श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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अंतरि बाहरि अवरु न कोइ ॥ जो तिसु भावै सो फुनि होइ ॥ सुणि भरथरि नानकु कहै बीचारु ॥ निरमल नामु मेरा आधारु ॥८॥१॥

पद्अर्थ: भरथहि = हे भरथरी जोगी! आधारु = आसरा।8।

(नोट: किसी योगी को संबोधन करते हैं, जिसने अपना नाम अपने से पहले हो चुके भरथरी के नाम पर रखा हुआ है। सब धर्मों में ऐसा रिवाज आम तौर पर देखने को मिलता है)।

अर्थ: हे भरथरी जोगी! सुन, नानक तुझे विचार की बात बताता है कि हर जगह जीवों के अंदर और बाहर सारी सृष्टि में परमात्मा के बिना और कोई नहीं है, जगत में वही कुछ हो रहा है जो उसको अच्छा लगता है।

उस (सर्व-व्यापक) परमात्मा का पवित्र नाम मेरी जिंदगी का आसरा है।8।1।

आसा महला १ ॥ सभि जप सभि तप सभ चतुराई ॥ ऊझड़ि भरमै राहि न पाई ॥ बिनु बूझे को थाइ न पाई ॥ नाम बिहूणै माथे छाई ॥१॥

पद्अर्थ: सभि = सारे। सभ = हरेक किस्म की। उझड़ि = कुराहे, गलत रास्तेपर। भरमै = भटकता है। राहि = (ठीक) रास्ते पर। थाइ = जगह में, अपनी जगह पर। थाइ न पाई = अपनी जगह पर नहीं पड़ती, स्वीकार नहीं होती। नाम विहूणे = नाम से वंचित बंदे को (शब्द ‘बिहूणे’ और ‘बिहूणै’ के अर्थ में फर्क है)। छाई = राख। माथे = माथे पर, सिर पे।1।

अर्थ: जो मनुष्य सारे जप करता है सारे तपसाधता है (शास्त्र आदि को समझने के लिए) हरेक किस्म की समझदारी व बुद्धि का प्रदर्शन भी करता है, पर यदि वह (परमात्मा का दास बनने की युक्ति) नहीं समझता, तो उसके (जप-तप आदि का) कोई उद्यम (प्रभु की हजूरी में) स्वीकार नहीं चढ़ता। वह गलत रास्ते पर भटक रहा है, वह सही रास्ते पर नहीं जा रहा। परमात्मा के नाम से वंचित मनुष्य के सिर पर राख ही पड़ती है।1।

साच धणी जगु आइ बिनासा ॥ छूटसि प्राणी गुरमुखि दासा ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: साचु = सदा कायम रहने वाला। धणी = (जगत का) मालिक। आइ बिनासा = पैदा होता मरता। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के।1। रहाउ।

अर्थ: जगत पैदा होता मरता रहता है, (पर) जगत का मालिक प्रभु सदा कायम रहने वाला है। जो प्राणी गुरु की शरण पड़ के परमात्मा का दास (भक्त) बन जाता है वह (जनम-मरन के चक्कर से) बच जाता है।1। रहाउ।

जगु मोहि बाधा बहुती आसा ॥ गुरमती इकि भए उदासा ॥ अंतरि नामु कमलु परगासा ॥ तिन्ह कउ नाही जम की त्रासा ॥२॥

पद्अर्थ: मोहि = मोह में। इकि = कई जीव (बहुवचन)। परगासा = खिला हुआ। त्रासा = डर। जम की त्रासा = मौत का डर, जनम मरण के चक्कर का डर।2।

नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।

अर्थ: जगत माया के मोह में बंधा हुआ बहुत आशाओं में बंधा हुआ (पैदा होता-मरता रहता) है। पर कई (भाग्यशाली मनुष्य) गुरु की शिक्षा पर चल के मोह से निर्लिप रहते हैं, उनके अंदर परमात्मा का नाम बसता है (जिसकी इनायत से उनका हृदय-) कमल खिला रहता है। ऐसे लोगों को जनम-मरण के चक्कार का डर नहीं रहता।2।

जगु त्रिअ जितु कामणि हितकारी ॥ पुत्र कलत्र लगि नामु विसारी ॥ बिरथा जनमु गवाइआ बाजी हारी ॥ सतिगुरु सेवे करणी सारी ॥३॥

पद्अर्थ: त्रिअ जितु = स्त्री का जीता, कामातुर। कामणि = स्त्री। हित कारी = हित करने वाला, मोह करने वाला। कलत्र = स्त्री, पत्नी। सारी = श्रेष्ठ। करणी = नित्य की कार, आचरण।3।

अर्थ: (गुरु की शरण से टूट के) जगत कामातुर हो रहा है, स्त्री के मोह में फसा हुआ है; पुत्र-पत्नी के मोह में पड़ के परमात्मा के नाम को भुला रहा है। इस तरह अपना जीवन व्यर्थ गवाता है और मानव जन्म की खेल हार के जाता है। पर जो मनुष्य गुरु की (बताई हुई) सेवा करता है उसका नित्य कर्म श्रेष्ठ हो जाता है।3।

बाहरहु हउमै कहै कहाए ॥ अंदरहु मुकतु लेपु कदे न लाए ॥ माइआ मोहु गुर सबदि जलाए ॥ निरमल नामु सद हिरदै धिआए ॥४॥

पद्अर्थ: कहाए = कहलवाता है। मुकतु = अहंकार से आजाद। लेपु = पोचा, प्रभाव। सबदि = शब्द के द्वारा। सद = सदा।4।

अर्थ: जो मनुष्य गुरु के शब्द में (जुड़ के अपने अंदर से) माया का मोह जला देता है, परमात्मा के पवित्र नाम को सदा अपने हृदय में याद रखता है, वह अंतरात्मे माया के मोह से आजाद रहता है, माया का प्रभाव उसके ऊपर कभी नहीं पड़ता, वैसे दुनिया की मेहनत-कमाई करता वह स्वै को जताता है।4।

धावतु राखै ठाकि रहाए ॥ सिख संगति करमि मिलाए ॥ गुर बिनु भूलो आवै जाए ॥ नदरि करे संजोगि मिलाए ॥५॥

पद्अर्थ: धावतु = (माया के पीछे) दौड़ते को। ठाकि = रोक के। सिख = (जिस) सिख को। करमि = मेहर से। संजोगि = संजोग में, संगति में।5।

अर्थ: (गुरु के जिस) सिख को (परमात्मा) अपनी मेहर से, संगति में मिलाता है, वह अपने भटकते मन की रक्षा करता है (माया के मोह से) रोक के रखता है। गुरु की शरण आए बिना मनुष्य (जिंदगी के सही रास्ते से) भटक जाता है, और जनम-मरन के चक्कर में पड़ जाता है। जब प्रभु मेहर की निगाह करता है, तो उसे भी संगति में मिला के अपने चरणों में जोड़ लेता है।5।

रूड़ो कहउ न कहिआ जाई ॥ अकथ कथउ नह कीमति पाई ॥ सभ दुख तेरे सूख रजाई ॥ सभि दुख मेटे साचै नाई ॥६॥

पद्अर्थ: रूढ़ो = सुंदर। कहउ = मैं कहता हूँ। कथउ = मैं कहता हूँ। साचै = साचे की, सदा कायम रहने वाले परमात्मा की। नाई = बड़ाई।6।

अर्थ: (हे प्रभु!) तू सुंदर है, पर यदि मैं बताने का प्रयत्न करूँ कि तू कैसा सुंदर है तो बताया नहीं जा सकता। हे प्रभु! तेरे गुण बयान नहीं किए जा सकते, अगर मैं बयान करने का प्रयत्न करूँ, तो भी तेरे गुणों का मूल्य नहीं पाया जा सकता। (तुझसे विछुड़ के दुख आने है।, पर) तेरी रजा में चल के सारे दुख सुख बन जाते हैं।

सदा स्थिर रहने वाले प्रभु की महिमा करने से सारे ही दुख मिट जाते हैं।6।

कर बिनु वाजा पग बिनु ताला ॥ जे सबदु बुझै ता सचु निहाला ॥ अंतरि साचु सभे सुख नाला ॥ नदरि करे राखै रखवाला ॥७॥

पद्अर्थ: क्र = हाथ। पग = पैर। निहाला = दीदार करता।7।

अर्थ: अगर मनुष्य (गुरु के) शब्द को समझ ले, तो वह अपने अंदर सदा-सिथर प्रभु का दीदार कर लेता है, उसके अंदर ऐसी आत्मिक अवस्था बन जाती है कि, जैसे, बिना हाथ से बजाए बाजा बजता है और पैरों से नाचे ताल पूरी होती है।

जिस मनुष्य को रखवाला प्रभु मेहर की नजर करके (माया के मोह से) बचाता है, उसके अंदरवह सदा स्थिर प्रभु प्रगट हो जाता है, उसको अपने अंतरात्मा में सुख ही सुख प्रतीत होते हैं।7।

त्रिभवण सूझै आपु गवावै ॥ बाणी बूझै सचि समावै ॥ सबदु वीचारे एक लिव तारा ॥ नानक धंनु सवारणहारा ॥८॥२॥

पद्अर्थ: आपु = स्वै भाव। सचि = सच में, सदा स्थिर प्रभु में।8।

अर्थ: जो मनुष्य (गुरु की शरण पड़ कर प्रभु का दास बन कर) स्वै भाव दूर करता है, उसको परमात्मा तीनों भवनों में बसता दिखाई पड़ता है। गुरु की वाणी के द्वारा उसको सही ज्ञान हो जाता है, वह सदा स्थिर प्रभु में लीन रहता है। वह मनुष्य गुरु के शब्द को अपने सोच-मण्डल में टिकाए रखता है, एक-रस तवज्जो प्रभु में जोड़ता है। हे नानक! उस मनुष्य का मानव जनम मुबारक है वह औरों का जीवन भी सोहना बना देता है।8।2।

आसा महला १ ॥ लेख असंख लिखि लिखि मानु ॥ मनि मानिऐ सचु सुरति वखानु ॥ कथनी बदनी पड़ि पड़ि भारु ॥ लेख असंख अलेखु अपारु ॥१॥

पद्अर्थ: असंख = अनगिनत। लिखि लिखि = लिख लिख के। मानु = विद्या का अहंकार। मनि मानिऐ = अगर मन (परमात्मा की याद में) रम जाए। सचु सुरति = अगर सूझ में सदा स्थिर प्रभु (टिक जाए)। वखानु = व्याख्यान, (असल) लेख। कथनी बदनी = कहने से बोलने से। भारु = (अहंकार का) भार। अलेखु = वह प्रभु जिसके स्वरूप को कोई लेख बयान ना कर सके।1।

अर्थ: (परमात्मा के स्वरूप बारे) अनगिनत (विचार भरे) लेख लिख-लिख के (लिखने वालों के मन में अपनी विद्या और विचार-शक्ति का) गुमान ही (पैदा होता है)। बेशक अनगिनत लेख लिखे जाएं, परमात्मा का स्वरूप बयान से, लेख से परे है, उसके गुणों का परला छोर नहीं पाया जा सकता। उसके गुण कहने पर, बोलने पर, बारंबार पढ़-पढ़ के भी (मन पर अहंकार का) भार (ही बढ़ता) है। (पर हाँ) यदि मनुष्य का मन परमातमा की याद में रम जाए, यदि (मनुष्य की) सूझ में सदा स्थिर प्रभु (टिक जाए) तो बस! यही है असल लेख (जो उसको स्वीकार है)।1।

ऐसा साचा तूं एको जाणु ॥ जमणु मरणा हुकमु पछाणु ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: ऐसा = ऐसे गुणों वाला। साचा = सदा कायम रहने वाला। तूं = (हे भाई!) तू। एको = एक परमात्मा को ही।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई!) इस तरह का (अलेख) और सदा कायम रहने वाला तू सिर्फ एक प्रभु को ही जान (बाकी सारा जगत जनम मरन के ही चक्कर में है, और ये) पैदा होना-मरना भी तू उस परमात्मा का हुक्म ही समझ।1। रहाउ।

माइआ मोहि जगु बाधा जमकालि ॥ बांधा छूटै नामु सम्हालि ॥ गुरु सुखदाता अवरु न भालि ॥ हलति पलति निबही तुधु नालि ॥२॥

पद्अर्थ: मोहि = मोह के कारण। जम कालि = काल ने, जनम मरण के चक्कार ने। समालि = चेते कर के। हलति = इस लोक में। पलति = परलोक में। निबही = पक्का साथ निबाहेगा।2।

अर्थ: (हे भाई! उस सदा-स्थिर प्रभु को बिसार के) माया के मोह के कारण जगत मौत के सहम में बंधा पड़ा है, परमात्मा के नाम को ही संभाल के बंधन टूट सकते हैं। ये नाम ही (हे भाई!) इस लोक और परलोक में तेरे साथ निभ सकता है, (पर ये नाम गुरु के द्वारा ही मिल सकता है) गुरु ही (नाम की दाति दे के) आत्मिक सुख देने वाला है, (गुरु के बिना ये दाति देने वाला) कोई और ना तलाशता फिर।2।

सबदि मरै तां एक लिव लाए ॥ अचरु चरै तां भरमु चुकाए ॥ जीवन मुकतु मनि नामु वसाए ॥ गुरमुखि होइ त सचि समाए ॥३॥

पद्अर्थ: सबदि = गुरु के शब्द में जुड़ के। अचरु = (अ+चर) जिसे खाया ना जा सके। चरै = खा ले, समाप्त कर दे। भरमु = भटकना। मनि = मन में। मुकतु = विचारों से आजाद। सचि = सच में।3।

अर्थ: (पर जगत तो माया के मोह में फसा हुआ है, नाम में जुड़े भी कैसे? जीव) तब ही एक परमात्मा में तवज्जो जोड़ सकता है, जब गुरु के शब्द द्वारा (मोह की ओर से) मन जाए (मोह का प्रभाव अपने ऊपर पड़ने ही ना दे)। तब ही जीव माया की ओर मन की भटकना को दूर कर सकता है, जब (गुरु के शब्द के द्वारा कामादिक पाँचों के) ना खत्म किए जा सकने वाले टोले (के प्रभाव को) समाप्त कर दे। जो मनुष्य अपने मन में परमात्मा का नाम बसा लेता है वह इसी जिंदगी में ही (इन पाँचों के प्रभाव से) आजाद हो जाता है; पर सदा स्थिर प्रभु (के नाम) में वही मनुष्य लीन होता है जो गुरु के सन्मुख रहे।3।

जिनि धर साजी गगनु अकासु ॥ जिनि सभ थापी थापि उथापि ॥ सरब निरंतरि आपे आपि ॥ किसै न पूछे बखसे आपि ॥४॥

पद्अर्थ: जिनि = जिस प्रभु ने। धर = धरती। गगनु = आकाश। सभ = सारी सृष्टि। थापि = रच के। उथापे = नाश करता है। निरंतरि = दूरी के बिना, लगातार, एक रस व्यापक।4।

अर्थ: (हे भाई! ऐसा सदा स्थिर सिर्फ एक परमात्मा ही है) जिसने ये धरती, आकाश आदि रचे हैं, जिसने सारी सृष्टि रची है, जो रच के नाश करने के भी समर्थ है। फिर वह स्वयं ही स्वयं सबके अंदर एक-रस मौजूद है, खुद ही (सब जीवों पर) बख्शिश करता है (इस बख्शिश के लिए) किसी और की सालाह नहीं लेता।4।

तू पुरु सागरु माणक हीरु ॥ तू निरमलु सचु गुणी गहीरु ॥ सुखु मानै भेटै गुर पीरु ॥ एको साहिबु एकु वजीरु ॥५॥

पद्अर्थ: पुरु = भरा हुआ। गुणी गहीरु = गुणों का खजाना। एको = एक स्वयं ही।5।

अर्थ: हे प्रभु! तू खुद ही भरा हुआ ये (संसार-) समुंदर है तू स्वयं ही इसमें माणिक हीरा है, तू पवित्र स्वरूप है, सदा स्थिर रहने वाला है, और सारे गुणों का खजाना है। तू खुद ही खुद बादशाह है और स्वयं ही अपना (सलाहकार) मंत्री है। जिस मनुष्य को (तेरी मेहर से) गुरु-पीर मिल जाता है, वह (तेरे मिलाप का आत्मिक) आनंद पाता है।5।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh