श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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जगु बंदी मुकते हउ मारी ॥ जगि गिआनी विरला आचारी ॥ जगि पंडितु विरला वीचारी ॥ बिनु सतिगुरु भेटे सभ फिरै अहंकारी ॥६॥

पद्अर्थ: बंदी = कैद में। मुकते = (वह हैं) आजाद। जगि = जगत में। आचारी = ज्ञान अनुसार करणी वाला। वीचारी = विचारवान।6।

अर्थ: (हे भाई! उस सदा स्थिर प्रभु को विसार के) जगत (अहंकार की) कैद में है, इस कैद में से आजाद वही हैं (जिन्होंने गुरु की शरण पड़ के इस) अहंकार को मारा है। जगत में ज्ञानवान कोई विरला वही है, जिसका नित्य आचरण उस ज्ञान के अनुसार है, जगत में पण्डित भी कोई विरला ही है जो (विद्या के अनुसार ही) विचारवान भी है, (पर) ये ऊँचा आचरण और ऊँचे विचार गुरु से ही मिलते हैं। गुरु को मिले बिना सारी सृष्टि अहंकार में भटकती फिरती है।6।

जगु दुखीआ सुखीआ जनु कोइ ॥ जगु रोगी भोगी गुण रोइ ॥ जगु उपजै बिनसै पति खोइ ॥ गुरमुखि होवै बूझै सोइ ॥७॥

पद्अर्थ: कोइ = कोई विरला। भोगी = भोगों में फसा हुआ। गुण रोइ = गुणों को रोता है, गुणों को तरसता है। पति = इज्जत।7।

अर्थ: (हे भाई! उस सदा स्थिर प्रभु को विसार के) जगत दुखी हो रहा है, कोई विरला मनुष्य ही सुखी है। जगत (विकारों के कारण आत्मिक तौर पर) रोगी हो रहा है, भोगों में प्रर्वित है और आत्मिक गुणों के लिए तरसता है। (प्रभु को भुला के) जगत इज्जत गवा के पैदा होता है मरता है, मरता है पैदा होता है। जो मनुष्य गुरु की शरण में आता है, वह इस भेद को समझता है।7।

महघो मोलि भारि अफारु ॥ अटल अछलु गुरमती धारु ॥ भाइ मिलै भावै भइकारु ॥ नानकु नीचु कहै बीचारु ॥८॥३॥

पद्अर्थ: महघो मोलि = महंगा मूल्य, बहुत ही ज्यादा कीमत वाला। भारि = तोल में। अफारु = बेअंत। भारि अफारु = यदि उसके बराबर की कोई चीज दे के उसे प्राप्त करना हो तो कोई चीज बराबर की नहीं है। धारु = (हे भाई! हृदय में) संभाल। भावै = अच्छा लगता है। भइकारु = भय+कार, भय में टिके रहने वाला काम।8।

अर्थ: (हे भाई! गरीब नानक तुझे ये विचार की बात बताता है कि) यदि कोई मूल्य दे कर परमात्मा को प्राप्त करना हो तो वह मूल्य बहुत ही ज्यादा है (दिया नहीं जा सकता) अगर उसके बराबर की कोई चीज दे के उसे हासिल करना हो तो कोई चीज उसके बराबर की नहीं है। (हे भाई!) गुरु की मति ले के उसको (अपने हृदय में) संभाल के रख। (गुरु की मति ये है कि) वह प्रभु प्रेम से (प्रेम के मूल्य) मिलता है, जीव का उसके डर-अदब में रहना उसको अच्छा लगता है।8।3।

आसा महला १ ॥ एकु मरै पंचे मिलि रोवहि ॥ हउमै जाइ सबदि मलु धोवहि ॥ समझि सूझि सहज घरि होवहि ॥ बिनु बूझे सगली पति खोवहि ॥१॥

पद्अर्थ: पंचे = साक संबंधी (माँ, बाप, भाई, स्त्री, पुत्र)। सहज घरि = सहज अवस्था के घर में।1।

अर्थ: एक (प्राणी) मरता है उसके साक-संबंधी मिल के रोते हैं, ये भूल के (कि परमात्मा के बिना कोई बेगाना है ही नहीं, रोने वाले उस परमातमा की नजर में अपनी) सारी इज्जत गवा लेते हैं। पर जो मनुष्य गुरु के शब्द में जुड़ के मोह की मैल अपने मन से धो लेते हैं, उनका अहंकार दूर हो जाता है, वेइस समझ में (कि सब में प्रभु की ही ज्योति है, किसी संबंधी के शरीर के नाश होने पर) अडोल अवस्था में टिके रहते हैं।1।

कउणु मरै कउणु रोवै ओही ॥ करण कारण सभसै सिरि तोही ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: ओहु = ‘वह वह’ कह के। करण = जगत। कारण = मूल, करने वाला। सभसै सिरि = हरेक जीव के सिर पर। तोही = तू ही है।1। रहाउ।

अर्थ: हे प्रभु! हे सारे जगत के कर्तार! हरेक जीव के सिर पर तू स्वयं ही है। ना कोई मरता है और ना ही कोई (मरे को) ‘वह वह’ कह के रोता है, (जिसका शरीर बिनसता है वह भी तू स्वयं ही है और रोने वाला भी तू खुद ही है)।1। रहाउ।

मूए कउ रोवै दुखु कोइ ॥ सो रोवै जिसु बेदन होइ ॥ जिसु बीती जाणै प्रभ सोइ ॥ आपे करता करे सु होइ ॥२॥

पद्अर्थ: कोइ = जो कोई। बेदन = दुख, पीड़ा। जिसु बीती = जिस मरने वाले के सिर पर बीतती है।2।

अर्थ: जो कोई मरे हुए को रोता है वह (असल में अपना) दुख-मुश्किलें फरोलता है, वह ही रोता है जिसे (किसी के मरने पर कोई) बिपता आ वापरती है। पर जिस जीव पर (मौत की घटना) वरतती है, वह प्रभु की ये रजा समझ लेता है कि वही कुछ हो रहा है जो कर्तार स्वयं करता है।2।

जीवत मरणा तारे तरणा ॥ जै जगदीस परम गति सरणा ॥ हउ बलिहारी सतिगुर चरणा ॥ गुरु बोहिथु सबदि भै तरणा ॥३॥

पद्अर्थ: तारे तरणा = (संसार समुंदर से) तैरने के लिए बेड़ी (-तारि) है। परम गति = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था। बोहिथ = जहाज। भै = भव सागर से। तरणा = तैरते हैं।3।

अर्थ: (दरअसल, जीने की तमन्ना मनुष्य को संसार के मोह में फसाती है) जीने की लालसा से मन का मर जाना (मोह-सागर से) तैरने के लिए, मानो, बेड़ी है। ये ऊँची आत्मिक अवस्था जगत के मालिक प्रभु की शरण पड़ने से प्राप्त होती है। (प्रभु की शरण गुरु के द्वारा ही प्राप्त होती है) मैं गुरु के चरणों से सदके हूँ। गुरु मानो, जहाज है, गुरु के शब्द में जुड़ के भव-सागर से पार लांघ सकते हैं।3।

निरभउ आपि निरंतरि जोति ॥ बिनु नावै सूतकु जगि छोति ॥ दुरमति बिनसै किआ कहि रोति ॥ जनमि मूए बिनु भगति सरोति ॥४॥

पद्अर्थ: जगि = जगत में। छोति = छूत। किआ कहि = क्या कह के?। रोति = (कोई) रोता है। सरोति = सुनना।4।

अर्थ: परमात्मा को कोई डर छू नहीं सकता। वह स्वयं एक-रस हरेक के अंदर अपनी ज्योति का प्रकाश कर रहा है, पर उसके नाम से टूटने के कारण जगत में कहीं सूतक (का भ्रम) है तो कहीं छूत है। दुर्मिर्त के कारण जगत आत्मिक मौत मर रहा है, (इस बारे) क्या कह के कोई रोए? परमात्मा की भक्ति के बिना, प्रभु की महिमा सुने बिना, जीव जनम-मरण के चक्कर में पड़ रहे हैं।4।

मूए कउ सचु रोवहि मीत ॥ त्रै गुण रोवहि नीता नीत ॥ दुखु सुखु परहरि सहजि सुचीत ॥ तनु मनु सउपउ क्रिसन परीति ॥५॥

पद्अर्थ: मूए कउ = (स्वै भाव से) मरे हुए को। परहरि = त्याग के। सुचीत = सुचेत। सउपउ = समर्पण (किया है)। क्रिशन = परमात्मा।5।

अर्थ: स्वै भाव से मरे हुए को सचमुच उसके (पहले) मित्र माया के तीनों गुण नित्य रोते हैं (कि हमारा साथ छोड़ गया है), क्योंकि वह दुख-सुख (का अहसास) त्याग के अडोल अवस्था में सचेत हो गया है, और उसने अपना तन और मन परमात्मा की प्रीति पर भेटा कर दिया है।5।

भीतरि एकु अनेक असंख ॥ करम धरम बहु संख असंख ॥ बिनु भै भगती जनमु बिरंथ ॥ हरि गुण गावहि मिलि परमारंथ ॥६॥

पद्अर्थ: बहु संख असंख = बेअंत। बिरंथ = व्यर्थ। परमारंथ = जीवन का परम उद्देश्य।6।

अर्थ: सबके अंदर एक परमात्मा बस रहा है, वह अनेक असंखो रूपों में दिखाई दे रहा है, (पर, जीवों ने उसको बिसार के) और ही बेअंत धर्म-कर्म रच लिए हैं। परमात्मा के डर-अदब में रहने के बिना, प्रभु की भक्ति के बिना, जीवों का मानव जनम व्यर्थ जाता है। जो मिल के हरि के गुण गाते हैं, वे मानव जनम का उद्देश्य हासिल कर लेते हैं।6।

आपि मरै मारे भी आपि ॥ आपि उपाए थापि उथापि ॥ स्रिसटि उपाई जोती तू जाति ॥ सबदु वीचारि मिलणु नही भ्राति ॥७॥

पद्अर्थ: उथापि = उथापे, नाश करता है। जोती = हो ज्योति स्वरूप प्रभु! भ्राति = भटकना।7।

अर्थ: (जीवों का रचनहार कर्तार सब जीवों के अंदर आप मौजूद है, सो, जब कोई जीव मरता है तो) परमात्मा (उसमें बैठा खुद ही, मानो) मरता है, उस जीव को मारता भी खुद ही है। प्रभु स्वयं ही पैदा करता है, पैदा करके स्वयं ही नाश करता है।

हे ज्योति-रूपी प्रभु! तूने स्वयं ही सृष्टि पैदा करी है, तूने खुद ही अनेक जातियां पैदा कर दी हैं।

परमात्मा की महिमा की वाणी को विचार के (मन में टिका के) जीव का उससे मिलाप हो जाता है, जीव को (सूतक-छूत आदि की कोई) भटकना नहीं रहती।7।

सूतकु अगनि भखै जगु खाइ ॥ सूतकु जलि थलि सभ ही थाइ ॥ नानक सूतकि जनमि मरीजै ॥ गुर परसादी हरि रसु पीजै ॥८॥४॥

पद्अर्थ: सूतकि = सूतक (के भ्रम) के कारण। पीजै = पीना चाहिए।8।

अर्थ: (परमात्मा स्वयं ही सब जीवों में व्यापक हो के पैदा होता है मरता है, सर्व-व्यापक प्रभु से विछुड़ों को सूतक का भ्रम दुखी करता है। सूतक का भ्रम कहाँ-कहाँ किया जाएगा?) आग में भी (फिर) सूतक है जो भड़कती है और जगत (के जीवों) को भस्म कर जाती है। सूतक पानी में है, सूतक धरती में है, सूतक हर जगह ही है (क्योंकि, हर जगह जीव पैदा होते मरते हैं)।

हे नानक! सूतक (के भ्रम) में पड़ के (परमात्मा के अस्तित्व से टूट के) जगत जनम-मरण के चक्कर में पड़ रहा है। (सही रास्ता ये है कि गुरु की शरण पड़ के) गुरु की मेहर प्राप्त करके परमात्मा के नाम का अमृत-रस पीना चाहिए।8।4।

रागु आसा महला १ ॥ आपु वीचारै सु परखे हीरा ॥ एक द्रिसटि तारे गुर पूरा ॥ गुरु मानै मन ते मनु धीरा ॥१॥

पद्अर्थ: आपु = अपने आप को, अपने जीवन को। हीरा = परमात्मा का श्रेष्ठ नाम। परखे = कद्र पहचानता है। तारे = पार लंघाता है। गुरु मानै = गुरु को मानता है, गुरु पर श्रद्धा लाता है। मन ते = मन से, सच्चे दिल से। मनु धीरा = मन धैर्य धरता है, मन डोलता नहीं।1।

अर्थ: जिस मनुष्य को पूरा गुरु एक (मेहर की) निगाह से (मोह के समुंदर से) पार लंघाता है, जो मनुष्य सच्चे दिल से गुरु पर श्रद्धा रखता है, उसका मन (माया के मोह में) डोलता नहीं, वह अपने आप को (अपने जीवन को) विचारता और परमात्मा के श्रेष्ठ नाम की कद्र पहचानता है।1।

ऐसा साहु सराफी करै ॥ साची नदरि एक लिव तरै ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: साची = सदा स्थिर रहने वाली, अटल, अमोध, गलती ना करने वाली। एक लिव = एक प्रभु में तवज्जो/ध्यान जोड़ के।1। रहाउ।

अर्थ: गुरु ऐसा शाह (सर्राफ) है, और ऐसी सर्राफी करता है (कि वह जीवों को तुरंत परख लेता है, और) उसकी कभी गलती ना खाने वाली मेहर की निगाह से जीव एक परमात्मा में तवज्जो जोड़ के (मोह के समुंदर से) पार लांघ जाता है।1। रहाउ।

पूंजी नामु निरंजन सारु ॥ निरमलु साचि रता पैकारु ॥ सिफति सहज घरि गुरु करतारु ॥२॥

पद्अर्थ: सारु = श्रेष्ठ, उत्तम। साचि = सदा सिथर प्रभु में। पैकारु = पंकार, निआरिआ जो पुराने समय में टकसाल में से राख में से सोना चाँदी निखारता था। सहज घरि = अडोल अवस्था के घर में।2।

अर्थ: (गुरु की कृपा से) जो मनुष्य निरंजन प्रभु के श्रेष्ठ नाम को (अपने आत्मिक जीवन की) राशि-पूंजी बनाता है, जो सदा-स्थिर प्रभु (के नाम-रंग) में रंगा रहता है वह पवित्र (जीवन वाला) हो जाता है, वह नियारिए की तरह पारखू बन जाता है, महिमा की इनायत से वह गुरु कर्तार को अपने अडोल हृदय-घर में बसाता है।2।

आसा मनसा सबदि जलाए ॥ राम नराइणु कहै कहाए ॥ गुर ते वाट महलु घरु पाए ॥३॥

पद्अर्थ: सबदि = गुरु के शब्द द्वारा। कहाए = और लोगों को स्मरण के लिए र्पेरता है। वाट = रास्ता।3।

अर्थ: जो मनुष्य गुरु से (जिंदगी का सही) रास्ता ढूँढ लेता है, परमात्मा का महल-घर पा लेता है, वह गुरु के शब्द द्वारा (अपने अंदर से) मायावी आशाएं और मायावी फुरने जला देता है, वह स्वयं परमात्मा का भजन करता है और-और लोगों को भी इसी तरफ प्रेरित करता है।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh