श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मन सो सेवीऐ हां ॥ अलख अभेवीऐ हां ॥ तां सिउ प्रीति करि हां ॥ बिनसि न जाइ मरि हां ॥ गुर ते जानिआ हां ॥ नानक मनु मानिआ मेरे मना ॥२॥३॥१५९॥

पद्अर्थ: मन = हे मन! सो = उस प्रभु को। अलख = जिस का सही स्वरूप बयान ना किया जा सके। अभेवीऐ = अभेव, जिसका भेद नहीं पाया जा सकता। सिउ = साथ। न जाइ = पैदा नहीं होता। ते = से। मानिआ = पतीज जाता है।2।

अर्थ: हे (मेरे) मन! उस परमात्मा की सेवा-भक्ति करनी चाहिए, जिसका सही स्वरूप बताया नहीं जा सकता, जिसका भेद पाया नहीं जा सकता। हे मेरे मन! उस परमात्मा से प्यार डाल, जो कभी नाश नहीं होता जो ना पैदा होता है ना मरता है।

हे नानक! (कह:) हे मेरे मन! जिस मनुष्य ने गुरु के जरिएउस परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाल ली, उसका मन सदा (उसकी याद में) रमा रहता है।2।3।159।

आसावरी महला ५ ॥ एका ओट गहु हां ॥ गुर का सबदु कहु हां ॥ आगिआ सति सहु हां ॥ मनहि निधानु लहु हां ॥ सुखहि समाईऐ मेरे मना ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: एका ओट = एक परमात्मा का आसरा। गहु = पकड़। कहु = उचार। आगिआ = रजा, हुक्म। सहु = सह, मान। सति = ठीक, सच्ची (जान के)। मनहि = मन में। निधानु = (सारे पदार्थों का) खजाना। लहु = ले। सुखहि = आत्मिक आनंद में।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे मन! एक परमात्मा का ही पल्ला पकड़, सदा गुरु की वाणी उचारता रह। हे मेरे मन! परमात्मा की रजा को मीठी करके मान। (हे भाई!) अपने मन में बसते सारे गुणों के खजाने प्रभु को पा ले। हे मेरे मन! (इस तरह सदा) आत्मिक आनंद में लीन रहना है।1। रहाउ।

जीवत जो मरै हां ॥ दुतरु सो तरै हां ॥ सभ की रेनु होइ हां ॥ निरभउ कहउ सोइ हां ॥ मिटे अंदेसिआ हां ॥ संत उपदेसिआ मेरे मना ॥१॥

पद्अर्थ: जो = जो। मरै = (माया के मोह से) अछोह हो जाता है। दुतरु = (दुष्तर) जिससे पार लांघना मुश्किल हो। रैनु = चरण धूल। होइ = हो जाता है। कहउ = मैं कहता हूँ। सोइ = उस परमात्मा को ही।1।

अर्थ: हे मेरे मन! जो मनुष्य काम-काज करता हुआ माया के मोह से अछोह रहता है, वह मनुष्य इस संसार-समुंदर से पार लांघ जाता है। जिसमें से पार लांघना बहुत मुश्किल है, वह मनुष्य सभी के चरणों की धूल हुआ रहता है। (हे मेरे मन! अगर गुरु की कृपा हो तो) मैं भी उस निरभय परमात्मा की महिमा करता रहूँ। हे मेरे मन! जिस मनुष्य को सतिगुरु की शिक्षा प्राप्त हो जाती है उसके सारे चिन्ता-फिक्र मिट जाते हैं।1।

जिसु जन नाम सुखु हां ॥ तिसु निकटि न कदे दुखु हां ॥ जो हरि हरि जसु सुने हां ॥ सभु को तिसु मंने हां ॥ सफलु सु आइआ हां ॥ नानक प्रभ भाइआ मेरे मना ॥२॥४॥१६०॥

पद्अर्थ: जिसु जन = जिस मनुष्य को। तिसु निकटि = उसके नजदीक। सभु को = हरेक जीव। मंने = आदर देता है। सु = वह मनुष्य। सफल = कामयाब। प्रभू भाइआ = प्रभु को प्यारा लगा।2।

अर्थ: हे मेरे मन! जिस मनुष्य को परमात्मा के नाम का अनंद प्राप्त हो जाता है, कभी कोई दुख उसके नजदीक नहीं फटकता। हे मेरे मन! जो मनुष्य परमात्मा की महिमा सदा सुनता रहता है (दुनिया में) हरेक मनुष्य उसका आदर-सत्कार करता है।

हे नानक! (कह:) हे मेरे मन! जगत में पैदा हुआ वही मनुष्य कामयाब जीवन वाला है जो परमात्मा को प्यारा लग गया है।2।4।160।

आसावरी महला ५ ॥ मिलि हरि जसु गाईऐ हां ॥ परम पदु पाईऐ हां ॥ उआ रस जो बिधे हां ॥ ता कउ सगल सिधे हां ॥ अनदिनु जागिआ हां ॥ नानक बडभागिआ मेरे मना ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मिलि = मिल के। जसु = महिमा के गीत। गाईऐ = गाना चाहिए। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा। पाईऐ = हासिल हो जाता है। उआ रस = उस स्वाद में। बिधे = समा गया। ता कउ = उस (मनुष्य) को। सिधे = सिद्धियां। अनदिनु = हर रोज। जागिआ = (माया के हमलों से) सुचेत रहता है। बड भागिआ = बड़े भाग्यों वाला।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! (साधु-संगत में) मिल के परमात्मा के महिमा के गीत गाने चाहिए, (इस तरह) आत्मिक जीवन का सबसे ऊँचा दर्जा हासिल हो जाता है। जो मनुष्य (महिमा के) उस स्वाद में रम जाता है, उसे (मानो) सारी ही सिद्धियां प्राप्त हो जाती हैं। हे नानक! (कह) हे मेरे मन! (जो मनुष्य प्रभु की महिमा करता है, वह मनुष्य) बहुत बड़ा भाग्यशाली हो जाता है, वह हर समय (विकारों के हमलों से) सुचेत रहता है।1। रहाउ।

संत पग धोईऐ हां ॥ दुरमति खोईऐ हां ॥ दासह रेनु होइ हां ॥ बिआपै दुखु न कोइ हां ॥ भगतां सरनि परु हां ॥ जनमि न कदे मरु हां ॥ असथिरु से भए हां ॥ हरि हरि जिन्ह जपि लए मेरे मना ॥१॥

पद्अर्थ: पग = पैर, चरण। धोईऐ = आओ धोएं। दुरमति = खोटी मति। खोईऐ = दूर कर लेते हैं। दासह रेनु = (प्रभु के) दासों की चरण धूल। बिआपै न = जोर नहीं डाल सकता। परु = पड़। सरनि परु = आसरा ले। जनमि = जनम ले के। न मरु = नहीं मरेगा। से = वह बंदे। असथिरु = अडोल आत्मिक अवस्था वाले।1।

अर्थ: हे भाई! संत जनों के चरण धोने चाहिए (स्वैभाव त्याग के संतों के चरण पड़ना चाहिए, इस तरह मन की) खोटी मति दूर हो जाती है। हे भाई! प्रभु के सेवकों की चरण धूल बना रह (इस तरह) कोई दुख अपना जोर नहीं डाल सकता। हे भाई! संत जनों की शरण पड़ा रह, जनम-मरण का चक्कर नहीं रहेगा। हे मेरे मन! जो मनुष्य सदा परमात्मा का नाम जपते हैं, वे अडोल आत्मिक जीवन वाले बन जाते हैं।1।

साजनु मीतु तूं हां ॥ नामु द्रिड़ाइ मूं हां ॥ तिसु बिनु नाहि कोइ हां ॥ मनहि अराधि सोइ हां ॥ निमख न वीसरै हां ॥ तिसु बिनु किउ सरै हां ॥ गुर कउ कुरबानु जाउ हां ॥ नानकु जपे नाउ मेरे मना ॥२॥५॥१६१॥

पद्अर्थ: साजनु = सज्जन। मूं = मुझे। द्रिढ़ाइ = पक्का कर दे। मनहि = मन में। सोइ = उस (परमात्मा) को। अराधि = याद किया कर। निमख = आँख झपकने जितना समय। किउ सरै = अच्छा नहीं लग सकता। कउ = को, से। जाउ = मैं जाता हूँ, जाऊँ। नानक जपे = नानक जपता है।2।

अर्थ: (हे मेरे प्रभु!) तू ही (मेरा) सज्जन है, तू ही (मेरा) मित्र है, मुझे (मेरे दिल में अपना) नाम पक्का करके टिका दे। (हे भाई!) उस परमात्मा के बिना और कोई (असल सज्जन-मित्र) नहीं है, सदा उस (प्रभु) को ही स्मरण करता रह। (वह परमात्मा) आँख झपकने जितने समय के लिए भी भूलना नहीं चाहिए (क्योंकि) उस (की याद) के बिना जीवन सुखी नहीं गुजरता। हे मेरे मन! मैं (नानक) गुरु से सदके जाता हूँ (क्योंकि गुरु की कृपा से ही) नानक (परमात्मा का) नाम जपता है।2।5।161।

आसावरी महला ५ ॥ कारन करन तूं हां ॥ अवरु ना सुझै मूं हां ॥ करहि सु होईऐ हां ॥ सहजि सुखि सोईऐ हां ॥ धीरज मनि भए हां ॥ प्रभ कै दरि पए मेरे मना ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: कारन = साधन, बनाने वाला। करन = जगत। मूं = मुझे। करहि = (जो कुछ) तू करता है। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुखि = आनंद में। सोईऐ = लीन रहें। मनि = मन में। दरि = दर पे।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे मन! (प्रभु दर पर ऐसे अरदास कर- हे प्रभु!) तू सारे जगत का रचनहार है (तेरे बिना) मुझे कोई और नहीं सूझता (जो ये ताकत रखता हो)। हे प्रभु! जो कुछ तू करता है वही (जगत में) वरतता है। हे मेरे मन! (अगर अपनी चतुराईआं छोड़ के) परमात्मा के दर पर गिर पड़ें तो मन में हौसला बंध जाता है, आत्मिक अडोलता में, आनंद में लीन रह सकते हैं।1। रहाउ।

साधू संगमे हां ॥ पूरन संजमे हां ॥ जब ते छुटे आप हां ॥ तब ते मिटे ताप हां ॥ किरपा धारीआ हां ॥ पति रखु बनवारीआ मेरे मना ॥१॥

पद्अर्थ: संगमे = मेल में, संगति में। साधू = गुरु। संजमे = संजम में। आपा = स्वै भाव। ताप = दुख-कष्ट। पति = इज्जत। नवारीआ = हे जगत के मालिक प्रभु! धारीआ = धार के।1।

अर्थ: हे मेरे मन! गुरु की संगति में रहने से वह जुगति पूरी तरह से आ जाती है जिससे ज्ञान-इंद्रिय वश में आ जाती हैं। हे मन! जिस वक्त (मनुष्य के अंदर से) अहंकार समाप्त हो जाता है (और गुरु की ओट ठीक लगने लगती है) उस वक्त से (मन के) सारे दुख-कष्ट दूर हो जाते हैं। सो हे मेरे मन! (गुरु की संगति में रहके प्रभु-दर पर अरदास कर, कह:) हे जगत के मालिक प्रभु! मेरे पर मेहर कर, मेरी (शरण पड़े की) इज्जत रख।1।

इहु सुखु जानीऐ हां ॥ हरि करे सु मानीऐ हां ॥ मंदा नाहि कोइ हां ॥ संत की रेन होइ हां ॥ आपे जिसु रखै हां ॥ हरि अम्रितु सो चखै मेरे मना ॥२॥

पद्अर्थ: मानीऐ = स्वीकार करें। रेन = चरण धूल। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल।2।

अर्थ: हे मेरे मन! जो कुछ परमात्मा करता है उसे (मीठा करके) मानना चाहिए, इसे ही सुख (का मूल) समझना चाहिए। हे मन! जो मनुष्य संत जनों की चरण-धूल बनता है उसको (जगत में) कोई बुरा नहीं दिखता। हे मेरे मन! परमात्मा स्वयं ही जिस मनुष्य को (विकारों से) बचाता है वह मनुष्य आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम-जल पीता है।2।

जिस का नाहि कोइ हां ॥ तिस का प्रभू सोइ हां ॥ अंतरगति बुझै हां ॥ सभु किछु तिसु सुझै हां ॥ पतित उधारि लेहु हां ॥ नानक अरदासि एहु मेरे मना ॥३॥६॥१६२॥

पद्अर्थ: अंतरगति = अंदर की छुपी बात, दिल की बात। पतित = विकारों में गिरे हुए। उधारि लेहु = बचा ले।3।

अर्थ: हे मेरे मन! जिस मनुष्य का कोई भी सहाई नहीं बनता (अगर वह प्रभु की शरण में आ पड़े तो) वह प्रभु उसका रखवाला बन जाता है। वह परमात्मा हरेक के दिल की बात जान लेता है, उसको हरेक जीव की हरेक मनोकामना की समझ आ जाती है। (इस वास्ते) हे मेरे मन! परमात्मा के दर पर यूँ अरजोई कर- हे प्रभु! (हमें विकारों में) गिरे हुए जीवों को (विकारों से) बचा ले, (तेरे दर पर, मेरी) नानक की यही अरदास है।3।6।162।

आसावरी महला ५ इकतुका ॥ ओइ परदेसीआ हां ॥ सुनत संदेसिआ हां ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: ओइ परदेसीआ = हे परदेसी! हे जगत में चार दिन के लिए आए जीव! सुनत = सुनता है?।1। रहाउ।

अर्थ: जगत में चार दिनों के लिए आए हे जीव! ये संदेश ध्यान से सुन।1। रहाउ।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh