श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 423 तीनि गुणा तेरे जुग ही अंतरि चारे तेरीआ खाणी ॥ करमु होवै ता परम पदु पाईऐ कथे अकथ कहाणी ॥३॥ पद्अर्थ: जुग अंतरि = जगत में। खाणी = उत्पत्ति का श्रोत (अण्डज, जेरज, सेतज, उतभुज)। करमु = बख्शिश। परम पदु = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था। कथे = कहता है। अकथ = जिसका स्वरूप बयान ना किया जा सके।3। अर्थ: हे प्रभु! इस जगत में (माया के) तीन गुण तेरे ही पैदा किए हुए हैं। (जगत उत्पत्ति की) चारों खाणियां तेरी ही रची हुई हैं। तेरी मेहर हो तब ही सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल हो सकती है, तब ही तेरे अकथ स्वरूप की कोई बातें कर सकता है।3। तूं करता कीआ सभु तेरा किआ को करे पराणी ॥ जा कउ नदरि करहि तूं अपणी साई सचि समाणी ॥४॥ पद्अर्थ: को पराणी = कोई जीव। जा कउ = जिस पर। साई = वही जीव-स्त्री। सचि = सदा स्थिर नाम में।4। अर्थ: हे प्रभु! तू सारी सृष्टि का रचनहार है, सारा जगत तेरा ही पैदा किया हुआ है, तेरे हुक्म के बिना कोई जीव कुछ नहीं कर सकता। जिस जीव-स्त्री पे तू मेहर भरी नजर करता हैवह तेरे सदा-स्थिर नाम में लीन रहती है।4। नामु तेरा सभु कोई लेतु है जेती आवण जाणी ॥ जा तुधु भावै ता गुरमुखि बूझै होर मनमुखि फिरै इआणी ॥५॥ पद्अर्थ: जेती = जितनी भी। आवण जाण = जनम मरण में पड़ी हुई दुनिया। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाली सृष्टि। इआणी = मूर्ख।5। अर्थ: हे प्रभु! जितनी भी आवागवन में पड़ी हुई सृष्टि है इसमें हरेक जीव (अपनी ओर से) तेरा ही नाम जपता है, पर जब तुझे अच्छा लगता है गुरु की शरण पड़ा हुआ ही कोई जीव (इस भेद को) समझता है। अपने मन के पीछे चलने वाली अन्य मूर्ख दुनिया तो भटकती ही फिरती है।5। चारे वेद ब्रहमे कउ दीए पड़ि पड़ि करे वीचारी ॥ ता का हुकमु न बूझै बपुड़ा नरकि सुरगि अवतारी ॥६॥ पद्अर्थ: ता का = उस (परमात्मा) का। बपुड़ा = बिचारा। नरकि = नर्क में। सुरगि = स्वर्ग में। अवतारी = टिका रहा।6। अर्थ: (हे भाई! ब्रहमा इतना बड़ा देवता माना गया है, कहते हैं परमात्मा ने) चारों वेद ब्रहमा को दिए (ब्रहमा ने चारों वेद रचे, वह इन को) बार-बार पढ़के इनकी ही विचार करता रहा। वह बिचारा ना ये समझ सका कि प्रभु का हुक्म मानना ही जीवन-राह है, वह नर्क-स्वर्ग की विचारों में टिका रहा।6। जुगह जुगह के राजे कीए गावहि करि अवतारी ॥ तिन भी अंतु न पाइआ ता का किआ करि आखि वीचारी ॥७॥ पद्अर्थ: जुगह जुगह = अनेक जुगों के। कीए = बनाए, पैदा किए। गावहि = (लोग उन्हें) सालाहते हैं। करि = मान के।7। अर्थ: (हे भाई! परमात्मा ने राम-कृष्ण आदि) अपने-अपने युगों के महापुरख पैदा किए, लोग उन्हें (परमात्मा का) अवतार मान के सलाहते आ रहे हैं। उन्होंने भी उस परमात्मा के गुणों का अंत ना पाया। (मैं बिचारा क्या हूँ?) मैं क्या कह के उसके गुणों का विचार कर सकता हूँ?।7। तूं सचा तेरा कीआ सभु साचा देहि त साचु वखाणी ॥ जा कउ सचु बुझावहि अपणा सहजे नामि समाणी ॥८॥१॥२३॥ पद्अर्थ: सचा = सदा कायम रहने वाला। साचा = सदा स्थिर प्रभु का रूप। साचु = सदा स्थिर नाम। सहजे = सहज ही, आत्मिक अडोलता में। नामि = नाम में।8। अर्थ: हे प्रभु! तू सदा कायम रहने वाला है, तेरा पैदा किया हुआ जगत तेरी सदा-स्थिर हस्ती का स्वरूप है। अगर तू खुद (अपने नाम की दाति) दे, तो ही मैं तेरा सदा-स्थिर नाम उचार सकता हूँ। हे प्रभु! जिस मनुष्य को तू अपना सदा-स्थिर नाम जपने की सूझ बख्शता है वह मनुष्य आत्मिक अडोलता में टिक के तेरे नाम में लीन रहता है।8।1।23। आसा महला ३ ॥ सतिगुर हमरा भरमु गवाइआ ॥ हरि नामु निरंजनु मंनि वसाइआ ॥ सबदु चीनि सदा सुखु पाइआ ॥१॥ पद्अर्थ: भरमु = भटकना। निरंजनु = (निर+अंजन) माया की कालिख से रहित। मंनि = मन में। चीन्हि = परख के।1। अर्थ: (हे भाई!) गुरु ने मेरी भटकना समाप्त कर दी है, निर्लिप प्रभु का नाम मेरे मन में बसा दिया है, जब मैं गुरु के शब्द को पहचान के (शब्द की कद्र समझ के) सदा टिके रहने वाला आत्मिक आनंद ले रहा हूँ।1। सुणि मन मेरे ततु गिआनु ॥ देवण वाला सभ बिधि जाणै गुरमुखि पाईऐ नामु निधानु ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मन = हे मन! ततु = अस्लियत। बिधि = हालत। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। निधानु = खजाना।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मन! (परमात्मा के बारे में ये) सच्चाई सुन (ये) जानने की बात सुन- वह सारे पदार्थ देने की सामर्थ्य वाला परमात्मा हरेक ढंग जानता है। (सारे सुखों का) खजाना (उसका) नाम गुरु की शरण पड़ने से मिलता है।1। रहाउ। सतिगुर भेटे की वडिआई ॥ जिनि ममता अगनि त्रिसना बुझाई ॥ सहजे माता हरि गुण गाई ॥२॥ पद्अर्थ: भेटे = मिले। जिनि = जिस (गुरु) ने। ममता = अपनत्व। सहजे = आत्मिक अडोलता में।2। अर्थ: (हे मेरे मन!) गुरु को मिलने (से पैदा हुई) आत्मिक उच्चता (की बात सुन) कि उस गुरु ने (जिस मनुष्य की) अपनत्व दूर कर दी तृष्णा की आग बुझा दी, वह मनुष्य आत्मिक अडोलता में मस्त रह के परमात्मा की महिमा के गीत गाता रहता है।2। विणु गुर पूरे कोइ न जाणी ॥ माइआ मोहि दूजै लोभाणी ॥ गुरमुखि नामु मिलै हरि बाणी ॥३॥ पद्अर्थ: जाणी = जानता। मोहि = मोह में।3। अर्थ: (हे मेरे मन!) गुरु को मिले बिना कोई मनुष्य (प्रभु के बारे में तत्व-ज्ञान) नहीं जान सकता (क्योंकि गुरु की शरण पड़े बिना) मनुष्य माया के मोह में और ही लोभों में फसा रहता है। गुरु की शरण पड़े रहने पर ही नाम मिलता है, प्रभु की महिमा की वाणी (की कद्र) पड़ती है।3। गुर सेवा तपां सिरि तपु सारु ॥ हरि जीउ मनि वसै सभ दूख विसारणहारु ॥ दरि साचै दीसै सचिआरु ॥४॥ पद्अर्थ: तपां सिरि = सारे तपों के सिर पर। सारु = श्रेष्ठ। मनि = मन में। दरि = दर पे। सचिआरु = सही रास्ते पर।4। अर्थ: (हे मेरे मन!) गुरु की बताई सेवा सबसे श्रेष्ठ तप है। सारे दुख दूर करने वाला परमात्मा (गुरु की कृपा से ही) मन में आ बसता है, और मनुष्य सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा के दर पर सुर्ख-रू दिखता है।4। गुर सेवा ते त्रिभवण सोझी होइ ॥ आपु पछाणि हरि पावै सोइ ॥ साची बाणी महलु परापति होइ ॥५॥ पद्अर्थ: आपु = अपने आत्मिक जीवन को। महलु = प्रभु चरणों में निवास।5। अर्थ: (हे मेरे मन!) गुरु की बताई सेवा की इनायत से तीनों भवनों में व्यापक परमात्मा की सूझ प्राप्त होती है और वह मनुष्य अपना आत्मिक जीवन पड़ताल के परमात्मा को मिल लेता है। सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा की महिमा की वाणी की इनायत से उसे परमात्मा के चरणों में जगह मिल जाती है।5। गुर सेवा ते सभ कुल उधारे ॥ निरमल नामु रखै उरि धारे ॥ साची सोभा साचि दुआरे ॥६॥ पद्अर्थ: ते = साथ। उधारे = विकारों से बचा लेता है। उरि = हृदय में। साचि दुआरे = सदा स्थिर दर पर।6। अर्थ: (हे मेरे मन!) गुरु की बताई सेवा का सदका मनुष्य अपनी सारी कुलों को भी बिकारों से बचा लेता है, मनुष्य परमात्मा के पवित्र नाम को अपने हृदय में टिकाए रखता है, उसको सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के दर पर सदा टिकवीं बड़ाई मिल जाती है।6। से वडभागी जि गुरि सेवा लाए ॥ अनदिनु भगति सचु नामु द्रिड़ाए ॥ नामे उधरे कुल सबाए ॥७॥ पद्अर्थ: जि = जो। गुरि = गुरु ने। अनदिनु = हररोज। कुल = खानदान। सबाए = सभी।7। अर्थ: (हे मेरे मन!) उन मनुष्यों को बहुत भाग्यशाली (समझो) जिन्हें गुरु ने परमात्मा की सेवा-भक्ति में जोड़ दिया। गुरु उनके हृदय में हर वक्त परमात्मा की भक्ति और सदा-स्थिर नाम का स्मरण पक्का कर देता है। (हे मन!) हरि-नाम की इनायत से, उनके सारे कुल भी विकारों से बच जाते हैं।7। नानकु साचु कहै वीचारु ॥ हरि का नामु रखहु उरि धारि ॥ हरि भगती राते मोख दुआरु ॥८॥२॥२४॥ पद्अर्थ: नानकु कहै = नानक कहता है। साचु = अटल। धारि = टिका के। मोख दुआर = मुकती का दरवाजा।8। अर्थ: (हे भाई!) नानक (तुझे) अटल (नियम की) विचार बताता है (और वह विचार ये है कि) परमात्मा का नाम सदा अपने हृदय में टिकाए रख। जो मनुष्य परमात्मा की भक्ति (के रंग) में रंगे जाते हैं उनको (विकारों से) खलासी पाने का दरवाजा मिल जाता है।8।2।24। आसा महला ३ ॥ आसा आस करे सभु कोई ॥ हुकमै बूझै निरासा होई ॥ आसा विचि सुते कई लोई ॥ सो जागै जागावै सोई ॥१॥ पद्अर्थ: आसा आस करे = आशाएं ही आशाएं बनाता है। सभ कोई = हरेक जीव। निरासा = आशाओं से स्वतंत्र। लोई = लोग। सोई = वह स्वयं ही।1। अर्थ: (हे भाई! दुनिया में) हरेक जीव आशाएं ही आशाएं बनाता रहता है। जो मनुष्य परमात्मा की रजा को समझ लेता है वह आशाओं के जाल में से निकल जाता है। (हे भाई!) बेअंत दुनिया आशाओं (के जाल) में (फंस के माया के मोह की नींद में) सो रही है। वही मनुष्य (इस नींद में से) जागता है जिस को (गुरु की शरण में ला के) परमात्मा स्वयं जगाता है।1। सतिगुरि नामु बुझाइआ विणु नावै भुख न जाई ॥ नामे त्रिसना अगनि बुझै नामु मिलै तिसै रजाई ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सतिगुरि = गुरु ने। नामे = नाम से ही। तिसै रजाई = उस परमात्मा की रजा से ही।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई! माया की) तृष्णा की अग्नि परमात्मा के नाम से ही बुझती है, ये नाम उस मालिक की रजा के अनुसार मिलता है (गुरु के द्वारा)। गुरु ने (जिस को) हरि-नाम (स्मरणा) सिखा दिया (उसकी माया वाली भूख मिट गई)। (हे भाई!) हरि-नाम के बिना (माया वाली) भूख दूर नहीं होती।1। रहाउ। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |