श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 421 जेही सेव कराईऐ करणी भी साई ॥ आपि करे किसु आखीऐ वेखै वडिआई ॥७॥ पद्अर्थ: साई = वही। किसु = और किस को? वेखै = संभाल करता है।7। अर्थ: (पर जीवों के भी क्या वश?) परमात्मा ने जिस तरह के काम में जीव को लगाना है, जीव ने उसी काम में लगना है। परमात्मा खुद ही (सृष्टि) रच के खुद ही इसकी संभाल करता है, ये उसकी अपनी ही बुजुर्गीयत है। (उसके बिना) और किसी के आगे पुकार नहीं की जा सकती।7। गुर की सेवा सो करे जिसु आपि कराए ॥ नानक सिरु दे छूटीऐ दरगह पति पाए ॥८॥१८॥ पद्अर्थ: दे = दे के। छूटीऐ = (‘दूसरे भाव’ से) बचते हैं।8। अर्थ: हे नानक! गुरु की बताई सेवा भी वही मनुष्य करता है जिससे परमात्मा खुद ही कराता है (नहीं तो ये माया का मोह बड़ा ही प्रबल है) स्वैभाव गवा के ही इससे छुटकारा मिलता है। जो मनुष्य अपना सिर (गुरु के) हवाले करता है, वह परमात्मा की हजूरी में आदर-मान प्राप्त करता है।8।18। आसा महला १ ॥ रूड़ो ठाकुर माहरो रूड़ी गुरबाणी ॥ वडै भागि सतिगुरु मिलै पाईऐ पदु निरबाणी ॥१॥ पद्अर्थ: रूढ़ो = सुंदर। माहरो = प्रबीन। रूढ़ी = सुंदर। भागि = किस्मत से। पदु = दरजा। निरबाणी = वासना रहित।1। अर्थ: हे ठाकुर! तू सुन्दर है, तू सयाना है। गुरु की सुंदर वाणी से (तेरी प्राप्ति हो सकती है)। बड़ी किस्मत से गुरु मिलता है, (और गुरु के मिलने से) वासना-रहित आत्मिक अवस्था मिलती है।1। मै ओल्हगीआ ओल्हगी हम छोरू थारे ॥ जिउ तूं राखहि तिउ रहा मुखि नामु हमारे ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: ओल्गीआ ओल्गी = गुलामों का गुलाम, दासों का दास। छोरू = छोकरे। थारे = तेरे। रहा = मैं रहूँ। मुखि = मुंह में।1। रहाउ। अर्थ: (हे प्रभु!) मैं तेरे दासों का दास हूँ, मैं तेरा छोटा सा सेवक हूँ। (मेहर कर) मैं उसी तरह जीऊँ जैसे तेरी रजा हो। मेरे मुँह में अपना नाम दे।1। रहाउ। दरसन की पिआसा घणी भाणै मनि भाईऐ ॥ मेरे ठाकुर हाथि वडिआईआ भाणै पति पाईऐ ॥२॥ पद्अर्थ: घणी = बहुत। मनि = मन में। भाणै = तेरी रजा में ही। भाईऐ = अच्छी लगती है। हाथि = हाथ में। पति = इज्जत।2। अर्थ: प्रभु की रजा में (जीव के अंदर) उसके दर्शन की तीव्र चाहत पैदा होती है, उसकी रजा के अनुसार ही वह जीव के मन को प्यारा लगने लग जाता है। प्यारे ठाकुर के हाथ में ही सारी वडिआईआं है, उसकी रजा अनुसार ही (जीव को उसके दर पर) इज्जत मिलती है।2। साचउ दूरि न जाणीऐ अंतरि है सोई ॥ जह देखा तह रवि रहे किनि कीमति होई ॥३॥ पद्अर्थ: सचउ = सदा स्थिर रहने वाला। अंतरि = (हरेक के) अंदर। सोई = वह प्रभु। रवि रहे = व्यापक। किनि = किस ओर से?।3। अर्थ: सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा को (कहीं) दूर (बैठा) नहीं समझना चाहिए, हरेक जीव के अंद रवह खुद ही (बस रहा) है। मैं जिधर देखता हूँ, उधर ही प्रभु भरपूर है। पर किसी जीव द्वारा उसका मूल्य नहीं आँका जा सकता।3। आपि करे आपे हरे वेखै वडिआई ॥ गुरमुखि होइ निहालीऐ इउ कीमति पाई ॥४॥ पद्अर्थ: हरे = (जीवात्मा) हर लेता है, ले जाता है। वडिआई = ताकत, सामर्थ्य। निहालीऐ = देख सकते हैं। इउ = इस तरह। कीमति = कद्र।4। अर्थ: परमात्मा खुद ही उसारता है खुद ही गिराता है, (अपनी ये) ताकत वह खुद ही देख रहा है। गुरु के सन्मुख हो के उसका दर्शन कर सकते हैं और इस तरह उसका मूल्य पड़ सकता है (कि वह हर जगह मौजूद है)।4। जीवदिआ लाहा मिलै गुर कार कमावै ॥ पूरबि होवै लिखिआ ता सतिगुरु पावै ॥५॥ पद्अर्थ: लाहा = लाभ। पूरबि = धुर से, पहले किये कर्मों के संस्कारों के अनुसार।5। अर्थ: जो मनुष्य गुरु की बताई हुई कार कता है उसको इसी जीवन में परमात्मा का नाम-लाभ मिल जाता है। पर, गुरु भी तब ही मिलता है यदि पिछले जन्मों में किए हुए अच्छे कर्मों के संस्कार (अंदर) मौजूद हों।5। मनमुख तोटा नित है भरमहि भरमाए ॥ मनमुखु अंधु न चेतई किउ दरसनु पाए ॥६॥ पद्अर्थ: तोटा = घटा, (आत्मिक गुणों में) कमी। भरमहि = भटकते हैं। न चेतई = नही चेतता।6। अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाले बंदों के आत्मिक गुणों में नित्य कमी होती रहती है, (माया के) भटकाए हुए वह (नित्य) भटकते रहते हैं। अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (माया में) अंधा हो जाता है, वह परमात्मा को याद नहीं करता। उसे परमात्मा के दर्शन कैसे हों?।6। ता जगि आइआ जाणीऐ साचै लिव लाए ॥ गुर भेटे पारसु भए जोती जोति मिलाए ॥७॥ पद्अर्थ: जगि = जगत में। साचे = सदा स्थिर प्रभु में। गुर = गुरु को। पारसु = लोहे आदि को सोना बना देने वाला पत्थर। जोती = परमात्मा की ज्योति में।7। अर्थ: तब ही किसी को जगत में जन्मा समझो, जब वह सदा स्थिर प्रभु (के चरणों में) तवज्जो जोड़ता हो। जो मनुष्य गुरु को मिल जाते हैं वह पारस बन जाते हैं, उनकी ज्योति परमात्मा की ज्योति में मिली रहती है।7। अहिनिसि रहै निरालमो कार धुर की करणी ॥ नानक नामि संतोखीआ राते हरि चरणी ॥८॥१९॥ पद्अर्थ: अहि = अहर्, दिन। निसि = नीश्, रात। निरालमो = निरलेप, निरा+लम, माया को जीवन का आसरा बनाए बिना। नामि = नाम में।8। अर्थ: हे नानक! प्रभु के नाम में जुड़े हुए बंदे संतोष वाला जीवन गुजारते हैं, उस परमात्मा के चरणों में रंगे रहते हैं। जो जो मनुष्य धुर से मिली (स्मरण की) कार करते हैं वह सदा निर्मल अवस्था में रहते हैं।8।19। आसा महला १ ॥ केता आखणु आखीऐ ता के अंत न जाणा ॥ मै निधरिआ धर एक तूं मै ताणु सताणा ॥१॥ पद्अर्थ: आखणु = व्याख्यान, वर्णन। ता के = उस परमात्मा के। न जाणा = मैं नहीं जानता। धरु = आसरा। ताणु = ताकत, सहारा। सताणा = (स+ताणा) ताण वाला, ताकत वाला, तगड़ा।1। अर्थ: (परमात्मा बेअंत गुणों का मालिक है) उसके गुणों का भले ही कितना ही बयान किया जाए, मैं अंत नहीं जान सकता। (हे प्रभु! मेरी तो नित्य यही अरदास है) कि निआसरे का सिर्फ तू ही आसरा है, और तू ही मुझ शक्तिहीन (निताणे) का तगड़ा ताण (मजबूत शक्ति) है।1। नानक की अरदासि है सच नामि सुहेला ॥ आपु गइआ सोझी पई गुर सबदी मेला ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सच नामि = सदा स्थिर प्रभु के नाम में (जुड़ के)। सुहेला = सुखी। आपु = स्वै भाव।1। रहाउ। अर्थ: (प्रभु की हजूरी में) नानक की ये अरदास है: मैं सदा स्थिर प्रभु के नाम में (जुड़ के) सुखी रहूँ (भाव, मैं परमात्मा की याद में रहके आत्मिक आनंद हासिल करूँ)। जो मनुष्य अपने अंदर से स्वैभाव (अहंकार का भाव) गवाता है उसे (इस तरह की अरदास करने की) समझ पड़ जाती है और गुरु के शब्द के द्वारा (परमात्मा से उसका) मिलाप हो जाता है।1। रहाउ। हउमै गरबु गवाईऐ पाईऐ वीचारु ॥ साहिब सिउ मनु मानिआ दे साचु अधारु ॥२॥ पद्अर्थ: गरबु = अहंकार। विचारु = सूझ। दे = देता है। अधारु = आसरा।2। अर्थ: ‘मैं बड़ा मैं बड़ा’-जब ये अहंकार (अपने अंदर से) दूर कर दें, तब (परमात्मा के दर पर अरदास करने की) समझ पड़ती है। जब परमात्मा के साथ जीव का मन लग जाता है, तब वह प्रभु उसको अपना सदा-स्थिर नाम (का जीवन के वास्ते) आसरा देता है।2। अहिनिसि नामि संतोखीआ सेवा सचु साई ॥ ता कउ बिघनु न लागई चालै हुकमि रजाई ॥३॥ पद्अर्थ: अहि = दिन। निसि = रात। साई = वही। हुकमि = हुक्म में। रजाई = रजा का मालिक प्रभु।3। अर्थ: सदा स्थिर प्रभु वही सेवा (स्वीकार करता है, जिसकी इनायत से जीव) दिन-रात प्रभु के नाम में (जुड़ के) संतोषी जीवन बनाता है। जो मनुष्य रजा के मालिक प्रभु के हुक्म में चलता है, उसे (जीवन सफर में माया के मोह आदि की) कोई रोक नहीं पड़ती।3। हुकमि रजाई जो चलै सो पवै खजानै ॥ खोटे ठवर न पाइनी रले जूठानै ॥४॥ पद्अर्थ: खजाने = खजाने में। ठवर = ठौर, जगह। न पाइनी = नहीं पाते। जूठाने = झूठ में।4। अर्थ: जो मनुष्य रजा के मालिक परमात्मा के हुक्म में चलता है वह (खरा सिक्का बन के) प्रभु के खजाने में पड़ता है। खोटे सिक्कों को (खोटे जीवन वालों को प्रभु के खजाने में) जगह नहीं मिलती, वह तो खोटों में मिले रहते हैं।4। नित नित खरा समालीऐ सचु सउदा पाईऐ ॥ खोटे नदरि न आवनी ले अगनि जलाईऐ ॥५॥ पद्अर्थ: समालीऐ = याद रखें। लै = लेकर।5। अर्थ: (हे भाई!) सदा ही उस परमात्मा को अपने दिल में संभाल के रखो जिस पर माया के मोह की रत्ती भर भी मैल नहीं है। इस तरह वह सौदा (खरीद) लेते हैं जो हमेशा के लिए है, जो हमेशा मिला रहता है। खोटे सिक्के परमात्मा की नजर नहीं चढ़ते, खोटे सिक्कों को उनकी सिलावट आदि की मैल जलाने के लिए आग में डाल के तपाते हैं।5। जिनी आतमु चीनिआ परमातमु सोई ॥ एको अम्रित बिरखु है फलु अम्रितु होई ॥६॥ पद्अर्थ: आतमु = अपना आप, अपना आत्मिक जीवन। चीनिआ = पहचाना। सोई = वही लोग।6। अर्थ: जिस लोगों ने अपने आत्मिक जीवन को परखा-पहचाना है वही लोग परमात्मा को पहचान लेते हैं। (वे समझ लेते हैं कि) एक परमात्मा ही आत्मिक जीवन रूपी फल देने वाला वृक्ष है, उस प्रभु-वृक्ष का फल सदा अमृत-रूप है।6। नोट: फल से वृक्ष, और वृक्ष से फल की पहचान कर ली जाती है। इसी तरह जिसे आत्मा का ज्ञान हो जाए उसे परमात्मा का ज्ञान भी हो जाता है)। अम्रित फलु जिनी चाखिआ सचि रहे अघाई ॥ तिंना भरमु न भेदु है हरि रसन रसाई ॥७॥ पद्अर्थ: सचि = सदा स्थिर प्रभु में। अघाई = तृप्त। भेदु = दूरी। रसन = जीभ।7। अर्थ: जिस मनुष्यों ने आत्मिक जीवन देने वाला नाम-फल चख लिया, वह (सदा) सदा स्थिर प्रभु के नाम में जुड़ के (और स्वादों से) तृप्त रहते हैं। उन्हें (माया आदि की कोई) भटकना नहीं रहती, उनकी परमात्मा से कोई दूरी नहीं रहती, उनकी जीभ परमात्मा के नाम रस में रसी रहती है।7। हुकमि संजोगी आइआ चलु सदा रजाई ॥ अउगणिआरे कउ गुणु नानकै सचु मिलै वडाई ॥८॥२०॥ पद्अर्थ: हुकमि = प्रभु के हुक्म में। नानकै = नानक को। अउगुणिआरे = गुण हीन, अवगुणी।8। अर्थ: (हे जीव!) तू परमात्मा के हुक्म में (अपने किए कर्मों के) संजोगों के अनुसार (जगत में) आया है, सदा उसकी रजा में ही चल (और नाम की दाति मांग, इसी में तेरी भलाई है)। (मुझे) गुण-हीन नानक को सदा-स्थिर परमात्मा (का स्मरण रूप) गुण मिल जाए (मैं नानक इसी बख्शिश को सबसे ऊँची) बडिआई समझता हूँ।8।20। आसा महला १ ॥ मनु रातउ हरि नाइ सचु वखाणिआ ॥ लोका दा किआ जाइ जा तुधु भाणिआ ॥१॥ पद्अर्थ: रातउ = रंगा हुआ। नाइ = नाम में। किआ जाइ = क्या जाता है? अर्थात कुछ नहीं बिगड़ता। तुधु = तुझे।1। अर्थ: जिस मनुष्य का मन परमात्मा के नाम (-रंग) में रंगा जाए, जो मनुष्य सदा कायम रहने वाले परमात्मा की महिमा करे (वह परमात्मा को प्यारा लगता है)। (और, हे प्रभु!) जब (तेरी सेवा-भक्ति के कारण कोई भाग्यशाली जीव) तुझे प्यारा लगने लग पड़े तो इसमें लोगों का कुछ नहीं बिगड़ता (क्योंकि तेरी महिमा करने वाला तेरे पैदा किए बंदों का दुखदाई हो ही नहीं सकता)।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |