श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 420 हुकमी पैधा जाइ दरगह भाणीऐ ॥ हुकमे ही सिरि मार बंदि रबाणीऐ ॥५॥ पद्अर्थ: पैधा जाइ = आदर का सिरोपा ले के जाता है। सिरि = सिर पर। बंद = कैद में।5। अर्थ: परमात्मा की रजा में ही (ममता-मोह विसार के) जीव यहाँ से इज्जत कमा के जाता है और प्रभु की दरगाह में भी आदर पाता है। प्रभु की रजा में ही (ममता-मोह में फसने के कारण) जीवों को सिर पर मार पड़ती है और (जनम-मरण की) ईश्वरीय कैद में जीव पड़ते हैं।5। लाहा सचु निआउ मनि वसाईऐ ॥ लिखिआ पलै पाइ गरबु वञाईऐ ॥६॥ पद्अर्थ: मनि = मन में। वञाईऐ = दूर करें। गरबु = अहंकार।6। अर्थ: अगर ये बात मन में बसा लें कि (हर जगह) परमात्मा का न्याय बरत रहा है, तो सदा-स्थिर प्रभु का नाम-लाभ कमा लेते हैं। (पर किसी अपनी चतुराई के उद्यम का) गुमान दूर कर देना चाहिए, (प्रभु की रजा में ही) हरेक जीव अपने किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार प्राप्ति करता है।6। मनमुखीआ सिरि मार वादि खपाईऐ ॥ ठगि मुठी कूड़िआर बंन्हि चलाईऐ ॥७॥ पद्अर्थ: वादि = झगड़े में। मुठी = लूटी जाती है। बंन्हि = बाँध के।7। अर्थ: जो जीव-स्त्री अपने मन की अगुवाई में चलती है उसके सिर पर (जनम-मरण के चक्कर की) मार है, वह (ममता मोह के) झगड़े में ख्वार होती है। झूठ की व्यापारिन जीव-स्त्री (ममता-मोह में ही) ठगी जाती है लुटी जाती है, (मोह की फाँसी में बंधी हुई ही यहाँ से परलोक की तरफ भेज दी जाती है)।7। साहिबु रिदै वसाइ न पछोतावही ॥ गुनहां बखसणहारु सबदु कमावही ॥८॥ पद्अर्थ: गुनहां = पाप, गुनाह। सबदु = हुक्म,महिमा।8। अर्थ: हे भाई! मालिक प्रभु को अपने हृदय में बसा, (अंत में) पछताना नहीं पड़ेगा। उस प्रभु की महिमा कर, वह सारे गुनाह बख्शने वाला है।8। नानकु मंगै सचु गुरमुखि घालीऐ ॥ मै तुझ बिनु अवरु न कोइ नदरि निहालीऐ ॥९॥१६॥ पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। निहालीऐ = देख।9। अर्थ: हे प्रभु! नानक तेरा सदा-स्थिर नाम मांगता है, (तेरी मेहर हो तो) गुरु की शरण पड़ के मैं ये घाल-कमाई करूँ। तेरे बिना मेरा कोई और आसरा नहीं है, मेरी तरफ अपनी मेहर भरी निगाह से देख।9।16। आसा महला १ ॥ किआ जंगलु ढूढी जाइ मै घरि बनु हरीआवला ॥ सचि टिकै घरि आइ सबदि उतावला ॥१॥ पद्अर्थ: ढूढी = मैं ढूँढू। जाइ = जा के। घरि = घर मे। सचि = सदा-स्थिर प्रभु में। घरि = हृदय में। सबदि = गुरु के शब्द द्वारा। उतावला = जल्दबाज।1। अर्थ: (जब गुरु की कार कमा के गुरु द्वारा बताए रास्ते पर चल केहर जगह प्रभु का निवास पहचान सकते हैं तो) मैं जंगलों में जा के क्यों (परमात्मा को मिलने के लिए) ढूँढू? जिस मनुष्य को परमात्मा हर जगह दिखाई दे जाए उसे घर में हरा-भरा जंगल (दिखता है, उसे घर में जंगल में हर जगह प्रभु ही नजर आता है)। जो मनुष्य गुरु के शब्द के द्वारा सदा-स्थिर प्रभु में टिकता है, परमात्मा तुरंत उसके हृदय-घर में आ बसता है।1। जह देखा तह सोइ अवरु न जाणीऐ ॥ गुर की कार कमाइ महलु पछाणीऐ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: देखा = मैं देखता हूँ। सोइ = वह (परमात्मा) ही। कमाइ = कमा के।1। रहाउ। अर्थ: मैं जिधर भी देखता हूँ, मुझे उधरवह (परमात्मा) ही दिखता है। (ये कभी) नहीं समझना चाहिए (कि उस प्रभु के बिना) कोई और (भी उस जैसा जगत में मौजूद) है। गुरु की बताई कार कमा के (हर जगह परमात्मा का) ठिकाना (निवास) पहचान लेते हैं।1। रहाउ। आपि मिलावै सचु ता मनि भावई ॥ चलै सदा रजाइ अंकि समावई ॥२॥ पद्अर्थ: सचु = सदा-स्थिर प्रभु! मनि = मन में। ता = तब। अंकि = अंक में, गोद में।2। अर्थ: जब सदा-स्थिर प्रभु स्वयं (किसी जीव को अपने चरणों में) मिलाता है तबवह उस जीव के मन में प्यारा लगने लगता है। वह जीव सदा उसकी रजा में चलता है, और उसकी गोद में लीन हो जाता है।2। सचा साहिबु मनि वसै वसिआ मनि सोई ॥ आपे दे वडिआईआ दे तोटि न होई ॥३॥ पद्अर्थ: सोई = वह प्रभु। दे = देता है। दे = दे के। तोटि = कमी।3। अर्थ: सदा-स्थिर मालिक जिस मनुष्य के मन में बस जाता है, उस मनुष्य को अपने मन में बसा हुआ वही प्रभु (हर जगह दिखता है)। (उसको ये निश्चय हो जाता है कि) प्रभु खुद ही आदर-सत्कार व गुण (वडिआईआं) देता है (और उसके खजाने में इतनी वडिआईयां है कि) देते हुए वह कम नहीं होतीं।3। अबे तबे की चाकरी किउ दरगह पावै ॥ पथर की बेड़ी जे चड़ै भर नालि बुडावै ॥४॥ पद्अर्थ: अबे तबे की = हरेक पक्ष की, धिर धिर की। चाकरी = खुशामद। भरनालि = समुंदर में।4। अर्थ: (गुरु की बताई कार-कमाई छोड़ के) धड़े-धड़े की खुशामद करने से परमात्मा की हजूरी प्राप्त नहीं हो सकती। (धिर-धिर की खुशामद करना यूँ है, जैसे पत्थर की बेड़ी में सवार होना, और जो मनुष्य इस) पत्थर की बेड़ी में सवार होता है, वह (संसार-) समुंदर में डूब जाता है।4। आपनड़ा मनु वेचीऐ सिरु दीजै नाले ॥ गुरमुखि वसतु पछाणीऐ अपना घरु भाले ॥५॥ पद्अर्थ: नाले = साथ ही। वसतु = नाम पदार्थ। घरु = हृदय। भाले = तलाश के।5। अर्थ: (परमात्मा के नाम का सौदा करने के वास्ते) अगर अपना मन (गुरु के आगे) बेच दें, और अपना सिर भी दे दें (भाव, अपने मन के पीछे चलने की जगह, गुरु की मति पर चलें और अपनी बुद्धि का गुमान भी छोड़ दें) तो गुरु के द्वारा अपना हृदय-घर तलाश के (अपने अंदर ही) नाम पदार्थ पहचान लेते हैं।5। जमण मरणा आखीऐ तिनि करतै कीआ ॥ आपु गवाइआ मरि रहे फिरि मरणु न थीआ ॥६॥ पद्अर्थ: तिनि करतै = उस कर्तार ने। आपु = स्वै भाव। मरणु = जनम मरन का चक्कर।6। अर्थ: हर कोई जनम-मरन के चक्कर का जिक्र करता है (और इससे डरता भी है कि ये जनम-मरन का चक्कर) ईश्वर ने खुद ही बनाया है। जो जीव स्वै भाव गवा के (माया के मोह की ओर से) मर जाते हैं, उन्हें ये जनम-मरन का चक्कर नहीं व्यापता।6। साई कार कमावणी धुर की फुरमाई ॥ जे मनु सतिगुर दे मिलै किनि कीमति पाई ॥७॥ पद्अर्थ: सतिगुर दे = गुरु को दे के। किनि = किस ने?।7। अर्थ: (पर, जीव के भी क्या वश? पिछले किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार) धुर से ही जीव को जिस तरह के कर्म करने का हुक्म होता है जीव वही कर्म करता है। पर अगर जीव अपना मन गुरु के हवाले करके प्रभु-चरणों में टिक जाए (तो इसका इतना ऊँचा आत्मिक जीवन बन जाता है कि) कोई भी उसका मूल्य नहीं डाल सकता (वह अनमोल हो जाता है)।7। रतना पारखु सो धणी तिनि कीमति पाई ॥ नानक साहिबु मनि वसै सची वडिआई ॥८॥१७॥ पद्अर्थ: पारखु = परख करने वाला, जौहरी। धणी = मालिक प्रभु। तिनि = उस (प्रभु) ने।8। अर्थ: (ये सारे जीव उस जौहरी परमात्मा के अपने ही बनाए हुए रत्न हैं) वह मालिक खुद ही इन रत्नों की परख करता है और (परख-परख के) स्वयं ही इनका मूल्य निर्धारित करता है। हे नानक! जिस मनुष्य के मन में मालिक प्रभु बस जाता है, उसको सदा स्थिर रहने वाली इज्जत बख्शता है।8।17। आसा महला १ ॥ जिन्ही नामु विसारिआ दूजै भरमि भुलाई ॥ मूलु छोडि डाली लगे किआ पावहि छाई ॥१॥ पद्अर्थ: दूजै भरमि = दूसरे भुलेखे में, (परमात्मा का पल्ला छोड़ के) और भटकना में। भुलाई = भूल के, गलती खा के। मूलु = (संसार = वृक्ष का) आदि। डाली = (संसार = वृक्ष की) डालियों में माया के पसारे में। छाई = राख।1। अर्थ: जिस लोगों ने और भटकनों में पड़ के (सही जीवन-राह से) टूट के परमात्मा का नाम भुला दिया, जो लोग (संसार-वृक्ष के) मूल (-प्रभु) को छोड़ के (संसार-वृक्ष की) डालियों (माया के पसारे) में लग गए उनको (आत्मिक जीवन में से) कुछ भी ना मिला।1। बिनु नावै किउ छूटीऐ जे जाणै कोई ॥ गुरमुखि होइ त छूटीऐ मनमुखि पति खोई ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख। पति = इज्जत। खोई = गवा ली।1। रहाउ। अर्थ: (गुरु के द्वारा) यदि कोई मनुष्य ये समझ ले (तो उसे ये समझ आ जाती है कि) परमात्मा के नाम (में जुड़े) बिना (माया के मोह से) बच नहीं सकते। गुरु के बताए हुए रास्ते पर चले तब ही (माया के मोह से) मनुष्य को निजात मिलती है। अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (माया मोह में फंस के) अपनी इज्जत (परमात्मा की नजरों में) गवा लेता है।1। रहाउ। जिन्ही एको सेविआ पूरी मति भाई ॥ आदि जुगादि निरंजना जन हरि सरणाई ॥२॥ पद्अर्थ: पूरी = मुकम्मल, सम्पूर्ण, कमी ना खाने वाला। भाई = हे भाई! जन = प्रभु के सेवक।2। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों ने एक परमात्मा का स्मरण किया, उनकी बुद्धि (माया के मोह में) मार नहीं खाती। प्रभु के वह सेवक उस प्रभु की शरण में ही टिके रहते हैं जो सारे जगत का मूल है और युगों के भी आरम्भ से है और जिस पर माया का प्रभाव नहीं पड़ सकता।2। साहिबु मेरा एकु है अवरु नही भाई ॥ किरपा ते सुखु पाइआ साचे परथाई ॥३॥ पद्अर्थ: भाई = हे भाई! ते = से। साचे परथाई = सदा स्थिर प्रभु के आसरे।3। अर्थ: हे भाई! हमारा मालिक-प्रभु बेमिसाल है, उस जैसा और कोई नही। अगर उस सदा-स्थिर प्रभु के ओट-आसरे टिके रहें, तो उसकी मेहर से आत्मिक आनंद मिलता है।3। गुर बिनु किनै न पाइओ केती कहै कहाए ॥ आपि दिखावै वाटड़ीं सची भगति द्रिड़ाए ॥४॥ पद्अर्थ: केती = बहुत दुनिया। वाटड़ी = सुंदर वाट। सची = सदा-स्थिर।4। अर्थ: बहुत दुनिया अनेक रास्ते बताती है, पर गुरु की शरण पड़े बिना परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती। (गुरु की शरण पड़ने से) परमात्मा (अपने मिलाप का) सही रास्ता स्वयं ही दिखा देता है, (जीव के हृदय में) सदा-स्थिर रहने वाली भक्ति कर देता है।4। मनमुखु जे समझाईऐ भी उझड़ि जाए ॥ बिनु हरि नाम न छूटसी मरि नरक समाए ॥५॥ पद्अर्थ: उझड़ि = गलत रास्ते। नरक = नरकों में। मरि = आत्मिक मौत मर के।5। अर्थ: पर, जो मनुष्य अपने मन के पीछे चलता है उसे अगर (सही रास्ता) समझाने की कोशिश भी करें, तो भी वह गलत रास्ते पर ही जाता है। परमात्मा के नाम के बिना वह इस (गलत रास्ते से) बच नहीं सकता, (कुमार्ग पर पड़ा हुआ) वह आत्मिक मौत सहेड़ लेता है, (मानो) नर्क में पड़ा रहता है।5। जनमि मरै भरमाईऐ हरि नामु न लेवै ॥ ता की कीमति ना पवै बिनु गुर की सेवै ॥६॥ पद्अर्थ: भरमाईऐ = भटकता है। कीमति = कद्र।6। अर्थ: जो मनुष्य हरि का नाम नहीं स्मरण करता वह पैदा होता है मरता है पैदा होता है मरता है, इसी चक्कर में पड़ा रहता है, (इससे बचने के लिए एक ही तरीका है कि परमात्मा का नाम जपो, पर) गुरु की शरण पड़े बिना परमात्मा के नाम की कद्र नहीं पड़ सकती।6। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |