श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 416 आसा महला १ ॥ तनु बिनसै धनु का को कहीऐ ॥ बिनु गुर राम नामु कत लहीऐ ॥ राम नाम धनु संगि सखाई ॥ अहिनिसि निरमलु हरि लिव लाई ॥१॥ पद्अर्थ: का को = किस का? कत = कहाँ? संगि = (जीव के) साथ। सखाई = साथी, मित्र। अहि = दिन। निसि = रात।1। अर्थ: जब मनुष्य का शरीर बिनस जाता है तब (उसका कमाया हुआ) धन उसका नहीं कहा जा सकता (परमात्मा का नाम ही असल धन है जो मनुष्य शरीर के नाश होने के बाद भी अपने साथ ले जा सकता है, पर) परमात्मा का नाम-धन गुरु के बिना किसी और से नहीं मिल सकता। परमात्मा का नाम-धन ही मनुष्य का असल साथी है। जो मनुष्य दिन-रात अपनी तवज्जो प्रभु (-चरणों) में जोड़ता है उसका जीवन पवित्र हो जाता है।1। राम नाम बिनु कवनु हमारा ॥ सुख दुख सम करि नामु न छोडउ आपे बखसि मिलावणहारा ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: हमारा = हम जीवों का। सम = बराबर, एक जैसा। करि = कर के, समझ के। न छोडउ = मैं नहीं छोड़ता। बखसि = बख्श के, मेहर करके।1। रहाउ। अर्थ: परमात्मा के नाम के बिना हम (जीवों का) और कौन सदीवी (हमेशा के लिए मित्र) हो सकता है? (सुख और दुख उसी प्रभु की रजा में आते हैं, इस वास्ते) सुख और दुख को एक समान (उसी की रजा समझ के) मैं (कभी) उसका नाम नहीं छोड़ूँगा। (मुझे पक्का यकीन है कि) परमात्मा खुद ही मेहर करके (अपने चरणों में) जोड़ने वाला है।1। रहाउ। कनिक कामनी हेतु गवारा ॥ दुबिधा लागे नामु विसारा ॥ जिसु तूं बखसहि नामु जपाइ ॥ दूतु न लागि सकै गुन गाइ ॥२॥ पद्अर्थ: कनिक = सोना। कामनी = स्त्री। हेतु = हित, मोह। दुबिधा = भटकना, दुचित्तापन। जपाइ = जपा के। गाइ = गाए, गाता है।2। अर्थ: वह मूर्ख हैं जिन्होंने परमात्मा का नाम भुला दिया है जो सोने व स्त्री के साथ ही मोह बढ़ा रहे हैं और भटकना में पड़े हुए हैं (पर जीव के भी क्या वश? हे प्रभु!) जिस जीव को तू अपना नाम जपा के (नाम की दाति) बख्शता है, वह तेरे गुण गाता है, जमदूत उसके पास नहीं फटक सकते (आत्मिक मौत उसके नजदीक नहीं आती। ‘कनिक कामिनी हेतु’ उसके आत्मिक जीवन को मार नहीं सकता)।2। हरि गुरु दाता राम गुपाला ॥ जिउ भावै तिउ राखु दइआला ॥ गुरमुखि रामु मेरै मनि भाइआ ॥ रोग मिटे दुखु ठाकि रहाइआ ॥३॥ पद्अर्थ: जिउ भावै = जैसे तुझे अच्छा लगे। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। मनि = मन में।3। अर्थ: हे राम! हे हरि! हे गुपाल! तू ही सब से बड़ा दाता है। जैसे तुझे ठीक लगे वैसे, हे दयालु! मुझे (‘कनिक कामिनी हेत’ से) बचा ले। गुरु की शरण पड़ के परमात्मा (का नाम) मेरे मन को प्यारा लगता है, मेरे (आत्मिक) रोग मिट गए हैं (आत्मिक मौत वाला) दुख मैंने रोक लिया है।3। अवरु न अउखधु तंत न मंता ॥ हरि हरि सिमरणु किलविख हंता ॥ तूं आपि भुलावहि नामु विसारि ॥ तूं आपे राखहि किरपा धारि ॥४॥ पद्अर्थ: अवरु = कोई और। अउखधु = दवा। किलविख = पाप। हंता = नाश करने वाला।4। अर्थ: (हे भाई! ‘कनिक कामिनी हेत’ के रोग से बचाने वाले प्रभु-नाम के बिना) और कोई दवा नहीं है, कोई मंत्र नहीं है। परमात्मा के नाम का जपना ही सारे पापों का नाश करने वाला है। पर, हे प्रभु! हम जीव क्या कर सकते हैं? हमारे मनों से (अपना) नाम भुला के तू खुद ही हमें गलत रास्ते पर डालता है, और तू स्वयं ही मेहर करके हमें विकारों से बचाता है।4। रोगु भरमु भेदु मनि दूजा ॥ गुर बिनु भरमि जपहि जपु दूजा ॥ आदि पुरख गुर दरस न देखहि ॥ विणु गुर सबदै जनमु कि लेखहि ॥५॥ पद्अर्थ: भरमि = भटक के। जपहि = जपते हैं। गुर दरस = गुरु के दीदार। कि लेखहि = किस लेख में? किसी लेखे नहीं।5। अर्थ: गुरु की शरण के बिना जो मनुष्य गलत रास्ते पर पड़ के दूसरा जप जपते हैं (कनिक कामिनी आदि के मोह में सदा तवज्जो जोड़ के रखते हैं, उनके मन में विकारों का) रोग है, भटकना है, प्रभु से दूरी है, मेर-तेर है। जो मनुष्य कभी गुरु के दर्शन नहीं करते, सबसे आदि सर्व-व्यापक का दर्शन नहीं करते, गुरु के शब्द में जुड़े बिना उनका जनम किसी भी काम का नहीं रह जाता।5। देखि अचरजु रहे बिसमादि ॥ घटि घटि सुर नर सहज समाधि ॥ भरिपुरि धारि रहे मन माही ॥ तुम समसरि अवरु को नाही ॥६॥ पद्अर्थ: देखि = देख के। बिसमादि = हैरान। घटि घटि = हरेक घट में। मन माही = हरेक हृदय में। समसरि = बराबर।6। अर्थ: (हे प्रभु!) तुझे आश्चर्य-रूप में देख के हम हैरान होते हैं। तू हरेक शरीर में मौजूद है, देवताओं में, मनुष्यों में हरेक में सोए हुए ही अडोल टिका हुआ है। तू हरेक जीव के मन में भरपूर है, तू हरेक को सहारा दे रहा है। तेरे जैसा (रक्षक) और कोई नहीं है।6। जा की भगति हेतु मुखि नामु ॥ संत भगत की संगति रामु ॥ बंधन तोरे सहजि धिआनु ॥ छूटै गुरमुखि हरि गुर गिआनु ॥७॥ पद्अर्थ: जा की = जिस परमात्मा की। हेतु = हित, प्रेम। सहजि = अडोल अवस्था में।7। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा उन संतों-भक्तों की संगति में मिलता है जिनके मुँह में (सदा उस का) नाम टिका रहता है। उन संत जनों के हृदय में उस प्रभु की भक्ति के वास्ते प्रेम है कसक है। अडोल अवस्था में (टिक के, प्रभु का) ध्यान (धर के संत जन ‘कनिक कामिनी’ वाले) बंधन तोड़ लेते हैं। जो मनुष्य गुरु के सन्मुख होता है जिसके अंदर गुरु का दिया हुआ रब्बी ज्ञान प्रगट होता है वह भी इन बंधनों से मुक्त हो जाता है।7। ना जमदूत दूखु तिसु लागै ॥ जो जनु राम नामि लिव जागै ॥ भगति वछलु भगता हरि संगि ॥ नानक मुकति भए हरि रंगि ॥८॥९॥ पद्अर्थ: भगति वछलु = भक्ति से प्यार करने वाला। हरि रंगि = हरि के प्यार में।8। अर्थ: जो मनुष्य परमात्मा के नाम में लगन लगा के, ‘कनिक कामिनी हेत’ की ओर से सुचेत हो जाता है उसे जम दूतों का दुख छू नहीं सकता (मौत का डर, आत्मिक मौत उसके पास नहीं फटकती)। भक्ति से प्यार करने वाला परमात्मा अपने भक्तों के अंग-संग रहता है। हे नानक! प्रभु के भक्त प्रभु के प्यार-रंग में (रंग के, बंधनों से) आजाद हो जाते हैं।8।9। आसा महला १ इकतुकी ॥ गुरु सेवे सो ठाकुर जानै ॥ दूखु मिटै सचु सबदि पछानै ॥१॥ पद्अर्थ: सचु = सदा स्थिर रहने वाला प्रभु। सबदि = गुरु के शब्द द्वारा।1। अर्थ: जो मनुष्य गुरु के बताए हुए अनुसार परमात्मा का स्मरण करता है, वह परमात्मा को (हर जगह व्यापक) जान लेता है, वह मनुष्य सदा स्थिर प्रभु को गुरु के शब्द के द्वारा (हर जगह) पहचान लेता है, और (इसतरह उसके मोह का) दुख मिट जाता है।1। रामु जपहु मेरी सखी सखैनी ॥ सतिगुरु सेवि देखहु प्रभु नैनी ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सखी सखैनी = हे सहेलिओ! नैनी = आँखों से।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरी सहेलियो! (हे मेरे सत्संगियो!) परमात्मा का नाम जपो, गुरु की बताई हुई (ये) सेवा करके (भाव, गुरु की शिक्षा के अनुसार प्रभु का भजन करके) तुम (हर जगह) परमात्मा के दर्शन करोगे।1। रहाउ। बंधन मात पिता संसारि ॥ बंधन सुत कंनिआ अरु नारि ॥२॥ पद्अर्थ: संसारि = संसार में। सुत = पुत्र। अरु = और। नारि = पत्नी।2। अर्थ: (परमात्मा का स्मरण करने के बिना) संसार में माँ, पिता, पुत्र, बेटी और पत्नी (मोह के) बंधनों के कारण बन जाते हैं।2। बंधन करम धरम हउ कीआ ॥ बंधन पुतु कलतु मनि बीआ ॥३॥ पद्अर्थ: करम धरम = धार्मिक रस्में। हउ = अहंकार। कलत्र = स्त्री, पत्नी। मनि = मन में। बीआ = दूसरा, प्रभु के बिना और का प्यार।3। अर्थ: (स्मरण के बिना) धार्मिक रस्मेंबंधन बन जाती हैं, (मनुष्य गर्व करता है कि ये सब कुछ) ‘मैंने किया है, मैंने किया है’। यदि मन में (परमात्मा के बिना कोई और) दूसरा प्रेम है, तो पुत्र-स्त्री (का रिश्ता भी) बंधनों (का मूल हो जाता) है।3। बंधन किरखी करहि किरसान ॥ हउमै डंनु सहै राजा मंगै दान ॥४॥ पद्अर्थ: किरखी = खेती, कृषि। करहि = करते हैं। डंनु = दण्ड, सजा। दान = मामला।4। अर्थ: किसान (आजीविका के लिए) खेती-बाड़ी करते हैं (करनी भी चाहिए, पर स्मरण के बिना ये खेती-बाड़ी) बंधन बन जाती है। राजा (किसानों से) मामला लेता है। (पर, परमात्मा के स्मरण के बिना राजा ही) अहंकार की सजा भुगतता है।4। बंधन सउदा अणवीचारी ॥ तिपति नाही माइआ मोह पसारी ॥५॥ पद्अर्थ: अणवीचारी = (परमात्मा का नाम) विचारे बिना।5। अर्थ: (व्यापारी) व्यापार करता है, प्रभु का नाम स्मरण के बिना ये व्यापार बंधनों का मूल है, (क्योंकि स्मरण के बिना मनुष्य) माया के मोह के पसारे में (इतना फंस जाता है कि माया से उसका) पेट नहीं भरता।5। बंधन साह संचहि धनु जाइ ॥ बिनु हरि भगति न पवई थाइ ॥६॥ अर्थ: शाह-सौदागर (सौदागरी करके) धन एकत्र करते हैं, धन (आखिर) साथ छोड़ जाता है (पर नाम स्मरण के बिना धन) बंधन बन जाता है। परमात्मा की भक्ति के बिना (उनका कोई उद्यम परमात्मा की नजरों में) स्वीकार नहीं होता।6। बंधन बेदु बादु अहंकार ॥ बंधनि बिनसै मोह विकार ॥७॥ पद्अर्थ: संचहि = इकट्ठा करते हैं, जोड़ते हैं। जाइ = चला जाता है। थाइ = जगह में। न पवई थाइ = जगह पर नहीं पड़ता, स्वीकार नहीं होता। बेदु = वेदों का पाठ। बादु = झगड़ा, चर्चा। बंधन = बंधनों में। बिनसै = नाश हो जाता है, आत्मिक मौत मर जाता है।7। अर्थ: (स्मरण के बिना) वेद पाठ और वेद रचना भी अहंकार का मूल है। बंधनों का मूल है। मोह के बंधन में, विकारों के बंधन में (फंस के) मनुष्य की आत्मिक मौत हो जाती है।7। नानक राम नाम सरणाई ॥ सतिगुरि राखे बंधु न पाई ॥८॥१०॥ पद्अर्थ: सतिगुरि = सतिगुरु ने। बंधु = मोह का बंधन।8। अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य (दुनिया की हरेक किस्म की मेहनत-कमाई में) परमात्मा के नाम का आसरा लेते हैं, जान लो कि सतिगुरु ने उनको मोह के बंधनों से बचा लिया, उन्हे कोई बंधन नहीं पड़ता।8।10। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |