श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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कंचन काइआ जोति अनूपु ॥ त्रिभवण देवा सगल सरूपु ॥ मै सो धनु पलै साचु अखूटु ॥४॥

पद्अर्थ: अनूपु = बेमिसाल, जिस जैसा और कोई नहीं, उपमा रहित। मै पलै = मेरे पास है।4।

अर्थ: जो परमात्मा (शुद्ध) सोने जैसी पवित्र हस्ती वाला है, जो सिर्फ प्रकाश ही प्रकाश है, जिस जैसा और कोई नहीं है, जो तीन भवनों का मालिक है, ये सारा आकार जिस का (सरगुण) स्वरूप है, उस परमात्मा का सदा-स्थिर और कभी ना समाप्त होने वाला नाम-धन मुझे (गुरु-सर्राफ से) प्राप्त हुआ है।4।

पंच तीनि नव चारि समावै ॥ धरणि गगनु कल धारि रहावै ॥ बाहरि जातउ उलटि परावै ॥५॥

पद्अर्थ: पंच = पंच तत्व। तीनि = तीन गुण (माया के)। नव = नौ खण्ड (धरती के)। चारि = चार कूंट। धरणि = धरती। कल = सत्ता। परावै = परताता है, पलटता है।5।

अर्थ: जो परमात्मा पाँचों तत्वों में, माया के तीनों गुणों में, नौ खण्डों में और चारें कुंटों में व्यापक है, जो धरती और आकाश को अपनी सत्ता के आसरे (अपनी जगह पर) टिकाए रखता है। गुरु सर्राफ मनुष्य के बाहर दिखाई देते आकार की ओर दौड़ते मन को उस परमात्मा की ओर पलट के लाता है।5।

मूरखु होइ न आखी सूझै ॥ जिहवा रसु नही कहिआ बूझै ॥ बिखु का माता जग सिउ लूझै ॥६॥

पद्अर्थ: आखी = आँखों से। सूझै = सूझता, दिखता। बिखु = माया रूपी जहर। माता = मस्त हुआ। लूझै = झगड़ता है।6।

(नोट: ऊतम, ऊतमु; पहला शब्द स्त्रीलिंग है और शब्द ‘संगति’ का विशेषण है, दूसरा शब्द पुलिंग है)।

अर्थ: (गुरु-सर्राफ बताता है कि परमात्मा सारी सृष्टि में रमा हुआ है, पर) वह मनुष्य मूर्ख है जिसे आँखों से (प्रभु) नहीं दिखाई देता, जिसकी जीभ में (प्रभु का) नाम-रस नहीं आया, जो गुरु के बताए उपदेश को नहीं समझता। वह मनुष्य विषौली माया में मस्त हो के जगत से झगड़े मोल लेता है।6।

ऊतम संगति ऊतमु होवै ॥ गुण कउ धावै अवगण धोवै ॥ बिनु गुर सेवे सहजु न होवै ॥७॥

पद्अर्थ: धावै = दौड़ता है,प्रयत्न करता है। सहजु = अडोलता।7।

अर्थ: गुरु की श्रेष्ठ संगति की इनायत से मनुष्य श्रेष्ठ जीवन वाला बन जाता है, आत्मिक गुणों की प्राप्ति के लिए दौड़-भाग करता है और (अपने अंदर से नाम-अमृत की सहायता से) अवगुणों को धो देता है। (ये बात यकीनन है कि) गुरु द्वारा बताई हुई सेवा किए बिना (अवगुणों से निजात नहीं मिलती, और) अडोल आत्मिक अवस्था नहीं मिलती।7।

हीरा नामु जवेहर लालु ॥ मनु मोती है तिस का मालु ॥ नानक परखै नदरि निहालु ॥८॥५॥

पद्अर्थ: मालु = राशि, पूंजी। तिस का = उस मनुष्य का।8।

अर्थ: हे नानक! गुरु-सर्राफ जिस मनुष्य को मेहर की नजर से देखता है वह निहाल हो जाता है, मोती (जैसा सुच्चा-स्वच्छ) मन परमात्मा का नाम हीरा-जवाहर और लाल उस मनुष्य की राशि-पूंजी बन जाती है।8।5।

आसा महला १ ॥ गुरमुखि गिआनु धिआनु मनि मानु ॥ गुरमुखि महली महलु पछानु ॥ गुरमुखि सुरति सबदु नीसानु ॥१॥

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की ओर मुंह करके, गुरु के सन्मुख हो के, गुरु की शरण पड़ के। गिआनु = परमात्मा के साथ गहरी सांझ। धिआनु = परमात्मा में सूझ का टिकाव। मानु = (हे भाई!) तू माण। महली = महल का मालिक, परमात्मा। महलु = घर, ठिकाना। नीसानु = (जीवन-यात्रा के लिए) राहदारी।1।

अर्थ: (हे भाई! तू) गुरु के सन्मुख हो के अपने मन में परमात्मा के साथ गहरी सांझ और परमात्मा में जुड़ी तवज्जो (का आनंद) ले, गुरु की शरण पड़ के तू अपने अंदर प्रभु का ठिकाना पहचान। गुरु के सन्मुख रहके तू गुरु के शब्द को अपने सोच-मण्डल में टिका, (ये तेरी जीवन-यात्रा के लिए) राहदारी है।1।

ऐसे प्रेम भगति वीचारी ॥ गुरमुखि साचा नामु मुरारी ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: ऐसे = इस तरह। वीचारी = विचारवान। मुरारी = परमात्मा।1। रहाउ।

अर्थ: गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य को परमात्मा का सदा स्थिर रहने वाला नाम प्राप्त हो जाता है, और इस तरह प्रभु चरणों से प्रेम और परमात्मा की भक्ति करके वह ऊँचे विचारों का मालिक बन जाता है।1। रहाउ।

अहिनिसि निरमलु थानि सुथानु ॥ तीन भवन निहकेवल गिआनु ॥ साचे गुर ते हुकमु पछानु ॥२॥

पद्अर्थ: अहि = दिन। निसि = रात। थानि = (अपने हृदय-) स्थल में। सुथानु = (परमातमा का) श्रेष्ठ ठिकाना। निहकेवल = वासना रहित प्रभु का। ते = से। पछानु = (हे भाई!) तू पहचान।2।

अर्थ: (जो मनुष्य गुरु के सन्मुख रहता है वह) दिन-रात अपने हृदय-स्थल में परमात्मा का पवित्र श्रेष्ठ डेरा बनाए रखता है, तीनों भवनों में व्यापक और वासना-रहित प्रभु के साथ उसकी गहरी सांझ पड़ जाती है। (हे भाई! तू भी) अचूक गुरु से (भाव, शरण पड़ के) परमात्मा की रजा को समझ।2।

साचा हरखु नाही तिसु सोगु ॥ अम्रितु गिआनु महा रसु भोगु ॥ पंच समाई सुखी सभु लोगु ॥३॥

पद्अर्थ: हरखु = खुशी। सोगु = चिन्ता। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस। भोगु = आत्मिक खुराक। पंच = कामादिक पाँचों विकार।3।

अर्थ: (जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है उसके) अंदर स्थिर आनंद बनारहता है, उसे कभी कोई चिन्ता नहीं छूती। परमात्मा का आत्मिक जीवन देने वाले श्रेष्ठ रस का नाम और परमात्मा के साथ गहरी सांझ उस मनुष्य का आत्मिक भोजन बन जाता है। (अगर गुरु की शरण पड़ के) जगत कामादिक पाँचों को खत्म कर दे तो सारा जगत ही सुखी हो जाए।3।

सगली जोति तेरा सभु कोई ॥ आपे जोड़ि विछोड़े सोई ॥ आपे करता करे सु होई ॥४॥

पद्अर्थ: सगली = सारी सृष्टि में। सभु कोई = हरेक जीव। जोड़ि = जोड़ के, संजोग बना के।4।

अर्थ: (गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य इस प्रकार अरदास करता है: हे प्रभु!) सारी सृष्टि में तेरी ही ज्योति (प्रकाश कर रही है, हरेक जीव तेरा ही पैदा किया हुआ) है। (गुरमुखि को ये पक्का निश्चय होता है कि) परमात्मा स्वयं ही जीवों के संजोग बनाता है, और स्वयं ही फिर विछोड़े डाल देता है। जो कुछ कर्तार स्वयं ही करता है वही होता है।4।

ढाहि उसारे हुकमि समावै ॥ हुकमो वरतै जो तिसु भावै ॥ गुर बिनु पूरा कोइ न पावै ॥५॥

पद्अर्थ: हुकमि = प्रभु के हुक्म के अनुसार। हुकमो = हुक्म ही। तिसु = उस प्रभु को।5।

अर्थ: (गुरमुखि को यकीन हो जाता है कि) परमात्मा स्वयं ही सारी सृष्टि को गिरा के स्वयं ही दुबारा उसकी सृजना करता है, उसके हुक्म के अनुसार ही जगत दुबारा उसमें लीन हो जाता है। जो उसको अच्छा लगता है उसके अनुसार उसका हुक्म चलता है। गुरु की शरण आए बिना कोई भी जीव पूरन परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकता।5।

बालक बिरधि न सुरति परानि ॥ भरि जोबनि बूडै अभिमानि ॥ बिनु नावै किआ लहसि निदानि ॥६॥

पद्अर्थ: परानि = प्राणी (को)। भरि जोबनि = भरी जवानी के समय। अभिमानि = अहंकार में। निदानि = आखिर को, अंत को।6।

अर्थ: (जिस प्राणी की तवज्जो) ना बाल अवस्था में ना वृद्ध अवस्था में (और ना ही जवानी के समय) कभी भी परमात्मा में नहीं जुड़ती, (बल्कि) भरी-जवानी में वह (जवानी के) अहंकार में डूबा रहता है, वह परमात्मा के नाम से टूट के आखिर (यहाँ से) क्या कमाएगा?।6।

जिस का अनु धनु सहजि न जाना ॥ भरमि भुलाना फिरि पछुताना ॥ गलि फाही बउरा बउराना ॥७॥

पद्अर्थ: अनु = अंन। सहजि = सहज अवस्था में टिक के। गलि = गले में। बउरा = झल्ला।7।

अर्थ: जिस परमात्मा का दिया हुआ अंन्न और धन जीव इस्तेमाल करता रहता है, अगर अडोल अवस्था में टिक के उससे कभी भी सांझ भी नहीं डालता और माया की भटकना में असल जीवन-राह भटका रहता है, तो आखिर पछताता है। उसके गले में मोह की फांसी लगी रहती है, मोह में ही वह सदा झल्ला हुआ फिरता है।7।

बूडत जगु देखिआ तउ डरि भागे ॥ सतिगुरि राखे से वडभागे ॥ नानक गुर की चरणी लागे ॥८॥६॥

पद्अर्थ: डरि = डर के। सतिगुरि = सतिगुरु ने। से = वह लोग।8।

अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य गुरु के चरणों में लगते हैं, वह जगत को (मोह में) डूबता देख के (मोह से) डर के भाग जाते हैं। वह बड़े भाग्यशाली हैं, सतिगुरु ने उन्हें (मोह की कैद से) बचा लिया है।8।6।

आसा महला १ ॥ गावहि गीते चीति अनीते ॥ राग सुणाइ कहावहि बीते ॥ बिनु नावै मनि झूठु अनीते ॥१॥

पद्अर्थ: गावहि = गाते हैं। चीति = चित्त में। अनीते = कुकर्म। राग = राग द्वैष की बातें। सुणाइ = सुना के। कहावहि = लोगों से कहलवाते हैं। बीते = राग द्वैष से परे। मनि = मन में।1।

अर्थ: जो मनुष्य (दूसरों को सुनाने के लिए ही भक्ति के) गीत गाते हैं, पर उनके चित्त में बुरे ख्याल (मौजूद) हैं; जो (और लोगों को) राग (द्वैष से बचने की बातें) सुना के कहलवाते हैं कि हम राग-द्वैष से बचे हुए हैं, परमात्मा का नाम स्मरण के बिना उनके मन में झूठ (बसता) है, उनके मन में कुकर्म (टिके हुए) हैं।1।

कहा चलहु मन रहहु घरे ॥ गुरमुखि राम नामि त्रिपतासे खोजत पावहु सहजि हरे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मन = हे मन! घरे = घर में ही, अंदर ही। त्रिपतासे = (माया की ओर से) तृप्त। पावहु = (हे मन!) तू ढूँढ लेगा। सहजि = अडोल अवस्था में टिक के।1। रहाउ।

अर्थ: (और लोगों को समझ देने वाले) हे मन! तू (कुकर्मों में) क्यूँ भटक रहा है? अपने अंदर ही टिका रह। जो मनुष्य गुरु के सन्मुख होते हैं वे परमात्मा के नाम में जुड़ के (विकारों की ओर से) हट जाते हैं। हे मन! तू भी गुरु के द्वारा तलाश करके सहज अवस्था में टिक के परमात्मा को पा लेगा।1। रहाउ।

कामु क्रोधु मनि मोहु सरीरा ॥ लबु लोभु अहंकारु सु पीरा ॥ राम नाम बिनु किउ मनु धीरा ॥२॥

पद्अर्थ: मनि = मन में। सरीरा = शरीर में। पीरा = पीड़ा। धीरा = धीरज वाला, हौसले वाला।2।

अर्थ: जिस मनुष्य के मन में शरीर में काम है, क्रोध है मोह है, जिसके अंदर लब (लालच) है, लोभ है अहंकार है (जिसके अंदर इन विकारों का) कष्ट है, परमात्मा का नाम स्मरण के बिना उसका मन (इनका मुकाबला करने का) कैसे हौसला कर सकता है?।2।

अंतरि नावणु साचु पछाणै ॥ अंतर की गति गुरमुखि जाणै ॥ साच सबद बिनु महलु न पछाणै ॥३॥

पद्अर्थ: नावणु = स्नान। गति = आत्मिक अवस्था। महलु = परमात्मा का ठिकाना।3।

अर्थ: जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ के अपनी अंदरूनी आत्मिक अवस्था को समझ लेता है, जो मनुष्य अपने अंदर सदा स्थिर प्रभु के साथ सांझ पा लेता है, वह अपनी आत्मा में (तीर्थ-) स्नान कर रहा है। (पर गुरु के) सच्चे शब्द के बिना परमात्मा का ठिकाना कोई मनुष्य नहीं पहचान सकता।3।

निरंकार महि आकारु समावै ॥ अकल कला सचु साचि टिकावै ॥ सो नरु गरभ जोनि नही आवै ॥४॥

पद्अर्थ: आकारु = बाहर दिखता जगत। समावै = लीन करे। अकल कला = जिसकी कला गिनती से परे है। साचि = सदा स्थिर प्रभु में जुड़ के।4।

अर्थ: जो मनुष्य दिखाई देते संसार को अदृश्य प्रभु में लीन कर लेता है (भाव, अपनी तवज्जो को बाहर से रोक के अंदर ले आता है;) जिस प्रभु की सत्ता गिनती-मिनती से परे है वह सदा स्थिर प्रभु को जो मनुष्य स्मरण द्वारा अपने हृदय में टिकाता है, वह मनुष्य जनम-मरण के चक्कर में नहीं आता।4।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh