श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 422 जउ लगु जीउ पराण सचु धिआईऐ ॥ लाहा हरि गुण गाइ मिलै सुखु पाईऐ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: जउ लगु = जब तक। जीउ = जिंद, जीवात्मा। पराण = श्वाश। लाहा = लाभ। गाइ = गा के।1। रहाउ। अर्थ: जब तक (शरीर में) जीवात्मा है स्वास हैं (तब तक) सदा कायम रहने वाले परमात्मा को स्मरणा चाहिए। जो स्मरण करता है (उसको) प्रभु के गुण गा के (महिमा करके) आत्मिक आनंद-रूप लाभ मिलता है।1। रहाउ। सची तेरी कार देहि दइआल तूं ॥ हउ जीवा तुधु सालाहि मै टेक अधारु तूं ॥२॥ पद्अर्थ: सची = सदा स्थिर, कमी रहित। देहि = तू दे। दइआल = हे दयालु! हउ = मैं। जीवा = मैं जीता हूँ, मेरा आत्मिक जीवन पलता है। अधारु = आसरा।2। अर्थ: हे दयालु प्रभु! तू मुझे अपनी (भक्ति की) कार बख्श (ये ऐसा काम है कि) इस में कोई उकाई नहीं है। ज्यों-ज्यों मैं तेरी महिमा करता हूँ, मेरा आत्मिक जीवन पलता है। हे प्रभु! तू मेरे जीवन की टेक है, तू मेरा आसरा है।2। दरि सेवकु दरवानु दरदु तूं जाणही ॥ भगति तेरी हैरानु दरदु गवावही ॥३॥ पद्अर्थ: दरि = दर पर। दरवानु = दरबान, दर पर बैठने वाला। हैरानु = आश्चर्य।3। अर्थ: हे प्रभु! जो मनुष्य तेरे दर पर सेवक बनता है जो तेरे दर पर रहता है, तू उस (के दिल) का दुख-दर्द जानता है। जगत देख के हैरान होता है कि जो तेरी भक्ति करता है तू उसके दुख-दर्द दूर कर देता है।3। दरगह नामु हदूरि गुरमुखि जाणसी ॥ वेला सचु परवाणु सबदु पछाणसी ॥४॥ पद्अर्थ: दरगह = दरगाह में। हदूरि = हजूरी में। गुरमुखि = जो मनुष्य गुरु के सन्मुख है। वेला = जीवन समय।4। अर्थ: जो मनुष्य गुरु के सन्मुख होता है उसे समझ आ जाती है कि परमात्मा की दरगाह में हजूरी में उस का नाम (-स्मरण ही) स्वीकार होता है। जो मनुष्य गुरु के शब्द को पहचानता है (शब्द से सांझ डालता है) उसका जीवन समय सफल है, स्वीकार है।4। सतु संतोखु करि भाउ तोसा हरि नामु सेइ ॥ मनहु छोडि विकार सचा सचु देइ ॥५॥ पद्अर्थ: करि = करे, करता है, बनाता है। तोसा = (जीवन-यात्रा में) रास्ते का खर्च। मनहु = मन से। सचु = सदा स्थिर प्रभु नाम। देइ = देता है।5। अर्थ: जिस लोगों को सदा स्थिर प्रभु अपना सदा स्थिर नाम देता है वह अपने मन में से विकार छोड़ के सत-संतोष-प्रेम और हरि नाम को (जीवन सफर में) रास्ते का खर्च बनाते हैं (अपने आत्मिक जीवन का आधार बनाते हैं)।5। सचे सचा नेहु सचै लाइआ ॥ आपे करे निआउ जो तिसु भाइआ ॥६॥ पद्अर्थ: सचे नेहु = सदा स्थिर रहने वाले प्रभु से प्यार। सचै = सदा सिथर प्रभु ने स्वयं।6। अर्थ: (यदि किसी जीव को) सदा स्थिर प्रभु का सदा-स्थिर प्रेम लगा है (तो यह प्रेम) सदा-स्थिर प्रभु ने स्वयं ही लगाया है। वह स्वयं ही न्याय करता है (कि किसे प्रेम की दाति देनी है), जो उसे पसंद आता है (वही न्याय है)।6। सचे सची दाति देहि दइआलु है ॥ तिसु सेवी दिनु राति नामु अमोलु है ॥७॥ पद्अर्थ: सचे = हे सदा स्थिर प्रभु! सेवी = मैं सेवा करूँ, स्मरण करता हूँ।7। अर्थ: मैं (भी) दिन-रात उस प्रभु का स्मरण करता हूँ जिसका नाम अमोलक है जो सदा जीवों पर दया करता है। (मैं उसके दर पर अरदास करता हूँ-) हे सदा-स्थिर रहने वाले प्रभु! मुझे अपने नाम की दाति दे, यह दाति सदा कायम रहने वाली है।7। तूं उतमु हउ नीचु सेवकु कांढीआ ॥ नानक नदरि करेहु मिलै सचु वांढीआ ॥८॥२१॥ पद्अर्थ: हउ = मैं कांढीआ = कहलवाता हूँ। करेहु = करो। वांढीआ = मुझ बिछुड़े को।8। अर्थ: हे नानक! (प्रभु-दर पर सदा ऐसे अरदास कर-हे प्रभु!) तू उत्तम है, मैं नीच हूँ (पर फिर भी मैं तेरा) सेवक कहलवाता हूँ। मेरे पर मेहर की नजर कर, (ता कि) मुझे (तेरे चरणों से) विछुड़े हुए को तेरा सदा-स्थिर नाम मिल जाए।8।21। आसा महला १ ॥ आवण जाणा किउ रहै किउ मेला होई ॥ जनम मरण का दुखु घणो नित सहसा दोई ॥१॥ पद्अर्थ: आवण जाणा = आना और जाना, पैदा होने व मरने का चक्कर। किउ रहै = नहीं समाप्त हो सकता। मेल = प्रभु से मिलाप। किउ होई = नहीं हो सकता। घणो = बहुत। सहसा = सहम। दोई = द्वैत में, (परमात्मा को छोड़ के) दूसरे (के मोह) में, माया के मोह में।1। अर्थ: (परमात्मा का नाम स्मरण के बिना) जनम मरण का चक्कर खत्म नहीं होता, परमात्मा से मिलाप नहीं होता, जनम-मरण का भारी कष्ट बना रहता है और माया के मोह में फसे रहने के कारण (जीवात्मा को) नित्य सहम (खाता रहता) है।1। बिनु नावै किआ जीवना फिटु ध्रिगु चतुराई ॥ सतिगुर साधु न सेविआ हरि भगति न भाई ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: किआ जीवना = असल जीवन नहीं। फिटु ध्रिगु = धिक्कार योग्य। चतुराई = सियानप। साधु = जिसने अपनी इंद्रिय सुधार ली हैं। न भाई = अच्छी ना लगी।1। रहाउ। अर्थ: जिस मनुष्य ने साधु गुरु की (बताई) सेवा नहीं की, जिसे परमात्मा की भक्ति अच्छी नहीं लगी, जो (सारी उम्र) परमात्मा के नाम से वंचित रहा, उसका जीना असल जीना नहीं है। (अगर वह मनुष्य दुनियादारी वाली कोई समझदारी दिखा रहा है तो उसकी वह) समझदारी धिक्कारयोग्य है।1। रहाउ। आवणु जावणु तउ रहै पाईऐ गुरु पूरा ॥ राम नामु धनु रासि देइ बिनसै भ्रमु कूरा ॥२॥ पद्अर्थ: तउ = तब। रहै = रह जाता है, खत्म हो जाता है। रासि = राशि, संपत्ति, धन-दौलत, पूंजी। देइ = देता है। कूरा = झूठा।2। अर्थ: जनम-मरण का चक्र तभी समाप्त होता है जब पूरा सतिगुरु मिलता है। गुरु, परमात्मा का नाम-धन (रूपी) संपत्ति देता है (जिसकी इनायत से) झूठी माया की भटकना समाप्त हो जाती है।2। संत जना कउ मिलि रहै धनु धनु जसु गाए ॥ आदि पुरखु अपर्मपरा गुरमुखि हरि पाए ॥३॥ पद्अर्थ: कउ = को। मिलि रहै = मिला रहे। धनु धनु = ‘धन्य धन्य’ कह के, शुक्र शुक्र करके। अपरंपरा = जो परे से परे है। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के।3। अर्थ: गुरु की शरण पड़ के मनुष्य साधु-संगत में टिका रहता है, परमात्मा का शुक्र-शुक्र करके उसकी महिमा करता है, और इस तरह जगत के मूल सर्व-व्यापक बेअंत परमात्मा को पा लेता है।3। नटूऐ सांगु बणाइआ बाजी संसारा ॥ खिनु पलु बाजी देखीऐ उझरत नही बारा ॥४॥ पद्अर्थ: नटूऐ = नट ने, मदारी ने। बाजी = खेल। देखीऐ = देखते हैं। उझरत = उजड़ते हुए। बारा = देर, समय।4। अर्थ: (जैसे किसी) मदारी ने (कोई) तमाशा रचाया होता है (और लोग उस तमाशे को देख-देख के खुश होते हैं, घड़ी पल के बाद वह तमाशा खत्म हो जाता है, इसी तरह ये) संसार (एक) खेल (ही) है। घड़ी-पल ये खेल देखते हैं। इसके उजड़ते देर नहीं लगती।4। हउमै चउपड़ि खेलणा झूठे अहंकारा ॥ सभु जगु हारै सो जिणै गुर सबदु वीचारा ॥५॥ पद्अर्थ: हउमै चउपड़ि = अहंकार की चौपड़। झूठे अहंकारा = झूठ के अहंकार की (नरदों) से। जिणै = जीतता है।5। अर्थ: (मैं बड़ा मैं बड़ा बन जाऊँ- इस) अहंम् की चौपड़ (जगत) झूठ और अहंकार (की नर्दों) से खेल रहा है, (इस खेल में लग के) सारा संसार (मानव जीवन की बाजी) हार रहा है। सिर्फ वही मनुष्य जीतता है जो गुरु के शब्द को अपने विचार-मण्डल में टिकाता है।5। जिउ अंधुलै हथि टोहणी हरि नामु हमारै ॥ राम नामु हरि टेक है निसि दउत सवारै ॥६॥ पद्अर्थ: अंधुलै हथि = अंधे मनुष्य के हाथ में। टोहणी = डण्डी। टेक = सहारा। निसि = रात। दउत = द्योत, प्रकाश। सवारै = सवेरे। दउत सवारै = सुबह के प्रकाश के समय, दिन में।6। अर्थ: जैसे किसी अंधे मनुष्य के हाथ में डंडी होती है (जिससे वह टोह-टोह के रास्ता ढूँढता है, इसी तरह) हम जीवों के पास नाम (ही है जो हमें सही जीवन का राह दिखता है)। परमात्मा का नाम (एक ऐसा) सहारा है (जो) दिन-रात (हर वक्त हमारी सहायता करता है)।6। जिउ तूं राखहि तिउ रहा हरि नाम अधारा ॥ अंति सखाई पाइआ जन मुकति दुआरा ॥७॥ पद्अर्थ: नाम आधारा = नाम का आसरा। अंति = अंत तक (निभने वाला)। सखाई = मित्र, साथी। जन = दास को। मुकति = माया के मोह से मुक्ति। दुआरा = रास्ता।7। अर्थ: हे प्रभु! जिस हालत में तू मुझे रखे, मैं उसी हालत में रह सकता हूँ। (तेरी मेहर से ही) हे हरि! (हम जीवों को) तेरे नाम का आसरा मिल सकता है। जिन्होंने आखिर तक साथ निभाने वाला साथी तलाश लिया, उन्हें माया के मोह से निजात पाने का राह मिल जाता है।7। जनम मरण दुख मेटिआ जपि नामु मुरारे ॥ नानक नामु न वीसरै पूरा गुरु तारे ॥८॥२२॥ पद्अर्थ: जपि = जप के। मुरारे नामु = परमात्मा का नाम।8। अर्थ: परमात्मा का नाम जप के जनम-मरण के चक्र का कष्ट मिटाया जा सकता है। हे नानक! जिन्हें (गुरु की कृपा से परमात्मा का) नाम नहीं भूलता, उन्हें पूरा गुरु संसार समुंदर से पार लंघा लेता है।8।22। आसा महला ३ असटपदीआ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सासतु बेदु सिम्रिति सरु तेरा सुरसरी चरण समाणी ॥ साखा तीनि मूलु मति रावै तूं तां सरब विडाणी ॥१॥ पद्अर्थ: सर = सरोवर। सुरसरी = गंगा। समाणी = लीनता। साखा तीनि = तीन टहनियों वाली, तीन गुणों वाली माया। मूलु = आदि। साखा तीनि मूलु = त्रिगुणी माया का करता। रावै = सिमरती है। विडाणी = आश्चर्य।1। अर्थ: हे प्रभु! तेरा नाम-सरोवर (मेरे वास्ते) शास्त्र-वेद-स्मृतियों (की विचार) है, तेरे चरणों में लीनता (मेरे वास्ते) गंगा (आदि तीर्थ का स्नान) है। हे प्रभु! तू इस सारे आश्चर्य जगत का मालिक है, तू ही त्रिगुणी माया का करता है। मेरी बुद्धि (तेरी याद के आनंद का ही) रस लेती रहती है।1। ता के चरण जपै जनु नानकु बोले अम्रित बाणी ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: ता के = उस (परमात्मा) के। जनु = दास। अंम्रित बाणी = आत्मिक जीवन देने वाली वाणी।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई! प्रभु का) दास नानक उस परमात्मा के चरणों का ध्यान धरे रहता है, आत्मिक जीवन देने वाली उस महिमा की वाणी को उचारता रहता है।1। रहाउ। तेतीस करोड़ी दास तुम्हारे रिधि सिधि प्राण अधारी ॥ ता के रूप न जाही लखणे किआ करि आखि वीचारी ॥२॥ पद्अर्थ: अधारी = आसरा। वीचारी = मैं विचार करूँ।2। अर्थ: (हे प्रभु! लोगों द्वारा निहित किए हुए) तेतीस करोड़ देवते तेरे ही दास हैं (जिस रिद्धियों-सिद्धयों और प्राणायम सेलोग रीझते हैं उन) रिद्धियों-सिद्धियों व प्राणों का तू ही आसरा है। (हे भाई!) उस परमात्मा के अनेक ही रूपों का बयान नहीं किया जा सकता। मैं क्या कह के उनके बारे में कोई विचार रखूँ?।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |