श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 419 जोगी भोगी कापड़ी किआ भवहि दिसंतर ॥ गुर का सबदु न चीन्हही ततु सारु निरंतर ॥३॥ पद्अर्थ: भोगी = भोगों में प्रर्वित रहने वाले। कापड़ी = कटे फटे लीर बने वस्त्र पहनने वाले फकीर। किआ = किस लिए, व्यर्थ। दिसंतर = अन्य देशों में। न चीनही = नहीं पहचानते, नहीं खोजते। निरंतर = (निर+अंतर) अंतर के बिना, एक रस, लगातार।3। अर्थ: जोगी और लीरें पहनने वाले फकीर बेकार में ही देश-देशांतरों का रटन करते हैं। वे सतिगुरु के शब्द को नहीं खोजते, वे एक रस श्रेष्ठ अस्लियत को नहीं खोजते।3। पंडित पाधे जोइसी नित पड़्हहि पुराणा ॥ अंतरि वसतु न जाणन्ही घटि ब्रहमु लुकाणा ॥४॥ पद्अर्थ: पाधे = पढ़ाने वाले। जोइसी = ज्योतिषी। घटि = घट में, हृदय में। ब्रहमु = परमात्मा।4। अर्थ: पण्डित, पांधे (शिक्षक) और ज्योतिषी नित्य पुराण आदि पुस्तकें ही पढ़ते रहते हैं। परमात्मा हृदय में छुपा हुआ है, ये लोग अंदर बसती नाम-वस्तु को नहीं पहचानते।4। इकि तपसी बन महि तपु करहि नित तीरथ वासा ॥ आपु न चीनहि तामसी काहे भए उदासा ॥५॥ पद्अर्थ: इकि = कई। तीरथ = तीर्थों पर। आपु = अपने आप को। तामसी = क्रोधी। तमस = अंधेरा, तमोगुण। उदासा = त्यागी।5। नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन। अर्थ: अनेक लोग तपी बने हुए हैं, जंगलों में (जा के) तप साधु रहे हैं, और सदा तीर्थों पर निवास रखते हैं। (तपों के कारण वे) क्रोध से भरे रहते हैं, अपने आत्मिक जीवन को नहीं खोजते। त्यागी बनने का उनहें कोई लाभ नहीं होता।5। इकि बिंदु जतन करि राखदे से जती कहावहि ॥ बिनु गुर सबद न छूटही भ्रमि आवहि जावहि ॥६॥ पद्अर्थ: बिंदु = वीर्य। राखदे = संभालते, रोकते। से = वह लोग। छूटही = छुटकारा पाते हैं। भ्रमि = भटकना में पड़ के।6। अर्थ: अनेक लोग ऐसे हैं जो प्रयत्न करके वीर्य को रोक के रखते हैं, और अपने आप को जती कहलाते हैं। पर गुरु के शब्द के बिना वे भी (क्रोधादिक तामसी स्वभाव से) निजात नहीं पाते। (जती होने की ही) भटकना में पड़ कर जनम-मरन के चक्कर में पड़े रहते हैं।6। इकि गिरही सेवक साधिका गुरमती लागे ॥ नामु दानु इसनानु द्रिड़ु हरि भगति सु जागे ॥७॥ पद्अर्थ: गिरही = गृहस्थी। साधिका = (सेवा के) साधन करने वाले। दानु = सेवा, दूसरों को नाम जपने के लिए प्रेरित करना। इसनानु = पवित्रता, स्वच्छ आचारण।7। अर्थ: (पर) अनेक गृहस्थी ऐसे हैं जो सेवा करते हैं सेवा के साधन करते हैं, और गुरु की दी हुई मति पर चलते हैं वे नाम जपते हैं, और लोगों को नाम जपने के लिए प्रेरित करते हैं, अपना आचरण पवित्र रखते हैं। वे परमात्मा की भक्ति में अपने आप को द्ढ़ करके (विकारों के हमलों की ओर से) सुचेत रहते हैं।7। गुर ते दरु घरु जाणीऐ सो जाइ सिञाणै ॥ नानक नामु न वीसरै साचे मनु मानै ॥८॥१४॥ पद्अर्थ: ते = से। जाणीऐ = जानी जाती है। सो सिञाणै = वह मनुष्य पहचानता है। जाइ = (जो गुरु के पास) जाता है। साचे = सच में ही, सदा स्थिर प्रभु में ही। मानै = रम जाता है।8। अर्थ: हे नानक! परमात्मा का दर परमात्मा का घर गुरु के द्वारा (गुरु की शरण पड़ के ही) पहचाना जा सकता है। वही मनुष्य पहचानता है जो गुरु के पास जाता है। उसे परमात्मा का नाम नहीं बिसरता, उसका मन सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा (की याद) में रम जाता है।8।14। आसा महला १ ॥ मनसा मनहि समाइले भउजलु सचि तरणा ॥ आदि जुगादि दइआलु तू ठाकुर तेरी सरणा ॥१॥ पद्अर्थ: मनसा = मन का फुरना, मायावी फुरना। मनहि = मनि ही, मन में ही। समाइले = लीन कर दे। भउजलु = संसार समुंदर। सचि = सदा स्थिर प्रभु में (जुड़ के)। ठाकुर = हे ठाकुर! 1। अर्थ: (हे भाई! अपने मन में से उठता) मायावी विचार मन में ही लीन कर दे (मन के पीछे लगने से संसार समुंदर से पार नहीं लांघ सकते)। सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा में जुड़ के ही संसार समुंदर से पार लांघ सकते हैं। हे सृष्टि के आदि प्रभु! हे युगों से भी पहले के प्रभु! हे सबके पालने वाले प्रभु! तू सब जीवों पे दया करने वाला है। मैं तेरी शरण आया हूँ (मुझे मन की प्रेरणा से बचा)।1। तू दातौ हम जाचिका हरि दरसनु दीजै ॥ गुरमुखि नामु धिआईऐ मन मंदरु भीजै ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: दातौ = दाता। जाचिक = भिखारी। हरि = हे हरि! गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के।1। रहाउ। अर्थ: हे हरि! तू सब जीवों को दातें देने वाला है, हम जीव (तेरे दर पर) भिखारी हैं, (हमें) दर्शन दे। गुरु की शरण पड़ के ही परमात्मा का नाम स्मरण किया जा सकता है, (जो स्मरण करता है, उसके) मन का मन्दिर (हरि-नाम से) भीग जाता है।1। रहाउ। कूड़ा लालचु छोडीऐ तउ साचु पछाणै ॥ गुर कै सबदि समाईऐ परमारथु जाणै ॥२॥ पद्अर्थ: छोडीऐ = छोड़ देना चाहिए। तउ = तब। सबदि = शब्द के द्वारा। समाईऐ = लीन हो सकते हैं। परमारथु = परम अर्थ, सबसे ऊँचा धन।2। अर्थ: (हे भाई! माया का) बुरा लालच छोड़ देना चाहिए (मनुष्य जब लालच छोड़ देता है) तब सदा स्थिर प्रभु से सांझ पा लेता है। गुरु के शब्द द्वारा ही (परमात्मा के नाम में) लीन हो सकते हैं (जो लीन होता है) वह जीवन के सबसे ऊँचे उद्देश्य को समझ लेता है।2। इहु मनु राजा लोभीआ लुभतउ लोभाई ॥ गुरमुखि लोभु निवारीऐ हरि सिउ बणि आई ॥३॥ पद्अर्थ: राजा = बली। लुभतउ = लोभ में फसा हुआ। लोभाई = लोभ कर रहा है। निवारीऐ = दूर किया जा सकता है।3। अर्थ: ये (माया का) लोभी मन (शरीर नगर का) राजा (बन बैठता है) लोभ में फसा हुआ (सदा) माया का लोभ करता रहता है। गुरु की शरण पड़ के ही ये लोभ दूर किया जा सकता है (जो मनुष्य लोभ दूर कर लेता है, उसकी) परमात्मा से प्रीत बन जाती है।3। कलरि खेती बीजीऐ किउ लाहा पावै ॥ मनमुखु सचि न भीजई कूड़ु कूड़ि गडावै ॥४॥ पद्अर्थ: कलरि = शोरे वाली जमीन में। लाहा = लाभ। सचि = सदा सिथर प्रभु में। कूड़ि = झूठ में। गडावै = रलमिल जाता है।4। अर्थ: अगर बंजर में खेती बीजी जाए, तो बीजने वाला उसमें से कोई लाभ नहीं कमा सकता। अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु में रच-मिच नहीं सकता। झूठ झूठ में ही मिलता है।4। लालचु छोडहु अंधिहो लालचि दुखु भारी ॥ साचौ साहिबु मनि वसै हउमै बिखु मारी ॥५॥ पद्अर्थ: अंधिहो = हे माया के मोह में अंधे हुए जीवो! लालचि = लालच में (फसे हुए)। मनि = मन में। बिखु = जहर।5। अर्थ: हे माया-मोह में अंधे हुए जीवो! माया का लालच छोड़ दो! लालच में (फसने से) भारी दुख सहना पड़ता है। जिस मनुष्य के मन में (लालच की जगह) सदा-स्थिर मालिक बस जाता है, वह अहंकार के जहर को मार लेता है (उस अहंकार को मार देता है जो आत्मिक मौत का कारण बनती है)।5। दुबिधा छोडि कुवाटड़ी मूसहुगे भाई ॥ अहिनिसि नामु सलाहीऐ सतिगुर सरणाई ॥६॥ पद्अर्थ: कुवाटड़ी = खराब रास्ता, बुरी वाट। मूसहुगे = लूटे जाओगे। अहि = दिन। निसि = रात।6। अर्थ: हे भाई! दुविधा त्याग दो। ये गलत रास्ता है (इस रास्ते पर चल के) लूटे जाओगे। (माया-मोह के रास्ते की जगह) सतिगुरु की शरण पड़ कर दिन रात परमात्मा के नाम की महिमा करनी चाहिए।6। मनमुख पथरु सैलु है ध्रिगु जीवणु फीका ॥ जल महि केता राखीऐ अभ अंतरि सूका ॥७॥ पद्अर्थ: सैलु = चट्टान। ध्रिगु = धिक्कारयोग्य। फीका = बेरसा। अभ अंतरि = अंदर से।7। अर्थ: मन के मुरीद मनुष्य (का हृदय) पत्थर है चट्टान है (पत्थर व चट्टान की तरह सख्त है), उसका जीवन बेस्वाद रहता है धिक्कारयोग्य है। पत्थर को जितनी भी देर पानी में रखो, तो भी वह अंदर से सूखा ही रहता है (मनमुख का हृदय सत्संग में आ के भी द्रवित नहीं होता)।7। हरि का नामु निधानु है पूरै गुरि दीआ ॥ नानक नामु न वीसरै मथि अम्रितु पीआ ॥८॥१५॥ पद्अर्थ: निधानु = खजाना। गुरि = गुरु ने। मथि = मथ के।8। अर्थ: परमात्मा का नाम (सारे आत्मिक गुणों का) खजाना है, जिस मनुष्य को पूरे गुरु ने नाम दे दिया, वह, हे नानक! सदा जप-जप के आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस पीता है, उसे परमात्मा का नाम कभी भूलता नहीं।8।15। आसा महला १ ॥ चले चलणहार वाट वटाइआ ॥ धंधु पिटे संसारु सचु न भाइआ ॥१॥ पद्अर्थ: चलणहार = जिन्होंने जरूर यहाँ से चले जाना है। वाट = (जीवन का सही) रास्ता। वटाइआ = अदला बदली, छोड़ के। धुंध = धंधा, वह काम जो जंजाल डाले जाता है। पिटे = दुखी हो हो के करता है।1। अर्थ: (पर जिन्हें परमात्मा का नाम ठीक नहीं लगता वह) परदेसी जीव जीवन के सही रास्ते से भटक के चले जा रहे हैं। (माया के मोह में फसा) जगत वही काम दुखी हो-हो के करता है जो गले में माया के जंजाल डाले जाता है, (माया-मोहे) जगत को सदा स्थिर प्रभु का नाम प्यारा नहीं लगता।1। किआ भवीऐ किआ ढूढीऐ गुर सबदि दिखाइआ ॥ ममता मोहु विसरजिआ अपनै घरि आइआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: किआ भवीऐ = भटकने की जरूरत नहीं रह जाती। किआ ढूढीऐ = (सुख) तलाशने की जरूरत नहीं रहती। गुर सबदि = गुरु के शब्द द्वारा। विसरजिआ = दूर किया। घरि = घर में।1। रहाउ। अर्थ: (जिसको परमात्मा ने) गुरु के शब्द द्वारा (अपना आप) दिखा दिया, उसकी भटकना समाप्त हो जाती है, उसे किसी और जगह सुख तलाशने की जरूरत नहीं पड़ती। उसने अपने अंदर से माया की ममता दूर कर दी, माया का मोह त्याग दिया। वह उस घर में आ टिका जो सदा के लिए उसका अपना बन गया (प्रभु चरणों में लीन हो गया)।1। रहाउ। सचि मिलै सचिआरु कूड़ि न पाईऐ ॥ सचे सिउ चितु लाइ बहुड़ि न आईऐ ॥२॥ पद्अर्थ: सचि = सदा स्थिर प्रभु के स्मरण में (जुड़ के)। सचिआरु = सच के व्यापारी। कूड़ = झूठ में लग के। बहुड़ि = दुबारा।2। अर्थ: सच का व्यापारी जीव सदा-सिथर प्रभु में जुड़ के (प्रभु को) मिल जाता है, झूठे पदार्थों के मोह में लगने से प्रभु नहीं मिलता। सदा-स्थिर परमात्मा में चित्त जोड़ने से बार-बार जनम में नहीं आते।2। मोइआ कउ किआ रोवहु रोइ न जाणहू ॥ रोवहु सचु सलाहि हुकमु पछाणहू ॥३॥ पद्अर्थ: रोइ ना जाणहू = तुम रोना नहीं जानते, तुम वैराग में आना नहीं जानते। रावहु = वैराग में आओ। सलाहि = महिमा करके।3। अर्थ: हे भाई! तुम मरे सम्बंधियों को रोते हो (उनकी खातिर वैराग करते हो) ये व्यर्थ कर्म है। दरअसल तुम्हें वैराग में आने की समझ ही नहीं। परमात्मा की महिमा करो,।3। हुकमी वजहु लिखाइ आइआ जाणीऐ ॥ लाहा पलै पाइ हुकमु सिञाणीऐ ॥४॥ पद्अर्थ: वजहु = तनख्वाह, रोजीना। जाणीऐ = (ये बात) समझनी चाहिए। पलै पाइ = मिलता है।4। अर्थ: (ये बात) समझो (कि पैदा होना मरना) परमात्मा का हुक्म है (इस तरह दुनिया की ओर से) वैराग करने की विधि सीखो। ये बात समझनी चाहिए कि हरेक जीव परमात्मा की रजा में ही रोजी लिखा के जगत में आता है। उसकी रजा को पहचानना चाहिए, इस तरह जीवन लाभ मिलता है।4। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |