श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 415 जहां नामु मिलै तह जाउ ॥ गुर परसादी करम कमाउ ॥ नामे राता हरि गुण गाउ ॥५॥ पद्अर्थ: जाउ = मैं जाऊँ। परसादी = प्रसादि, कृपा से। कमाउ = मैं कमाऊँ। गाउ = मैं गाऊँ।5। अर्थ: (इस वास्ते मेरी ये अरदास है कि) जहाँ (गुरु की संगति में से) मुझे परमातमा का नाम मिल जाए, मैं वहीं जाऊँ, गुरु की कृपा से मैं वही काम करूँ (जिनसे मुझे परमात्मा का नाम प्राप्त हो), और परमात्मा के नाम रंग में रंगा हुआ मैं परमात्मा के गुण गाता रहूँ।5। गुर सेवा ते आपु पछाता ॥ अम्रित नामु वसिआ सुखदाता ॥ अनदिनु बाणी नामे राता ॥६॥ पद्अर्थ: आपु = अपने आप को, अपने असल को, अपने आत्मिक जीवन को। अनदिनु = हर रोज। नामे = नाम में ही।6। अर्थ: गुरु की बताई हुई सेवा के द्वारा जिस मनुष्य ने अपना आंतरिक आत्मिक जीवन पहचान लिया, उसके मन में आत्मिक जीवन देने वाला आत्मिक आनंद देने वाला हरि-नाम बस गया (समझो)। वह मनुष्य प्रभु की महिमा की वाणी के द्वारा हर रोज हरि के नाम-रंग में रंगा रहता है।6। मेरा प्रभु लाए ता को लागै ॥ हउमै मारे सबदे जागै ॥ ऐथै ओथै सदा सुखु आगै ॥७॥ पद्अर्थ: ता = तब। को = कोई जीव। सबदे = शब्द के द्वारा। आगै = सामने।7। अर्थ: (पर ये खेल जीव के बस की नहीं) जब प्यारा प्रभु किसी जीव को अपने नाम में लगाता है तब ही कोई लगता है, तब ही गुरु शब्द के द्वारा वह अहंकार को मार के (इस और से सदा) सचेत रहता है। फिर लोक-परलोक में सदा आत्मिक आनंद उसके सामने मौजूद रहता है।7। मनु चंचलु बिधि नाही जाणै ॥ मनमुखि मैला सबदु न पछाणै ॥ गुरमुखि निरमलु नामु वखाणै ॥८॥ पद्अर्थ: बिधि = (अहंकार को मारने की) बिधि।8। अर्थ: पर चंचल मन (अहंकार को मारने का) तरीका नहीं जान सकता, क्योंकि मनमुख का मन (विकारों से सदा) मैला रहता है, वह गुरु के शब्द से सांझ नहीं डाल सकता। गुरु के बताए राह पर चलने वाला मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करता है और पवित्र जीवन वाला होता है।8। हरि जीउ आगै करी अरदासि ॥ साधू जन संगति होइ निवासु ॥ किलविख दुख काटे हरि नामु प्रगासु ॥९॥ पद्अर्थ: करी = करता हूँ। किलविख = पाप। प्रगासु = प्रकाश।9। अर्थ: मैं प्रभु जी के आगे ये अरदास करता हूँ कि गुरमुखों की संगति में मेरा निवास बना रहे, मेरे अंदर परमात्मा का नाम चमक पड़े, और वह नाम मेरे पाप-कष्टों को काट दे।9। करि बीचारु आचारु पराता ॥ सतिगुर बचनी एको जाता ॥ नानक राम नामि मनु राता ॥१०॥७॥ पद्अर्थ: करि = कर के। आचारु = शुभ आचरण। पराता = पहचाना। बचनी = वचनों पर चल के। नामि = नाम में। राता = रंगा हुआ।10। अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य गुरु के वचन पर चल के एक परमात्मा के साथ सांझ डालता है, वह गुरु की वाणी को विचार केअच्छा आचरण बनाना समझ लेता है। उसका मन परमात्मा के नाम-रंग में रंगा रहता है।10।7। आसा महला १ ॥ मनु मैगलु साकतु देवाना ॥ बन खंडि माइआ मोहि हैराना ॥ इत उत जाहि काल के चापे ॥ गुरमुखि खोजि लहै घरु आपे ॥१॥ पद्अर्थ: मैगलु = हाथी। साकतु = ईश्वर से टूटा हुआ, माया ग्रसित। देवाना = पागल। बन खंड = जंगल के एक खण्ड में, संसार जंगल में। मोहि = मोह के कारण। हैराना = घबराया हुआ। इत उत = इधर उधर, हर तरफ। जाहि = जाते हैं, भटकते हैं। काल = मौत का डर, आत्मिक मौत। चापे = दबाए हुए। गुरमुखि = जो मनुष्य गुरु के सन्मुख है। लहै = पा लेता है। आपे = अपने अंदर ही।1। अर्थ: (गुरु-शब्द से टूट के) माया-ग्रसित मन पागल हाथी (की तरह) है, माया के मोह के कारण (संसार-) जंगल में भटकता फिरता है। (माया के मोह के कारण) जिन्हें आत्मिक मौत दबा लेती है वे इधर-उधर भटकते फिरते हैं। जो मनुष्य गुरु के सन्मुख होता है वह ढूँढ के अपने अंदर परमात्मा का ठिकाना पा लेता है (और भटकनों में नहीं पड़ता)।1। बिनु गुर सबदै मनु नही ठउरा ॥ सिमरहु राम नामु अति निरमलु अवर तिआगहु हउमै कउरा ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: ठउरा = एक जगह (टिकने वाला)। अवर = और रस। कउरा = कड़वा।1। रहाउ। अर्थ: गुरु के शब्द (में जुड़े) बिना मन एक जगह टिका नहीं रह सकता। (हे भाई! इसे टिकाने के वास्ते गुरु-शब्द के द्वारा) परमात्मा का नाम स्मरण करो जो बहुत ही पवित्र है, और अन्य रसों को छोड़ दो, जो कड़वे भी हैं और अहंकार को बढ़ाते हैं।1। रहाउ। इहु मनु मुगधु कहहु किउ रहसी ॥ बिनु समझे जम का दुखु सहसी ॥ आपे बखसे सतिगुरु मेलै ॥ कालु कंटकु मारे सचु पेलै ॥२॥ पद्अर्थ: मुगधु = मूर्ख। कहहु = बताओ। रहसी = (अडोल) रहेगा। जम का दुख = आत्मिक मौत का दुख। कुंटकु = काँटा, काँटे की तरह चुभने वाला, दुखदाई। कालु = मौत, मौत का डर, आत्मिक मौत। पेलै = प्रेरता है, धकेलता है।2। अर्थ: (माया के मोह में हैरान हुआ) ये मन अपनी सूझ गवा लेता है, फिर बताएं, ये भटकने से कैसे बच सकता है? अपने असल की समझ के बिना ये मन आत्मिक मौत का दुख सहेगा ही। जिस मनुष्य पर परमात्मा स्वयं बख्शिश करता है, उसे गुरु मिल जाता है, वह दुखदाई आत्मिक मौत रूपी काँटे काल-कंटक को मार के निडर हो जाता है, सदा स्थिर प्रभु (उसे आत्मिक जीवन की ओर) प्रेरित करता है।2। इहु मनु करमा इहु मनु धरमा ॥ इहु मनु पंच ततु ते जनमा ॥ साकतु लोभी इहु मनु मूड़ा ॥ गुरमुखि नामु जपै मनु रूड़ा ॥३॥ पद्अर्थ: करमा धरमा = धार्मिक रस्में। पंच ततु ते जनमा = पाँचों तत्वों से जन्मा हुआ, जनम मरण में ले जाने वाला। मूढ़ा = मूर्ख। रूढ़ा = सुंदर।3। अर्थ: (माया के मोह में हैरान हुआ) ये मन और ही धार्मिक रस्में करता फिरता है, और जनम-मरण के चक्कर मेंलिए फिरता है। माया-ग्रसित ये मन लालची बन जाता है, मूर्ख हो जाता है। जो मनुष्य गुरु के सन्मुख हो के प्रभु का नाम जपता है उसका मन सुंदर (संरचना वाला बन जाता) है।3। गुरमुखि मनु असथाने सोई ॥ गुरमुखि त्रिभवणि सोझी होई ॥ इहु मनु जोगी भोगी तपु तापै ॥ गुरमुखि चीन्है हरि प्रभु आपै ॥४॥ पद्अर्थ: असथाने = टिकाता है, जगह देता है। सोई = उस प्रभु को। त्रिभवण = त्रिभवणी प्रभु की, उस प्रभु की जो तीनों भवनों में व्यापक है। चीनै = खोजता है, तलाशता है। आपै = अपने अंदर।4। अर्थ: गुरु के सन्मुख हुए मनुष्य का मन परमात्मा को (अपने अंदर) जगह देता है, उसे उस प्रभु की सूझ हो जाती है जो तीनों भवनों में व्यापक है। (माया के मोह में हैरान हुआ) ये मन कभी योग-साधना करता है कभी माया के भोग भोगता है कभी तपों से शरीर को कष्ट देता है (पर आत्मिक आनंद उसको कभी नहीं मिलता)। जो मनुष्य गुरु के सन्मुख होता है वह हरि परमात्मा को अपने अंदर खोज लेता है।4। मनु बैरागी हउमै तिआगी ॥ घटि घटि मनसा दुबिधा लागी ॥ राम रसाइणु गुरमुखि चाखै ॥ दरि घरि महली हरि पति राखै ॥५॥ पद्अर्थ: घटि घटि = हरेक घट में। मनसा = मायावी फुरना। दुबिधा = दुचित्तापन, भटकना। रसाइणु = रसों का घर। दरि = दर पे। घरि = घर में। महली = महल का मालिक प्रभु।5। अर्थ: (माया के मोह में हैरान हुआ) ये मन कभी (अपनी ओर से) अहंकार को त्याग के (दुनिया त्याग के) वैरागवान बन जाता है, कभी हरेक शारीर में (माया-ग्रसित मन को) मायावी फुरने व दुबिधा भरे विचार आ चिपकते हैं। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ के रसों का घर नाम-रस चखता है, उसे अंदर-बाहर महल का मालिक प्रभु (दिखता है) जो (माया के मोह से बचा के) उसकी इज्जत रखता है।5। इहु मनु राजा सूर संग्रामि ॥ इहु मनु निरभउ गुरमुखि नामि ॥ मारे पंच अपुनै वसि कीए ॥ हउमै ग्रासि इकतु थाइ कीए ॥६॥ पद्अर्थ: सूर = सूरमा। संग्रामि = रण भूमि में। नामि = नाम में। अपुनै वसि = अपने वश में। ग्रासि = ग्रस के, खा के। इकतु थाइ = एक ही जगह में।6। अर्थ: (माया के मोह में हैरान हुआ) ये मन कभी रणभूमि में राजा और शूरवीर बना हुआ है। पर जब ये मन गुरु की शरण पड़ के प्रभु नाम में जुड़ता है तो (माया के हमलों से) निडर हो जाता है, कामादिक पाँचों (वैरियों) को मार देता है, अपने बस में कर लेता है, अहंकार को खत्म कर के इन सभी को एक ही जगह पर (काबू) कर लेता है।6। गुरमुखि राग सुआद अन तिआगे ॥ गुरमुखि इहु मनु भगती जागे ॥ अनहद सुणि मानिआ सबदु वीचारी ॥ आतमु चीन्हि भए निरंकारी ॥७॥ पद्अर्थ: अन = अन्य। जागे = जाग पड़ता है, सचेत हो जाता है। अनहद = एक रस। सुणि = सुन के। मानिआ = मान गया, गिझ गया। विचारी = विचार के। चीन्हि = खोज के।7। अर्थ: गुरु के सन्मुख हुआ ये मन राग (द्वैष) व अन्य स्वाद त्याग देता है, गुरु की शरण पड़ के ये मन परमात्मा की भक्ति में जुड़ के (माया के हमलों की ओर से) सुचेत हो जाता है। जो मनुष्य गुरु के शब्द को अपने सोच-मण्डल में टिकाता है, वह (अंदरूनी आत्मिक खेड़े के) एक रस (हो रहे गीत) को सुन-सुन के (उस में) समा जाता है, अपने आपे को खोज के परमात्मा का रूप हो जाता है।7। इहु मनु निरमलु दरि घरि सोई ॥ गुरमुखि भगति भाउ धुनि होई ॥ अहिनिसि हरि जसु गुर परसादि ॥ घटि घटि सो प्रभु आदि जुगादि ॥८॥ पद्अर्थ: दरि घर = अंदर बाहर (हर जगह)। सोई = उसी प्रभु को। धुनि = लगन। भाउ = प्रेम। अहि = दिन। निसि = रात। परसादि = किरपा से। आदि = सारी सृष्टि का आरम्भ। जुगादि = जुगों के आदि से।8। अर्थ: (जब) ये मन (गुरु के सन्मुख होता है तब) पवित्र हो जाता है, उसको अंदर-बाहर वह परमात्मा ही दिखता है। गुरु के सन्मुख हो के (इस मन के अंदर) भक्ति की लगन लग पड़ती है, (इसके अंदर प्रभु का) प्यार (जाग पड़ता है) गुरु की कृपा से ये मन दिन-रात परमात्मा की महिमा करता है। जो परमात्मा सारी सृष्टि का आदि है जो परमात्मा जुगों के आरम्भ से मौजूद है वह इस मन को हरेक शरीर में बसता दिखाई दे जाता है।8। राम रसाइणि इहु मनु माता ॥ सरब रसाइणु गुरमुखि जाता ॥ भगति हेतु गुर चरण निवासा ॥ नानक हरि जन के दासनि दासा ॥९॥८॥ पद्अर्थ: रसाइणि = रसायन में, रसों के घर में। हेतु = प्रेम।9। अर्थ: गुरु के सन्मुख हो के ये मन रसों के घर नाम-रस में मस्त हो जाता है, गुरु के सन्मुख होने से ये मन सब रसों के श्रोत प्रभु को पहचान लेता है। जब गुरु के चरणों में (इस मन का) निवास होता है तो (इसके अंदर परमात्मा की) भक्ति का प्रेम (जाग पड़ता है)। हे नानक! तब ये मन गुरमुखों के दासों का दास बन जाता है।9।8। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |