श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 418 कोटी हू पीर वरजि रहाए जा मीरु सुणिआ धाइआ ॥ थान मुकाम जले बिज मंदर मुछि मुछि कुइर रुलाइआ ॥ कोई मुगलु न होआ अंधा किनै न परचा लाइआ ॥४॥ पद्अर्थ: कोटी हू = करोड़ों ही, अनेक। वरजि = रोक के। मीरु = मीर बाबर। धाइआ = हल्ला करके आ रहा है। बिज = पक्के। मुछि मुछि = टुकड़े कर कर के। कुइर = कुमार, शहजादे। परचा लाइआ = करामात दिखाई।4। अर्थ: जब पठान हाकिमों ने सुना कि मीर बाबर हमला करके (धावा बोल के) आ रहा है, तो उन्होंने अनेक पीरों को (जादू-टूणे करने के लिए) रोक के रखा। (पर उनकी तसब्बियां फिरने पर भी, उनके जादू-टूणे की शक्ति प्रदर्शन के बावजूद भी कोई फर्क नहीं पड़ा, बल्कि मुगलों द्वारा लगाई जा रही आग से) पक्के जगह-मुकाम, पक्के महल तक जल कर राख हो गए। उन्होंने (मुगलों ने) पठानों के शहजादों को टुकड़े-टुकड़े कर कर के (मिट्टी में) मिला दिया। (पीरों के जादू-टूणों से) कोई एक भी मुग़ल अंधा नहीं हुआ, किसी भी पीर से कोई करामात ना हो सकी।4। मुगल पठाणा भई लड़ाई रण महि तेग वगाई ॥ ओन्ही तुपक ताणि चलाई ओन्ही हसति चिड़ाई ॥ जिन्ह की चीरी दरगह पाटी तिन्हा मरणा भाई ॥५॥ पद्अर्थ: रण = जंग। वगाई = चलाई। ओनी = मुगलों ने। तुपक = बंदूकें। ताणि = देख देख के, निशाना बाँध-बाँध के। हसति = हाथों में (ही)। चिड़ाई = चिड़ चिड़ कर गईं। चीरी = खत, चिट्ठी (मौत की खबर भेजने के वक्त खत का एक कोना थोड़ा सा फाड़ दिया करते हैं)। भाई = हे भाई!।5। अर्थ: जब मुग़लों और पठानों की लड़ाई हुई, लड़ाई के मैदान में (दोनों पक्षों ने) तलवार चलाई। उन मुग़लों ने बंदूकों के निशाने साधु-साधु के गोलियां चलाई, पर पठानों के हाथों में ही चिड़ चिड़ कर गई। पर हे भाई! धुर से ही जिनकी उम्र की चिट्ठी फट जाती है, उन्होंने तो मरना ही हुआ।5। इक हिंदवाणी अवर तुरकाणी भटिआणी ठकुराणी ॥ इकन्हा पेरण सिर खुर पाटे इकन्हा वासु मसाणी ॥ जिन्ह के बंके घरी न आइआ तिन्ह किउ रैणि विहाणी ॥६॥ पद्अर्थ: अवर = और। भटिआणी ठकुराणी = भट्टों व ठाकुरों की औरतें (भट्ट और ठाकुर राजपूत बिरादरियां हैं)। पेरण = बुरके। सिर खुर = सिर से पैरों तक। मसाणी = मसाणों में। बंके = बाँके (पति)। रैणि = रात।6। अर्थ: क्या हिन्दू-स्त्रीयां, क्या मुसलमान औरतें और क्या भट्टों व ठाकुरों की औरतें- कईयों के बुरके सिर से ले के पैरों तक लीरो-लीर हो गए, और कईयों का (मर के) मसाणों में जा वासा हुआ। (जो बच रहीं, वो भी बेचारी क्या बचीं?) जिनके सोहणे पति घर वापस ही ना आए, उन्होंने (वह बिपता भरी) रात कैसे काटी होगी?।6। आपे करे कराए करता किस नो आखि सुणाईऐ ॥ दुखु सुखु तेरै भाणै होवै किस थै जाइ रूआईऐ ॥ हुकमी हुकमि चलाए विगसै नानक लिखिआ पाईऐ ॥७॥१२॥ पद्अर्थ: आखि = कह के। भाणै = रजा में। किस थै = किस के पास। जाइ = जा के। रूआइ = शिकायत की जाए, रोया जाए। हुकमि = अपने हुक्म में। बिगसै = खुश होता है।7। अर्थ: पर, ये दर्द भरी कहानी किसे कह के सुनाई जाए? ईश्वर स्वयं ही सब कुछ करता है और जीवों से कराता है। हे कर्तार! दुख हो चाहे सुख हो तेरी रजा में ही घटित होता है। तेरे बिना और किस के पास जा के दुख फरोलें? हे नानक! रजा का मालिक प्रभु अपनी रजा में ही जगत की कार चला रहा है और (देख देख के) संतुष्ट हो रहा है। (अपने-अपने किए कर्मों के मुताबिक) लिखे लेख भोगते हैं।7।12। ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ आसा काफी महला १ घरु ८ असटपदीआ ॥ जैसे गोइलि गोइली तैसे संसारा ॥ कूड़ु कमावहि आदमी बांधहि घर बारा ॥१॥ पद्अर्थ: गोइलि = गोइल में, पराए इलाके की चरागाह में। नोट: मुश्किल के समय कई बार लोग अपना माल-पशु चराने के लिए दरिया के किनारे ले जाते हैं। उस अल्प अवधि की चरागाह को गोइल कहते हैं। गोइल = ग्वाला। बांधहि = बाँधते हैं, पक्के बनाते हैं।1। अर्थ: जैसे कोई ग्वाला पराए चरागाह में (अपना माल-पशू चराने के लिए ले जाता है) वैसे ही इस जगत का काम है। जो आदमी (मौत को भुला के) पक्के घर मकान बनाते हैं, वे व्यर्थ उद्यम करते हैं।1। जागहु जागहु सूतिहो चलिआ वणजारा ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सूतिहो = माया के मोह में ईश्वर से गाफिल हुए प्राणियो! वणजारा = जीव।1। रहाउ। अर्थ: (माया के मोह की नींद में) सोए हुए जीवो! होश करो, होश करो। (तुम्हारे सामने तुम्हारा साथी) जीव-वणजारा (दुनिया से सदा के लिए) जा रहा है (इसी तरह) तुम्हारी बारी भी आएगी। परमात्मा को याद (रखो)।1। रहाउ। नीत नीत घर बांधीअहि जे रहणा होई ॥ पिंडु पवै जीउ चलसी जे जाणै कोई ॥२॥ पद्अर्थ: नीत नीत = नित्य टिके रहने वाले। बांधीअहि = बाँधे जाएं, बनाए जायं। पिंडु = शरीर। पवै = गिर जाता है। जीउ = जीवात्मा।2। अर्थ: सदा टिके रहने वाले घर तभी बनाए जाते हैं अगर यहाँ सदा टिके रहना हो। पर अगर कोई मनुष्य विचार करे (तो अस्लियत ये है कि) जब जीवात्मा यहाँ से चल पड़ती है तो शरीर भी गिर जाता है (ना शरीर रहता है ना जीवात्मा)।2। ओही ओही किआ करहु है होसी सोई ॥ तुम रोवहुगे ओस नो तुम्ह कउ कउणु रोई ॥३॥ पद्अर्थ: ओही ओही = हाय! हाय! सोई = वह परमात्मा ही। है = अब मौजूद है। होसी = सदा रहेगा।3। अर्थ: (हे भाई! किसी संबंधी के मरने पर) क्यूँ बेकार में ‘हाय! हाय! ’ करते हो। सदा-स्थिर तो परमात्मा ही है जो अब भी मौजूद है और सदा मौजूद रहेगा। यदि तुम (अपने) उस मरने वाले के मरने पर रोते हो तो (मरना तो तुमने भी है) तुम्हें भी कोई रोएगा।3। धंधा पिटिहु भाईहो तुम्ह कूड़ु कमावहु ॥ ओहु न सुणई कत ही तुम्ह लोक सुणावहु ॥४॥ पद्अर्थ: पिटिहु = रोते हो, चीखते हो। कत ही = किसी भी हालत में।4। अर्थ: हे भाई! तुम (किसी के मरने पर रोने का) व्यर्थ चीख-चिहाड़ा डालते हो, व्यर्थ काम करते हो। जो मर गया है, वह तो तुम्हारा रोना बिल्कुल ही नहीं सुनता। तुम (लोकाचारी) सिर्फ लोगों को सुना रहे हो।4। जिस ते सुता नानका जागाए सोई ॥ जे घरु बूझै आपणा तां नीद न होई ॥५॥ पद्अर्थ: जिस ते = जिस (प्रभु के हुक्म) से। नीद = रब्ब की याद से गफलत।5। अर्थ: (जीव के भी क्या वश?) हे नानक! जिस परमात्मा के हुक्म से जीव (माया के मोह में) सो रहा है, वही इसे जगाता है। (प्रभु की मेहर से) अगर जीव ये समझ ले कि मेरा असल घर कौन सा है तो उसे माया के मोह की नींद नहीं व्याप्ती।5। जे चलदा लै चलिआ किछु स्मपै नाले ॥ ता धनु संचहु देखि कै बूझहु बीचारे ॥६॥ पद्अर्थ: चलदा = मरने के वक्त। संपै = धन। संचहु = इकट्ठा करो। बीचारे = विचार के।6। अर्थ: हे भाई! देख के विचार के समझो। यदि कोई मरने वाला मनुष्य मरने के समय अपने साथ कुछ धन ले के जाता है, तो तुम भी धन बेशक जोड़े चलो।6। वणजु करहु मखसूदु लैहु मत पछोतावहु ॥ अउगण छोडहु गुण करहु ऐसे ततु परावहु ॥७॥ पद्अर्थ: मखसूद = लाभ। ततु = अस्लियत। परावहु = प्राप्त करो।7। अर्थ: (हे भाई! नाम स्मरण का ऐसा) वणज-व्यापार करो, जिससे जीवन उद्देश्य का लाभ कमा सको, नहीं तो पछताना ही पड़ेगा। बुरे काम छोड़ो, गुण ग्रहण करो। इस तरह असल (कमाई) कमाओ।7। धरमु भूमि सतु बीजु करि ऐसी किरस कमावहु ॥ तां वापारी जाणीअहु लाहा लै जावहु ॥८॥ पद्अर्थ: सत = ऊँचा आचरण। किरस = खेती।8। अर्थ: (हे भाई!) धर्म को धरती बनाओ, उसमें स्वच्छ आचरण के बीज बीजो। बस! इस तरह की ही (आत्मिक जीवन को प्रफुल्लित करने वाली) खेती करो। अगर तुम (यहाँ से ऊँचे आत्मिक जीवन का) लाभ कमा के ले के जाओगे तो (समझदार) व्यापारी समझे जाओगे।8। करमु होवै सतिगुरु मिलै बूझै बीचारा ॥ नामु वखाणै सुणे नामु नामे बिउहारा ॥९॥ पद्अर्थ: करमु = बख्शिश।9। अर्थ: (जिस मनुष्य पर परमात्मा की) बख्शिश हो उसे गुरु मिलता है और वह इस विचार को समझता है। वह परमात्मा का नाम उचारता है, नाम सुनता है, और नाम में ही व्यवहार करता है।9। जिउ लाहा तोटा तिवै वाट चलदी आई ॥ जो तिसु भावै नानका साई वडिआई ॥१०॥१३॥ नोट: ‘घरु’ 8 की आठ अष्टपदियां आसा और काफी दो मिश्रित रागों में गाई जानी हैं। पद्अर्थ: तोटा = घाटा। लाहा = लाभ। वाट = रास्ता। तिसु = उस (प्रभु) को।10। अर्थ: संसार की ये यही रीति (सदा से) चली आई है, कोई (नाम में जुड़ के आत्मिक) लाभ कमाता है, (तो, कोई माया के मोह में फंस के आत्मिक जीवन में) घाटा खाता है। हे नानक! परमात्मा को जो अच्छा लगता है (वही होता है), यही उसकी बुजुर्गीयत है।10।13। आसा महला १ ॥ चारे कुंडा ढूढीआ को नीम्ही मैडा ॥ जे तुधु भावै साहिबा तू मै हउ तैडा ॥१॥ पद्अर्थ: कुंडा = कूटें, कोनें, तरफ। चारे कुंडा = सारी सृष्टि। को = कोई जीव। नीमी = नहीं। मैडा = मेरा (सच्चा सहयोगी)। मै = मेरा। हउ = मैं। तैडा = तेरा।1। अर्थ: मैंने सारी सृष्टि तलाश के देख ली है, मुझे कोई भी अपना (सच्चा दर्दी) नहीं मिला। हे मेरे साहिब! अगर तुझे (मेरी विनती) पसंद आए (तो मेहर कर) तू मेरा (रक्षक बन), मैं तेरा (सेवक) बना रहूँ।1। दरु बीभा मै नीम्हि को कै करी सलामु ॥ हिको मैडा तू धणी साचा मुखि नामु ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: बीभा = बीआ, दूसरा, (तेरे बिना) कोई और। नीम्हि = नहीं। को = कोई। को बीभा = कोई दूसरा। के = किसे? करीं = मैं करूँ। हिको = एक ही। धणी = मालिक। साचा = सदा-स्थिर।1। रहाउ। अर्थ: मुझे (तेरे दर के बिना) कोई और दर नहीं मिलता। और किसके आगे मैं सलाम करूँ? (और किससे मैं मांगूँ?) सिर्फ एक तू ही मेरा मालिक है (मैं तुझसे ही ये दान माँगता हूँ कि) तेरा सदा स्थिर रहने वाला नाम मेरे मुंह में (टिका रहे)।1। रहाउ। सिधा सेवनि सिध पीर मागहि रिधि सिधि ॥ मै इकु नामु न वीसरै साचे गुर बुधि ॥२॥ पद्अर्थ: सेवनि = सेवा करते हैं। रिधि सिधि = रिद्धियां सिद्धियां, करामाती ताकतें। गुर बुधि = गुरु की दी हुई मति से।2। अर्थ: (लोग) सिद्ध और पीर (बनने के लिए) पहुँचे हुए जोगियों की सेवा करते हैं, और उनसे रिद्धियों-सिद्धियों (की ताकत) मांगते हैं। (मेरी एक तेरे आगे ही ये अरदास है कि) अचूक गुरु की बख्शी बुद्धि के अनुसार मुझे तेरा नाम कभी ना भूले।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |