमात्मा से प्यार बना। जो कुछ गुरु ने बताया वह अपने चिक्त में बसा। परमात्मा के बिना औरों के साथ बनाई प्रीति तोड़ दे, औरों से अपने मन को फेर ले। हे सहेली! (जिसने भी) परमात्मा को (पाया है) इस तरीके से ही पाया है।1। रहाउ। पंकज मोह सरि हां ॥ पगु नही चलै हरि हां ॥ गहडिओ मूड़ नरि हां ॥ अनिन उपाव करि हां ॥ तउ निकसै सरनि पै री सखी ॥१॥ पद्अर्थ: पंकज = कीचड़ (पंक = कीचड़)। सरि = सर में, संसार सरोवर में। पगु = पैर। गहडिओ = गडा हुआ, फसा हुआ। मूढ़ नरि = मूर्ख मनुष्य ने। अनिन = अनन्य, केवल एक। तउ = तब। निकसै = निकल आता है।1। अर्थ: हे सहेली! संसार समुंदर में मोह का कीचड़ है (इसमें फसा हुआ) पैर परमात्मा की ओर नहीं चल सकता। मूर्ख मनुष्य ने (अपना पैर मोह के कीचड़ में) फंसाया हुआ है। हे सखी! केवल एक परमात्मा के स्मरण का ही आहर कर, और परमात्मा की शरण पड़, तभी (मोह के कीचड़ में फंसा हुआ पैर) निकल सकता है।1। थिर थिर चित थिर हां ॥ बनु ग्रिहु समसरि हां ॥ अंतरि एक पिर हां ॥ बाहरि अनेक धरि हां ॥ राजन जोगु करि हां ॥ कहु नानक लोग अलोगी री सखी ॥२॥१॥१५७॥ नोट: ये शब्द आसा और आसावरी दोनों मिश्रित रागों में गाए जाने हैं। पद्अर्थ: थिर = अडोल, स्थिर। बनु = जंगल। ग्रिह = घर। समसरि = बराबर। अंतरि = हृदय में। बाहरि = जगत में। अनेक धरि = अनेक काम काज कर। राजन जोगु = राज जोग। लोग अलोगी = संसार से निराला।2। अर्थ: हे सहेली! अपने चिक्त को (माया के मोह से) अडोल बना ले (इतना स्थिर कि) जंगल और घर एक समान प्रतीत हों। अपने दिल में एक परमात्मा की याद टिकाए रख, और, जगत में बेशक कई तरह के काम-काज किए जा (इस तरह) राज भी कर और जोग भी कमा। (पर) हे नानक! कह: हे सखी! (काम-काज करते हुए ही निर्लिप रहना-ये) संसार से निराला रास्ता है।2।1।157। नोट: घर 17 के शबदों का आरम्भ। आसावरी महला ५ ॥ मनसा एक मानि हां ॥ गुर सिउ नेत धिआनि हां ॥ द्रिड़ु संत मंत गिआनि हां ॥ सेवा गुर चरानि हां ॥ तउ मिलीऐ गुर क्रिपानि मेरे मना ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मनसा = (मनीषा) इच्छा। मनि = मान, पक्की कर। सिउ = साथ। नेड़ = नित्य, सदा। धिआनि = ध्यान में। गिआनि = गहरी सांझ में। चरानि = चरण में। तउ = तभी। क्रिपानि = कृपा से।1। रहाउ। अर्थ: (हे मेरे मन!) एक (परमात्मा के मिलाप) की तमन्ना (अपने अंदर) कायम कर। गुरु के चरणों में जुड़ के सदा (परमात्मा के) ध्यान में टिका रह। गुरु के उपदेश की जान-पहिचान में मजबूत-चिक्त हो। गुरु चरणों में (रहके) सेवा-भक्ति कर। हे मेरे मन! तब ही गुरु की कृपा से (परमात्मा को) मिल सकते हैं।1। रहाउ। टूटे अन भरानि हां ॥ रविओ सरब थानि हां ॥ लहिओ जम भइआनि हां ॥ पाइओ पेड थानि हां ॥ तउ चूकी सगल कानि ॥१॥ पद्अर्थ: भरानि = भरांति, भटकना। अन = अन्य, और। थानि = स्थान में। सरब थानि = हरेक जगह में। भइआनि = भयानक, डरावनी। लहिओ = उतर जाता है। पेड थानि = संसार रूपी वृक्ष के आदि हरि के हजूरी में। कानि = अधीनता।1। अर्थ: हे मेरे मन! जब और भटकनें खत्म हो जाती हैं, तब हरेक जगह में परमात्मा ही व्यापक दिखता है, तब डरावने जम का सहम उतर जाता है, संसार-वृक्ष के आदि-हरि के चरणों में ठिकाना मिल जाता है, तब हरेक किस्म की मुहताजी खत्म हो जाती है।1। लहनो जिसु मथानि हां ॥ भै पावक पारि परानि हां ॥ निज घरि तिसहि थानि हां ॥ हरि रस रसहि मानि हां ॥ लाथी तिस भुखानि हां ॥ नानक सहजि समाइओ रे मना ॥२॥२॥१५८॥ पद्अर्थ: लहनो = लेना, भाग्य। मथानि = माथे पर। पावक = आग। पारि परानि = पार पड़ जाता है। निज घरि = अपने (असल) घर में। तिसहि = उस को। रसहि = रस को। मानि = माणता है, भोगता है। तिस = प्यास, तृष्णा।2। (नोट: शब्द ‘तिसु’ सर्वनाम है जबकि ‘तिस’ संज्ञा है) सहजि = आत्मिक अडोलता में। अर्थ: हे नानक! (कह:) हे मेरे मन! जिस मनुष्य के माथे पर भाग्य जागते हैं वह विकारों की आग के खतरे से पार लांघ जाता है, उसको अपने असल घर (प्रभु चरणों में) जगह मिल जाती है, वह रसों में श्रेष्ठ हरि-नाम रस को हमेशा भोगता है, उसकी (माया की) प्यास भूख दूर हो जाती है, और वह सदा आत्मिक अडोलता में लीन रहता है।2।2।158। आसावरी महला ५ ॥ हरि हरि हरि गुनी हां ॥ जपीऐ सहज धुनी हां ॥ साधू रसन भनी हां ॥ छूटन बिधि सुनी हां ॥ पाईऐ वड पुनी मेरे मना ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: गुनी = सारे गुणों का मालिक। सहज धुनी = आत्मिक अडोलता की रोंअ में। साधू = गुरु (की शरण पड़ के)। रसन = जीभ (से)। भनी = भणि, उचार के। बिधि = ढंग। सुनी = सुन के। वड पुनी = भाग्यों से।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मन! आत्मिक अडोलता की लहर में लीन हो के उस परमात्मा का नाम सदा जपना चाहिए जो सारे गुणों का मालिक है। (हे भाई!) गुरु की शरण पड़ कर (अपनी) जीभ से परमात्मा के गुण उचार। हे मेरे मन! सुन, यही है विकारों से बचने का तरीका, पर ये बड़े भाग्यों से प्राप्त होता है।1। रहाउ। खोजहि जन मुनी हां ॥ स्रब का प्रभ धनी हां ॥ दुलभ कलि दुनी हां ॥ दूख बिनासनी हां ॥ प्रभ पूरन आसनी मेरे मना ॥१॥ पद्अर्थ: खोजहि = खोजते हैं। जन मुनी = मुनि जन। स्रब = सरब। धनी = मालिक। कलि दुनी = विवाद वाली दुनिया में। दुख बिनासनी = दुखों का नाश करने वाला। पूरन आसनी = आशाएं पूरी करने वाला।1। अर्थ: हे मेरे मन! सारे ऋषि मुनि उस परमात्मा को खोजते आ रहे हैं, जो सारे जीवों का मालिक है जो इस माया-ग्रसित दुनिया में ढूँढना मुश्किल है, जो सारे दुखों का नाश करने वाला है, और जो सबकी आशाएं पूरी करने वाला है।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |